दुनिया का तो पता नहीं किन्तु भारत के संदर्भ में अवश्य कई प्रकार का इतिहास पढ़ने सुनने में आता है. एक इतिहास वह जो हमेशा सत्तासीन शासकों द्वारा अपनी स्तुति या प्रशंसा कराने एवं सत्ता में बने रहने के निमित्त लिखा गया अथवा लिखवाया गया.ऐंसा इतिहास ईसा पूर्व आक्रमणकारी कुछ यूनानियों ने लिखा।उन्होंने कुछ हद तक ईमानदारी वर्ती और तत्कालीन भारत की खामियों के साथ साथ इसका अप्रतिम वैभव सम्पन्नता का भी सांगोपांग वर्णन किया हैं. दूसरा इतिहास वह है जो मध्ययुग में भारत पर हमला करने वाले खूंखार गजनवियों,तुर्कों,खिलजियों,अफगानों और मुगलों ने शिद्दत से केवल खुद का और अपने कबीलों के यशोगान के रूप में लिखवाया . तीसरी तरह का इतिहास अंग्रेजों और तमाम तिजारती यूरोपियनों ने भारत की बदतर तस्वीर पेश करते हुए और ईसाइयत एवं विजेताओं को भारत का उद्धारक बताने वाला तथा हिन्दू मुस्लिम के भेद को बढ़ाने वाला इतिहास लिखाया। आजादी के बाद सत्ताधारी कांग्रेसके प्रभाव में चौथा इतिहास जो पूर्ववर्ती शासकों के इतिहास पर आधारित था और जो अधिकतर शासकों की पसंद का आभासी इतिहास लिखवाया जाता रहा है। पांचवां इतिहास वह है जो अधिकांश काल्पनिक है,भारतीय सभ्यता विरोधी है और जातीयतावादी नजरिये से लिखा गया है। इसी तरह दक्षिणपंथी पुराणपंथी पौंगापंथी लोग भी मिथकों को इतिहास मानकर बड़े बड़े पोथे छापते रहते हैं.इसी तरह कुछ कुपढ़ और भारतीय गौरव से चिढ़ने वाले स्वयंभू प्रगतिशील लोग भी वैज्ञानिक नजरिये के बहाने केवल अंग्रेजों,मुगलों और विदेशी हमलावरों के तवारीखी रुक्कों को इतिहास बताकर अपना मजाक उड़वाते रहते है.दरसल भारत का असली इतिहास लिखा जाना अभी बाकी है.
वेशक आर्य भारतीय ही थे,यदि बाहर से आये होते तो दक्षिण एशिया में स्थित विशाल भूभाग-पूर्व में इंडोनेशिया से लेकर पश्चिम में इराक तक और उत्तर में उलानबटोर से लेकर दक्षिण में गोदावरी तक के भूभाग को 'आर्यावर्त' क्यों कहा जाता ? जब फारसियों,तुर्कों ने सिंधु के उस पार का इलाका जीत कर अलग देश बना लिए तब सिंद्धु के पूर्व का भूभाग 'हिँदुस्तान' कहलाया। और सिंधु के पश्चिम में स्थित भूभाग को जो पहले पर्शिया कहा जाता था,वो ईरान कहा जाने लगा। कालांतर में उत्तर के आर्यों ने और दक्षिण के द्रविङोँ ने साझा संस्कृति और सभ्यता विकसित की जो सनातन परम्परा और हिन्दू धर्म के रूप में जानी गई और जो आज भी विद्यमान है। आदि शंकराचार्य ने तो सिर्फ धार्मिक आधार पर 'एक भारत' का निर्माण किया था,जबकि अंग्रेजों ने पूरे दक्षिण एशिया में एक सिक्का चलाकर ,सम्राट अशोक के जमाने का अखंड भारतवर्ष पुन:जीवित किया।
वास्तव में अतीत के बनते बिगड़ते राष्ट्रों में इस भूभाग में आर्यों से लेकर लेकर शक,हुँण,कुषाण,पिंडारी,तातार कोई भी विदेशी नहीं था,सिवाय अरबौं और यूनानियों के। मध्य युग में १६ वीं सदी में यूरोपियन्स आये जो शुद्ध विदेशी थे. किन्तु ईसापूर्व के हमलावर विदेशियों से पृथक ये यूरोपियन मानों अपने दांतों में जैतून की पत्ती दबाकर भारतवर्ष/हिन्दुस्तान आये ! व्यापर करते करते ये विदेशी गोरे बाद में मुल्क के मालिक हो गए.जबकि ईसापूर्व आये यूनानी यवन भारत में शक हूँणकुषाणों की तरह खप गए। चूँकि वे भारत के उत्तर पश्चिम में बसे और खपे सो उन्होंने अपनी पहचान बनाये रखने के लिए 'खापों' का अनुशीलन जारी रखा।
