भारत में आजादी के तुरंत बाद ही समाजवाद और साम्यवाद की वैचारिक लाइन से आगे जातीय संघर्ष पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा ! संविधान सभा के अंदर अलगाववादी नेताओं ने राजनैतिक,आर्थिक,आंदोलन को हासिये पर धकेल दिया!
भारत के तत्कालीन जातिवादी नेता -अंग्रेजों और मुस्लिम लीग के प्रभाव मेंथे ! इसी विषवेलि के बीजींकन ने विगत आधी शताब्दी में भारत की एकता-अखंडता-खास तौर से विशाल हिंदू समाज की एकता को ध्वस्त कर डाला! यदि सर्वहारा के भारतीय हरावल दस्तों को जातिवाद /वर्णवाद /बड़े भूमाफिया (नवजमीदारों) की विध्वंसक ताकत का सामना नही करना पड़ा होता, तो आज *साम्यवादी भारत*चीन से भी आगे होता! बहरहाल अभी तो मेरे मुल्क के रहनुमा ढपोरशंख बजाने में सबसे आगे हैं!
गुलाम भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान मार्क्स और एंगेल्स हमारे गुलाम भारत और तमाम गुलाम दुनिया के जन आंदोलनों पर अपनी पैनी नजर से देख रहे थे! वे तत्कालीन भारत और यूरोप के कई देशों में चल रहे सर्वहारा के स्वतः स्फूर्त संघर्षों और उनके मालिकों के साथ ही सरकारी तंत्र द्वारा अर्थात पुलिस बल द्वारा सर्वहारा के दमन को भी देख रहे थे।
मात्र मार्क्स एंगेल्स ही नहीं अनेक दूसरे भी उस दमन को अनुचित समझ रहे थे और मजदूरों के पक्ष में लिख भी रहे थे। उनके पक्ष को बल देने के लिए गुप्त संगठन भी बना रहे थे।
मार्क्स एंगेल्स अपने अन्य साथियों से कुछ अलग ढंग से इस प्रश्न पर सोचने लगे थे।
वह देख रहे थे कि मजदूर अपने संघर्षों की तात्कालिक असफलता से बहुत कुछ सीख रहे थे !और संघर्ष के तरीकों में बदलाव करते जा रहे थे।जहां वह पहले मशीनों को अपने आक्रोश का निशाना बनाया करते थे! वहां वह उसको बचाने लगे।क्योंकि मालिकों और सरकारों को मजदूरों को बदनाम करने का अवसर मिल रहा था।बीमा कंपनियों से मालिकों को जब क्षति पूर्ति मिलने लगी तब वह स्वयं वह अपनी मिलो और मालों को नष्ट कर भरपाई पाने का जुगाड लगाने लगे थे।
मार्क्स एंगेल्स बात पर ध्यान देने लगे कि सर्वहारा के स्वत : स्फूर्त संघर्षों को सचेतन और सोची समझी रणनीति के तहत चलाने और उसे तेज करने पर ही मनमाफिक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।इसके लिए उनका ठोस संगठन होना और, आर्थिक आंदोलन से आगे बढ़कर राजनीतिक और वैचारि^क आन्दोलन तक पहुंचना आवश्यक है।इसी मकसद से उन्होंने कई दूसरे लोगों से मिलकर कम्युनिस्ट लीग और उसके लिए कम्युनिस्ट घोषणापत्र की रचना की।
़
कालांतर में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के संस्थापक सदस्यों के देशज अहंकार ने मार्क्सवाद को मजदूरों किसानों के संगठित आंदोलन और उनकी तात्कालिक मांगों तक सीमित कर दिया! जो जितना बड़ा विचारक या क्रांतिकारी नेता/दल प्रचारक हुआ, वह उतना ही मार्क्सवाद से दूर होता चला गया!
नोट :- यह पोस्ट उन लोगों के लिए है, जो राजनीतिक विज्ञान और इतिहास के प्रति जिज्ञासु हैं
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें