शनिवार, 14 नवंबर 2015

हिन्दुओं के इतने बुरे दिन क्यों आ गए कि दलाई लामा से सहिष्णुता का सर्टिफिकेट लेना पड़ रहा है।

काश मेरे पास भी कोई अकादमिक -साहित्यिक सम्मान पदक होता ! यदि राष्ट्रीय -अंतराष्ट्रीय किसी भी  किस्म  का कोई  सम्मान पदक या साहित्यिक ,सामाजिक ,आर्थिक- वैज्ञानिक  क्षेत्र में कोई विशिष्ठ उपलब्धि या  'सनद' मेरे पास होती ,तो फ़्रांस में हुए आतंकी हमलों के निमित्त, मैं  ततकाल  सारे सम्मान  वापिस लौटा देता। पता नहीं  मेरा यह अहिंसक  कदम अहमक  कहा जाता या  प्रगतिशील कहा जाता। बहुत सम्भव है कि  मुझे  प्रतिक्रियावाद  और देश द्रोह से  ही नथ्थी कर दिया जाता। वास्तव में  बौद्धिक मशक्क़त भी एक किस्म की उजरती मजदूरी का ही दूसरा नाम है। जिसकी बिना पर  ही  विशिष्ठ  प्रतिभासम्पन्न  और कठोर परिश्रमी लोगों को  साहित्य सम्मान  से नवाजा जाता है। केवल  चारण-दरबारी , खुशामदी -जुगाड़ू लोग ही उसके  कुछ  अपवाद हो सकते हैं। विगत दिनों  'असहिष्णुता' के सवाल  पर 'सम्मान  वापिसी ' आंदोलन  को  भारत की जनता का प्रतिषाद नहीं मिला। क्योंकि मीडिया की  धमा चौकड़ी और जाति -मजहब की   'चिड़ीमार' राजनीति ने  उसे धूमिल कर दिया था। कन्फ्यूज जनता ने अपने बुद्धिजीवी साहित्यकारों और कलाकारों के पवित्र ध्येय को  ठीक से   पहिचाना ही नहीं । वरना भारत की राई जैसी असहिष्णुता को आईएसआईएस  की  बिकराल  असहिष्णुता जैसा  निरूपित नहीं किया जाता । वास्तव में अहिंसा के पुजारियों की  इंसानियत का गला  रेतने वाले खूंखार आतंकवादियों के सामने औकात ही क्या है ? दलाई लामा ने भारत के हिन्दू समाज को  सदा  सहिष्णु बताया है ,उन्हें धन्यवाद।  किन्तु हिन्दुओं के इतने बुरे दिन  क्यों आ गए कि दलाई लामा से सहिष्णुता का सर्टिफिकेट लेना पड़ रहा है।

 कहा जा सकता है कि  धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के अलंबरदारों -भारतीय साहित्यकारों - बुद्धिजीवियों को अपना विजन  इतना संकुचित नहीं रखना चाहिए था कि अहिंसक हिन्दुओं  पर तो 'असहिष्णुता' का  पाप मढ़  दिया और आईएसआईएस  के वैश्विक  कत्ले आम पर  तथा दाऊद या पाकिस्तान प्रेरित कश्मीरी  अलगाववाद  की 'देशद्रोही' हरकतों  पर 'मुशीका' लगा लिया। यह कतई  न्यायसंगत नहीं होगा  कि दोनों को  साथ एक तराजू पर तौलें ?  साहित्यिक बौद्धिक प्रतिभाओं को   जिस तीर से वैश्विक आतंकवाद का मानमर्दन करना था,उससे उन्होंने भारत के हिंदुत्व रुपी  निरीह  क्रोंच पक्षी का ही   बध  कर डाला।वास्तव में सम्मान वापिसी जैसी विराट प्रतिक्रिया तो इन  दुर्दांत हत्यारों के विरोध में होनी चाहिए थी ,जिन्होंने विगत वर्ष -यहूदियों [शार्लि  एब्दो ] पर हमला किया । जिन हत्यारों ने फ्रेंच ,जर्मन,स्लाव  लोगों पर  कायराना हमले किये हैं । जिन्होंने अपने साम्राज्य  - वादी आकाओं की शै पर न  सिर्फ  भारत में बल्कि  फ़्रांस ,इंग्लैंड ,अमेरिका और  यूरोप में भी खूनी जेहाद छेड़ रखा है। जिन्होंने  उद्भट बुद्धिजीवियों पत्रकारों और मीडियाकर्मियों के सिर कलम करने का अभियान न केवल  सीरिया, इराक ,लीबिया ,अफगानिस्तान ,पाकिस्तान ,सूडान ,चेचन्या  और यमन में बल्कि भारतीय सीमाओं के अंदर भी   भी छेड़ रखा है। जिन कटट्रपंथियों ने निर्दोष उदारवादी और  शिया  मुसलमानों के भी अनेक बार  सिर  कलम किये हैं । जिन लोगों  ने २६/११ के हले किये ,जिन लोगोने १३/११ के मुंबई हले किये ,जिन लोगों ने  पेशावर हमले में १५० मुस्लिम बच्चों की हत्या की है ,उन हत्यारों की जघन्य असहिष्णुता के सामने भारत के  घासाहारी  निरीह  हिन्दुओं की ओकात ही क्या जोइन खूनी दरिंदों का मुकाबला कर सकें !

