शस्य श्यामल धरा पर,
पुलकित द्रुमदल झूमते देवदार,
दहकते सूरज की तपन से,
जहां होती हो आक्रांत-
कोमल नवजात कोंपले!
धूल धूसरित धरतीपुत्रों का लहू,
अम्रततुल्य आषाढ़ के मेघ-
की नाईं रिमझिम बरसता हो,
जिन वादियों में और सुनाई दे,
रणभेरी जहां अन्याय के प्रतिकार की
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा.......!
देखो जहां भीषण नरसंहार,
सुनाई दे मर्मान्तक चीत्कार-
जलियांवाला बाग का जहां पर!
और शहीदों के सहोदर,
चूमते हों फांसी के तख्ते को,
प्रत्याशा में आज़ादी की-
ज्योति जलती रही निरंतर,
जिनके तेजोमय प्रदीप्त ललाट के समक्ष
-करते हों नमन बंदीजन खग वृंद,
देते धरा पर मातृभूमि को अर्ध्य,
और नित्य होता बेणीसंहार,
निर्मम जहां पर-
कारगिल,द्रास,बटालिक और हिमालय के-
उतंगश्रंग पर ,
तुमआ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा.......!
सप्तसिंधू तटबंध तोड़कर
मिला दे प्रशांत को हिंद महासागर से,
सदियों के अविगलित हिमनद,
उद्वेलित,धरा पर दूषित लहू,निस्तेज शिरायें,
अनवरत करतीं प्रक्षालन विचार सरिताएं,
नेतृत्व राष्ट्र का और विश्व का,
महाद्वीप प्रलयगत प्रतिपल ,
पक्षी नीड़ में,
मनुज भीड़ में,
हो आतप-संताप दोष दुखदारुन
नैतिकता पतित पाताल गत,
मानव मति, गति, क्षतविक्षतहत,
हो मनुज मनुज में नैतिकता विस्तार,
बल पौरुष निरहंकार,
करे जगत जहां सत्य की जय-जयकार
तुमआ जाना -
मैं वहीं मिलूंगा......!
आल्पस से हिमालय तक,
वोल्गा से गंगा तक,
समरकंद से सिंधु के मुहाने तक ,
हड़प्पा मोहन जोदड़ो से लेकर,
आधुनिक संचार क्रांति इंटरनेट तक,
उन्नत तकनीकि युग को विजित कर,
ज़मींदोज़ हुये संपूर्ण युगकालखंड,
पतनशील सभ्यताओं को करता स्वाहा,
निहारता खड़ा इक्कीसवीं सदी के-
उदगम पर,
भयभीत क्रूरकाल नरभक्षी यायावर,
भौतिक सभ्यताओं का सनातन शत्रू,
चले आना दाहिर की चिता पर,
आनंदपुर साहिब-अमृतसर-
की पावन माटी और अटक से कटक तक,
दिखे शक्ति जहां शहादत का अखण्ड तेज,
तुम आ जाना -
मैं वहीं मिलूंगा।
चले आना पानीपत-
वाया कुरूक्षेत्र!
सूंघते हुए लहलहाते खेतों की,
लाल माटी को चूमकर,
चले आना प्रागज्योतिषपुर,
राजपुताना मथुरा,कन्नौज,
प्रयाग-ग्वालियर-कालिंजर
और चले आना तक्षशिला,
विक्रमशिला देवगिरि हम्पी,
फेंकना एक-एक पत्थर वहां-
पुराने कुओं-बावड़ियों में,
सुनाई देगी तुम्हें तलहटी से,
खनकती चीखें इतिहास की!
देखना मर्घट की ज्वाला,
बर्बर जंगखोरों द्वारा धधकती आग में, चीखती ललनाओं की!
करुण क्रन्दन करती चिर उदात्त आहें,
मध्ययुगीन बर्बर सामंतों द्वारा,
पददलित विचार अभिव्यक्ति,
हवा पानी प्रकाश-हताश दिखे जहां पर ,
सुनाई दे बोधि-वृक्ष तले,
महास्थिर बोधिसत्व तथागत की
करुणामयी पुकार,
अप्प दीपो भव,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
नवागन्तुक वैश्विक चुनौतियां,
दुश्चिंतायें, चाहतें नई-नई!
नये नक्शे, नये नाम, नई सरहदें,
नई तलाश-तलब-तरंगे!
काल के गर्भ में धधकती युध्दाग्नि,
डूब जाये-मानवता उत्तंगश्रृंग
हो जाये मानव निपट निरीह नितांत!
रक्ताम्भरा विवर्ण मुख वसुन्धरा क्लांत!
करुणामयी आस लिये,
शांति कपोतों को निहारती हो-
अपलक जहां आशान्वित नेत्रों से,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
दब जाओ पाप के बोझ तले जब,
चुक जायें तुम्हारे भौतिक संसाधन,
अमानवीय जीवन के!
आतंक-हिंसा-छल-छद्म-स्वार्थ,
आकंठ डूबा पाप पंक में कोई,
सुनना चाहे यदि अपनी आत्मा की-
चीख-युगान्तकारी कराह!
और लगे यदि देवत्व की प्यास,
प्रेम की भूख,
चले आना स्वाभिमान की हवा में,
देखना आज़ादी का प्रकाश!
