आज [२५-११-२०१५] के नयी दुनिया अखवार में एक सचित्र खबर छपी है। खबर का शीर्षक है -'मुफ्ती के पैतृक निवास पर पाकिस्तानी झंडा ' जम्मू -कश्मीर के मुख्य मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के गृह नगर बिजबहेड़ा में उनके पैतृक घर पर मंगलवार को पाकिस्तानी झंडा लहराते देखा गया। क्या यह भारत के दुश्मनों की ही काली करतूत है नहीं है ? इस शर्मनाक स्थति पर सरकारी चारण-भाट चुप क्यों हैं ? यह भी याद करें कि जनाब मुफ्ती साहिब [बाप-बेटी] का राजतिलक किसने करवाया ? इस शर्मनाक स्थिति पर कुछ न बोलकर जब घोर सरकारी भांड अनुपम खैर जैसे लोग आमिर खान को देश भक्ति का पाठ पढने पर आमादा हों .जब बीफ खाने की अफवाह मात्र पर एक निर्दोष को जान से मार देने वाले अभद्र -जाहिल लोग साहित्यकारों ,विचारकों और कलाकारों की जुबान पर ताला लगाने को उतावले हो रहे हों तो उन्हें आइना दिखाना जरुरी है !
अनुपम खैर जैसे लोग यदि होश में हैं तो सुने कि पाक परस्त आतंकवादियों की वास्तविक चुनौती स्वीकार क्यों नहीं करते ? आमिर खान को नसीहत देने वाले यदि बाकई असली देशभक्त हैं तो गद्दार मुफ्ती पर देशद्रोह का मुकदमा दायर करने की मांग क्यों नहीं उठाते ? सत्ता पक्ष के कश्मीरी असोसिएट अर्थात परम 'देशभक्त सहयोगियों' को उनकी इस गद्दारी की क्या सजा दी जानी चाहिये ? उचित सजा सजा दिलाएं !आमिर ,ओवेसी, आजमखान को नहीं बल्कि मुफ्ती को मुख्य मंत्री बनावाने वाले -नकली देशभक्तों को अपने-किये धरे पर गौर करना चाहिए ! वास्तव में सत्ता पक्ष को अपनी भारत विरोधी हरकतें बंद कर देश भक्ति का सबक नहीं सीखना चाहिए ! साहित्यकारों,बुध्दिजीवियों विचारकों ,लेखकों ,वैज्ञानिकों ,कलाकारों को देश भक्ति का पाठ पढ़ाने वाले ,राजनीति में मजहब घुसेड़कर धर्मनिरपेक्षता की कतारों को देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटने वाले पहले अपने होश की दवा करें ! फिर अपने गिरेवान में झांककर देखे !
दरसल आमिर खान से ज्यादा अनुपम खैर जैसे लोगों को देशभक्ति सीखने की जरूरत है ! इस भगोड़े कश्मीरी पंडित को अक्ल का अजीर्ण कुछ ज्यादा ही हो गया है। वह भूल रहा है कि कश्मीर के पंडित यदि कश्मीर नहीं छोड़ते,पलायन नहीं करते और मुस्तैदी से आतंकवाद का सामना करते तो यूएनओ और दुनिया भर के अमनपसंद लोगों का उन्हें समर्थन अवश्य मिलता । तब भारत का नैतिक मनोबल भी और ऊँचा होता। अनुपम खैर जैसे भगोड़े कश्मीरी पंडितों को ओवेसी और आजम खां के वयानों से भी कुछ सीखना चाहिए ! ओवेसी , आजमख़ाँ और जमीयत -उलेमा -ए -हिन्द की समझ कितनी साफ़ है ? कि " भारत जितना हिन्दुओं का है उतना ही मुसलमानों का भी है और हम यहीं जिएंगे ,यहीं मरेंगे !''
