शुक्रवार, 29 जून 2018

फर्क न रहा जहाँ नीति -अनीति का.....!

  • घर से तो निकले थे सारी खुशियाँ जुटाने,
    लम्हा लम्हा उदास वीराने में आ गए हम।
    होगा कबीलों में कभी जंगल का क़ानून,
  • किंतु उसी के मुहाने पर फिर आ गए हम।।
    हांकते हैं कारवाँ सत्ता के प्यादे जिस दौरमें,
  • उस पतनशील दौर की जद में आ गए हम।
    स्वार्थमें फर्क न रहा जहाँ नीति -अनीति का,
  • खरामाखरामा वो गली वो शहरआगए हम!!
  • लगती रही हैं दाँवपर हमेशा जिधर पांचाली ,
  • जाने कब दुर्योधन के उस शहर आ गए हम ।
  • चर्चा नहीं किसी जनसंघर्ष क्रांति की जहां,
  • ऐंसी बेजान महफ़िल में क्यों आ गए हम।।

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