रविवार, 8 नवंबर 2015

एक चाराखोर ही पिछड़ों की नजर में जब प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष बनकर बैठा हो तो क्या कीजियेगा ?

 शंकरजी  अपने एक भक्त पर प्रशन्न भये ! बोले  हे वत्स वरदान  मांगो !   हालाँकि अंतर्यामी भोलेनाथ जानते थे  कि  यह बंदा  अपने पड़ोसी को नुक्सान पहुँचाने  की बदनीयित से  ही मेरी तपस्या कर रहा है।  अतः उन्होंने पहले से ही शर्त  रख दी की तुम जो भी वरदान मांगोगे  ,तुम्हारे पड़ोसी को अपने आप डबल मिल जाएगा। भक्त  भी खांटी बिहारी -लोहियावादी -जेपीवादी  डीएनए का था ।  इसलिए उसने भी वरदान मांगने में  काइयाँपन दिखाया।  झट  से  अपनी एक आँख फूट  जाने का वरदान  माँग  लिया ! भोलेनाथ ने ऐंसा तो सोचा भी नहीं था कि  कोई ऐंसा आत्मघाती वरदान भी मांग सकता है ! लेकिन अब क्या हो सकता था ? उन्होंने एवमस्तु कहा  और फिर  अंतर्ध्यान  भये !  आगे इस दृष्टांत का परिणाम  सभी जानते हैं  कि  उस  भक्त की एक  आँख और उसके पड़ोसी  की दोनों आँखें फुट गयीं। बिहार के जातिवादी जन मानस ने  लालू -नीतीश के व्यामोह में एनडीए  की जीत और मोदी जी  की वैश्विक कीर्ति रुपी दोनों आँखें फोड़ दी। लेकिन बिहार के विकाश रुपी  अपनी एक  आँख  तो अवश्य ही फ़ुड़वा ली हैं।

लगभग १४-१५ साल पहले की बात है। मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव चल रहे थे। तब इंदौर में पत्रकारों के सवालों का जबाब देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह जी ने चुनावी जीत -हार के संदर्भ में एक  मौलिक सिद्धांत पेश किया था। उन्होंने दो टूक कहा  था ''हमारे देश में चुनावी हार-जीत पार्टी या नेताओं के परफार्मेंस  या कामकाज [विकाश] से  सुनिश्चित नहीं हुआ करती। बल्कि वोटों को मैनेज करने से ही चुनावी जीत तय होती है "। इस सिद्धांत को पेश करने वाले दिग्गी राजा की कांग्रेस को तब मध्यप्रदेश में  भयानक  हार का मुँह  देखना पड़ा था। क्योंकि उनके सिद्धांत का कांग्रेसियों ने ही मजाक उड़ाया था और उसका पालन नहीं किया। जबकि  विरोधी पार्टी की तत्कालीन कद्दावर नेत्री सुश्री उमा  भारती  के नेतत्व में 'संघियों' ,बनियों और दलालों  ने 'मिस्टर बंटाढार ' का नारा लगाकर  आवाम की उम्मीदों को  जमकर हवा दी थी।  इसलिए  कांग्रेस   बुरी तरह हार  गयी। और उसने  मध्यप्रदेश में भाजपा को स्थाई रूप से सत्ता में बिठा दिया। वेशक मध्यप्रदेश के लोग इस भाजपा शासन से  बेहद नाराज हैं ,किन्तु  यहां बिहार जैसा 'महागठबंधन'  नहीं बन पाने से गधे ही   लगातार गुलाब जामुन खाये जा  रहे हैं। यहाँ  के सत्तासीन  नेता 'संघ' वालों  और 'बाबा' बाबियोँ की चरण वंदना में लींन  हैं।  मंत्री तो भूंखे बच्चे को लात मार रहे हैं. आत्महत्या कर रहे किसानों का मजाक उड़ा रहे  हैं। फसल मुवावजे के रूप में  किसान के खाते में ३५ पैसे  जमा किये जा रहे हैं। यहां के प्याजखोर , व्याजखोर, दालखोर , रेतमाफिया - बिल्ड़र माफिया के बल्ले -बल्ले हैं। लेकिन इस सबके लिए कांग्रेस ही सबसे ज्यादा जिम्मदेार है। क्योंकि उसके नेता एक दुसरे को फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करते और अन्य दलों से एका करने के सवाल पर 'एकला चलो रे ' का गीत गाने लगते हैं। यदि कांग्रेस और अन्य  विपक्षी दल  बिहार के 'महागठबंधन' से सबक  लें तो मध्यप्रदेश  को भी माफिया राज से मुक्ति मिल सकती  है।

