मध्यप्रदेश में आलोच्य अवधि के दरम्यान औसतन आधा दर्जन किसान प्रतिमाह आत्म हत्या कर रहे हैं। भयावह सूखे की स्थिति में भी प्रदेश के भृष्ट सरकारी अधिकारी गरीब किसानों को बुरी तरह लूट रहे हैं। बैंक कर्ज वालों ने , बिजली वालों ने ,कृषि उपकरण वालों ने , कृषि खाद बीज वालों ने ,सूदखोरों ने और सत्ता के दलालों ने तो पहले से ही किसानों का कचूमर बना रखा था। किन्तु इस साल के सूखे ने तो मानों कोढ़ में खाज को कई गुना बढ़ा दिया है ! इन हालात में किसान को 'आत्महत्या' के अलावा कोई और राह ही नजर नहीं आ रही है। इस पर भी तुर्रा ये कि कुछ असंवेदनशील मंत्री और मन्त्राणियां कह रहे हैं कि "ये किसान तो प्यार-मोहब्बत में असफल होने पर आत्म हत्या कर रहे हैं" ! प्रदेश में कोई सूखा या आर्थिक संकट नहीं है।
ऐंसा नहीं है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान को इस संकट के बारे में कुछ कुछ पता ही नहीं है। वे तो खुद ही केंद्र सरकार के सामने विगत १८ महीने से गिड़गिड़ा रहे हैं। लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक -आश्वाशनों के आलावा उन्हें केंद्र से फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है। लगता है कि अतीत की घटनाओं को लेकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी -अभी भी शिवराज को माफ़ नहीं कर पा ये हैं। मध्य प्रदेश राज्य का ओवर डॉफ्ट कब का सीमा लांघ चुका है। प्रदेश सरकार के खर्चे आसमान पर पहुँच चुके हैं। दस हजार करोड़ का कर्ज अतिरिक्त मांगा जा रहा है। मध्यप्रदेश के सभी विकास कार्य ठप्प हैं। शिक्षा,स्वास्थ्य ,सिचाई और खेती तो लगभग चौपट ही है। इन बदनुमा हालात में प्रदेश के मुखिया शिवराज जी कभी उज्जैन में महाकाल के दर्शन कर रहे हैं ,कभी दतिया की बगुलामुखी देवी को नमन कर रहे हैं , कभी साधु-संत -महंतों की शरण में मत्था टेक रहे हैं। कहीं यज्ञ करवा रहे हैं ,कहीं शिव लिंग वनवा रहे हैं। लेकिन मध्यप्रदेश पर न तो भगवान कृपा कर रहे हैं और न ही मोदी जी की कृपा अब तक बरस पाई है। इस तरह शिवराज जी खुद की और प्रदेश की हंसी ही उड़वा रहे हैं। किसान आत्म हत्या कर रहे हैं। मंत्री काजू -बादाम चर रहे हैं। सरकार यज्ञ हवन करवा रही है। कई गाँवों में बिजली का कनेक्शन ही नहीं और किसानों को बिल हजारों के दिए जा रहे हैं। दाल-प्याज की महँगाई की बात तो अब आदत में शुमार हो गयी है। अब तो सत्ता के दलालों के भाव आसमान पर हैं। इस सबके वावजूद यदि कोई कहे कि 'अच्छे दिन आये हैं ' तो उसे धिक्कार है।