सातवीं -आठवीं शताब्दी में भारत पर हमला करने वाले तुर्क,अफगान,उजबेग तथा मंगोल इत्यादि तो पूर्ववर्ती अखंड भारत के ही हिस्से थे किन्तु इजिप्शन और अरबी मुसलमान शुद्ध विदेशी हमलावर थे।बुरी तरह खंड खंड भारत को उस समय विजित करना इन बर्बर विदेशी मुसलमानों के लिए तब बहुत सरल था जब यहाँ का आम नागरिक और हरएक राजा 'बुद्धं शरणम् गच्छामि' और 'अहिंसा परमोधर्म:'का मंत्रजाप कर रहा था।
वैसे भारत चाहे अखंड रहा हो या खंड-खंड अशोक और कनिष्क के बाद किसी ने भारत से बाहर जाकर आक्रमण नहीं किया। बाहरी ताकतों द्वारा भारत पर आक्रमण और इसकी दर्दनाक पराजयों का इतिहास बहुत पुराना है। कनिष्क के बाद के इतिहास में भारत हमेशा हारता रहा। सिकंदर आदि यवनों ने पश्चिमी भारत पर हमला किया,भारत विकलांग हुआ। शक हूँण कुषाण बार बार हमला करते गए और कुछ लूटकर चले गए ,किन्तु अधिकांश यहीं रम गए.. भारतीय सभ्यता और संस्कृति में घुल मिल गए। किन्तु इनके बाद आये बर्बर हमलावर मुहम्मद बिन कासिम,मेहमूद गजनबी,मुहम्मद गौरी के वंशज-तुर्क गुलाम,खिलजी,सैय्यद, उजबेग, तातार ,कज्जाक,कुरैश,अफगान ,पठान और मंगोल[मुग़ल] सभी एक के बाद एक इस भारत भूमि को रौंदकर ,लूटकर,मंदिरों को जलाकर,जनता को रुलाकर भारत को गुलाम बनाकर यहीं डट गए। दुनिया जिस धरती को सोने की चिड़िया कहती थी ,उसे इन दरिंदों ने बूचड़खाना बना डाला.
हर्षवर्धन के मरणोपरांत भारत खंड खंड अवष्य हो गया था,किन्तु तत्कालीन भारत की समृद्धि को देख सुन कर ही विदेशी हमलावर और मध्य पूर्व के खूँखार बर्बर कबीले पश्चिमी भारत पर बार बार हमले करते रहे.वे जनता और पराजित राजाओं का सर्वस्व लूटकर ही संतुष्ट नहीं हुए. बल्कि भारतीय समाजों की सहनशीलता, करुणा और उदारता जैसी महानतम मानवीय मूल्यवत्ता को एवं शैक्षणिक आध्यात्मिक संस्थानों को बर्बाद करते रहे । तत्कालीन भारतीय समाज भारत भूमि को 'स्वर्गादपि गरीयसी' मानकर आत्ममुग्ध था. बाह्य हमलों से तो वह परिचित था,किन्तु उसे यह अंदाज नहीं था की भारत के बाहर अहिंसा,करुणा,जीवदया और मानवता जैसे मूल्यों का कोई मोल नहीं है। बाह्य हमलावर सिर्फ लूट,हत्या,व्यभिचार और पाशविक प्रवृत्ति से संचालित थे। जिस देश से कभी सिकंदर गीता और पवित्र गंगाजल मेसोपोटामिया ले गया,उस भारत भूमि के समाज को सब कुछ लुट जाने पर भी होश नहीं आया कि अहिंसा तभी तक ठीक है जब तक कोई हमला न करे।
तत्कालीन भारतीय समाज-शासक और शासित,राजा प्रजा प्राय:सभी धर्म अध्यात्म की अनुत्पादक बहस में उलझे थे. उन्हें रंचमात्र गुमान नहीं था कि असभ्य दुनिया में खूँखार बर्बर शैतानी कबीलाई लुटेरों ने मजहब के नाम पर एशिया,यूरोप और अफ्रीका को लील लिया है.अतीत में जिस देश को सोने की चिड़िया कहा जाता था, जहाँ से स्वयं सिकंदर गीता,गंगाजल और गुरु ले जाने के लिए मरते दम तक लालायित रहा,उस महान भारत भूमि की नदियों का पानी यायावर हमलावरों ने लाल कर दिया। साधु,संत,गुरु,योगी और शिक्षक मार दिए गए.नालंदा,तक्षशिला और काशी विद्यापीठ जला दिये गए। चूँकि धर्म कर्मकांड के क्षेत्र में अधिकांश ब्राह्मण ही हुआ करते थे,अतः क्षत्रिओं के बाद अधिकांश ब्राह्मण ही मारे गए। तैमूर लंग,अहमदशाह अब्दाली,मुहम्मद बिन कासिम,मेहमूद गजनबी ,मोहम्मद गौरी और बाबर जैसे बर्बर दरिंदों ने पश्चिमोत्तर भारत को अनेक बार लहूलुहान किया। इस्लामिक खुरेन्जियों के आक्रमण से भारतीय उपमहाद्वीप में जो रक्त से नहाये मजहबी जलजले आये,वे हिरोशिमा नागासाकी से भी बदतर थे।