 मेरी इस  तरह की बेबाक टिप्पणी से वामपंथी  साथी नाराज  भी हो सकते हैं। किन्तु मेरी यही सच बयानी सावित करती है कि  भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  को अभी फिलवक्त कोई खतरा नहीं। और हिन्दुओं की असहिष्णुता को  तो कुछ  ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर  पेश किया जा रहा है। लेकिन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि  हिन्दुत्ववादी 'असहिष्णुता' पर मैंने भी   लगातार वैचारिक हमले किये हैं। मेरे आईएसआईएस वाले तुलनात्मक नजरिये से 'संघ परिवार' और हिन्दुत्ववादी  भी खुशफहमी  न पालें । उन्हें यह स्मरण रखना होगा  कि भारत में  हिन्दुओं  की सनातन सहिष्णुता को  बदनाम करने के लिए संघ और हिन्दुत्वादी संगठन ही जिम्मेदार हैं। जिस तरह अल्पसंख्यक कतारों में राजनैतिक अभिधा में टैक्टिकल वोटिंग के माध्यम से  अपनी ताकत के दुरूपयोग के लिए कट्टर पंथी इस्लामिक शिक्षा-दीक्षा जिम्मेदार है  ,उसी तरह भारत में  देश की राज्यसत्ता पाने के लिए हिंदुत्व को इस्तेमाल करने और तथाकथित कटटरपंथी हिन्दूओं  को 'असहिश्णुता'  का पाठ पढ़ाने के लिए संघ -  परिवार ही जिम्मेदार है। वरना हिन्दुओं की राई  जैसी असहिष्णुता का  आदमखोर वैश्विक  आतंकवाद  से क्या मुकाबला ? 

क्या  आईएसआईएस ,तालिवान ,अलकायदा ,हमास ,बोकोहरम् ,जमात-उड़ -दावा की तुलना  भारत के किसी भी हिन्दू - साम्प्रदायिक  संगठन से  की जा सकती  है ?  क्या  भारत में इन वैश्विक आदमखोरों से  भी ज्यादा असहिष्णुता  है ? नहीं ! कदापि नहीं ! देश के ९० करोड़ हिन्दुओं में से तथाकथित संगठित हिन्दुओं  की संख्या  बमुश्किल ४०-५०- हजार से ज्यादा  नहीं होगी। यदि हिन्दुत्ववादी इतने ही ताकतवर और संगठित होते तो वे  हिन्दू बहुल दिल्ली और बिहार में चुनाव क्यों हारते ?  वेशक कुछ हिन्दू धर्मावलंबी अंधश्रद्धा के शिकार हमेशा ही रहे  हैं और यह सिलसिला तब भी  जारी था जब देश गुलाम था या आरएसएस नहीं था।इस दौर में जो हिंदूवादी संगठनों की  बाढ़ सी आ गयी है ,उसके लिए वोट की राजनीती जिम्मेदार है। इन आधुनिक हिन्दुत्ववादी दुकानों में  सनातन सभा ,संघ परिवार ,शिवसेना और विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े हिन्दू - कटट्रपंथियों की  कुल तादाद बमुश्किल ५० लाख भी नहीं होगी। जबकि भारत में सहिष्णु हिन्दुओं की तादाद करोड़ है। एनडीए को जो बहुमत  मिला  और केंद्र की मोदी सरकार को  जो  सत्ता का चान्स मिला है उसके लिए  हिन्दू या मुस्लमान नहीं बल्कि कांग्रेसी सरकारों की असफलता ,भृष्टाचार और महँगाई   जैसे कारक  ही जिम्मेदार हैं। हालाँकि  राजनैतिक ध्रवीकरण में हिन्दुत्ववादी संगठनों का कुछ तो असर है. कि देश के ३२% लोगों के वोट पाकर भाजपा की मोदी सरकार आज सत्ता में विराजमान है। जबकि  आपस में बटे  होने से ८% वोट पाकर भी विपक्ष सत्ताच्युत है। शायद यह पीड़ा ही 'सहनशीलता ' की जन्मदात्री है।

