सभ्यताओं के विकास क्रम में आदिमानव युगसे लेकर ऋग्वेदकाल तक की यात्रा में, और उसके तदनंतर मध्ययुग के युरोपियन रेनेंसा तथा भारतीय उपमहाद्वीप के करुण भक्तिकाल एवं पुनर्जागरण कालतक जितने भी जागतिक अनसंधान या अन्वेषण हुए हैं, उनमें मनुष्य द्वारा 'ईश्वर की खोज' सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है ! इस विषय पर विश्व की तमाम सभ्यताओं ने देश,काल,परिस्थिति अनुसार अपनी-अपनी परम्पराओं और तत्सम्बंधी तत्व दर्शन का प्रतिपादन किया है! इस संबंध में यदि कोई धर्मान्ध-धर्मभीरु मठाधीशों की बातों को न भी माने तो भी यह स्वयंसिद्ध है कि मानव सभ्यताओं के उत्थान-पतन,भौतिक विकास और 'धर्म' मजहब का उदय इत्यादि उपादान 'ईश्वर', GOD,अल्लाह की परिकल्पना से बहुत पूर्व के हैं।
जिस तरह भारतीय वैदिक और परिवर्ती संस्कृत वांग्मय में भ्रगु,शांडिल्य,अष्टाबक्र जनक,कपिल,कणाद,सुश्रत,चरक और अन्य मन्त्रद्रष्टा ऋषियों के'तत्वदर्शन' में अद्भुत वैज्ञानिक चिंतन का समावेश है।उसी तरह अमेरिकी माया सभ्यता,मध्यएसिया की सुमेरु सभ्यता,नील नदी की इजिप्षियनऔर फैरोन सभ्यता से लेकर रोमन कैथोलिक युग के ओल्ड टेस्टामेंट और अरबी कबीलों के मानवीकरण की प्रक्रिया में भी साइंटिफिक मानव जीवन जीने की कला द्रष्टव्य है।चूंकि कालांतर में अरब-मध्य एशियाई सभ्यताओं के उत्तराधिकारियों ने लूट,युद्धपिपासा और साम्राज्य्वादी म्रगतृष्णा के लिए मजहब को हथियार बनाया और आरंभिक सफलता के बलबूते उन्होंने सारे एशिया और आधे यूरोप को अपना चरागाह बना लिया। जो लोग उनके आचार विचार से सहमत नही हुये,वे मार दिये गये! जबकि भारतीय उपमहाद्वीप के प्रगत मनुष्य ने सांसारिक, लौकिक ही नहीं और सिर्फ आत्मा,परमात्मा,माया ही नही बल्कि करुणा,उदारता,सत्य,अहिंसा और समस्त प्राणीमात्र को अपना सर्वश्व होम कर दिया। इसी को आर्यों ने यज्ञ कहा है! उन्होंने जब इन मूल्यों से लैस सारे विश्व का एक सृष्टा पालनहार और संहारक मान लिया तो फिर कोई पराया भी नहीं रहा। इसीलिये जब शकों, हूणों,कुषाणों ,तुर्को ,खिलजियों सैयदों ,मुगलों ,अंग्रेजों ने भारत को चरागाह मानकर यहाँ मुँह मारा तो इन बर्बर कबीलाई समाजों को भारत की सनातन परम्परा ने ईश्वरपुत्र मानकर 'बसुधैव कुटुंबकम' धर्म का पालन किया !
कालांतर में मिश्रित मानवीय जीवन संस्कृति की विविधतापूर्ण यात्रा में व्यक्ति,परिवार और समाज को संचालित करने के लिए इस भारतीय भूभाग में सभी समाजों ने अपने धर्मग्रंथ ,और अपने अपने रीति रिवाज सहेज लिए। किन्तु चाणक्य के सिवाय अन्य किसी ने 'राष्ट्र' शब्द का उल्लेख भी नही किया! यूरोपियन उपनिवेशवाद,आधुनिक पूँजीवाद और लोकतान्त्रिक राजनीतीने तमाम पुरातन मूल्यों,धर्म,श्रद्धा और रीति रिवाजों को कुछ हद तक अप्रासंगिक बना दिया। हिन्दुओं में जिस तरह सती प्रथा,बालविवाह अप्रासंगिक हो गये!उसी तरह अन्य धर्म मजहब में भी उन कुरीतियों से तौबा किया जाता रहा है, जिनकी इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में कोई अर्थवत्ता नहीं रही।
वेशक आज की दुनिया चांद सितारों के पार सोचने की क्षमता से लैस है! किंतु अशिक्षा और अज्ञान ने मानव मेदिनी को लोकतंत्र का चारा बना कर रख छोड़ा है! धर्म,मजहब,खुद, ईश्वर संबंधी आस्था और साम्प्रदायिकता के पुरातन खंडहर अब वोट की राजनीति के काम आ रहे हैं! जब तलक मजहबी और जातीय उन्माद की राजनैतिक खेती की जाती रहेगी,तब तलक लोकतंत्र अधूरा रहेगा !चूँकि सर्वहारा क्राति ही तमाम बीमारियों का इलाज है! जब तक क्रांति सफल नही हो जाती,तब तलक आम आदमी की आस्था -धर्म मजहब को वर्ग शत्रुओं का अस्त्र नही बनने देना चाहिए! श्रीराम तिवारी!