भारत के राजनैतिक असंगठित रूप ने भले हथियार डाल दिए हों,किन्तु किसानों,मजदूरों और साधु,संत महात्माओं ने इस्लामिक आक्रमणों का प्रबल विरोध किया,निरंतर होना वाले बर्बर आक्रमणों के खिलाफ जनता के संघर्ष जारी रहे !
१६ वीं सदी के अंतिम दिनों में व्यापारी के वेश में समुद्री रस्ते से पुर्तगीज,स्पेनिष,डच,फ्रेंच और अंग्रेज इत्यादि यूरोपियन भारत आये।वास्कोडिगामा भले अरब सागर के रस्ते भारत आया,किन्तु उससे पहले ग्रेट ब्रिटेन का राजदूत 'सर थामस रो' पहला अंग्रेज था ,जो जहांगीर के दरबार में ब्रिटेन की ओर से उपस्थित हुआ। वह अंग्रेज व्यापारियों के लिए अधिकार पत्र हासिल करने में सफल रहा.तदुपरांत अंग्रेजों ने जब मद्रास, कलकत्ता इत्यादि तटीय नगरों में व्यापारिक कोठियां बनाईं और पुर्तगाल से मुंबई दहेज़ में हासिल किया तो अंग्रेजों की भारतीय उपमहाद्वीप पर पकड़ मजबूत होती चली गई ! ऐयास मुग़ल बादशाहों और नबाबों ने भी हथियार डाल दिए और शीघ्र ही अंग्रेजों को भारत की लूट का साझीदार बना लिया। बाद में वे अंग्रेजों के हाथों गुलाम होते चले गए।
चूँकि देशी राजे राजवाड़े और मुस्लिम नबाब एक दूसरे को फूटी आँखों नहीं देख सकते थे,अतः रात दिन एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र करते रहते थे,यह स्थिति अंग्रेजों के लिए बहुत अनुकूल थी की वे खण्ड खण्ड भारत को अपने पैरों तले रौंद सकें और भारत की सकल सम्पदाविलायत भेज सकें। यूरोप में आपस में लड़ने वाले देश भारत में एकजुट होकर लूट मचाते रहे और भारतीय समाज की जड़ों में आपसी फूट का मठ्ठा डालते रहे। मुगल बादशाहों-नबाबों की ऐयाशी और हिन्दू राजाओं की निजी अहमन्यता ने भारत को अंग्रेजों के हाथों सौंप दिया और इस तरह पूरा भारतीय उपमहाद्वीप गुलाम हो गया।
ऐतिहासिक बिडंबना है की भारत में राष्ट्रवाद की भावना न होने से यहां का समाज डबल ट्रिपल गुलाम होता चला गया। जनता जमींदार की गुलाम थी,जमींदार- नबाबों या रजवाड़ों का गुलाम था.नबाब-रजवाड़े वायसराय के गुलाम थे,वायसराय ब्रिटिश सरकार के गुलाम थे और ब्रिटिश सरकार 'क्राउन ' की याने ग्रेट ब्रिटेन के सम्राट या साम्राज्ञी की गुलाम हुआ करती थी। दअरसल १९७१ से पहले के दो हजार साल का इतिहास भारत की पराजयों का और बहुगुणित गुलामी का इतिहास रहा है,यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिराजी ने *सोवियत संघ* से मैत्री न की होती और सोवियत नेताओं ने भारत के समर्थन में ५ बार वीटो इस्तेमाल न किया होता तो १९७१ में भी भारत को हार का मुँह देखना पड़ता। और बांग्ला देश बनवा पाना आसान न होता।
'१९७१ की विजय' के पहले का भारतीय इतिहास इस मुल्क की अनवरत पराजयों का इतिहास रहा है। इस दंश के लिए सिर्फ विदेशी हमलावर भुजंग ही दोषी नहीं थे,बल्कि चीटियों की तरह जिन धरतीपुत्रों ने बामी रुपी राष्ट्र का निर्माण किया,उनकी प्रमादपूर्ण जीवन शैली भी गुलामी का कारण रही है। लगभग २००० साल का इतिहास
इस भारतीय भूभाग की पराजयों का इतिहास रहा है। सवाल उठता है की ऐंसा क्यों?