ओवेसी ,आजमख़ाँ और जमीयत की नसीहत क्या अनुपम खैर जैसे कश्मीरी पंडितों के लिए मौजू नहीं है ? भारत के कश्मीरी पंडितों में एक भी भगतसिंह होता ,एक भी आजाद होता ,एक भी अख्लाख़ होता तो लोगों को कश्मीरी के आतंकियों को जूते मारने का भरपूर मौका मिलता। आज कश्मीर की हालत इतनी बुरी न होती ! अनुपम खैर जैसे लोग यदि इतने ही देश भक्त थे तो 'खुला खलिहान ' छोड़कर भागे क्यों ? पहले तो ओने-पोन दामों पर अपनी जायदाद बेच -बेच कर कश्मीर छोड़ दिया और मुंबई-दिल्ली अलाहाबाद में ऐश करने लगे। अब जब देश में फासिज्म की आहट है तो असहिष्णुता से इंकार कर रहे हैं ! यदि उनकी बात ही सही है तो कश्मीर में चल रही असहिष्णता पर दोहरे मापदंड क्यों ?
वेशक आमिर खान इस मामले में अनुपम खैर से बेहतर है कि वे बहुत कम और सटीक बोलते हैं। जबकि पंडित अनुपम खैर हर मुद्दे पर बोलने के लिए हर वक्त उतावले रहते हैं। अनुपम खैर ने तो विद्वानों के सम्मान वापिसी आंदोलन को मगरमच्छ के आंसू कहा था ! उन्होंने 'बीफ' काण्ड और मुजफ्फरनगर की हिंसा पर भी जब-तब कुछ न कुछ नकारात्मक और उत्तेजक प्रतिक्रिया ही व्यक्त की है। किन्तु आमिर खान या किसी भी फ़िल्मी नायक-खलनायक ने अनुपम की उद्दाम वाग्मिता का रंचमात्र प्रतिवाद नहीं किया। अब जबकि आमिर ने अपनी पत्नी की आशंका के बरक्स 'सहिष्णुता' पर सिर्फ संज्ञान लेने की बात कही तो अनुपम खैर का टेप चालू हो गया। वे पूरे 'अल्वर्ट पिन्टो' हो गए। वेशक अन्याय पर गुस्सा जायज है। लेकिन आमिर ने ऐसा क्या गजब कर डाला कि पूरे भगवद्ल को ही कोई गुस्सा आ रहा है ? जो लोग आमिर खान की पूरी शब्दावली से केवल 'अरुचिकर' शब्दों का उल्लेख करते हुए अपना हाजमा बिगाड़ने पर तुले हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की सेहत भी उन्ही की खतरे में है ! जो लोग देश के बुद्धिजीवियों -लेखकों और कलाकारों के सम्मान वापसी मुद्दे पर आग्नेय हो रहे हैं ,आमिर खान पर भौंक रहे हैं वे अपनी असहिष्णुता का ही भौंडा प्रदर्शन कर रहे हैं।
वैसे आमिर खान हों , अनुपम खैर हों या कोई और तीसमारखां हों - किसी भी इल्मी-फ़िल्मी ऐरे-गैरे -नत्थू खैरे को सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक -डिजिटल मीडिया पर इतना भाव दिया ही नहीं जाना चाहिए। जिन फ़िल्मी [कलाकारों] अर्थात अभिनय के धंधेबाजों को राजनीति -मजहब -राष्ट्रवाद -असहिष्णुता का ककहरा मालूम न हो उनको तवज्जो देना मूर्खता है। जिन लोगों को अपने ही देश में बिकराल रूप धारण कर चुकी महंगाई से मतलब न हो ,बेरोजगारी से साबका न हो ,आर्थिक असमानता दिखाई न दे रही हो , जिन्हे भारतीय समाज के अंतर्द्वंद और उसकी वास्तविक दुर्दशा के बारे में कुछ भी मालूम न हो ,वे क्या नायक और क्या खलनायक -सबके सब दाऊद और राजन जैसे अपराधियों की गटरगंगा में गोते लगा चुके हैं। मीडिया में इन फ़िल्मी नायकों को क्रांतिकारियों की तरह वेजा महत्व क्यों दिया जा रहा ? इस बाजारीकरण के दौर में बॉलीबुड वाले चार्ली चैप्लिन होने से तो रहे ! वो जमाना भी नहीं रहा जब बलराज शाहनी ,सत्य जित रे ,कैफ़ी आजमी , राही मासूम रजा , ख्वाजा अहमद अब्बास की परम्परा परवान चढ़ रही थी।
आज के श्याम बेनेगल ,गिरीश कर्नाड ,शबाना आजमी ,जावेद अख्तर जैसे सचेत और जागरूक कलाकारों को छोड़कर, मीडिया और दिग्भर्मित लोगों की भीड़ कल्पना लोक में बिचरण करने वाले उन सिने अभिनेताओं को ज्यादा अहमियत दे रही है। जो वास्तविक दुनिया के आइकॉन नहीं हो सकते ! क्या आमिर खान ,अनुपम खैर गजेन्द्र चौहान,शाहरुख़ खान, स्मृति ईरानी कोई प्रगतिशील विचारक-बुद्धिजीवी या क्रान्तिदृष्टा हैं ? जिनके कहे-सुने पर देश के तमाम फुरसतिये हलकान हो रहे हैं ?
