१५ अगस्त १९४७ से पहले भारत गुलाम था. यह तो सभी जानते हैं. किन्तु कब से गुलाम था? कितना हिस्सा गुलाम था ?और कौन कौन कम्युनिटी कितनी कितनी गुलाम थी?गुलामी का दुष्प्रभाव किन किन समाजों पर,कितना कम या जयादा पड़ा? इन सवालों के जबाब खोजे बिना न तो भारत का असली इतिहास लिखा जा सकता है और न ही युगों युगों से दमित जातियों,समाजों को न्याय दिलाया जा सकता है। और न ही कोई क्रांति हो सकती है। आजादी के बाद उपरोक्त सवालों की अनदेखी करने और तमाम अंग्रेजी कानूनों को अडॉप्ट करके,उसे भारतीय संविधान का नाम देने से भारतीय समाज पहले से भी जयादा जातीयतावादी और साम्प्रदायिक बनता चला गया। आजादी के ७०-७२ साल तक भ्रांतियाँ फैलाकर दवंग और ताकत वर्ग ने रूप बदल बदल कर भारतभूमि पर शासन किया है.इस दौर में अमीर वर्ग और ज्यादा अमीर हुआ है एवं कमजोर वर्ग और ज्यादा कमजोर हुआ है। आजादी के बाद वाले दौर में भारत का जितना वैज्ञानिक,आर्थिक और राष्ट्रीय विकास हुआ है, उसमें उन व्यक्तियों,समुदायों और क्षेत्रों को बहुत कम मिला,जिन्हें इसकी सख्त जरूरत थी. इस असमान विकास के लिए भारत का सत्ताधारी नेतत्व ,ब्यूरोक्रेसी और इंटेलेक्चुअल्स भी जिम्मेदार हैं,जिन्होने न तो गुलामी के दौर का वास्तविक इतिहास समझा और न ही सैकड़ों सालों की गुलामी से शोषित पीड़ित समाजों का आकलन किया.उन्होंने सिर्फ उतना ही किया जितना वोट कबाड़ने के लिए जरुरी था या जितना अंग्रेजों ने सिखाया पढ़ाया था या जितना इस भ्र्स्ट सिस्टममें कमीशनखोरी और रिश्वतखोरी के बाद हो सका।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें