शुक्रवार, 15 जून 2018

जातीय आधार पर आरक्षण-एक नजर !


कभी कभी कुछ लोगों का किसी कालगत सिद्धांत विशेष पर जबरन चिपके रहने का कोई औचित्य स्पष्ट नही हो पाता! भाजपा ने जब दलित राष्ट्रपति बनाया,दो दर्जन दलित कैबिनेट मंत्री बनाये,और जब सैकड़ों दलित पार्टी पदाधिकारी बना डाले!तब जातीयता आधारित विपक्ष के समक्ष भारी संकट आन पड़ा! लालू,माया,मुलायम,अखिलेश और अन्य दलित नेताओं को सोचना पड़ाकि उस तथाकथित शोषित समाज को जातीय आधार पर हमेशा के लिए अपना पिछलग्गू कैसे बनाये रखा जाये? भारत में शोषण उत्पीडन की असल तस्वीर सिर्फ वह नही जो तमाम हरल्ले दल चीख चीख कर बताते रहे हैं,अथवा संविधान निर्माता बता गये हैं! बल्कि तस्वीर का दूसरा पहलू भी है! इसीलिये गौर से देखा जाये तो रामदास अठावले,रामविलास पासवान,उदितराज जैसे दलित नेता औरों की अपेक्षा ज्यादा ईमानदार और प्रगतिशील दिखाई देते हैं!आज भले ही वे पदलोलुप या मौकापरस्त समझे जाते हैं, किंतु एक वक्त के बाद वे इतिहास के हीरो भी माने जा सकते हैं!
इन पंक्तियों के लिखे जाने से पचास -साठ साल पहले के ठेठ ग्रामीण उत्तर भारत की व्यवस्था कुछ वैसी ही थी जैसी कि मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में और कहानियों में वर्णित है ! शेष कुछ वैसी थी जैसी कि 'राग दरबारी' में श्रीलाल शुक्ल ने चित्रित किया है! तब भारत के कुछ बडे किसानों और भूतपूर्व जमींदारों के यहां ट्रेक्टर का आना, शहर से गांव की तरफ कच्ची सड़कों पर धक्कामार बसों का चलना,गांव के संपन्न आदिवासी हीरालाल सौंर (रावत) के घर 'कंडी घासन' बंदूक का आना,वैसे ही था जैसे तीर तलवार के जबाब में बाबर मंगोल का पानीपत के मैदान में तोपें लाना! हीरालाल को बंदूक में छर्रे,बारूद और कंडे के टुकड़े ठूंसते देख मैने उस बंदूकका नाम रखा था-कंडीधासन!उस जमाने में बंदूक की नली को लोहे की राड से धांसा जाता था! हीरालाल जी (आदिवासी) अपने सौंरयानै के प्रमुख थे और गांव की पंचायत के पंच भी थे! वैसै तो हीरालाल मेरे बड़े भाई की उम्रके थे,और मैं उन्हें दाऊ ही कहता था! उनके आदिवासी समाज में शादी जल्दी हो जानेसे बच्चे भी जल्दी हो जाते थे! उनका बड़ा लडका 'मुखल' मेरा हमउम्र था!आदिवासी होने के बावजूद उसका लालन पालन राजकुमारों की तरह होता था!जबकि कुलीन और ब्राम्हण पुत्र होने के बावजूद मैं पांच साल की उम्र में नंगे पैर खेतों पर जाने को मजबूर था! विद्वान होने के बावजूद यह स्थिति 'बाबा साहिब' क्यों नही देख पाये? ताजुब्ब है!कहने मात्र को हम सवर्ण ब्राह्मण थे किंतु किसीभी द्रष्टि से सिवाय पूजा पाठ के,वाकी सभी मामलों में हम गांव के पटैलौं (पिछडों)से और आदिवासी सोरों (रावत) से पीछे थे! हमारा संयुक्त परिवार बहुत बड़ा था और माली हालत ठीक नहीं थी!इसलिये हमें स्कूल से गैरहाजिर रहकर खेती किसानी के अलावा ढोर ,डंगर,जंगल और खलिहान के भी काम करने होते थे!जबकि हीरालाल आदिलीसी अपने कंधे पर कंडी धासन बंदूक टांगकर,घोड़े पर सवार होकर,शिकार खेलने जाते थे!कभी कभी वे अपने बेटे मुखल को भी बंदूक पकड़ा देते थे! जबकि हम सभी भाइयों को खेलने की तो क्या रोटी खाने की फुर्सत नही मिलती थी! सुबह शाम खेत और दिन में स्कूल और स्कूल से आकर हमें रोज गाय, बैल, भैंसों को चारा सानी देना होता था! इसके बाद रामायण गीता भी पढ़ना आवश्यक था! इसी दरम्यान जब कभी मेरा आदिवासी दोस्त 'मुखल' हमारे घर हम भाइयों को अंडाडावरी या कबड्डी खेलने का आमंत्रण देने आता तो वह पिताजी के कोप का भाजन बनता!पिताजी उसे डांटकर भगा देते कि 'तूं तो हिरण,तीतर,बटेर मार खायेगा, मेरे बच्चे क्या घास खायेगें !तब हीरालाल आदिवासी के पास खुद का कुआं भी था! जबकि हमारे पिताजी की खेती वाली जमीन असिंचित थी!ऐंसा नही था कि हर दलित आदिवासी हीरालाल जैसा संपन्न था,और ऐंसाभी नही था कि हर सवर्ण परिवार हमारे समकक्ष आर्थिक रूप से कमजोर था!वेशक असमानता तब भी थी और अभी भी है,किंतु उसका आधार जात पांत और धरम मजहब नही है! अपितु यह व्यवस्थागत दोष और वंशानुगत आर्थिक असमानता की वजह से ही विद्यमान है!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें