जिन लोगों की सोच मजहबी -नस्लीय संकीर्णता से प्रेरित है , जिनका 'विजन' मानसिक ,सामाजिक और चारित्रिक स्तर पर अवैज्ञानिक है ,यदि ऐंसे लोग दुनिया के किसी भी देश में , 'बाय चांस' लोकप्रिय होकर नेत्त्वकारी भूमिका में आ भी जाते हैं ,तो भी देश - समाज और कौम को उनसे कोई खास उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। इस तरह के स्वयंभू महिमामंडित नेता लोग यदि समाज के सामूहिक हितों के बरक्स किसी खास , जाति ,मजहब -धर्म के प्रति झुकाव रखते हैं तो वे किसी के साथ भी न्याय करने में सफल नहीं होंगे।
आवाम को यह स्मरण रखना चाहिए कि ऐंसे 'अनाड़ी ' नेताओं के 'विकास और सुशासन की अंतिम परिणीति कौम की और देश की बर्बादी में ही सन्निहित है। फासिस्ट मुसोलनि ने 'रोमन्स का और नाजी हिटलर ने जर्मन्स का कितना 'भला' किया यह जग जाहिर है ? हिटलर -मुसोलनि जैसे लोगों ने तो फिर भी दुनिया भर के उपनिवेश हथियाकर अपने-अपने राष्ट्रों को कुछ आर्थिक और सामरिक समृद्धि प्रदान की होगी । किन्तु हिटलर-मुसोलनि के भारतीय अनुयायी तो केवल साम्प्रदायिकता के श्मशान में 'शिव तांडव ही किये जा रहे हैं। उनकी कोरी कूपंडूकता, यथास्थतिवाद , बड़बोलपन का आलम ये है कि नेपाल जैसा 'हिन्दू' बहुल मुल्क भी आज भारत का दुश्मन बन चुका है। पाकिस्तान से 'राम-राम -दुआ सलाम ' भी बंद है। चीन आँखें दिखा रहा है। देश के किसान आत्महत्या किये जा रहे हैं। इस भयावह स्थति के वावजूद भी वर्तमान भारतीय शासकों को केवल प्रतिक्रियावाद का ही सहारा है। देश के बुद्धिजीवियों ,साहित्यकारों ,वैज्ञानिकों और कलाकारों की मौन 'नाखुशी' को समझने -बूझने के बजाय शासक वर्ग की कतारों में उनकी अवमानना करने का चलन बढ़ चुका है। उन्हें यह शिद्द्त से याद रखना चाहिये कि जर्मनी में हिटलर के पराभव से पूर्व और इटली में मुसोलनि की दुरगति से पूर्व भी यही स्थति थी।
भेड़िया धसान समाज के जिन लोगों में वैज्ञानिक और तदनुरूप क्रांतिकारी वैचारिक चेतना का अभाव है , यदि उनका लम्पट नेतत्व समाज की नेत्त्वकारी भूमिका है तो उसमें राष्ट्रीय विकास और वैश्विक -नैतिक परिष्क्रमण की औकात नहीं है। जो लोग त्याग-बलिदान की वास्तविक चेतना के हामी नहीं है ,जो लोग मूल्यों को तार्किकता प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं ,यदि ऐंसे लोग विराट देश की शासन व्यवस्था को लोकतान्त्रिक तरीके से ,धर्मनिरपेक्ष तरीके से चलाने के बजाय यदि चालाकी और फितरत सेचलायंगे तो वे सभी की बर्बादी के जिम्मेदार होंगे। उनकी मंशा समाज के बने-बनाये ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की है। इसके लिए वे ढपोरशंख बजाकर दूसरों का ध्यानाकर्षण करते रहते हैं।
वर्तमान मीडिया में यही सब किया जा रहा है।अभी तक धर्मनिर्पक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र की अस्मिता का यह सारा दारोमदार वामपंथी विचारकों और तर्कवादियों की संघर्ष यात्रा में ही गुंजायमान हो रहा था। किन्तु अब खबर है कि बढ़ती जा रही सरकारी हिंसा ,असहिष्णुता और उत्पीड़न -दमन के खिलाफ आज कांग्रेस ने भी राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया है।वैसे यह प्रतिरोध जाहिर कर ,कांग्रेस ने कोई नवाई नहीं की है । सोनिया जी ने या कांग्रेस ने कोई एहसान नहीं किया है। यह तो कांग्रेस की ऐतिहासिक और नैतिक जिम्मेदारी भी है। कांग्रेस ने ६५ साल देश पर शासन किया है अब यदि वह लोकतान्त्रिक विपक्ष की भूमिका अदा कर रही है ,तो यह उसका नैतिक दायित्व है। न केवल दायित्व बल्कि फासीवाद के खिलाफ कांग्रेस का यह संघर्ष एक प्रगतिशील और देशभक्तिपूर्ण दायित्व भी है। वेशक कांग्रेस ने अतीत में देश को विनाशकारी आर्थिक दल-दल में धकेला है। किन्तु आज यदि वे देश के अल्पसंख्यकों ,मजदूरों ,किसानों और साहित्यिक विरादरी के साथ खड़े हैं तो यह कांग्रेस के पुनःजीवन के लिए बेहतरीन मावठा सावित होगा। और कांग्रेस का हर जन संघर्ष न केवल कांग्रेस की वापिसी का कारण होगा बल्कि भारतीय लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के लिए भी एक शुभ संकेत साबित होगा !
इस संदर्भ में एक स्वरचित दोहा :-
पानसरे दाभोलकर ,कलबुर्गी अखलाख।
मरकर भी हैं सुर्खरू ,सजग तीसरी आँख ।।
श्रीराम तिवारी
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