भारतीय भूभाग की दीर्घ गुलामी का पहला कारण राजनैतिक था कि हर्षवर्धन के उपरान्त केंद्रीय सत्ता खत्म हो गई और यह भूभाग खंड खंड होकर अनेक रियासतों में बट गया। दूसरा कारण मजहबी था.बाहर से आने वाले हमलावर धर्म के नाम पर हिंसक कबीलोंको एकजुट करके खैबर दर्रा या सिंधु नदी पार कर पश्चिमी भारत पर हमला करते,नगरों गाँवों में लूटपाट मचाते,मंदिरों को लूटते,स्त्रियों को उठा ले जाते। तीसरा महत्वपूर्ण कारण यह था कि जब मध्य एशिया एवं यूरोप में नई नई वैज्ञानिक खोजें हो रहीं थीं,तोपें बन रहीं थीं,गोला बारूद का आविष्कार और उसका जनसंहार के लिए इस्तेमाल होने लगा था ,युद्ध की नई तकनीक ईजाद हो रही थी,तब भारतीय भूभाग पर नदियों के किनारे नंग धड़ंग बाबाओं के विशाल मेले लग रहे थे,राजाओं के पुत्र घर बार छोड़ कर हिमालय की गुफाओं में सत्य की खोज कर रहे थे,जनता जनार्दन को त्याग और अपरिग्रह सिखा रहे थे,मक्कारी और भिक्षाटन की शिक्षा दे रहे थे। ततकालीन तथाकथित स्वर्णिम के दौर की जनता खेती बाड़ी छोड़,वाणिज्य व्यापार छोड़ ,लंगोटी लगाकर,'अहिंसा परमोधर्म:' का जाप कर रहे थे.
तत्कालीन भारतीय दुरावस्था के लिए सीधे सीधे धर्मान्धता और जड़ता ही जिम्मेदार थी। सम्राट पुष्यमित्र शुंग की महाविजय और उनके द्वारा तीन अश्वमेध किये जाने के उपरान्त,विगत दो हजार सालों में भारतीय भूभाग का ऐंसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि किसी भारतीय नरेश ने भारत से बाहर एक इंच जमीन हस्तगत की हो।ऐंसा इसलिए नहीं कि तत्कालीन भारतीय सामंत,राजे रजवाड़े और सम्राट सब सम्राट अशोक की तरह प्रवज्या शील थे अथवा विश्वविजय की कामना नहीं रखते थे। बल्कि ६ठी सदी समाप्त होते होते भारतीय भूभाग पर पश्चिम से जो नए हमले होने लगे, उनके प्रतिकार के लिए दक्षिण भारत और पूर्वी भारत के राजे राजवाड़े तैयार नहीं थे।पश्चिमी सीमा पर बर्बर धर्मांध जंगखोर लुटेरे कबीलों के निरंतर आक्रमणों से वहाँ रक्षा कवच टूट गया। वेशक पूरा भारत कभी कोई विदेशी नहीं जीत पाया,किन्तु अंग्रेजों के आने के बाद शनैः शनैः पूरा भारत भौगोलिक रूप से गुलाम होता चला गया.भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर आंच अवश्य आई ,किन्तु जनमानस की निष्ठा,उत्सर्ग और गुरुकुल परम्परा ने भारत की सांस्कृतिक और चारित्रिक विरासत को काफी हद तक अक्षुण रखा.
