मंगलवार, 10 नवंबर 2015

'असहिष्णुता' रुपी गिद्ध गैर भाजपा शासित राज्यों में ही ज्यादा क्यों फड़फड़ा रहे हैं?

 बिहार चुनाव  प्रचार में संघ परिवार और भाजपा नेताओं ने जो कुछ 'बोल बचन' कहे उसका परिणाम पराजय के रूप में सामने है। इस मर्मांतक पराजय से आहत  भाजपा ओर  एनडीए वाले 'हार पर आत्म चिंतन'के बहाने अब और ज्यादा अल्ल -वल्ल बक रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है की चुनाव प्रचार में बोलने वाले अब मौन हैं और जिन्हे तब बोलने नहीं दिया गया वे अब अपनी भड़ास निकल रहे हैं ! कुछ तो मोहन भागवत,अमित शाह और मोदी जी को  ही 'हांर का  हार '' पहनाने  पर तुले हैं। उनका आक्रोश जायज और तार्किक भी है।

क्योंकि अपने व्यक्तिवादी  अधिनायकवादी और प्रचंड -उदंडवादी  सच्चे-झूंठे चुनाव प्रचार अभियान से मोदी जी ने  इन चुनावों को वैश्विक  बना दिया था।  इसलिए अब न केवल शेयर बाजार में हडक़म्प है ,न केवल रुपया लुढ़क रहा है,बल्कि ब्रिटेन -अमेरिका के अखवारों में उधर के राजनीतक हलकों में मोदी के घटते आभा मंडल का जिक्र हो रहा  है। आज यदि पाकिस्तानी  मीडिया में  बिहार के चुनाव के बहाने  कुछ खुन्नस खाए लोग एनडीए और भाजपा  पर हँस  रहे हैं तो उसके लिए भाजपा के नेताओं का अहंकार और उनकी पाकिस्तान के प्रति वही  नफरत भरी 'बोली बानी' ही जिम्मेदार है।  बिहार में ऐतिहासिक 'मोदी पराजय' के लिए 'संघ प्रमुख 'मोहन राव भागवत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह , योगी आदित्यनाथ ,साक्षी महाराज , साध्वी प्राची  और खुद  प्रधान मंत्री मोदी जी के वयान  ही  जिम्मेदार  हैं। महागठबंधन की एकता महज 'रिपट  पड़े तो हर -हर गंगे है' ! यदि भाजपा असहिष्णुता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा सुलझा ले , नरेंद्र मोदी  जी ने 'सबका साथ और सबका  विकास  बाबत विगत डेड साल में जितना बोला है  ,यदि  वे उसका २५% भी अमल करके दिखाए तो आगामी लोक सभा चुनाव में  लालू नीतीश को  ५  सीटें भी नहीं  मिलेंगी  !


बिहार चुनाव में भाजपा की हार के लिए सिर्फ भागवत जी का आरक्षण वाला वयान ही नहीं बल्कि एन चुनाव के वक्त 'सम्मान वापसी 'एपिसोड जरा  ज्यादा ही लम्बा  गया। इस महा पाप के  लिए भाजपा के प्रवक्ता , दोयम दर्जे के फिल्म एक्टर  और संघी बौद्धिक सबसे जयादा कसूरवार हैं। असहिष्णुता बनाम सम्मान वापसी एपीसोड पर  जरा ज्यादा ही कवरेज दिया जाता  रहा है। वास्तव में देश के  जिन 'सम्माननीय' लोगों को लगा कि  धर्मनिरपेक्षता -जनवाद  और सहिष्णुता जैसे मूल्य खतरे में हैं उन्होंने उसकी रक्षा के लिए जो कुछ किया वो न केवल देश के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के काम आया बल्कि  देश के 'असहिष्णु'लोगों को  बिहार में निपटाने के भी कुछ काम अवश्य आया। जिन  वैज्ञानिकों ,साहित्यकारों और विचारकों ने  मूल्यों की रक्षा के लिए 'सम्मान वापसी' का निर्णय लिया, उनके समर्थन में कांग्रेस ,वामपंथ और अन्य तमाम लोकतंत्रात्मक ताकतें  भी एकजुट हो रही हैं हैं। लेकिन सत्ता पक्ष के लोग ,असहिष्णु लोग ,दोयम दर्जे के साम्प्रदायिक  अभिनेता और दक्षिणपंथी कटटरपंथी संगठन इस सम्मान वापसी को 'देश की बदनामी'के रूप में  प्रचारित किये जा रहे हैं। लालू -नीतीश चूँकि धर्मनिरपेक्षता और  लोकतांत्रिकता का लबादा ओढ़े हुए थे अतएव विहारी वोटर ने उन्हें जिता  दिया  और   बिहार की तथाकथित पिछड़ी आवाम ने विकास ,सुशासन और 'सवा लाख  के पैकेज  को ठुकरा दिया ! क्यों ?केवल सहिष्णुता और सामाजिक सद्भाव के लिए !

  इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्र में  'मोदी सरकार' के सत्ता में आने के बाद  देश में 'असहिष्णुता' बढ़ी है। यह भी सौ फीसदी सच  है कि  इस दौर में या तो  कलिबुर्गी जैसे  वैज्ञानिक  तर्कवादी शहीद  हो रहे  हैं या दाभोलकर जैसे अंधश्रद्धा निवारक -सामाजिक कार्यकर्ता अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं। असहिष्णुता रुपी नरभक्षणी  साम्प्रदायिकता  ने कामरेड  गोविन्द पानसरे जैसे कर्मठ वामपंथी बुद्धिजीवी - विचारक और साहित्यकार  को देश के सर्वहारा वर्ग से छीन  लिया। इस  दक्षिणपंथी कट्टरपंथ की असहिष्णुता के शिकार अख्लाख़ जैसे कुछ निर्दोष अल्पसंख्यक भी हुए हैं।  चूँकि धर्मान्धता विरोधी  और साम्प्रदायिकता  विरोधी जन  चेतना के सापेक्ष अभी तो  इस देश के जन मानस में साम्प्रदायिकता ,जातीयता और असहिष्णुता  का पलड़ा  ही भारी है।

अतएव ' विकास बनाम असहिष्णुता'  के  चक्रव्यूह  में  विकास रुपी अभिमन्यु  की वीरगति सुनिश्चित थी । भले ही  धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण  के 'पांडव' विजयी हो गए ,किन्तु अभी तो राजनीतिक  चौसर के  कुटिल    पांसे शकुनि  और दुर्योधन के पक्ष में ही  हैं।  अभी तो असहिष्णुता रुपी  यजीद  कर्बला के रेगिस्तान में घात लगाये बैठा है। यह  न केवल अभिमन्यु  बल्कि हसन  और हुसेन की  शहादत  का दौर है। वेशक शहीदों   की कुर्बानी कभी बेकार नहीं जाती।  हर कुर्बानी के बाद शहीदों की नयी पीढ़ी का लहू और ज्यादा सुर्खरू  होने लगता है। संघर्ष का मैदान केवल चुनावी जंग के लिए मशहूर नहीं है बल्कि विचारों के  अनवरत द्व्न्द  में भी देवासुर संग्राम का ही बोलबाला है।