उतार फेंकना जुआ शोषण का,
मिले स्वतंत्रता-समानता-बंधुता जहां पर
और शील सौजन्य करुणा की छांव,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
पुलकित द्रुमदल झूमते देवदार,
दहकते सूरज की तपन से,
जहां होती हो आक्रांत-
कोमल नवजात कोंपले!
धूल धूसरित धरतीपुत्रों का लहू,
अम्रततुल्य आषाढ़ के मेघ-
की नाईं रिमझिम बरसता हो,
जिन वादियों में और सुनाई दे,
रणभेरी जहां अन्याय के प्रतिकार की
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा.......!
देखो जहां भीषण नरसंहार,
सुनाई दे मर्मान्तक चीत्कार-
जलियांवाला बाग का जहां पर!
और शहीदों के सहोदर,
चूमते हों फांसी के तख्ते को,
प्रत्याशा में आज़ादी की-
ज्योति जलती रही निरंतर,
जिनके तेजोमय प्रदीप्त ललाट के समक्ष
-करते हों नमन बंदीजन खग वृंद,
देते धरा पर मातृभूमि को अर्ध्य,
और नित्य होता बेणीसंहार,
निर्मम जहां पर-
कारगिल,द्रास,बटालिक और हिमालय के-
उतंगश्रंग पर ,
तुमआ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा.......!
सप्तसिंधू तटबंध तोड़कर
मिला दे प्रशांत को हिंद महासागर से,
सदियों के अविगलित हिमनद,
उद्वेलित,धरा पर दूषित लहू,निस्तेज शिरायें,
अनवरत करतीं प्रक्षालन विचार सरिताएं,
नेतृत्व राष्ट्र का और विश्व का,
महाद्वीप प्रलयगत प्रतिपल ,
पक्षी नीड़ में,
मनुज भीड़ में,
हो आतप-संताप दोष दुखदारुन
नैतिकता पतित पाताल गत,
मानव मति, गति, क्षतविक्षतहत,
हो मनुज मनुज में नैतिकता विस्तार,
बल पौरुष निरहंकार,
करे जगत जहां सत्य की जय-जयकार
तुमआ जाना -
मैं वहीं मिलूंगा......!
आल्पस से हिमालय तक,
वोल्गा से गंगा तक,
समरकंद से सिंधु के मुहाने तक ,
हड़प्पा मोहन जोदड़ो से लेकर,
आधुनिक संचार क्रांति इंटरनेट तक,
उन्नत तकनीकि युग को विजित कर,
ज़मींदोज़ हुये संपूर्ण युगकालखंड,
पतनशील सभ्यताओं को करता स्वाहा,
निहारता खड़ा इक्कीसवीं सदी के-
उदगम पर,
भयभीत क्रूरकाल नरभक्षी यायावर,
भौतिक सभ्यताओं का सनातन शत्रू,
चले आना दाहिर की चिता पर,
आनंदपुर साहिब-अमृतसर-
की पावन माटी और अटक से कटक तक,
दिखे शक्ति जहां शहादत का अखण्ड तेज,
तुम आ जाना -
मैं वहीं मिलूंगा।
चले आना पानीपत-
वाया कुरूक्षेत्र!
सूंघते हुए लहलहाते खेतों की,
लाल माटी को चूमकर,
चले आना प्रागज्योतिषपुर,
राजपुताना मथुरा,कन्नौज,
प्रयाग-ग्वालियर-कालिंजर
और चले आना तक्षशिला,
विक्रमशिला देवगिरि हम्पी,
फेंकना एक-एक पत्थर वहां-
पुराने कुओं-बावड़ियों में,
सुनाई देगी तुम्हें तलहटी से,
खनकती चीखें इतिहास की!
देखना मर्घट की ज्वाला,
बर्बर जंगखोरों द्वारा धधकती आग में, चीखती ललनाओं की!
करुण क्रन्दन करती चिर उदात्त आहें,
मध्ययुगीन बर्बर सामंतों द्वारा,
पददलित विचार अभिव्यक्ति,
हवा पानी प्रकाश-हताश दिखे जहां पर ,
सुनाई दे बोधि-वृक्ष तले,
महास्थिर बोधिसत्व तथागत की
करुणामयी पुकार,
अप्प दीपो भव,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
नवागन्तुक वैश्विक चुनौतियां,
दुश्चिंतायें, चाहतें नई-नई!
नये नक्शे, नये नाम, नई सरहदें,
नई तलाश-तलब-तरंगे!
काल के गर्भ में धधकती युध्दाग्नि,
डूब जाये-मानवता उत्तंगश्रृंग
हो जाये मानव निपट निरीह नितांत!
रक्ताम्भरा विवर्ण मुख वसुन्धरा क्लांत!
करुणामयी आस लिये,
शांति कपोतों को निहारती हो-
अपलक जहां आशान्वित नेत्रों से,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
दब जाओ पाप के बोझ तले जब,
चुक जायें तुम्हारे भौतिक संसाधन,
अमानवीय जीवन के!
आतंक-हिंसा-छल-छद्म-स्वार्थ,
आकंठ डूबा पाप पंक में कोई,
सुनना चाहे यदि अपनी आत्मा की-
चीख-युगान्तकारी कराह!
और लगे यदि देवत्व की प्यास,
प्रेम की भूख,
चले आना स्वाभिमान की हवा में,
देखना आज़ादी का प्रकाश!
उतार फेंकना जुआ शोषण का,
मिले स्वतंत्रता-समानता-बंधुता जहां पर
और शील सौजन्य करुणा की छांव,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
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