वास्तव में हम भारत के जनगण  तो पैदायशी सहिष्णु हैं। यह अकाट्य सत्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांस जनगण सनातन से ही सहिष्णु रहे हैं।  मेरी इस  स्थापना पर तर्कपूर्ण प्रतिवाद का स्वागत है। एतद द्वारा मैं   दुनिया  के हर चिंतक ,इतिहासकार ,विचारक और साहित्यकार को चुनौती देता हूँ कि , यह सिद्ध करके दिखाएँ कि शेष दुनिया  के देशों ,कौमों ,कबीलों और आतंकी समाजों की  बनिस्पत शाकाहारी भारतीय या  हिन्दू' ज्यादा असहिष्णु हैं !  क्या कोई  भी माई का लाल  यह सावित कर सकता कि अतीतकालीन किसी भी दौर में  भारत के  अधिशंख्य निरीह  आदिवासियों ने या  उन्नत सभ्यता के लिए मशहूर परिश्रमी  'आर्यों' ने -'हिन्द' के निवासियों  ने याने हिन्दुओं ने कभी  भी किसी  भी अन्य राष्ट्र या कौम पर  कभी आक्रमण  किया  है ? जापान ,तिब्बत ,कंबोडिया पूर्व एशिया  और  श्रीलंका इत्यादि में 'पंचशील के सिद्धांत' हमारे पूर्वजों ने किसी फौजी कार्यवाही  की ताकत  से  या  'असहनशीलता'  से स्थापित नहीं किये हैं।  बल्कि  सामन्तकालीन दौर के  अनेक भारतीय मनीषियों ने भी अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय , अपरिग्रह , वसुधैव कुटुंबकम  ' और  लोकहित  की मानवीय विचारधारा  से भी आगे जाकर घोषणा की थी ;-

 अयं निज : परोवेति  गणना लघु चेतसाम्।

उदार चरितानाम्  तू ,वसुधैव कुटुंबकम।।  

अथवा

 सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्चिद् दुख  भागवेत।।

 क्या भारतीय हिन्दुओं की इस  उच्चतर अवस्था तक कोई और देश या कौम पहुँच पाये हैं?

क्या आईएसआईएस और विश्व आतंकवाद की असहिष्णुता से बदतर  प्रमाण दुनिया में कहीं  और है ?

वेशक दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति ,समाज  या राष्ट्र परफेक्ट 'सहिष्णु' हो ! लेकिन भारत के अधिकांस लोग  'सहिष्णुता' के ही अलम्बरदार हैं। खास  तौर  से किसान-मजदूर और सर्वहारा  के रूप में भारत  का अधिसंख्य वर्ग तो 'श्रमेव जयते 'या इंकलाब जिन्दावाद की क्रांतिकारी सोच  से प्रेरित  होकर एक  बहुसंख्यक समाज  के रूप में भी 'सापेक्षतः सहिष्णु ही है। इसमें हिन्दू  -जैन मुस्लिम -ईसाई -बौद्ध -सिख  -पारसी सभी आते हैं। खास तौर  से हिन्दू ,जैन ,बौद्ध  के समस्त आध्यात्मिक निष्पादन का सार तो 'अहिंसा परमो धर्मः '  ही है!  अधिकांस  उत्कृष्ट कोटि  के चरित्रवान  हिन्दू  प्रातःकालीन प्रार्थनाओं में  इस प्रकार के नारे लगाते हैं :-
विश्व का  कल्याण हो ! प्राणियों में सद्भावना हो !  क्या इस तरह की  भारतीय चेतना  को साम्प्रदायिकता या असहिष्णुता कहा जाना उचित  है ?