वैसे तो अमीर खान क्या -गरीब खान क्या ?अनुपम खैर क्या उनकी पत्नी किरण खैर क्या ? जब तक 'आम' हैं तब तक तो सब बराबर ही हैं ! लेकिन यदि वे देश के लिए खास होना ही चाहते हैं तो उन्हें कुछ खास कुर्बानी भी देनी होगी। उन्हें देश के लिए कुछ खास करना होगा ! और यह वे तब तक नहीं कर पाएंगे जब तक कि देश और दुनिया के आर्थिक -सामाजिक -राष्ट्रीय मसलों की चेतना से वे सुसज्जित नहीं हो जाते। ओर यह काम बड़ा मुश्किल है। लोहिया , जेपी ,अण्णा हजारे ,मेघा पाटकर जैसी हजारों लाखों शख्सियतें शासन-प्रशासन के लाठी-डंडे खाने के बाद भी ,जेल जाने के बाद भी वर्ग चेतना से लेस नहीं हो सकीं । अर्थात वे अपने देश का मार्गदर्शन करने के लिए - गांधी,नेहरू ,पटेल ,लेनिन ,माओ होचीं -मिन्ह और फीदेल कास्त्रो नहीं बन पाये। जब तक ये फ़िल्मी सितारे ,ये एनजीओ चलाने वाले ,ये पांच सितारा भोग लिप्सा और कार्पोरेट संस्कृति वाले -जनता की नजर में नायक या आइकॉन बने रहेंगे, तब तक हम अपने देश को चीन-जापान -सिंगापोर तो क्या केरल 'गुजरात' भी नहीं बना पाएंगे। श्रीराम तिवारी
अनुपम खैर जैसे लोग यदि होश में हैं तो सुने कि पाक परस्त आतंकवादियों की वास्तविक चुनौती स्वीकार क्यों नहीं करते ? आमिर खान को नसीहत देने वाले यदि बाकई असली देशभक्त हैं तो गद्दार मुफ्ती पर देशद्रोह का मुकदमा दायर करने की मांग क्यों नहीं उठाते ? सत्ता पक्ष के कश्मीरी असोसिएट अर्थात परम 'देशभक्त सहयोगियों' को उनकी इस गद्दारी की क्या सजा दी जानी चाहिये ? उचित सजा सजा दिलाएं !आमिर ,ओवेसी, आजमखान को नहीं बल्कि मुफ्ती को मुख्य मंत्री बनावाने वाले -नकली देशभक्तों को अपने-किये धरे पर गौर करना चाहिए ! वास्तव में सत्ता पक्ष को अपनी भारत विरोधी हरकतें बंद कर देश भक्ति का सबक नहीं सीखना चाहिए ! साहित्यकारों,बुध्दिजीवियों विचारकों ,लेखकों ,वैज्ञानिकों ,कलाकारों को देश भक्ति का पाठ पढ़ाने वाले ,राजनीति में मजहब घुसेड़कर धर्मनिरपेक्षता की कतारों को देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटने वाले पहले अपने होश की दवा करें ! फिर अपने गिरेवान में झांककर देखे !
