सत्य सिर्फ वह नही है,जो हम देखते हैं, जो हम मानते हैं! गोकि अस्तित्व के विस्तार ने सत्य का ठेका किसी एक को नही दिया है ! जिस तरह कोई पक्षी कभी इस पेड़ पर कभी उस पेड़ पर,कभी इस डाल पर, कभी उस डाल पर बैठ जाता है, इसी तरह मानव इतिहास में सत्य रूपी पक्षी कभी *भारतीय आस्तिक दर्शन रूपी वटवृक्ष* पर कभी नास्तिक चार्वाकीय कटीली झाड़ियों पर और कभी अनीश्वरवादी सांख्य,योग, श्रमण दर्शनों की भदेश किंतु मजबूत शाखाओं पर विश्राम करता रहा,विहार करता रहा!
ऐंसा भी नही है कि सत्य का ठेका सिर्फ भारतीय दर्शनों की बपौती रहा हो! दरसल मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन को छोड़कर दुनिया के बाकी सभी दर्शन ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार करते हैं! इसीलिये जिन आस्तिक दर्शनों में प्रभू की मर्जी के बिना पत्ता नही डुलता,वे तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों और लोकतंत्रात्मक विकास में फिसड्डी रहे! क्योंकि आस्तिक दर्शनों में सब कुछ ईश्वर पर आश्रित है !
जबकि यूनानी और परिवर्ती हीगेलियन इत्यादि पाश्चात्य दर्शनों का मनुष्य या तो ईश्वर से स्वतंत्र रहा है या मानव को समाज के अमानवीय बंधनों से छुटकारा पाना था!इसी बजह से सुकरात,प्लेटो,अरस्तु, एपिक्युरस,यूक्लिड पाइथागोरस,गेलीलियो कोपरनिक्स,नीत्से,फ्रांसीसी क्रांति के जनक रूसो और ग्रेट ब्रिटेन के मेग्नाकार्टा बनाने वालों को किसी गॉड, ईश्वर या उसके ऐजेंट्स पोप की मदद का इंतजार नहीं करना पड़ा !
जिन कारणों से मनुष्य स्वार्थी और हैवान बना, जिन आविष्कारों से धरती की जीवन्तता को खतरा बढ़ा ,जिन-जिन कारणों से जल-जंगल -जमीन का क्षरण हुआ ,जिन रीति रिवाजों से सामाजिक विषमता और निर्धनता बढ़ी, जिन कारणों से एक ताकतवर-बदमाश व्यक्ति दूसरे कमजोर और सचरित्र मनुष्य का शोषण-उत्पीड़न करता है ,जिन कारणों से इस दुनिया में युद्ध ,महायुद्ध और तथाकथित धर्मयुध्द लड़े जाते रहे ,जिस वजह से भाई-भाई में भी बैरभाव उत्पन्न हो जाता है ,उसे पुराणों में भय लोभ लालच अज्ञान और भोगलिप्सा कहते हैं!
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