बुधवार, 4 दिसंबर 2019

स्वर्गीय शंकर गुहा नियोगी का सपना


"वह क्या चीज थी जिसने मुझे नियोगी के बारे में प्रभावित किया? वे तब 33 साल के थे। काफी दिनों से नए भारत का सपना देख रहे थे और उसके लिए काम कर रहे थे।
मैं कई कम्युनिस्ट नेताओं से मिल चुका था। कुछ को नजदीक से जानता था। मैं चारू मजुमदार और कानू सान्याल से भी मिल चुका हूं। बिहार में सीपी आईएमएल के एक नेता होते थे सत्य नारायण सिन्हा, उनके काफी निकट था।
पर नियोगी उन सबसे अलग थे। मेरी नजर में नियोगी उन कुछ गिने-चुने मार्क्सवादियों में से थे जिन्होंने सचमुच में अपने आप को डिक्लासीफाई किया था। हमारे ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग से आते थे। मसलन जमींदार के बेटे ईएमएस। या पाइप पीने वाले ज्योति बाबू।
कम्युनिस्ट आंदोलन में ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज में पढ़े लोगों का दबदबा हुआ करता था। वास्तव में उस वर्ग की दबदबा अभी भी कायम है। ज्यादातर मार्क्सवादी नेता कभी भी अपने आप को मजदूरों और किसानों के साथ एकरूप नहीं कर पाए।
यही नियोगी की सफलता थी। वे खुद मध्यवर्ग से आते थे। पर जब उन्होंने किसानों का संगठन बनाने की सोची तो एक गांव में जाकर बटाईदार का काम करने लगे। खेत जोतते थे। जब उन्होंने मजदूर संगठन बनाने की सोची तो लोहे की खदानों में जाकर दिहाड़ी मजदूर बन गए।
मजदूर महिला से विवाह
वहीं झुग्गी में रहते थे। और वहीं एक मजदूर महिला से विवाह कर उन्होंने गृहस्थी बसाई। इस तरह से नियोगी ने अपने आप को डिक्लासीफाई किया। मजदूर उन्हें अपने में से एक मानते थे।
ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाई जा रही ट्रेड यूनियन को तो अलग होना ही था। दिल्ली राजहरा के मजदूरों में दो धड़े थे। एक था डिपार्टमेंटल मजदूरों का। उन्हें भिलाई स्टील प्लांट से तनख्वाह मिलती थी। यह मजदूरों का खाता-पीता तबका था। अर्थात ज्यादा चंदा देने में समर्थ । स्थापित ट्रेड यनियनें उन्हीं के बीच सक्रिय थी।
मजदूरों का दूसरा धड़ा था ठेका मजदूरों का। ठेकेदार बुरी तरह उनका षोषण करते थे । और ट्रेड यूनियन वाले उनकी परवाह नहीं करते थे। नियोगी ने अपने संगठन के लिए उन्हीं उपेक्षित लोगों को चुना।
नियोगी ने धीरे-धीरे ट्रेड यूनियन आंदोलन को सामाजिक बदलाव का जरिया बनाया। उनकी अगुवाई में मजदूर महिलाओं ने शराबबंदी करवाई। मजदूरों ने अपने अस्पताल, स्कूल और पुस्तकालय खोलें। नियोगी के बाद छत्तीसगढ़ का ट्रेड यूनियन आंदोलन एक नई दिशा की ओर गया।
आखिरी भोजन
कई मुद्दों पर नियोगी से मेरे मतभेद भी रहे, पर हमारी दोस्ती कभी नहीं टूटी । 28 सितंबर 1991 की जिस रात नियोगी की निर्मम हत्या हुई उस रात हमने साथ भोजन किया था। वह शायद उनका अंतिम भोजन था।
मैं तब इंडिया टुडे के लिए काम करता था। और हम बस्तर के दौरे से लौट रहे थे। उस इलाके में जाएं और नियोगी से मुलाकात न करें ये कैसे संभव था! उन दिनों वे भिलाई में मजदूरों का एक आंदोलन चला रहे थे और काफी चुनौतियों का सामना कर रहे थे। दिन में हमारी मुलाकात हुई और उन्होंने मुझे बताया कि भिलाई के कुछ उद्योगपतियों ने उनकी हत्या के लिए सुपारी दी है।
मेरे साथ मैगज़ीन के फोटोग्राफर प्रशांत पंजियार भी थे. हम रायपुर के होटल पिकेडली में रूके थे। रात को हमने नियोगी को और एक अन्य मित्र राजेन्द्र सायल को होटल में भोजन पर बुलाया। हम देर रात तक रूस में कम्युनिज्म के पतन पर बात करते रहे। उस मुलाकात के दौरान भी नियोगी ने मुझे कहा था कि उनकी जान को खतरा है। उन्होंने उन उद्योगपतियों के नाम भी लिए थे जो उनके पीछे पड़े थे।


उसी रात भिलाई के अपने पार्टी घर में सो रहे नियोगी पर भाड़े के हत्यारों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। नियोगी की हत्या के बाद मैं सीबीआई की तरफ से गवाह के रूप में अदालत में पेश हुआ था। वहां मैंने उन उद्योगपतियों के नाम भी बताए थे। पर शायद ही उनमें से किसी का कुछ बिगड़ा हो। उनमें से कई उद्योगपति अभी भी इस ‘उदारवादी’ अर्थव्यवस्था का फायदा उठाकर फल-फूल रहे हैं।"

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