इधर कुछ विद्वानों को लगता है कि 'मोदी राज' में धर्मनिरपेक्षता रुपी पांचाली का शील खतरे में है। गौ मांस- सेवन के बहाने -निर्दोष की हत्या , कटट्रवादियों को राजनीतिक बढ़त की सहज उपलब्ध की आशंका और संविधान की मूल अवधारणा की हत्या की आशंका ने काल्पनिक भय के भूत पैदा कर लिए हैं। वे जानते हैं कि भारत में वो नहीं हो सकेगा जो पाकिस्तान में या इस्लामिक वर्ल्ड में हो रहा है। फिर भी वे अपनी प्रगतिशीलता को शान पर चढ़ाकर परख रहे हैं। इसके अलावा शायद उन्हें यह भी लगता है कि एम - एम कलीबुर्गी ,पानसरे और दाभोलकर जैसे विद्वानों की हत्या में जिन संकीर्णतावादियों का हाथ है वे इस हिन्दुत्ववादी सरकार के वरदहस्त प्राप्त -आधुनिक भस्मासुर हैं। इसी गलतफहमी में कुछ साहित्यकार ,लेखक और विद्वान लोग अपने-अपने गुमनाम से अपरिभाषित 'सम्मान वापिसी' अभियान को हवा दे रहे हैं। मानों वे इस प्रगतिशील - धर्मनिरपेक्षतावादी सुदर्शन चक्र से इन मंदमति 'असहिष्णुतावादियों ' का चरम विनाश कर सकेंगे।
यदि वे ऐंसा सोच रहे हैं तो वे वास्तविक -कल्पनालोक में ही विचरण कर रहे हैं। यह एक विचित्र दव्न्दात्मक मानसिकता है कि जो चीज है ही नहीं उसे साकार करके दिखाने में बुद्धिजीवियों को मजा रहा है। जबकि खेतों की मेढ़ों पर, पेड़ों पर लटके किसानों के शव देखकर आदि कवि की तरह चीत्कार सुनाई देना चाहिए था। किसान -मजदूर के शोषण -उत्पीड़न पर यदि कोई लेखक ,कवि साहित्यकार सम्मान वापिस करता तो शायद इस क्रांति - कारी परिदृश्य पर जमाना कहता कि "हर जोर जुलुम की टककर में संघर्ष हमारा नारा है "! किन्तु ठाकुर सुहाती और मानसिक जुगाली से प्रेरित बुद्धिजीवियों ने ऐंसे मुद्दों पर सम्मान वापिसी की जिद ठानी है जिस पर बहुसंख्यक भारतीय समाज का मत विभाजन जग जाहिर है। किसी ने शायद इसी तरह का मंजर देखकर कहा होगा कि ' इस देश का तो भगवान ही मालिक है "
क्या बाकई कुछ महाखाऊ लोगों का उदर गाय को मारे बिना नहीं भर सकता? उन्हें गौ मांस से इतना प्रेम क्यों है? कि वे बिना गौ मांस भक्षण के या बिना 'बीफ' गटकने के जिन्दा ही नहीं रह सकते ? वैसे भी खाने-पीने का यह मामला सनातन से बड़ा ही ज्वलंत है। अब चूँकि केंद्र की सत्ता में परम 'गौरक्षक' विराजमान हैं इसलिए यह बहुत समीचीन है कि बूढी गाय बेचने वालों की ,गाय के मांस निर्यात करने वालों की और गाय के साथ-साथ सूअर के मांस पर राजनीति करने वालों की भी आरटीआई लगवाकर सूची प्रकाशित कर दी जाए।
विगत ९ अक्टूबर को मैंने अपने ब्लॉग पर एक आर्टिकल पोस्ट किया था कि "सभी - धर्म मजहब के धर्म-गुरु और झंडावरदार 'पोप फ्रांसिस से भी कुछ सीखें " जिसका स्पष्ट आशय यही था कि पोप फ्रांसिस ने अपनी मजहबी और धार्मिक छवि से आगे जाकर कुछ नया किया है। उन्होंने वर्तमान वैश्विक पूँजीवाद , उदारीकरण ,बाजारवाद और आर्थिक विकास के भूमंडलीकरण -मॉडल पर अनेक प्रश्न खडे किये हैं । उन्होंने अत्याधुनिक्तम टेक्नॉलॉजी के बलबूते वैष्विक पूँजीखोरों की लूट और विश्व सर्वहारा की आर्थिक दुर्दशा पर महज घड़ियाली आंसू नहीं बहाये। बल्कि कुछ ठोस और अहम सवाल भी खड़े किये हैं ?मेरी ख्वाइश थी कि काश भारत के धर्म गुरु एवं मठाधीश और अन्य मजहबों के धर्मध्वज भी इस तरह की वैचारिक परिपक्वता का प्रमाण पेश करते !तो ये धरती आज इतनी रक्तरंजित न होती। और मानव इतना अमानवीय न होता !तब दुनिया शायद अमन और खुशहाली से लबरेज होती !