चूँकि भारत को गुलाम बनाने वाला ग्रेट ब्रिटेन और दुनिया को गुलाम बनाने वाले यूरोपियन देश,दो विश्वयुद्धों के बाद इस स्थिति में नहीं थे कि अपने तमाम उपनिवेश यथावत कायम रख सकें,अतः मजबूरन उन्हें तमाम गुलाम राष्ट्र आजाद करने पड़े। इसी सिलसिले में १५ अगस्त १९४७ को भारत भी स्वतंत्र राष्ट्र बना। कांग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतत्व में देश की जनता ने अनेक आंदोलन चलाये। अवज्ञा आंदोलन,सत्याग्रह,नमक कानून विरोधी दांडी मार्च ,खिलाफत आंदोलन,साइमन कमीशन विरोधी आंदोलन और जलियांवाला बाग़ जैसे अनेक संघर्षों में शांतिपूर्वक कुर्बानी से इस मुल्क को आजाद कराने में बड़ी मदद मिली। 'आजाद हिन्द फौज' और 'हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' जैसे संगठनों और उनके नेताओं की शहादत भी बेकार नहीं गई।
वेशक अनेक अनगिनत कुर्बानियों की कीमत पर भारत को आजादी मिली,किन्तु अंग्रेजों की क्रूर दुरभिसंधि मुस्लिम लीग और कुछ जातिवादी नेताओं की गद्दारी से मुल्क का बटवारा हो गया। भारत पकिस्तान दो मुल्क बनाकर अंग्रेज यहां से विदा हो गए।सिर्फ जमीन का बटवारा नहीं हुआ,भारतीय आत्मा का भी बटवारा हो गया। मुस्लिम लीग और हिंदूवादी संगठनों ने आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं दिया। महात्मा गाँधी ,पंडित मोतीलाल नेहरू,पंडित मदनमोहन मालवीय,पंडित गोविन्दवल्ल्भ पंत,लोकमान्य बल गंगाधर तिलक,लाला लाजपत राय,विपिनचंद पाल,आसफ अली,सीमान्त गाँधी अब्दुल गफ्फार खान,पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुउल्ला खान, सआदत खान,मौलाना आजाद,भगतसिंग ,चंद्रशेखर आजाद,सुखदेव राजगुरु,पंडित जवाहरलाल नहरू,सरदार पटेल,डॉक्टर राजेंद्रप्रसाद,सर्वपल्ली राधाकृष्णन,महाकवि सुब्रमण्यम भारती और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे अनेक हुतात्मओं की बदौलत यह आधी अधूरी आजादी मिल सकी थी।
स्वाधीनता संग्राम के दौरान आंदोलनकारी जनता और नेतत्व करने वालों को अंग्रेजों की लाठी गोली खाना, दमन उत्पीड़न भोगना और जेल जाना तो आम बात थी,किन्तु इस संघर्ष में असल चीज थी भीतरघात याने गद्दारी! १९३१-३२ के दरम्यान लंदन में संपन्न गोलमेज कांफ्रेंस के दौरान जब महात्मा गाँधी ने देखा कि बेमन से ही सही,किन्तु अंग्रेज सशर्त आजादी देने को तैयार हैं। चूँकि अंग्रेजों ने जाति मजह्ब के आधार पर भारत के कई जयचंद अपने जाल में फंसा लिए हैं,तब गांधीजी ने गोलमेज कॉन्फ्रेंस से वॉक आऊट कर दिया। और भारत आकर कांग्रेस से लगभग संन्यास ही ले लिया। अंग्रेजों की गोद में बैठने वालों में मिस्टर जिन्ना सहित वे सभी नेता थे जो साम्प्रदायिकता और जातिवादी राजनीति के जनक माने जा सकते हैं। उन्हीं के बिषैले सपोले अभी भी भारतीय उपमहाद्वीप में आग मूत रहे हैं।
स्वाधीनता संग्राम की गंगा जमुनी तहजीब के बावजूद आजादी से पूर्व भारत का विभाजन न केवल शर्मनाक बल्कि धर्मनिरपेक्षता पर धर्मान्धता की विजय का सूचक भी है। उसकी वजह से भारत में अमानवीय साम्प्रदायिक हिंसा और उस पर आधारित डर्टी पॉलिटिक्स का सिलसिला ७२ साल बाद मुसलसल कायम है.