मुझे बचपन से ही कथा, कविता, साहित्य, इतिहास, दर्शन और अध्यात्म जगत की पुस्तकें पढ़ने और पुस्तक संग्रह का शौक रहा है। युवावस्था में हम अपने हमसोच मित्रों के साथ पुस्तक पढ़ने के बाद उसके लेखक,लेखक की रचना शैली और उसकी राजनैतिक विचारधारा पर घंटों बहस किया करते थे।
किन्तु दस बारह साल पहले यह सिलसिला थम सा गया ,एक तो स्वयं नाक कान गले की बीमारी और elargic brnocal asthama से पीड़ित था,दूसरे उधर दिल्ली प्रवास के दौरान श्रीमतीजी को कुछ लाइलाज बीमारियों ने घेर लिया।
वे जब इंदौर लौटी तो फर्श पर पैर फिसलने से फेक्चर हो गया! बॉम्बे हॉस्पिटल में महीनों इलाज चला.वहां कोई संतोष जनक आराम नहीं मिला। इसके कुछ महीनों बाद श्रीमतीजी को स्वाईन फ्लू हो गया,ऑक्सीजन लेवल ५५-६० नीचे आ गया। मेदांता हॉस्पिटल में डॉ ज्योति वाधवानी के निर्देशन में एक माह भर्ती रहने और १८ दिन वेंटिलेटर पर रहने के उपरान्त पत्नी को नाजुक हालत में हम घर ले आये। चूँकि इस दरम्यान मुझे भी निमोनिया-फेफड़ों का संक्रमण हो गया था,अतः बेटे डॉक्टर प्रवीण ने दिल्ली से इंदौर आकर अपनी माँ को बचाने में सम्पूर्ण ताकत लगा दी.हालाँकि पत्नी के फेफड़ें ४०% तक खराब हो चुके थे.किन्तु मेरे और प्रवीण के कुछ अभिन्न मित्रों ,डाक्टरों,नरसिंग स्टाफ के अथक प्रयास से उर्मिला जी की बच गई। हालाँकि वे विगत तीन साल से आक्सीजन सपोर्ट और मँहगी दवाओं पर आश्रित हैं।
वर्षों तक घर के कामकाज और पत्नी सेवा करते करते मैं न तो घबराया और न हिम्मत हारी। किन्तु मुझे कुछ विचित्र सा घमंड हो चला था कि भगवान् शंकर के बाद शायद मैं संसार का दूसरा महान कर्मयोगी हूँ जो उन्ही की तरह कंठ में जमाने का गरल रखकर अपनी मृतप्राय पत्नी को कंधे पर लादकर तीनों लोकों में भटकता रहा कि कहीं कोई औषधि मिले और अर्धांगनी स्वस्थ हो जाये।किन्तु मेरा घमंड तब चूर चूर हो गया,जब मैंने आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी [पूर्व अपर आयुक्त मध्यप्रदेश आबकारी विभाग ] द्वारा लिखित पुस्तक "होंसलों भरी उड़ान" पढ़ी ! चूँकि इस पुस्तक के आने से पहले मैं डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा रचित 'भारतीय दर्शन' भाग एक पढ़ रहा था,अतः 'होंसलों भरी उड़ान' को पढ़ने में बिलम्ब हो गया।
चूँकि मैं आनंदम से जुड़ने के बाद नरेंद्रसिंह जी का पहले से ही फैन रहा हूँ,क्योंकि वे मेरे आईकॉन हैं.वे हर मामले में अतिविशिष्ठ हैं। वे आदर्श पति,आदर्श पिता,आदर्श भाई,आदर्श मित्र और आदर्श समाजसेवी हैं. हो सकता है कि पुस्तक की कथावस्तु आदरणीय रेखाजी के जीवन संघर्ष की,उनके व्यक्तित्व और विचार की ही रही हो ,किन्तु नरेन्द्रसिंह जी की इस छोटी सी पुस्तक ने कम मुझे तो हिलाकर रख दिया।
वैसे तो सिंह दंपत्ति का व्यक्तित्व इतना विशाल है,उनकी मिलनसारिता,सौम्यता और सामाजिक सरोकारों का दायरा इतना विराट है कि उनके अवदान को किसी एक छोटी सी पुस्तिका में नहीं समेटा जा सकता। किन्तु न केवल रेखाजी की संघर्षपूर्ण व्यथा कथा, अपितु श्री नरेन्द्रसिंह जी के महान व्यक्तित्व के कुछ मानवीय पहलु सम्पूर्ण मानव समाज को मोटिवेट करने में बहुत कारगर सावित हो सकते हैं। वेशक यह पुस्तक कालजयी अमर रचना बन गई है। यह किसी को रुला भी सकती है और किसी को हौसला भी दे सकती है.किन्तु मुझे तो इस पुस्तक को पढ़ने के उपरान्त महान साहित्यकार 'पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी' और उनकी अमर कहानी 'उसने कहा था' याद आ गए। मुझे महान उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल और उनकी अमर कृति 'राग दरबारी' शिद्द्त से याद आ गए।