वेशक पोप के क्रांतिकारी दृष्टिकोण से या दो-चार भले मनुष्यों के प्रवचनों से या दो-चार सज्जन पुरुषों के बलिदान से या कुछ मुठ्ठी भर समझदार लोगों के विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानों से इस आधुनिक दौर के बूचड़खाने पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। आदर्शवादी उटोपिया के पुनर्सृजन से नक्कारखाने में कोई असर या कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन फिर भी यह सुखद और सकारात्मक खबर है कि भारत में अब तक तो केवल प्रगतिशील विचारक ,साहित्यकार कवि और चिंतक ही मानवीय मूल्यों के पैरोकार हुआ करते थे किन्तु अब कुछ वैज्ञानिक और कलाकार भी इस दिशा में मुखर होने लगे हैं। इतना ही नहीं अब तो पोप फ्रांसिस की तरह सोचने वाले कुछ धर्म -गुरु भी भारत में मुखर होने लगे हैं। वे जनता के ज्वलंत सवालों पर ,देश के आर्थिक सामाजिक सरोकारों पर और राजनैतिक सवालों पर वामपंथियों की तरह मुखर होने लगे हैं। कल तक जो लोग घोर संकीर्णतावाद और धार्मिक कठ्ठमुल्लेपन के लिए मशहूर थे ,आज वे भी प्रगतिशील दृष्टिकोण अपना रहे हैं।धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विविधता को अक्षुण बनाये रखने की पैरवी कर रहे हैं। वे खान-पान रहन -शहन और विचार की स्वतंत्रता पर पहरा बिठाना पसंद नहीं करते। हालाँकि भारतीय विशाल आबादी के अनुरूप मानवतावादी चिंतकों ,धर्म गुरुओं ,साधु-सन्यासियों की यह संख्या बहुत कम है ,किन्तु फिर भी यह सीमित प्रबुद्ध समाज भी आधुनिक भारत के निर्माण में सकारात्मक हस्तक्षेप का प्रतिनिधित्व तो अवश्य करता है। मानवता की इस पूँजी को सहेजा जाना चाहिए।
गोवर्धन पीठधीश्वर स्वामी अधोक्षजानंद जी , पूरी पीठधीश्वर स्वामी निश्चलानंद जी और 'सुर साधना केंद्र के संस्थापक श्री उदयराव देश मुख उर्फ़ भय्यूजी महाराज ने भी अपने अलग-अलग बयानों में मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार को और केंद्र की 'मोदी सरकार' को न केवल आर्थिक मोर्चे पर असफल बताया है ,बल्कि काले धन की वापिसी और सरकारी तंत्र के बेइंतहा भृष्टाचार पर भी इन्हे पूरी तरह असफल बताया है।बढ़ती हुयी किसान आत्म हत्याओं और बिकराल महंगाई पर इन धर्म गुरुओं के उदगार अत्यंत प्रगतिशील और क्रांतिकारी हैं। संत भय्यूजी महाराज ने तो शिवराज सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि जितना पैसा 'धर्म-धम्म 'सम्मेलनों के आयोजन में बर्बाद किया जा रहा है, उससे तो प्रदेश के सैकड़ों किसानों को खाद- बीज की मदद की जा सकती थी। अब देखने की बात ये है कि १८ माह बीत जाने के बात भी भाजपा वाले और केंद्र में एनडीए की 'मोदी सरकार ' वाले 'काग्रेस मुक्ति' के नारे से ही मुक्ति नहीं नहीं पा सके हैं। उन्हें उनका हर विरोधी कांग्रेसी या देश द्रोही नजर आ रहा है। अब तो शिवसेना वाले भी शायद इनकी नजर में देशभक्त नहीं रहे।
संघ और भाजपा के प्रवक्ता गण तथा रामदेव और श्री श्री जैसे दरबारी 'संत' बीफ खाने या नहीं खाने के विमर्श में जनता को उलझा रहे हैं। जबकि निश्चलानंद जी और भय्यू महाराज जैसे संत देश के किसानों की पीड़ा पर व्यथित हैं। उनके उदगार आज ३० अक्टूबर के नई दुनिया में प्रकाशित हुए हैं। उनका आशय यह है कि शिवराज जी आप सरकार चलाइये ,हम बाबा-स्वामी और धर्म गुरु ये धर्म-प्रचार संभल लेंगे।