जब किसी  व्यक्ति ,समूह ,समाज  और  राष्ट्र के  कुछ  पूर्वानुमान सही सावित होने लगें तो  उसे उस विमर्श में  सिद्धांत स्थापित करने का सहज ओचित्य मिल जाता है । इसके अलावा उसका जमीनी  आत्म विश्वास बढ़ना भी  स्वाभाविक है। भारत के  वर्तमान 'हिन्दुत्ववादी' शासक वर्ग के सत्ता में आगमन के उपरान्त देश में घटित  कुछ 'अप्रिय' घटनाओं  से प्रायः ऐंसा  माना जाने लगा  है कि मानों  भारत तो अब पूरी तरह से  हिटलर कालीन जर्मनी बन  चुका है। क्या हम मान लें कि  भारत का लोकतंत्र छुइ -मुई है और अब मोदी सरकार के सत्ता में आने मात्र से ही भारत में  मुसोलनि का  फासीवाद आ  गया है। दरअसल इस भयावह सोच को हवा देने  वाले सिर्फ वे ही नहीं हैं जो 'परम धर्मनिरपेक्षतावादी'  हैं। बल्कि इसमें कुछ उनका भी अवदान है जो प्रगतिशीलता और सहिष्णुता के  'विचार' की उत्कृष्टता में  आत्ममुग्ध  हैं।  इसके अलावा  इस असहिष्णुता के  भयदोहन के लिए एक अन्य  महत्वपूर्ण कारक  प्रधान मंत्री की 'रह्स्यमई चुप्पी'  भी  है।


 यह तो गनीमत हैं कि  भारतीय संसदीय लोकतंत्र  के  अन्य महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों  ने शिद्द्त से  'लोकतंत्र,धर्म निरपेक्षता और समाजवाद' के मूल सिद्धांतों  की रक्षा की है। इन्ही  की बदौलत भारत में गंगा-जमुनी 'तहजीव  की अविरल  धारा  प्रवाहमान है । वर्ना कटटरपंथ ने तो दादरी जैसे और  कामरेड पानसरे,दाभोलकर ,कलिबुर्गी जैसे तर्कवादियों - विचारकों  के अंजाम  कब के चुन लिए थे। भारत के राष्ट्रपति ,भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर जनरल ने जब  धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्र के प्रति कटिबद्धता दुहराई तो यह दुनिया के लिए सन्देश है कि  भारत में  हिन्दू कट्टरपंथी कोई खास मायने नहीं रखते। लेकिन पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद और अलगाववाद का विरोध करने का मतलब  'संघ' का समर्थन नहीं है. यह गलतफहमी दक्षिणपंथ व  वामपंथ दोनों को नहीँ पालना चाहिए कि जनता  सिर्फ उनकी ही बात सुनेगी।  बिहार  विधान सभा के चुनाव परिणाम स्पष्ट बता रहे  हैं कि  देश  को  हर कीमत पर विकास नहीं चाहिए। साथ ही  दक्षिणपंथ की असहिष्णुता को ठुकराते हुए  बिहार की  जनता  ने  सभी को साथ लेकर चलने वाले मध्य्म मार्गी  चेहरे -नितीशकुमार को  ही पसंद किया है।

 कुछ लोग राजनैतिक स्वार्थ के लिए यदा- कदा  हिन्दू-मुस्लिम  ,अगड़ा-पिछड़ा का राग अलापते रहते  हैं। यह घातक प्रवृत्ति  हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए अभिशाप है। इस प्रवृत्ति  के खिलाफ  लड़ते हुए देश  के वामपंथी  कतारों और  अधिसंख्य  हिन्दू समाज को आपस में लड़ने के बजाय शोषक शासकवर्ग से लड़ना चाहिए।  खेद की बात हैं कि  जनता  के तात्कालिक ज्वलंत मसलों से भटककर यह प्रगतिशील तबका केवल वीफ जैसे मुद्दों या   मोदीजी की  चाल - ढाल   या पहरावे पर ही ज्यादा  मुखर हो  रहा है।  अल्पसंख्यक वर्ग के पढ़े लिखे लोगों को और  वर्ग चेतना से लेस मजदूर -किसानों को बीफ  जैसे मुद्दों पर आपस में नहीं उलझना चाहिए। हमारे लिए  कौमी संघर्ष की  घटनाएँ उतनी ज्यादा  महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी की सूखे से मरने वाले किसानों  की बदतर हालत। अधिंकांस   निर्धन -मजदूर -किसान भूँख  और कर्ज से मर रहे हैं।  दवा के अभाव में  मरने  वाले गरीबों और सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले  बेक़सूर नागरिकों की बिकराल तादाद है। इनकी अनदेखी कर साहित्यकार  मीडिया और राजनीतिक ताकतें केवल 'असहिष्णुता' का राग अलाप कर देश के साथ  न्याय   नहीं कर पा रहे हैं।  साहित्यकार ,विचारक ,बुध्दिजीवी और कलाकार भी  इस विमर्श में  अपने  हिस्से की बाजिब भूमिका अदा नहीं कर रहे हैं।