दरसल आमिर खान से ज्यादा अनुपम खैर जैसे लोगों को देशभक्ति सीखने की जरूरत है ! इस भगोड़े कश्मीरी पंडित को अक्ल का अजीर्ण कुछ ज्यादा ही हो गया है। वह भूल रहा है कि कश्मीर के पंडित यदि कश्मीर नहीं छोड़ते,पलायन नहीं करते और मुस्तैदी से आतंकवाद का सामना करते तो यूएनओ और दुनिया भर के अमनपसंद लोगों का उन्हें समर्थन अवश्य मिलता । तब भारत का नैतिक मनोबल भी और ऊँचा होता। अनुपम खैर जैसे भगोड़े कश्मीरी पंडितों को ओवेसी और आजम खां के वयानों से भी कुछ सीखना चाहिए ! ओवेसी , आजमख़ाँ और जमीयत -उलेमा -ए -हिन्द की समझ कितनी साफ़ है ? कि " भारत जितना हिन्दुओं का है उतना ही मुसलमानों का भी है और हम यहीं जिएंगे ,यहीं मरेंगे !''
ओवेसी ,आजमख़ाँ और जमीयत की नसीहत क्या अनुपम खैर जैसे कश्मीरी पंडितों के लिए मौजू नहीं है ? भारत के कश्मीरी पंडितों में एक भी भगतसिंह होता ,एक भी आजाद होता ,एक भी अख्लाख़ होता तो लोगों को कश्मीरी के आतंकियों को जूते मारने का भरपूर मौका मिलता। आज कश्मीर की हालत इतनी बुरी न होती ! अनुपम खैर जैसे लोग यदि इतने ही देश भक्त थे तो 'खुला खलिहान ' छोड़कर भागे क्यों ? पहले तो ओने-पोन दामों पर अपनी जायदाद बेच -बेच कर कश्मीर छोड़ दिया और मुंबई-दिल्ली अलाहाबाद में ऐश करने लगे। अब जब देश में फासिज्म की आहट है तो असहिष्णुता से इंकार कर रहे हैं ! यदि उनकी बात ही सही है तो कश्मीर में चल रही असहिष्णता पर दोहरे मापदंड क्यों ?
वेशक आमिर खान इस मामले में अनुपम खैर से बेहतर है कि वे बहुत कम और सटीक बोलते हैं। जबकि पंडित अनुपम खैर हर मुद्दे पर बोलने के लिए हर वक्त उतावले रहते हैं। अनुपम खैर ने तो विद्वानों के सम्मान वापिसी आंदोलन को मगरमच्छ के आंसू कहा था ! उन्होंने 'बीफ' काण्ड और मुजफ्फरनगर की हिंसा पर भी जब-तब कुछ न कुछ नकारात्मक और उत्तेजक प्रतिक्रिया ही व्यक्त की है। किन्तु आमिर खान या किसी भी फ़िल्मी नायक-खलनायक ने अनुपम की उद्दाम वाग्मिता का रंचमात्र प्रतिवाद नहीं किया। अब जबकि आमिर ने अपनी पत्नी की आशंका के बरक्स 'सहिष्णुता' पर सिर्फ संज्ञान लेने की बात कही तो अनुपम खैर का टेप चालू हो गया। वे पूरे 'अल्वर्ट पिन्टो' हो गए। वेशक अन्याय पर गुस्सा जायज है। लेकिन आमिर ने ऐसा क्या गजब कर डाला कि पूरे भगवद्ल को ही कोई गुस्सा आ रहा है ? जो लोग आमिर खान की पूरी शब्दावली से केवल 'अरुचिकर' शब्दों का उल्लेख करते हुए अपना हाजमा बिगाड़ने पर तुले हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की सेहत भी उन्ही की खतरे में है ! जो लोग देश के बुद्धिजीवियों -लेखकों और कलाकारों के सम्मान वापसी मुद्दे पर आग्नेय हो रहे हैं ,आमिर खान पर भौंक रहे हैं वे अपनी असहिष्णुता का ही भौंडा प्रदर्शन कर रहे हैं।
