द्वंदात्मक पद्धति – द्वंदात्मक पद्धति का सर्वप्रथम प्रतिपादन हीगल द्वारा अपनी विश्वात्मा (world spirit) संबंधी मान्यता को सिद्ध करने के लिए किया गया था। इस दृष्टि से उसने द्वंद को वैचारिक द्वंद के रूप में प्रतिपादित कर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि किसी विचार के उत्पन्न और परिमार्जित होने की प्रक्रिया क्या है। हीगल की इस द्वंदात्मक पद्धति को स्पष्ट करने हेतु हंट का कथन है कि – द्वंदात्मक प्रक्रिया वाद (thesis), प्रतिवाद(antithesis) तथा संवाद(synthesis) की प्रक्रिया है। वाद एक विचार की पुष्टि करता है, प्रतिवाद उसका निषेध करता है और ‘संवाद’ वाद और प्रतिवाद में जो सत्य है उसे स्वयं में समाहित करता है। इस तरह वह हमें यथार्थ के अधिक निकट ले आता है, लेकिन जैसे ही हम संवाद को अधिक निकट से देखते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि वह अभी भी अपूर्ण है। अतः वह पुनः वाद का रूप धारण कर लेता है और पुनः वहीं पूर्व की संघर्ष की प्रक्रिया को प्रारंभ कर देता है। फलत: उसका प्रतिवाद द्वारा निषेध होता है और संवाद में पुनर्मिलन होता है। इस प्रकार यह त्रिकोणात्मक विकास प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि तत्व या विचार आदर्श रूप ग्रहण नहीं कर लेता है।”
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