  हमें यह  सुखद अनुभूति होना  चाहिए की  भारत  में चौतरफा  बदतर स्थिति  के वावजूद  हालात  हिटलर के  नाजी जर्मनी  जैसे  कदापि नहीं हैं।  और मुसोलनि के फासिस्ट शासन की  भी कोई बहुत बड़ी संभावना यहाँ  सम्भव नहीं है। बल्कि भारत में तो  साम्प्रदायिक  सद्भाव के प्रति समर्पित  वामपंथ ,मंडलवादी कांग्रेस  और   तमाम  साहित्यिक -बौद्धिक  प्रतिभाएं  अपनी डॉमिनेंट -सघनता में मौजूद हैं।  वेशक  मोदी सरकार के दौर में बढ़ रही तथाकथित  'असहिष्णुता' पर अभी भी देश में धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुतावादी ही ज्यादा भारी पड़  रहे हैं।  जहां एक ओर 'संघपरिवार' भाजपा और  सत्तारूढ़ कतारों में कुछ लोग  मानते हैं कि कुछ गुमराह  अल्पसंख्यक वर्ग और  खास तौर  से 'जेहादी-आतंकी' लोग  पाकिस्तान के हाथों में खेल रहे हैं । वहीं दूसरी ओर तमाम प्रगतिशील ,धर्मनिरपेक्षतावादी , बुद्धिजीवी व  वैज्ञानिक  यह मानने की जिद कर रहे  हैं कि बहुसंख्यक वर्ग के कटट्रपंथियों की  'असहिष्णुता'  ज्यादा खतरनाक ढंग से बढ़ती ही जा रही है।

दोनों ही पक्ष जिद किये जा रहे हैं कि  'असहिष्णुता' के बारे में उनकी ही परिभाषा सही है।  भारत का  मौजूदा साम्प्रदायिक विखंडन वास्तव  में  अतीत की देन है। अंग्रेजों का 'फूट  डालो राज करो ' का फार्मूला इसके लिए  जिम्मेदार है। किन्तु कांग्रेस ने भी समय-समय पर इसका ही  इस्तेमाल किया है। अब जबकि केंद्र में  पहली बार  बिना अल्पसंख्यक वोट के बलबूते  कोई सरकार बन गयी  है ,तो 'वासी कढ़ी में उफान' लाजमी है। अब देश के  कुछ चुनिंदा विद्वान  विचारक साहित्यकार यदि  सत्तासीन वर्ग प्रेरित  'असहिष्णुता ' पर सवाल  खड़े कर रहे हैं, तो 'संघ परिवार ' वाले उसे धजी का साँप  कैसे कह सकते हैं । जबकि संघ परिवार खुद  भी दशकों से यह मानता आ रहा है कि न केवल  कश्मीर में बल्कि  देश के अन्य मुस्लिम बहुल इलाकों में अनेक बार  हिन्दुओं पर [गोधरा और मुंबई की तरह ] बर्बर  अत्याचार  हुए हैं।  उनकी इस स्थापना को पूरी तरह ख़ारिज करना सरासर बेईमानी होगी। वास्तव में अल्पसंख्यक वर्ग की  'असहिष्णुता'  भी कम घातक नहीं है। वहीं दूसरी ओर भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ,भारत के उपराष्ट्रपति जनाब  हामिद अंसारी साहिब ,भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर जनरल और देश के तमाम बुद्धिजीवी केवल अल्पसंख्यक वर्गों की चिंता ही प्रस्तुत किये जा रहे हैं।  क्या यह मानसिकता  भारत की  शानदार सहिष्णुता को आईएसआईएस  की खूनी दरिंदगी के  बराबर साबित  साबित  काफी नहीं है ?  श्रीराम तिवारी 

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