असहिष्णुता बनाम साम्प्रदायिक द्वेष  जनित हिंसा और सत्ता पक्ष के लोगों के  बड़बोले पन से आहत कुछ चुनिंदा साहित्यिक  हस्तियों  ने जो सम्मान वापसी आंदोलन चलाया है वो अपना असर दिखाने लगा है।  बिहार चुनाव में भाजपा की हार और केरल स्थानीय निकायों में कांग्रेस का सूपड़ा सफा बताता है कि  देश की वाम जनतांत्रिक ताकतों का संघर्ष सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। चूँकि  कलिबुर्गी  कांग्रेस शासित कर्णाटक में मारे गए हैं।  दाभोलकर भी  विगत कांग्रेस शासित महाराष्ट्र में  ही मारे गये थे। कामरेड पानसरे की हत्या  जरूर भाजपा शाषित महाराष्ट्र में हुयी है। दादरी के अख्लाख़  यूपी की सपा सरकार के राज में हुयी है। यह तो सहज सम्भाव्य था  कि  कांग्रेस  और सोनिया जी  विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करते हुए  इस असहिष्णुता के  मुद्दे पर मैदान संभालती।  लेकिन उन्होंने केवल राष्ट्रपति  से हस्तक्षेप का अनुरोध करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है । उधर  कांग्रेस को कर्नाटक में कलिबरगी की हत्या का जबाब देते नहीं बन रहा है। अब वे सामंत टीपू सुलतान  के भूत को जिन्दा करने पर तुले हैं। कांग्रेस  ,भाजपा और  वामपंथ को  यह  तो अवश्य ही पता लगाना चाहिए कि   'असहिष्णुता' रुपी गिद्ध  गैर भाजपा शासित राज्यों में  ही ज्यादा क्यों फड़फड़ा  रहे  हैं?

 यह नापाक असहिष्णुता रुपी  नागिन तो  कांग्रेस के ६० सालाना राज में  भी हमेशा फन फुसकारती रही है।   इसी तरह अंग्रेजी राज के दौर  की असहिष्णुता तो जलियावाला बाग़ से लेकर भारत बिभाजन की रक्तरंजित  कहानी में भी मौजूद है। और अंग्रेजों से पूर्व  तुर्कों ,खिल्जियों और गजनवियों ,मुगलों के राज की असहिष्णुता तो सारे विश्व में कुख्यात है। तैमूर ,चंगेज,हलाकू अब्दाली ,मलिक  काफूर,बैरमख़ाँ,नादिरशाह और ओरंगजेब कितने सहिष्णु थे ? यह   इतिहास के पन्नो पर काले अक्षरों में उन्होंने खुद लिखा है।  जबकि भारत के कण - कण  में  जो सहिष्णुता विद्यमान हैं  उसके लिए  न केवल समस्त भारतीय परम्परा बल्कि  गौतम  महावीर  नानक  इत्यादि के मूल्यों की धरोहर जिम्मेदार है। अब यदि कोई हिन्दू ,जैन ,सिख या बौद्ध  संघ परिवार  या भाजपा  की असहिष्णुता को  पसंद  नहीं करता  तो वह स्वाभाविक रूप से गौतम,महावीर ,नानक और  गांधी के मूल्यों का  समर्थक हो  कहलायेगा । वेशक एनडीए को  जनता ने बहुमत से चुना है तो  देश को चलाने ,विकास करने और सम्विधान की रक्षा करने  के लिए  ही चुना है। वे यदि  अपना पुरातनपंथी एंजेंडा लागू करेंगे तो उन्हें न केवल बिहार की बल्कि केंद्र की सत्ता से भी हाथ धोना पडेगा।

 संघ परिवार के जिन नेताओं ,प्रवक्ताओं  ,संगठनों  और बौद्धिकों  अभी तक केवल शाब्दिक प्रतिक्रियावाद का पाठ पढ़ा है ,उन्हें विकास ,सुशासन और समाजवाद के बारे में भी कुछ सोचना समझना चाहिए।१६ मई २ ०१४  से अब तक तो  'असहिष्णुता 'का नग्न रूप ही  देश और दुनिया के सामने प्रकट हुआ है। विकास की बात करते-करते  मोदी जी खुद लालू-  जैसे  स्तरहीन भदेश नजर आने लगते हैं। वैज्ञानिकता की बात करते-करते  वे प्रति क्रियावादी ही सावित होने लगते हैं ।  श्रीराम तिवारी 

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