घर से तो निकले थे जग को खुशियाँ लुटाने,
खरामा खरामा किस वीराने में आ गए हम।
कबीलों में रहा होगा कभी जंगलका क़ानून,
बर्बर आतंकियों की जद में फिर आ गए हम!
हांकते हैं कारवाँ सत्ता के प्यादे जिस दौरमें,
उस पतनशील दौर की फिजामें आ गए हम।
बिल्कुल फर्क ही न रहा जहाँ नीति अनीति का,
खरामा खरामा उस सिस्टम में आ गए हम!!
दाभोलकर,पानसरे,गौरी लंकेश की मौत पर चुप रहे,
अब कन्हैंयाओं की नृशंस हत्याओं पै क्यों रो रहे हम!
चर्चा ही नहीं जहां वर्ग संघर्ष और जनक्रांति की,
ऐंसी रक्तरंजित महफ़िल में क्यों आ गए हम!!
:-श्रीराम तिवारी
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