जिस तरह आधुनिक साइंस,भौतिक अनुसंधान ,उन्नत तकनीकी मनुष्य का ही सृजन है ,उसी तरह धर्म-मजहब-ईश्वर ,अल्लाह और साम्प्रदायिकता भी मानवकृत है। मनुष्य जाति ने मानवमात्र के हित में जो-जो अन्वेषण किये वे अकारण या निर्रथक नहीं थे। लेकिन जब साइंस नहीं था तब मनुष्य ने ईश्वरकी रचना की थी और हजारों साल तक उससे अपना काम चलाया। किन्तु अब साइंस का जमाना है ,मनुष्य को ईश्वर की आराधना उस हद तक ठीक है कि वह मनोभावों को स्थिर करे किन्तु उतनी जरूरत नहीं होनी चाहिए जितनी सामंतयुग में या गुलामी के दौर में हुआ करती थी।यदि किसीको अभी भी ईश्वर की सख्त जरुरत महसूस होती है तो इसका मतलब यह है कि उसे अपने आप पर यकीन नहीं है ,उसे संविधान,लोकतंत्र और व्यवस्था पर भरोसा नहीं है। जाहिर है कि वह धर्मभीरु व्यक्ति हर तरह से डरा हुआ है। इसीलिये उसे ''निर्बल के बलराम ''पर निर्भर रहना पड़ रहा है। इसका निष्कर्ष यह भी निकलता है कि शुद्ध आस्तिक मनुष्य निपट अज्ञानी है। जाहिर है कि उसका अज्ञान ही उसके दुखों का कर्ता है।
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