बीघे , दो बीघे ज़मीन पर
कट्ठे - कट्ठे पुट्ठा जोता
पाँच जने का खून - पसीना
जलकर भी है कितना होता
एक साँझ भोजन पर जीना
रोज़गार दो - चार महीना
सूद - मूर में गर्दन फँस कर
साँप-छछूँदर हाल हो गया
मुखिया मालामाल हो गया ...
अम्मा की सूनी सी आँखें
बहना की साँसों पे सलाखें
बेटा निर्वासन को निकला
रहे सलामत चूल्हा - चकला
अब्बा कौड़ी - कौड़ी जोड़ें
सपने देखें , आँखें फोड़ें
छत ताकें ' इंदिरा ' को टकटकी
पेट ' जवाहरलाल ' हो गया
मुखिया मालामाल हो गया ....
आधे साल है सूखा भाई
आधी बाढ़ ने कसर पुराई
अपनी गत-दुर्गत की कहानी
भीतर बंजर , आँख में पानी
रेंक रहे सावन के अंधे
हरे- भरे सब गोरखधंधे
अपना तो हर साल , महीना
' तीसा का बंगाल ' हो गया
मुखिया मालामाल हो गया ...
कोयल की अब कूक नहीं है
खलिहानों पर भूख तनी है
अमराई में शोर मचा है
यहाँ भी आदमखोर बसा है
फैला तन-मन कीचड़ -कादो
हर मौसम लगता है भादो
ऐसा मचा अंधेर कि -
नुचकर हाड़-हाड़ कंकाल हो गया
मुखिया मालामाल हो गया ...
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