ईशावास्यमिदं यत्किंचित जगत्याम् जगत,
तेन त्यक्तेन भूंजींथा मा कस्य विद धनम्"
-ईशावास्योपनिषद
अर्थात- *जिसने भोगा ही नहीं है, वह त्याग कैसे करेगा? और जिसके पास है ही नहीं, वह छोड़ेगा क्या और कैसे?*
एक यहूदी फकीर हुआ बालसेन। एक दिन एक धनपति उससे मिलने आया। वह उस गांव का सबसे बड़ा धनपति था, यहूदी था। और बालसेन से उसने कहा कि कुछ शिक्षा मुझे भी दो। मैं क्या करूं?
बालसेन ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा, वह आदमी तो धनी था लेकिन कपड़े चीथड़े पहने हुए था। उसका शरीर रूखा-सूखा मालूम पड़ता था। लगता था, भयंकर कंजूस है। तो बालसेन ने पूछा कि पहले तुम अपनी जीवन-चर्या के संबंध में कुछ कहो। तुम किस भांति रहते हो? तो उसने कहा कि मैं इस भांति रहता हूं जैसे एक गरीब आदमी को रहना चाहिये। रूखी-सूखी रोटी खाता हूं। बस नमक, चटनी और रोटी से काम चलाता हूं। एक कपड़ा जब तक जार-जार न हो जाए तब तक पहनता हूं। खुली जमीन पर सोता हूं, एक गरीब साधु का जीवन व्यतीत करता हूं।
बालसेन एकदम नाराज हो गया और कहा, नासमझ! जब भगवान ने तुझे इतना धन दिया तो तू गरीब की तरह जीवन क्यों बिता रहा है? भगवान ने तुझे धन दिया ही इसलिए है कि तू सुख से रह, ठीक भोजन कर। खा कसम कि आज से ठीक भोजन करेगा, अच्छे कपड़े पहनेगा, सुखद शैया पर सोयेगा, महल में रहेगा।
धनपति भी थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि मैंने तो सुना है कि यही साधुता का व्यवहार है। पर बालसेन ने कहा कि मैं तुझसे कहता हूं कि यह कंजूसी है, साधुता नहीं है। काफी समझा-बुझाकर कसम दिलवा दी। वह आदमी जरा झिझकता तो था, क्योंकि जिंदगी भर का कंजूस था। जिसको वह साधुता कह रहा था वह साधुता थी नहीं, सिर्फ कृपणता थी। लेकिन लोग कृपणता को भी साधुता के आवरण में छिपा लेते हैं। कृपण भी अपने को कहता है कि मैं साधु हूं इसलिए ऐसा जीता हूं। पर बालसेन ने उसे समझा-बुझाकर कसम दिलवा दी।
जब वह चला गया तो बालसेन के शिष्यों ने पूछा कि यह तो हद्द हो गई। उस आदमी की जिंदगी खराब कर दी। वह साधु की तरह जी रहा था। और हमने तो सदा यही सुना है कि सादगी से जीना ही परमात्मा को पाने का मार्ग है। यही तुम हमसे कहते रहे। और इस आदमी के साथ तुम बिलकुल उल्टे हो गये। क्या इसको नरक भेजना है?
बालसेन ने कहा, ‘यह आदमी अगर रूखी रोटी खायेगा तो यह कभी समझ ही न पायेगा कि गरीब का दुख क्या है! यह आदमी रूखी रोटी खायेगा तो समझेगा कि गरीब तो पत्थर खाये तो भी चल जाएगा। इसे थोड़ा सुखी होने दो ताकि यह दुख को समझ सके; ताकि जितने लोग इसके कारण गरीब हो गये हैं इस गांव में, उनकी पीड़ा भी इसको खयाल में आये। लेकिन यह सुखी होगा तो ही उनका दुख दिखाई पड़ सकता है। अगर यह खुद ही महादुख में जी रहा है, इसको किसी का दुख नहीं दिखाई पड़ेगा। कोई गरीब इसके द्वार पर भीख मांगने नहीं जा सकता, क्योंकि यह खुद ही भिखारी की तरह जी रहा है। यह किसी की पीड़ा अनुभव नहीं कर सकता।
विपरीत का अनुभव चाहिये। अगर सुख ही सुख हो संसार में तो तुम्हें सुख का पता ही न चलेगा। और तुम सुख से इस बुरी तरह ऊब जाओगे जितने कि तुम दुख से भी नहीं ऊबे हो। और तुम उस सुख का त्याग कर देना चाहोगे।
देखो पीछे लौटकर इतिहास में। महावीर और बुद्ध जैसे त्यागी गरीब घरों में पैदा नहीं होते; हो नहीं सकते। क्योंकि सुख से ऊब पैदा होनी चाहिये, तब त्याग होता है। बुद्ध के जीवन में इतना सुख है कि उस सुख का स्वाद मर गया। जिसने रोज सुस्वादु भोजन किये हों, तो स्वाद मर जाए। कभी-कभी उपवास जरूरी है भूख का रस लेने के लिये। अगर भूख का मौका ही न मिले और रोज उत्सव चलता रहे घर में, और मिष्ठान्न बनते रहें तो जल्दी ही स्वाद मर जाएगा। भूख ही मर जाएगी।
इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि गरीबों के धार्मिक उत्सव सदा भोजन के उत्सव होते हैं। और अमीरों के धार्मिक उत्सव सदा उपवास के होते हैं। अगर जैनों का धार्मिक पर्व उपवास का है, तो उसका अर्थ है। लेकिन एक मुसलमान, एक गरीब हिंदू–जब उसका धार्मिक दिन आता है तो ताजे और नये कपड़े पहनता है। अच्छे से अच्छा भोजन बनाता है। हलवा और पूड़ी उस दिन बनाता है। वह धार्मिक दिन है। जिसके तीन सौ चौंसठ दिन भूख से गुजरते हों, उसका धार्मिक दिन उपवास का नहीं हो सकता। होना भी नहीं चाहिये; वह अन्याय हो जाएगा। लेकिन जो तीन सौ चौंसठ दिन उत्सव मनाता हो भोजन का, उसका धार्मिक दिन उपवास का ही होना चाहिये।
हम अपने स्वाद को विपरीत से पाते हैं। इसलिए जब जैनों का पर्युषण होता है, तभी पहली दफा उन्हें भूख का अनुभव होता है। और पर्युषण के बाद पहली दफा दो चार दिन खाने में मजा आता है, और खाने के संबंध में सोचने में मजा आता है। और पर्युषण के दिनों में ही सपने देखते हैं वे खाने के, बाकी दिन नहीं देखते क्योंकि सपनों की कोई जरूरत नहीं है। बाकी दिन वे सलाह लेते हैं चिकित्सक से कि भूख मर गई है।
जिन मुल्कों में भी धन बढ़ जाता है, वहीं उपवास को मानने वाले संप्रदाय पैदा हो जाते हैं। यह जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका में आज उपवास का बड़ा प्रभाव है। गरीब मुल्कों में उपवास का प्रभाव हो भी नहीं सकता। लोग वैसे ही उपवासे हैं। लेकिन अमेरिका में लोग महीनों के उपवास के लिए जाते हैं। नेचरोपेथी के क्लिनिक हैं, चिकित्सालय हैं, जहां कुल काम इतना है कि लोगों को उपवास करवाना।
अगर सुख ही सुख हो और दुख का उपाय न हो तो तुम ऊब जाओगे सुख से। एक बड़े मजे की बात है कि दुख से आदमी कभी नहीं ऊबता, क्योंकि दुख में आशा बनी रहती है। आज दुख है, कल सुख होगा। सपना जिंदा रहता है। मन कामना करता रहता है और कल पर हम आज को टालते रहते हैं। दुखी आदमी कभी नहीं ऊबता। सुखी आदमी ऊबता है; क्योंकि उसकी कोई आशा नहीं बचती। सुख तो आज उसे मिल गया, कल के लिये कुछ बचा नहीं।
तुम्हें पता नहीं है कि महावीर और बुद्ध क्यों संन्यासी हुए? जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे क्यों हैं, हिंदुओं के सब अवतार राजपुत्र क्यों हैं? बात जाहिर है, साफ है। गणित सीधा है। सुख इतना था कि वे ऊब गये। और ज्यादा पाने का कोई उपाय नहीं था। जितना हो सकता था वह था, वह पहले से मिला था।
इसलिए जिस दिन महावीर नग्न होकर रास्ते पर भिखमंगे की तरह चले, उन्हें जो आनंद मिला है, तुम भूल मत करना नग्न चलकर रास्ते पर; तुम्हें वह न मिलेगा। क्योंकि तुम गणित ही चूक रहे हो। उसके पहले राजा होना जरूरी है। वस्त्रों से जब कोई इतना ऊब गया हो कि वे बोझिल मालूम होने लगे तब कोई नग्न खड़ा हो जाए रास्ते पर तो स्वतंत्रता का अनुभव होगा–मुक्ति! उसे लगेगा कि मोक्ष मिला। जो भोजन से इतना पीड़ित हो गया हो, वह जब पहली दफा उपवास करेगा तो शरीर फिर से जीवंत होगा; फिर से भूख जगेगी। और जो महलों में रह-रहकर कारागृह में बंद हो गया हो, जब वह खुले आकाश के नीचे, वृक्ष के नीचे सोयेगा तब उसे पहली दफा पता चलेगा कि जीवन का आनंद क्या है!
महावीर की बात सुनकर कई साधारण-जन भी त्यागी हो जाते हैं। वे बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं क्योंकि जो आनंद महावीर को मिला, वह उन्हें मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। तो वे सोचते हैं शायद अपनी कोई साधना में भूल है। साधना में कोई भूल नहीं, शुरुआत में ही भूल है।
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