मैने जब बचपन में भगवद गीता पढ़ी तो कुछ नये सवाल खड़े होने लगे! मेंने श्रीकृष्ण के ज्ञान योग,कर्मयोग,सन्यास योग और ईश्वर के द्वारा जीवात्मा के कर्मों का कर्मफल दिये जाने का सिद्घांत तो माना,किंतु उनकी इस घोषणा को अहंकार माना कि:-
"हे अर्जुन इस जग का निर्माता नियंता और संहारक मैं ही हूँ "
"हे अर्जुन इस जग का निर्माता नियंता और संहारक मैं ही हूँ "
बचपन में ही मैने श्रीकृष्ण की स्वीकारोक्ति को अमान्य कर दिया था और उन्हें भगवान मानने से इंकार कर दिया था!हालांकि उन्हें शिव की तरह योगेश्वर मान लिया था! किंतु रिटायरमेंट के बाद जब पुन: वेद,उपनिषद और संहिताओं को ज्यादा गहराई से अध्यन किया और अष्टावक्र गीता पढ़ी, तब समझ में आया कि श्रीकृष्ण सही कह गये हैं!दरसल उनका आसय वेद में वर्णित उस रूपक से समझा जा सकता है कि :-
शरीर रूपी पीपल के ब्रक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं, एक कर्मफल को खाता है, दूसरा केवल देखता है,ये जो दूसरा है,वही ब्रह्म है!यदि फल खाने वाला दूसरा पक्षी भी अहंकार शून्य होकर,साक्षी भाव में स्थित हो जाए,तो वह ब्रह्मलीन होकर ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो जाता है"
शरीर रूपी पीपल के ब्रक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं, एक कर्मफल को खाता है, दूसरा केवल देखता है,ये जो दूसरा है,वही ब्रह्म है!यदि फल खाने वाला दूसरा पक्षी भी अहंकार शून्य होकर,साक्षी भाव में स्थित हो जाए,तो वह ब्रह्मलीन होकर ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो जाता है"
अर्थात यदि हम अहंकार शून्य हो जाएं तो हम सभी श्रीकृष्ण ही हैं शिवोहम्,अहं ब्रहास्मि साेह्मअस्मि!!
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