- घर से तो निकले थे सारी खुशियाँ जुटाने,
लम्हा लम्हा उदास वीराने में आ गए हम।
होगा कबीलों में कभी जंगल का क़ानून, - किंतु उसी के मुहाने पर फिर आ गए हम।।
हांकते हैं कारवाँ सत्ता के प्यादे जिस दौरमें, - उस पतनशील दौर की जद में आ गए हम।
स्वार्थमें फर्क न रहा जहाँ नीति -अनीति का, - खरामाखरामा वो गली वो शहरआगए हम!!
- लगती रही हैं दाँवपर हमेशा जिधर पांचाली ,
- जाने कब दुर्योधन के उस शहर आ गए हम ।
- चर्चा नहीं किसी जनसंघर्ष क्रांति की जहां,
- ऐंसी बेजान महफ़िल में क्यों आ गए हम।।
शुक्रवार, 29 जून 2018
फर्क न रहा जहाँ नीति -अनीति का.....!
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