साहित्य में यदि फिक्शन न हो,विचारधारा न हो कल्पना की उड़ान न हो व्याकरण के सिद्धांतों का अनुकरण न हो, धीरोदात्त चरित्र न हो,तो वह साहित्य सभ्रांत लोक में या साहित्य जगत में स्वीकार्य नहीं हो सकता। किन्तु प्रस्तुत 'हौसलों की उड़ान'भले ही उक्त महाकाव्यात्मक नियमों से परिपूर्ण न हो किन्तु समाजशात्रीय और आत्म कथ्य शैली की श्रेष्ठ इतिवृत्तात्मकता से इस पुस्तक के लेखक और वे तमाम पात्र इस पुस्तिका में उल्लेखित हैं ,साहित्य जगत में वे हमेशा के लिए अजर अमर हो गए हैं।नरेन्द्रसिंहजी के शानदार,धारदार लेखन में उनके सभी मित्रों,बंधू बांधवों,दोनों पुत्रों,पुत्री-दामाद, भाई- भतीजों और समस्त सबंधीजनों को जो सम्मान दिया गया है वह अद्वतीय है। बिखरते भारतीय परिवारों को,'एकला चलो रे' के नारों को ही नहीं बल्कि यूरोप अमेरिका के बिखरते संयुक्त परिवारों को और समस्त सभ्य देशों और समाजों के लिए यह पुस्तक एक कालजयी मार्गदर्शिका है।
मेरी नजर में रेखा सिंह जी यदि माँ सरस्वती का अंश हैं, तो नरेंद्रसिंह जी स्वयं एक महाकाव्य के महानायक जैसे हैं.दरसल यह १०० पेज की छोटी सी सारगर्भित शानदार पुस्तिका 'होंसलों की उड़ान' तो सिंह दम्पत्ति के एक विशेष कालखंड की संघर्षमय जीवन यात्रा का संछिप्त वृतांत मात्र है। इनके मधुर दाम्पत्य जीवन एवं साहसिक संघर्षशील व्यक्तित्व बनाम कृतित्व पर एक प्रेरणास्पद कालजयी महाकाव्य लिखा जा सकता है।
छिद्रान्वेषी दॄष्टिकोण से पुस्तक पढ़ने की मेरी अपनी सहज प्रवृत्ति रही है। लेकिन जब 'हौसलों की उड़ान' के अति मानवीय और कारुणिक नजरिये को पढ़ा तो दुःख की बनिस्पत एक गौरवपूर्ण एहसास हुआ कि इस मानव जगत में हम अकेले ही अनोखे लाल नहीं हैं,बल्कि सुख दुःख की कहानी तो सभी की एक सी है।संसार में सिर्फ जीवन जीने का नजरिया महत्वपूर्ण है.शिवाजी के गुरु स्वामी श्री समर्थ रामदास कह गए हैं ;-
'योगिनाम साध ली जीवन कला' यह मन्त्र श्री नरेन्द्रसिंह जी और रेखासिंह जी पर अक्षरश: लागू होता है। तमाम शारीरिक दिक्क्तों और कष्टपूर्ण हॉस्पिटलाइजेशन के बावजूद रेखासिंह जी और शिवशंकर की तरह योगस्थ रहते हुए भी नरेन्द्रसिंह जी ने जो आदर्श प्रस्तुत किया है वह स्तुत्य है ,वंदनीय है।
इस पुस्तक को पढ़ने वाला हर शख्स यही कहेगा कि 'जिंदगी जिन्दा दिली का नाम है,मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं।'कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि 'जब औरों का गम देखा तो हम अपना गम भूल गए और ग़मों से लड़ना सीख गए।'
इस पुस्तक को आद्योपांत पढ़ चुकने के उपरान्त मेरी स्वयं की प्रतिक्रिया थी;- "एक तुम्ही समस्या पीड़ित या पत्नीदुखहर्ता नहीं हो दुनिया में,मिस्टर श्रीराम तिवारी। तुम तो श्री नरेन्द्रसिंह जी के घुटनों तक भी नहीं आते. '
... अक्टूबर २०१७ में १८ दिन मेदांता हॉस्पिटल आईसीयू के वेंटिलेटर पर अचेत रहने उपरान्त १९ वे रोज उर्मिला जी के होश में आते ही मेरे बेटे प्रवीण ने उनसे मेरी मोबाईल पर बात कराई। उन्होंने हैल्लो हायके बाद पूछा ;-मैडम किसी हैं ? यह सवाल सुनते ही पहले तो मैं अचकचा गया,किन्तु जब उन्होंने धीमी आवाज में कहा ;-*आनंदम* तो मैं तत्काल समझ गया की वे आनंदम के संस्थापक और हम सबके मार्गदर्शक श्री नरेंद्रसिंहजी की धर्मपत्नी श्रीमती रेखासिंह जी के स्वास्थ के बारे में और उनके कुशल क्षेम के बारे में व्यग्र थीं. मैंने तसल्लीबख़्श कहा कि 'मैडम ठीक हो रही हैं, तुम ठीक हो जाओ,जल्दी ही मिलने चलेंगे.'और फिर मैं एक माह बाद जब उर्मिला जी को लेकर रेखासिंह जी के दरबार में हाजरी देने गया,तो दोनों ने मुस्कराहट के साथ एक दूसरे का इस्तकवाल किया और मैंने भरे गले से मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया और सिंह दम्पत्ति को प्रणाम किया।
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