  सरसरी तौर  पर लगता है कि  मौजूदा  बिहार विधान सभा चुनाव में  'आरक्षण माफिया जीत गया है। और विकास का नारा  हार गया है । जिन लालू -नीतीश की कोई आर्थिक या श्रमिक नीति  ही नहीं  है , वे केवल आरक्षण  या धर्मनिरपेक्षता का बखान करके और  कांग्रेस से  सीटों का तालमेल करके ही  अपने 'महागठबंधन' को ४२% वोट हासिल कराने  में कामयाब रहे हैं।  जो नरेंद्र मोदी बिहारी युवाओं को  मार्क जुकवर्ग ,सत्या नाडेला बनाना चाहते हैं ,वे सिर्फ ३५ % वोट ही अपने एनडीए को दिलवा पाये हैं । कम्युनिस्टों और अन्य को भले ही  आधा दर्जन सीटें  ही मिली हों किन्तु  उनको जो २३% वोट  मिले हैं ,यदि  वे एनडीए  के पक्ष  में  गए होते तो आज बिहार में लालू नीतीश  के घरों में अँधेरा होता। और जो  मोदी-पासवान,माझी कुशवाह  हार  के गम में डूबे हैं ,वे बिहार  के विकास का ताना -बाना   बुन  रहे होते ! वास्तविकता  यह है कि  वोटों को मैनेज करने की कला में माहिर  महा शातिर  लालू जैसे पिछड़े नेताओं ने  नीतीश का 'बेदाग'  चेहरा पेश कर, कांग्रेस को  साधकर ,  बिहार में  'दिग्गी राजा फार्मूला ' ही  अपनाया । और  महागठबंधन बनाया। जो   काम आ गया।

बिहार को बार -बार पिछड़ा कहने वाले ,बिहारियों को मूर्ख समझने  वाले आज चारों खाने चित  हैं । वैसे मेरी निजी राय यह थी कि  ''चूँकि कांग्रेस ने बिहार में ३५ साल शासन किया।लालूजी -राबड़ी जी ने १५ साल 'राज'  किया। नीतीश जी ने १० साल बिहार  का नेतत्व किया। अतः अब बिहार को यदि देश और दुनिया के साथ  आगे बढ़ना है तो दो  ही विकल्प शेष थे । एक वामपंथ और दूसरा दक्षिणपंथ -याने एनडीए। चूँकि लेफ्ट के लिए अभी आवाम की चेतना विकसित नहीं है। और मीडिया भी सिर्फ नायकवाद  अधिनायकवाद का  ही तरफदार है। इसलिए  बिहार या अन्य प्रदेशों  में  अभी तो वामपंथ  को  जान जागरण के लिए बहुत संघर्ष करना बाकी है। लेकिन नरेंद्र मोदी के  तो अभी अच्छे दिन चल रहे [थे ]. उन्हें  क्या हुआ ? उन्होंने  तो बिहार के चुनाव में रिकार्ड तोड़  विराट आम सभाओं  को सिंह गर्जना के साथ  सम्बोधित किया है ! 'सवा लखिया पैकेज'  इतना दूँ ! इतना दूँ !! इतना  कर दूँ ? का लालीपाप कुछ काम न आया ! विकास के इन  नारों के झांसे  मैं आकर मैंने अपने ब्लॉग पर और फेसबुक  वाल पर भी अपने विचार पोस्ट किये थे.मैंने  पूर्वानुमान लगाया था कि "बिहार  में अब की बार  - मोदी सरकार ''होगी। और  सुशील मोदी को  बतौर मुख्य मंत्री भी पसंद कर लिया था  जबकि मेरे अजीज  सालार -ए -जंग  परम विद्वान संत  श्री 'ध्यान विनय' ने शाहनवाज हुसेन को बिहार के लिए  उपयुक्त भावी मुख्यमंत्री बताया था। लेकिन  ऐन  चुनाव के दौरान श्री मोहन भागवत  जी  ने 'आरक्षण' का मुद्दा छेड़ दिया। उसी दौरान साध्वी प्राची ,योगी आदित्यनाथ ,मंत्री महेश शर्मा ,खटटर काका अपने -अपने दंड-कमंडल लेकर  धर्मनिरपेक्षता पर टूट पड़े।  भाजपा के सभी प्रवक्ता गण  और अनुपम खैर , अभिजीत जैसे 'सघनिष्ठ' एक्टर  भी  'असहिष्णुता' के सवाल पर देश के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों पर  ही टूट पड़े।  विचारे  नरेंद्र मोदी जी  द्वारा बिहार में लगाये जाने वाले विकास का  बोधिबृक्ष लगाने से पूर्व ही कुम्हला गया।