यह विचित्र विडंबना है कि जो काम देश के शासक वर्ग को करना चाहिए वह वे नहीं कर रहे हैं। लेकिन जो काम प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच वाले लोगों को करना चाहिए वो काम वे पूरी निष्ठां और ईमानदारी से कर रहे हैं। यह सुखद संयोग है कि अब पूरी पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंद जी सरस्वती भी वही कर रहे हैं जो पोप फ्रांसिस कर रहे हैं। स्वामी निश्चलानंदजी ने कहा है कि - "मोदी सरकार का महँगाई पर कोई अंकुश नहीं है ''स्वामी जी का यह एक वाक्य ही 'संघ परिवार' और मोदी सरकार के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने के लिए काफी होता ,वशर्ते कि वे प्रतिहिंसा की मनोभावना से मुक्त होते।भाजपा सरकार के मंत्री यह मान ने को ही तैयार नहीं कि मध्यप्रदेश का किसान सर्वाधिक संकट के दौर से गुजरते हुए आत्म हत्या के लिए मजबूर हो रहा है। जबकि साधु -सन्यासी -वीतरागी भी इस भयावह स्थति से बिचलित नजर आ रहे हैं।
इधर इंदौर के एलीट क्लाश को विगत तीन-चार दिनों मे 'धम्म-धर्म 'के आयोजन का निहायत हाई फाई जमावड़ा देखने को मिला। ब्रिलिएंट कन्वेंशन सभागार में सम्पन्न इस विश्व धम्म-धर्म 'सम्मेलन में श्री-श्री ,सुखबोधानंद और दर्जनों धर्मगुरु पधारे थे। शिवराज सरकार के कर कमलों ये सभी राजकीय अतिथि परम सम्मान प्राप्त करते हुए असीम आनंद से गदगदायमान होकर अपने-अपने 'लोक 'प्रस्थान करते भये।
इस धर्म सम्मेलन के उपरान्त कुछ पढ़े-लिखे विचारवान साधु सन्यासियों ने शिवराज सरकार को कड़वी नसीहत दी है। उन्होंने 'राजधर्म 'की बात उठाई है। सरकार को याद दिलाया गया कि विगत २-३ सालों में देश भर के किसानों की माली हालात तेजी से खराब हुयी है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के किसानों की आर्थिक स्थति बेहद भयावह हो चुकी है। इन सर्वाधिक संकटग्रस्त राज्यों में किसान आत्महत्या का सिलसिला थम ही नहीं रहा है। अनवरत -अनावृष्टि ,सूखा ,ओलावृष्टि ,प्रशाशनिक भृष्टाचार व नकली खाद-बीज की कुव्यवस्था के कारण मध्यप्रदेश के किसानों का बंटाढार हो चूका है। प्रदेश के अधिकांस खेत-खलिहानों में हाहाकार मची हुयी है। खेतों में इधर-उधर उगी फसल बिना फल्लियों-बिना बीजों के ही केवल हरियाली झलक दिखलाकर वहीं मर खप गयी है। सैकड़ों धैर्यविहीन किसान खेत की मेड पर ही आत्म हत्या कर चुके हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान भी आत्महत्याओं का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। प्रदेश के राजस्व अधिकारी -पटवारी से लेकर मंत्री तक सब केवल रिश्वत -कमीशन की जुगाड़ में जुटे हुए हैं। पिछले सालों के ओला -बाढ़ आकलन का ही अता -पता नहीं है। सूदखोरों और सरकारी देनदारियों से परेशान किसान की दुरावस्था पर सरकार द्वारा मीडिया पर विज्ञापन के मार्फत मगरमच्छ के आंसू तो बहुत बहाये जा रहे हैं। किन्तु किसानों को अभी तक मदद का कोई संकेत नहीं मिला है।
इधर आज की ताजा खबर है कि इंदौर में एक वेरोजगार युवा ने महँगाई से आजिज आकर आत्म हत्या कर ली है । दालों के दामों पर ,प्याज और अन्य खद्यान्नों की मँहगाई पर अखबारबाजी तो बहुत हो रही हैं।सरकार समर्थक दाल-व्यापारी मंडियों में ' सस्ती दाल'[१७० रुपया प्रति किलो ] बेचने का नाटक भी कर रहे हैं। इधर मध्यप्रदेश रुपी रोम जल रहा है , उधर शिवराज सरकार रुपी नीरो 'धर्म सम्मेलन' की बांसुरी बजाये जा रहे । भय्यू महाराज स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी ने सरकार की इस हालात पर कटाक्ष किए है। उनका कहना है कि शिवराज तुम सरकार चलाओ हम स्वामी-बाबा लोग धर्म चला लेंगे ! तुम किसानों की चिंता करो ,कुम्भ और सिंहस्थ स्नान हम खुद कर लेंगे।
सरकार के मंत्रियों -मन्त्राणियों का कहना है कि ये किसान सूखा या गरीबी के कारण नहीं बल्कि प्यार-मोहब्बत में असफल होकर आत्म हत्याएं किये जा रहे हैं। खेत की मेड पर खड़े होने की हिम्मत तो उनमें भी नहीं है जो अपने आपको प्रगतिशील और सर्वहारा परस्त बताते नहीं थकते। क्योंकि आजकल के क्रांतिकारियों को मोदी के कपड़ों की ,गाय के मांस को परोसे जाने की और लेखकों -साहित्यकारों के सम्मान वापिसी की बड़ी फ़िक्र है।