वैसे आमिर खान हों , अनुपम खैर हों या कोई और तीसमारखां हों - किसी भी इल्मी-फ़िल्मी ऐरे-गैरे -नत्थू खैरे को सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक -डिजिटल मीडिया पर इतना भाव दिया ही नहीं जाना चाहिए। जिन फ़िल्मी [कलाकारों] अर्थात अभिनय के धंधेबाजों को राजनीति -मजहब -राष्ट्रवाद -असहिष्णुता का ककहरा मालूम न हो उनको तवज्जो देना मूर्खता है। जिन लोगों को अपने ही देश में बिकराल रूप धारण कर चुकी महंगाई से मतलब न हो ,बेरोजगारी से साबका न हो ,आर्थिक असमानता दिखाई न दे रही हो , जिन्हे भारतीय समाज के अंतर्द्वंद और उसकी वास्तविक दुर्दशा के बारे में कुछ भी मालूम न हो ,वे क्या नायक और क्या खलनायक -सबके सब दाऊद और राजन जैसे अपराधियों की गटरगंगा में गोते लगा चुके हैं। मीडिया में इन फ़िल्मी नायकों को क्रांतिकारियों की तरह वेजा महत्व क्यों दिया जा रहा ? इस बाजारीकरण के दौर में बॉलीबुड वाले चार्ली चैप्लिन होने से तो रहे ! वो जमाना भी नहीं रहा जब बलराज शाहनी ,सत्य जित रे ,कैफ़ी आजमी , राही मासूम रजा , ख्वाजा अहमद अब्बास की परम्परा परवान चढ़ रही थी।
आज के श्याम बेनेगल ,गिरीश कर्नाड ,शबाना आजमी ,जावेद अख्तर जैसे सचेत और जागरूक कलाकारों को छोड़कर, मीडिया और दिग्भर्मित लोगों की भीड़ कल्पना लोक में बिचरण करने वाले उन सिने अभिनेताओं को ज्यादा अहमियत दे रही है। जो वास्तविक दुनिया के आइकॉन नहीं हो सकते ! क्या आमिर खान ,अनुपम खैर गजेन्द्र चौहान,शाहरुख़ खान, स्मृति ईरानी कोई प्रगतिशील विचारक-बुद्धिजीवी या क्रान्तिदृष्टा हैं ? जिनके कहे-सुने पर देश के तमाम फुरसतिये हलकान हो रहे हैं ?
वैसे तो अमीर खान क्या -गरीब खान क्या ?अनुपम खैर क्या उनकी पत्नी किरण खैर क्या ? जब तक 'आम' हैं तब तक तो सब बराबर ही हैं ! लेकिन यदि वे देश के लिए खास होना ही चाहते हैं तो उन्हें कुछ खास कुर्बानी भी देनी होगी। उन्हें देश के लिए कुछ खास करना होगा ! और यह वे तब तक नहीं कर पाएंगे जब तक कि देश और दुनिया के आर्थिक -सामाजिक -राष्ट्रीय मसलों की चेतना से वे सुसज्जित नहीं हो जाते। ओर यह काम बड़ा मुश्किल है। लोहिया , जेपी ,अण्णा हजारे ,मेघा पाटकर जैसी हजारों लाखों शख्सियतें शासन-प्रशासन के लाठी-डंडे खाने के बाद भी ,जेल जाने के बाद भी वर्ग चेतना से लेस नहीं हो सकीं । अर्थात वे अपने देश का मार्गदर्शन करने के लिए - गांधी,नेहरू ,पटेल ,लेनिन ,माओ होचीं -मिन्ह और फीदेल कास्त्रो नहीं बन पाये। जब तक ये फ़िल्मी सितारे ,ये एनजीओ चलाने वाले ,ये पांच सितारा भोग लिप्सा और कार्पोरेट संस्कृति वाले -जनता की नजर में नायक या आइकॉन बने रहेंगे, तब तक हम अपने देश को चीन-जापान -सिंगापोर तो क्या केरल 'गुजरात' भी नहीं बना पाएंगे। श्रीराम तिवारी
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