बड़े आश्चर्य की बात है कि वैदिक मन्त्रदृष्टा ऋषियों ने हजारों साल पहले इस जम्बूद्वीप बनाम भरतखण्ड अर्थात भारतवर्ष बनाम आर्यावर्त में 'अन्तराष्टीयतावाद' का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। उपनिषद का यह कथन दृष्टव्य है:-
सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग्वेत।
चन्द्रगुप्त मोर्य के कार्यकाल में इस भूभाग पर जब यूनानी और पर्सियन आक्रमण हुए तब पहली बार आचार्य चाणक्य द्वारा 'राष्ट्र' और 'राष्ट्रभक्ति' शब्द का प्रयोग किया गया । दरसल 'राष्ट्रभक्ति' शब्द का जन्म 'राष्ट्रराज्य' की स्थापना के निमित्त ही हुआ है। भारतीय उपमहाद्वीप के लिए 'देशभक्ति' मूल रूप से एक पाश्चात्य धारणा है।
जिस किसी व्यक्ति की सामाजिक ,जातीय धार्मिक और राष्ट्रीय चेतना सिख गुरुओं की बाणी ''मानुष की जात सबै एकहु पहिचानवै ''के स्तर की है ,जिस किसी ने उपनिषद मन्त्रदृष्टा ऋषियों के ''एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति' को हृदयगम्य किया है , जिसने बुद्ध महावीरके अमरसन्देश 'सम्यक दर्शन' के स्तर को छूआ है, और जिस बन्दे ने दकियानूसी घटिया अंधराष्ट्रवाद से ऊपर उठकर 'सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद'' के उच्चतर सोपानको पायाहै ऐसा व्यक्ति ही सच्चा राष्ट्रवादी हो सकता है। ऐसा व्यक्ति न केवल अपने देश का सर्वश्रेष्ठ नागरिक होगा, बल्कि मानव मात्र का सच्चा बंधु भी वही होगा। मानवीय मूल्यों का सच्चा संवाहक भी वही हो सकता है।
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