जो लोग बिहार में 'महागठबंधन' की जीत से गदगद हैं वे यह  मान लें कि  बिहार को विकास की नहीं तांत्रिकों  की और आरक्षण की जरुरत है। याने बिहार पिछड़ा नहीं है। यदि बिहार पिछड़ा होता तो वहाँ  की जनता भी पिछड़ी होती ,किन्तु जनता ने अभी जो जनादेश दिया है  उससे सिद्ध होता है कि ' बिहारी भैया' लोग  कम से  -कम लालू को  तो भृष्ट नहीं मानते।  बिहारियों  के  बहुमत का आशय है  कि बिहारी और बिहार  दोनों ही  पिछड़े नहीं हैं।  जो लोग भाजपा ,संघ परिवार  और  अगड़ों को हरा सकते हैं वे पिछड़े किस अर्थ में हैं ?  जब वे पिछड़े नहीं हैं तो उन्हें  अनंतकाल तक आरक्षण किस बात का ? यदि  लालू -नीतीश जैसे  तथाकथित पिछड़ों  ने अन्य अति पिछड़ों - माझी -पासवान जैसे दलितों  [गरीबो]  और  नंदकिशोर यादव सुशील मोदी जैसों मार-मार कर कश्मीरी पंडितों की तरह  बिहार की राजनीति में खानाबदोश कर दिया है तो वे डॉमिनेंट क्लास में शुमार क्यों  नहीं किये जाएँ ?  यदि मोहन  भागवत  इस प्रवृत्ति के खिलाफ हैं तो उसमें हैरानी क्यों ? क्या मोहन भागवत  पर सच बयानी की बंदिश है ? क्या जो  सच बात वे कहेंगे उसे जबरन नकारकर ही कोई प्रगतिशील या धर्मनिरपेक्ष हो सकता है ? जब  बिहार में भाजपा या संघ वालों ने कभी शासन  किया ही नहीं तो उनपर  किसी  भी तरह  अमानवीय आरोप या सवर्णवादी होने का  आरोप  क्यों ?   जब अधिसंख्य बिहारी  पिछड़े और दलित  ही जब अपने विकास की  हवा निकाल  रहे हों तो  मोदी जी या  केंद्र सरकार  को दोष देना  न्यायसंगत नहीं है।  

   जिस तरह दुनिया में यह धारणा स्थापित हो चुकी है कि  'भारत एक ऐंसा अमीर मुल्क है ,जहाँ अधिकांस  गरीब लोग निवास करते हैं 'उसी तरह यह प्रमेय भी सत्यापित किया जा सकता है कि ' वैज्ञानिक -भौतिक संशाधन और  इंफारस्ट्रक्चर के रूप में न केवल  यूपी - बिहार जैसे  पिछड़े  प्रदेश  बल्कि पूरा भारत ही पिछड़ा हुआ  है।  घोर गरीबी -शोषण और असमानता के वावजूद  भारत की  जनता और खास तौर  से यूपी बिहार की  जनता  तो वैचारिक रूप  से   जरा ज्यादा ही परिपक्व  है। वे  लोकतांत्रिक प्रतिबध्दता के रूप  में  'फारवर्ड' हैं  या नहीं इस पर दो राय हो सकती है किन्तु वे अपनी जाति  और उसके जातीय नेता के प्रति  नितांत बफादार हैं। कुछ प्रगतिशील -वामपंथी ही हैं जो  धर्मनिरपेक्षता बनाम  साम्प्रदायिकता  की सही वयाख्या कर सकने में समर्थ हैं। अन्यथा अधिकांस जदयू वाले, राजद वाले केवल सवर्णों के मानमर्दन  में  ही संतुष्ट  नहीं हो रहे  बल्कि 'एमवाय' की मूँछ ऊंची होने के दम्भ में बिहार का सत्यानाश किये जा रहे हैं।  वेशक 'संघ परिवार'  के खिलाफ लड़ना किसी भी व्यक्ति के लिए क्रांतिकारी हो सकता है ,किन्तु  संघ 'के  विरोध के बहाने भृष्ट नेताओं के कुनवों का विकास और  बिहार  का सत्यानाश कहीं से भी जस्टीफाइड नहीं है।  

