तमाम वैश्विक सभ्यताओं के विधिक और नैतिक मूल्य या तो राज्य सत्ता से संचालित रहे है या अध्यात्म दर्शन और धर्म-रिलिजन- पंथ से मानव समाज के अंदर मान्य रहे हैं। प्रायः हर सभ्यता में कुछ बेहतरीन मानव मूल्य विद्यमान हैं। किन्तु हर सभ्यता और धर्म मजहब या कौम के भीतर अमीर और ताकतवर व्यक्ति और ताकतवर समाज के द्वारा निर्धन मजूर किसान का शोषण होता रहा है। भारतीय और यूरोपीय दर्शन का गहन अध्यन करने वाले जर्मन फिलॉस्फर हेगेल ने इस वर्गीय द्व्न्दात्मकता को पहली बार सूत्रबद्ध परिभाषित किया। बाद में महँ विद्वान कार्ल मार्क्स ने इस ऐतिहासिक ध्वन्द्वात्मक भौतिकविद को वैज्ञानिक और आर्थिक नजरिये से परिभाषित किया। इस तरह मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांत में प्राचीन भारतीय दर्शन की झलक मिलती है। आर्य वैदिक ऋषि कहता है;-
"अयं निजः परोवेति गणना लघु चेत्साम।
उदार चरितनाम तु वसुधैव कुटुंबकम।।"
अथवा संस्कृत आगम कहता है :-
"किसी कमजोर गरीब-दरिद्र को मत सताओ ,क्योंकि उसमें भी नारायण रहता है।''
तात्पर्य यह है की गरीबों के पक्ष में संसार के तमाम पुरातन साहित्य में बहुत सी बातें कहीं गईं हैं आदर्श और उदारता की बातें तो खूब कहीं गईं किन्तु शोषण की इस व्यवस्था को कैसे बदला जाये या समस्या का निवारण क्या हो ? इसका वैज्ञानिक हल सिर्फ कार्ल मार्क्स ने ही बताया।
है।
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