वैज्ञानिक तर्कवादियों और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर साहित्यकारों के 'सम्मान वापिसी' अभियान के खिलाफ मोदी सरकार की ओर से किला लड़ाने के लिए संघ परिवार ने जिन फिसड्डी 'बौद्धिकों' को काम पर लगाया है। इनमे केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली सबसे कमजोर कड़ी साबित हुए हैं। उन्होंने वर्तमान दौर की कट्टरवादी रीति - नीति से असहमत साहित्यकारों और वैज्ञानिकों को जबरन मोदी विरोधी और कांग्रेसी खेमे से नथ्थी कर दिया है। जेटली जी के मानसिक विकास का पैमाना दिशाहीन हो चुका है। आज नामवरसिंग या श्याम बेनेगल सम्मान वापिसी के पक्ष में नहीं हैं तो क्या वे 'संघी' हो गए ?और यदि फिलिम इंडस्ट्री की तरफ से सरकार के पक्ष में आलोचनात्मक किला लड़ा रहे हैं हैं वे अनुपम खैर हैं जो 'संघ' का पक्ष शिद्द्त से रखने में सफल रहे हैं। :=श्रीराम तिवारी="
ऐंसा नहीं है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान को इस संकट के बारे में कुछ कुछ पता ही नहीं है। वे तो खुद ही केंद्र सरकार के सामने विगत १८ महीने से गिड़गिड़ा रहे हैं। लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक -आश्वाशनों के आलावा उन्हें केंद्र से फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है। लगता है कि अतीत की घटनाओं को लेकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी -अभी भी शिवराज को माफ़ नहीं कर पा ये हैं। मध्य प्रदेश राज्य का ओवर डॉफ्ट कब का सीमा लांघ चुका है। प्रदेश सरकार के खर्चे आसमान पर पहुँच चुके हैं। दस हजार करोड़ का कर्ज अतिरिक्त मांगा जा रहा है। मध्यप्रदेश के सभी विकास कार्य ठप्प हैं। शिक्षा,स्वास्थ्य ,सिचाई और खेती तो लगभग चौपट ही है। इन बदनुमा हालात में प्रदेश के मुखिया शिवराज जी कभी उज्जैन में महाकाल के दर्शन कर रहे हैं ,कभी दतिया की बगुलामुखी देवी को नमन कर रहे हैं , कभी साधु-संत -महंतों की शरण में मत्था टेक रहे हैं। कहीं यज्ञ करवा रहे हैं ,कहीं शिव लिंग वनवा रहे हैं। लेकिन मध्यप्रदेश पर न तो भगवान कृपा कर रहे हैं और न ही मोदी जी की कृपा अब तक बरस पाई है। इस तरह शिवराज जी खुद की और प्रदेश की हंसी ही उड़वा रहे हैं। किसान आत्म हत्या कर रहे हैं। मंत्री काजू -बादाम चर रहे हैं। सरकार यज्ञ हवन करवा रही है। कई गाँवों में बिजली का कनेक्शन ही नहीं और किसानों को बिल हजारों के दिए जा रहे हैं। दाल-प्याज की महँगाई की बात तो अब आदत में शुमार हो गयी है। अब तो सत्ता के दलालों के भाव आसमान पर हैं। इस सबके वावजूद यदि कोई कहे कि 'अच्छे दिन आये हैं ' तो उसे धिक्कार है।
इधर कुछ विद्वानों को लगता है कि 'मोदी राज' में धर्मनिरपेक्षता रुपी पांचाली का शील खतरे में है। गौ मांस- सेवन के बहाने -निर्दोष की हत्या , कटट्रवादियों को राजनीतिक बढ़त की सहज उपलब्ध की आशंका और संविधान की मूल अवधारणा की हत्या की आशंका ने काल्पनिक भय के भूत पैदा कर लिए हैं। वे जानते हैं कि भारत में वो नहीं हो सकेगा जो पाकिस्तान में या इस्लामिक वर्ल्ड में हो रहा है। फिर भी वे अपनी प्रगतिशीलता को शान पर चढ़ाकर परख रहे हैं। इसके अलावा शायद उन्हें यह भी लगता है कि एम - एम कलीबुर्गी ,पानसरे और दाभोलकर जैसे विद्वानों की हत्या में जिन संकीर्णतावादियों का हाथ है वे इस हिन्दुत्ववादी सरकार के वरदहस्त प्राप्त -आधुनिक भस्मासुर हैं। इसी गलतफहमी में कुछ साहित्यकार ,लेखक और विद्वान लोग अपने-अपने गुमनाम से अपरिभाषित 'सम्मान वापिसी' अभियान को हवा दे रहे हैं। मानों वे इस प्रगतिशील - धर्मनिरपेक्षतावादी सुदर्शन चक्र से इन मंदमति 'असहिष्णुतावादियों ' का चरम विनाश कर सकेंगे।
यदि वे ऐंसा सोच रहे हैं तो वे वास्तविक -कल्पनालोक में ही विचरण कर रहे हैं। यह एक विचित्र दव्न्दात्मक मानसिकता है कि जो चीज है ही नहीं उसे साकार करके दिखाने में बुद्धिजीवियों को मजा रहा है। जबकि खेतों की मेढ़ों पर, पेड़ों पर लटके किसानों के शव देखकर आदि कवि की तरह चीत्कार सुनाई देना चाहिए था। किसान -मजदूर के शोषण -उत्पीड़न पर यदि कोई लेखक ,कवि साहित्यकार सम्मान वापिस करता तो शायद इस क्रांति - कारी परिदृश्य पर जमाना कहता कि "हर जोर जुलुम की टककर में संघर्ष हमारा नारा है "! किन्तु ठाकुर सुहाती और मानसिक जुगाली से प्रेरित बुद्धिजीवियों ने ऐंसे मुद्दों पर सम्मान वापिसी की जिद ठानी है जिस पर बहुसंख्यक भारतीय समाज का मत विभाजन जग जाहिर है। किसी ने शायद इसी तरह का मंजर देखकर कहा होगा कि ' इस देश का तो भगवान ही मालिक है "
क्या बाकई कुछ महाखाऊ लोगों का उदर गाय को मारे बिना नहीं भर सकता? उन्हें गौ मांस से इतना प्रेम क्यों है? कि वे बिना गौ मांस भक्षण के या बिना 'बीफ' गटकने के जिन्दा ही नहीं रह सकते ? वैसे भी खाने-पीने का यह मामला सनातन से बड़ा ही ज्वलंत है। अब चूँकि केंद्र की सत्ता में परम 'गौरक्षक' विराजमान हैं इसलिए यह बहुत समीचीन है कि बूढी गाय बेचने वालों की ,गाय के मांस निर्यात करने वालों की और गाय के साथ-साथ सूअर के मांस पर राजनीति करने वालों की भी आरटीआई लगवाकर सूची प्रकाशित कर दी जाए।
विगत ९ अक्टूबर को मैंने अपने ब्लॉग पर एक आर्टिकल पोस्ट किया था कि "सभी - धर्म मजहब के धर्म-गुरु और झंडावरदार 'पोप फ्रांसिस से भी कुछ सीखें " जिसका स्पष्ट आशय यही था कि पोप फ्रांसिस ने अपनी मजहबी और धार्मिक छवि से आगे जाकर कुछ नया किया है। उन्होंने वर्तमान वैश्विक पूँजीवाद , उदारीकरण ,बाजारवाद और आर्थिक विकास के भूमंडलीकरण -मॉडल पर अनेक प्रश्न खडे किये हैं । उन्होंने अत्याधुनिक्तम टेक्नॉलॉजी के बलबूते वैष्विक पूँजीखोरों की लूट और विश्व सर्वहारा की आर्थिक दुर्दशा पर महज घड़ियाली आंसू नहीं बहाये। बल्कि कुछ ठोस और अहम सवाल भी खड़े किये हैं ?मेरी ख्वाइश थी कि काश भारत के धर्म गुरु एवं मठाधीश और अन्य मजहबों के धर्मध्वज भी इस तरह की वैचारिक परिपक्वता का प्रमाण पेश करते !तो ये धरती आज इतनी रक्तरंजित न होती। और मानव इतना अमानवीय न होता !तब दुनिया शायद अमन और खुशहाली से लबरेज होती !
वेशक पोप के क्रांतिकारी दृष्टिकोण से या दो-चार भले मनुष्यों के प्रवचनों से या दो-चार सज्जन पुरुषों के बलिदान से या कुछ मुठ्ठी भर समझदार लोगों के विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानों से इस आधुनिक दौर के बूचड़खाने पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। आदर्शवादी उटोपिया के पुनर्सृजन से नक्कारखाने में कोई असर या कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन फिर भी यह सुखद और सकारात्मक खबर है कि भारत में अब तक तो केवल प्रगतिशील विचारक ,साहित्यकार कवि और चिंतक ही मानवीय मूल्यों के पैरोकार हुआ करते थे किन्तु अब कुछ वैज्ञानिक और कलाकार भी इस दिशा में मुखर होने लगे हैं। इतना ही नहीं अब तो पोप फ्रांसिस की तरह सोचने वाले कुछ धर्म -गुरु भी भारत में मुखर होने लगे हैं। वे जनता के ज्वलंत सवालों पर ,देश के आर्थिक सामाजिक सरोकारों पर और राजनैतिक सवालों पर वामपंथियों की तरह मुखर होने लगे हैं। कल तक जो लोग घोर संकीर्णतावाद और धार्मिक कठ्ठमुल्लेपन के लिए मशहूर थे ,आज वे भी प्रगतिशील दृष्टिकोण अपना रहे हैं।धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विविधता को अक्षुण बनाये रखने की पैरवी कर रहे हैं। वे खान-पान रहन -शहन और विचार की स्वतंत्रता पर पहरा बिठाना पसंद नहीं करते। हालाँकि भारतीय विशाल आबादी के अनुरूप मानवतावादी चिंतकों ,धर्म गुरुओं ,साधु-सन्यासियों की यह संख्या बहुत कम है ,किन्तु फिर भी यह सीमित प्रबुद्ध समाज भी आधुनिक भारत के निर्माण में सकारात्मक हस्तक्षेप का प्रतिनिधित्व तो अवश्य करता है। मानवता की इस पूँजी को सहेजा जाना चाहिए।
