रविवार, 2 अक्टूबर 2022

तेल जरे बाती जरे, नाम दिया का होय!

 कल शाम कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर जितना भाजपा वाले परेशान दिख रहे थे, उससे ज्यादा एक टीवी चैनल की वरिष्ठ पत्रकार महोदया, उससे कई गुना ज्यादा इंटरेस्ट लेकर मर्यादा का गरेबां तोड़ती नजर आ रहीं थीं!वार्ता में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष को भी कहना पड़ा कि टीवी एंकर को भाजपा प्रवक्ता बनकर पेश नही आना चाहिए! तभी बचपन में किसी से सुना एक लोक मुहावरा अचानक मेरे मुँह से निकल पड़ा :-

तेल जरे बाती जरे, नाम दिया का होय!
लल्ला खेलें काऊ के, नाम पिया का होय!!
ये कांग्रेस पार्टी का अपना अंदरूनी मामला है, कोई प्रधानमन्त्री का चुनाव नही है, जिसके लिये गांधी नेहरु परिवार की सात पुश्तों की खबर पेश की जाए!
दरसल बुंदेलखंड में 60-70 साल पहले,किसी गंभीर
विषय पर हस्तक्षेप आजकल की तरह सीधे सीधे नही किया जाता था! अहाने, केबत, कहावत, मुहावरे, दोहा,चौपाई और लोकोक्ति से ही सारा लोकाचार संपन्न हुआ हरता था! इनमें संस्कृत,बृज,अवधि पालि, प्राकृत, राजस्थानी इत्यादि भाषाओं का लोकसाहित्य संपन्न है !
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