 बिहार विधान सभा चुनावों के दौरान 'संघ परिवार' को घेरने और भाजपा के संघ  'प्रायोजित प्रचार' का जबाब  'महाझून्ठ  बोलने वाले  लालू जैसे तथाकथित  पिछड़े वर्ग के नेताओं  ने  हर सवाल का घटिया जबाब दिया है ।  जनता ने लालू की मदारी मसखरी पर  खूब तालियां बजाई।यदि  एक कुनवापरस्त , जातिवादी,भृष्ट चाराखोर   व्यक्ति किसी  की  नजर में  प्रगतिशील व  धर्मनिरपेक्ष  बनकर  दिलों में बैठ  जाए तो क्या कीजियेगा ? केवल अपनी  ९-९ संतानों  के विकास को बिहार का विकास  मानने वाले को यदि लोग 'महानायक' मान लेंगे  तो  यह  सवाल उठना लाजिमी है कि ये जातीय  महागठबंधन के नेता और उनके  कार्यकर्ता पिछड़े  किस कोण से  हैं ? 

वर्तमान विधान सभा चुनाव के नतीजों ने  तो यह भी सावित कर दिया  है कि  बिहार में और पूरे भारत में अब पिछड़ों  को  पिछड़ा न मना जाए। क्योंकि उन्होंने सवा लाख करोड़ के पैकेज की दावत को ठुकराकर एनडीए को बिहार की सत्ता में  नहीं  आने दिया।  अब उन्हें शायद  आरक्षण  की  भी जरूरत  कदापि नहीं है  इन भारतीय  जातीयतावादी बुर्जुआ शासक वर्ग को दान  - खैरात- आरक्षण की यदि कुछ  ज्यादा ही  खुजाल है। वे आर्थिक आधार पर सभी वर्ग के गरीबों को  यह अधिकार देने का विरोध क्यों कर  रहे  हैं ?  क्या आर्थिक  आधार पर आरक्षण के निर्धारण  से  पिछड़ों,दलितों या  माइनर्टीज के गरीबों  का कोई नुकसान  था ? लालू -नीतीश -शरद -मांझी -पासवान  और  मोदी जी जैसें सम्पन्न लोगों को आरक्षण का लाभ कितने साल तक और दिया जाना  चाहिए ?  वर्तमान में आरक्षण का लाभ उठा रहे किसी भी  मलाईदार वर्ग को पीढ़ी-दर पीढ़ी आरक्षण क्यों मिलते रहना  चाहिए? यदि  किसी  व्यक्ति समाज या जाति  के लोगों को ७० साल तक लगातार आरक्षण दिया गया हो ,और उसके वावजूद  भी  उसे आरक्षण की वैशाखी के बिना  खड़े होने की क्षमता  न हो  ,तो उस आरक्षण की सलीब को अनंत काल तक कंधे पर लादे -लादे  यह मुल्क कहाँ जाना चाहता है ? बिना विकास  रुपी चारे के  आरक्षण रुपी गाय से दूध मिलने की  उम्मीद  करने वाले -देश की मुख्य धारा  से बहुत दूर हैं।

जिस तरह गैस सब्सिडी  लौटाने के प्रयोजन हो रहे हैं ,उसी तरह आरक्षण का लाभ उठाने वालों में से जो अब सम्पन्न हो गए हैं ,वे लोग अपने ही सजातीय बंधुओं को -जिनके पास रोटी-कपडा-मकान  नहीं है ,उनको अपने साथ खड़ा  होने से मना  क्यों करता है ? क्यों न सभी  पिछड़े -दलित समाजों और अन्य जातियों  के  गरीबों की पहचान चिन्हित कर उन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए ? जिन्हे  सरकारी सेवाओं में  या  तदनुरूप  शिक्षण  -प्रशिक्षण में एक बार आरक्षण का लाभ मिल चुका  हो ,उन्हें  विभागीय प्रोन्नति में  बार-बार अवसरों  से  लाभान्वित किये जाने  का ओचित्य क्या है ?   बिहार के चुनाव परिणाम से तो   लगता है कि सैकड़ों साल तक  किसी भी  जाति  का उत्थान  नहीं हो सकेगा। बल्कि सामाजिक अलगाव और राष्ट्रीय एकता ही खंडित होगी। इस तरह से तो आरक्षण प्राप्त जातियों  का भी कोई भला नहीं होने वाला।  अन्य किसी भी वंचित समाज    के गरीब की  गरीबी  भी  कदापि दूर नहीं  होगी। - : श्रीराम तिवारी :-

                                          

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