जिस तरह भारतीय वैदिक और परिवर्ती संस्कृत वांग्मय में भ्रगु,शांडिल्य,अष्टाबक्र जनक,कपिल,कणाद,सुश्रत,चरक और अन्य मन्त्रद्रष्टा ऋषियों के'तत्वदर्शन' में अद्भुत वैज्ञानिक चिंतन का समावेश है।उसी तरह अमेरिकी माया सभ्यता,मध्यएसिया की सुमेरु सभ्यता,नील नदी की इजिप्षियनऔर फैरोन सभ्यता से लेकर रोमन कैथोलिक युग के ओल्ड टेस्टामेंट और अरबी कबीलों के मानवीकरण की प्रक्रिया में भी साइंटिफिक मानव जीवन जीने की कला द्रष्टव्य है।चूंकि कालांतर में अरब-मध्य एशियाई सभ्यताओं के उत्तराधिकारियों ने लूट,युद्धपिपासा और साम्राज्य्वादी म्रगतृष्णा के लिए मजहब को हथियार बनाया और आरंभिक सफलता के बलबूते उन्होंने सारे एशिया और आधे यूरोप को अपना चरागाह बना लिया। जो लोग उनके आचार विचार से सहमत नही हुये,वे मार दिये गये! जबकि भारतीय उपमहाद्वीप के प्रगत मनुष्य ने सांसारिक, लौकिक ही नहीं और सिर्फ आत्मा,परमात्मा,माया ही नही बल्कि करुणा,उदारता,सत्य,अहिंसा और समस्त प्राणीमात्र को अपना सर्वश्व होम कर दिया। इसी को आर्यों ने यज्ञ कहा है! उन्होंने जब इन मूल्यों से लैस सारे विश्व का एक सृष्टा पालनहार और संहारक मान लिया तो फिर कोई पराया भी नहीं रहा। इसीलिये जब शकों, हूणों,कुषाणों ,तुर्को ,खिलजियों सैयदों ,मुगलों ,अंग्रेजों ने भारत को चरागाह मानकर यहाँ मुँह मारा तो इन बर्बर कबीलाई समाजों को भारत की सनातन परम्परा ने ईश्वरपुत्र मानकर 'बसुधैव कुटुंबकम' धर्म का पालन किया !
कालांतर में मिश्रित मानवीय जीवन संस्कृति की विविधतापूर्ण यात्रा में व्यक्ति,परिवार और समाज को संचालित करने के लिए इस भारतीय भूभाग में सभी समाजों ने अपने धर्मग्रंथ ,और अपने अपने रीति रिवाज सहेज लिए। किन्तु चाणक्य के सिवाय अन्य किसी ने 'राष्ट्र' शब्द का उल्लेख भी नही किया! यूरोपियन उपनिवेशवाद,आधुनिक पूँजीवाद और लोकतान्त्रिक राजनीतीने तमाम पुरातन मूल्यों,धर्म,श्रद्धा और रीति रिवाजों को कुछ हद तक अप्रासंगिक बना दिया। हिन्दुओं में जिस तरह सती प्रथा,बालविवाह अप्रासंगिक हो गये!उसी तरह अन्य धर्म मजहब में भी उन कुरीतियों से तौबा किया जाता रहा है, जिनकी इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में कोई अर्थवत्ता नहीं रही।
वेशक आज की दुनिया चांद सितारों के पार सोचने की क्षमता से लैस है! किंतु अशिक्षा और अज्ञान ने मानव मेदिनी को लोकतंत्र का चारा बना कर रख छोड़ा है! धर्म,मजहब,खुद, ईश्वर संबंधी आस्था और साम्प्रदायिकता के पुरातन खंडहर अब वोट की राजनीति के काम आ रहे हैं! जब तलक मजहबी और जातीय उन्माद की राजनैतिक खेती की जाती रहेगी,तब तलक लोकतंत्र अधूरा रहेगा !चूँकि सर्वहारा क्राति ही तमाम बीमारियों का इलाज है! जब तक क्रांति सफल नही हो जाती,तब तलक आम आदमी की आस्था -धर्म मजहब को वर्ग शत्रुओं का अस्त्र नही बनने देना चाहिए! श्रीराम तिवारी!
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