गोवर्धन पीठधीश्वर स्वामी अधोक्षजानंद जी , पूरी पीठधीश्वर स्वामी निश्चलानंद जी और 'सुर साधना केंद्र के संस्थापक श्री उदयराव देश मुख उर्फ़ भय्यूजी महाराज ने भी अपने अलग-अलग बयानों में मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार को और केंद्र की 'मोदी सरकार' को न केवल आर्थिक मोर्चे पर असफल बताया है ,बल्कि काले धन की वापिसी और सरकारी तंत्र के बेइंतहा भृष्टाचार पर भी इन्हे पूरी तरह असफल बताया है।बढ़ती हुयी किसान आत्म हत्याओं और बिकराल महंगाई पर इन धर्म गुरुओं के उदगार अत्यंत प्रगतिशील और क्रांतिकारी हैं। संत भय्यूजी महाराज ने तो शिवराज सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि जितना पैसा 'धर्म-धम्म 'सम्मेलनों के आयोजन में बर्बाद किया जा रहा है, उससे तो प्रदेश के सैकड़ों किसानों को खाद- बीज की मदद की जा सकती थी। अब देखने की बात ये है कि १८ माह बीत जाने के बात भी भाजपा वाले और केंद्र में एनडीए की 'मोदी सरकार ' वाले 'काग्रेस मुक्ति' के नारे से ही मुक्ति नहीं नहीं पा सके हैं। उन्हें उनका हर विरोधी कांग्रेसी या देश द्रोही नजर आ रहा है। अब तो शिवसेना वाले भी शायद इनकी नजर में देशभक्त नहीं रहे।
संघ और भाजपा के प्रवक्ता गण तथा रामदेव और श्री श्री जैसे दरबारी 'संत' बीफ खाने या नहीं खाने के विमर्श में जनता को उलझा रहे हैं। जबकि निश्चलानंद जी और भय्यू महाराज जैसे संत देश के किसानों की पीड़ा पर व्यथित हैं। उनके उदगार आज ३० अक्टूबर के नई दुनिया में प्रकाशित हुए हैं। उनका आशय यह है कि शिवराज जी आप सरकार चलाइये ,हम बाबा-स्वामी और धर्म गुरु ये धर्म-प्रचार संभल लेंगे।
यह विचित्र विडंबना है कि जो काम देश के शासक वर्ग को करना चाहिए वह वे नहीं कर रहे हैं। लेकिन जो काम प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच वाले लोगों को करना चाहिए वो काम वे पूरी निष्ठां और ईमानदारी से कर रहे हैं। यह सुखद संयोग है कि अब पूरी पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंद जी सरस्वती भी वही कर रहे हैं जो पोप फ्रांसिस कर रहे हैं। स्वामी निश्चलानंदजी ने कहा है कि - "मोदी सरकार का महँगाई पर कोई अंकुश नहीं है ''स्वामी जी का यह एक वाक्य ही 'संघ परिवार' और मोदी सरकार के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने के लिए काफी होता ,वशर्ते कि वे प्रतिहिंसा की मनोभावना से मुक्त होते।भाजपा सरकार के मंत्री यह मान ने को ही तैयार नहीं कि मध्यप्रदेश का किसान सर्वाधिक संकट के दौर से गुजरते हुए आत्म हत्या के लिए मजबूर हो रहा है। जबकि साधु -सन्यासी -वीतरागी भी इस भयावह स्थति से बिचलित नजर आ रहे हैं।
इधर इंदौर के एलीट क्लाश को विगत तीन-चार दिनों मे 'धम्म-धर्म 'के आयोजन का निहायत हाई फाई जमावड़ा देखने को मिला। ब्रिलिएंट कन्वेंशन सभागार में सम्पन्न इस विश्व धम्म-धर्म 'सम्मेलन में श्री-श्री ,सुखबोधानंद और दर्जनों धर्मगुरु पधारे थे। शिवराज सरकार के कर कमलों ये सभी राजकीय अतिथि परम सम्मान प्राप्त करते हुए असीम आनंद से गदगदायमान होकर अपने-अपने 'लोक 'प्रस्थान करते भये।
इस धर्म सम्मेलन के उपरान्त कुछ पढ़े-लिखे विचारवान साधु सन्यासियों ने शिवराज सरकार को कड़वी नसीहत दी है। उन्होंने 'राजधर्म 'की बात उठाई है। सरकार को याद दिलाया गया कि विगत २-३ सालों में देश भर के किसानों की माली हालात तेजी से खराब हुयी है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के किसानों की आर्थिक स्थति बेहद भयावह हो चुकी है। इन सर्वाधिक संकटग्रस्त राज्यों में किसान आत्महत्या का सिलसिला थम ही नहीं रहा है। अनवरत -अनावृष्टि ,सूखा ,ओलावृष्टि ,प्रशाशनिक भृष्टाचार व नकली खाद-बीज की कुव्यवस्था के कारण मध्यप्रदेश के किसानों का बंटाढार हो चूका है। प्रदेश के अधिकांस खेत-खलिहानों में हाहाकार मची हुयी है। खेतों में इधर-उधर उगी फसल बिना फल्लियों-बिना बीजों के ही केवल हरियाली झलक दिखलाकर वहीं मर खप गयी है। सैकड़ों धैर्यविहीन किसान खेत की मेड पर ही आत्म हत्या कर चुके हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान भी आत्महत्याओं का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। प्रदेश के राजस्व अधिकारी -पटवारी से लेकर मंत्री तक सब केवल रिश्वत -कमीशन की जुगाड़ में जुटे हुए हैं। पिछले सालों के ओला -बाढ़ आकलन का ही अता -पता नहीं है। सूदखोरों और सरकारी देनदारियों से परेशान किसान की दुरावस्था पर सरकार द्वारा मीडिया पर विज्ञापन के मार्फत मगरमच्छ के आंसू तो बहुत बहाये जा रहे हैं। किन्तु किसानों को अभी तक मदद का कोई संकेत नहीं मिला है।
इधर आज की ताजा खबर है कि इंदौर में एक वेरोजगार युवा ने महँगाई से आजिज आकर आत्म हत्या कर ली है । दालों के दामों पर ,प्याज और अन्य खद्यान्नों की मँहगाई पर अखबारबाजी तो बहुत हो रही हैं।सरकार समर्थक दाल-व्यापारी मंडियों में ' सस्ती दाल'[१७० रुपया प्रति किलो ] बेचने का नाटक भी कर रहे हैं। इधर मध्यप्रदेश रुपी रोम जल रहा है , उधर शिवराज सरकार रुपी नीरो 'धर्म सम्मेलन' की बांसुरी बजाये जा रहे । भय्यू महाराज स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी ने सरकार की इस हालात पर कटाक्ष किए है। उनका कहना है कि शिवराज तुम सरकार चलाओ हम स्वामी-बाबा लोग धर्म चला लेंगे ! तुम किसानों की चिंता करो ,कुम्भ और सिंहस्थ स्नान हम खुद कर लेंगे।
सरकार के मंत्रियों -मन्त्राणियों का कहना है कि ये किसान सूखा या गरीबी के कारण नहीं बल्कि प्यार-मोहब्बत में असफल होकर आत्म हत्याएं किये जा रहे हैं। खेत की मेड पर खड़े होने की हिम्मत तो उनमें भी नहीं है जो अपने आपको प्रगतिशील और सर्वहारा परस्त बताते नहीं थकते। क्योंकि आजकल के क्रांतिकारियों को मोदी के कपड़ों की ,गाय के मांस को परोसे जाने की और लेखकों -साहित्यकारों के सम्मान वापिसी की बड़ी फ़िक्र है।
वैज्ञानिक तर्कवादियों और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर साहित्यकारों के 'सम्मान वापिसी' अभियान के खिलाफ मोदी सरकार की ओर से किला लड़ाने के लिए संघ परिवार ने जिन फिसड्डी 'बौद्धिकों' को काम पर लगाया है। इनमे केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली सबसे कमजोर कड़ी साबित हुए हैं। उन्होंने वर्तमान दौर की कट्टरवादी रीति - नीति से असहमत साहित्यकारों और वैज्ञानिकों को जबरन मोदी विरोधी और कांग्रेसी खेमे से नथ्थी कर दिया है। जेटली जी के मानसिक विकास का पैमाना दिशाहीन हो चुका है। आज नामवरसिंग या श्याम बेनेगल सम्मान वापिसी के पक्ष में नहीं हैं तो क्या वे 'संघी' हो गए ?और यदि फिलिम इंडस्ट्री की तरफ से सरकार के पक्ष में आलोचनात्मक किला लड़ा रहे हैं हैं वे अनुपम खैर हैं जो 'संघ' का पक्ष शिद्द्त से रखने में सफल रहे हैं। :=श्रीराम तिवारी="
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