कम्युनिस्टों का दोष है
वे डरते नहीं हैं
वे पढ़ते भी बहुत हैं
इतिहास, दर्शन, साहित्य-संस्कृति-कला, विज्ञान
यानी हर तरह के ज्ञान पर
होता है उनका अधिकार
लिखते हैं अविराम, बोलते हैं धाराप्रवाह
तर्क वितर्क तो वे इस तरह करते हैं कि जैसे
आप चलते जाओ चलते जाओ मीलों
धूसर सूखे चिटके छिटके चट्टानों पर
और अचानक हो जाओ अवाक्
पाकर हठात्
एक क्षुद्र छेद से अपरिमित वेग से निकलता दूधिया जल-प्रपात !
पर वे इसी सब में मगन नहीं रहते
उनके भीतर एक उद्दाम वाम उमड़ता घुमड़ता होता है
जो किसी बाज़ की तरह अपने गोपन से
कभी भी निकल पड़ने को उद्धत रहता है
वे बड़ी से बड़ी चुनौती को पटकनी देने की खातिर
ताल ठोक कर खड़े हो जायेंगे आप उन्हें
जनता के किसी भी संघर्ष में आगे ही आगे पायेंगे !
उनमें अपार धैर्य भी होता है
वे अकारण प्रदर्शन नहीं करते अपने शौर्य का
वे आंकते रहते हैं खतरों को
और उनके नासूर नहीं बन जाने तक
चौकन्ना करते रहते हैं खतरों से अपनी जनता को
अंततः बचा नहीं रह जाता जब कोई चारा
वे टूट पड़ते हैं सबक़ सिखाने अत्याचारी सत्ता को !
हां, पर इन दिनों
कम्युनिस्टों में यह ओज कहां रह गया है
वे तो जैसे बचे रह गये हों किसी शुष्क पाट की तरह
जिससे गंगा का बहुतेरे पानी बह गया है
वे आये दिन एक-दूसरे से
अमीबा की तरह खंड-खंड टूट रहे हैं
अपने ही अवसरवादी कारणों से
बड़े संघर्षों में उतरने में उनके पसीने छूट रहे हैं
विरोधियों के कैम्प से फतवा भी जारी हो चुका है :
' कम्युनिस्ट तो अब बीते इतिहास के भाग हैं ! '
पर सत्ता है कि मानती ही नहीं
विद्रोह की हर चिंगारी उठती देख
वह आज भी चीख उठती है :
' यह तो कम्युनिस्टों की ही लगायी आग है ! '
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