सोमवार, 19 मई 2014

नीतीश नहीं भूले तो ये भारतीय अस्मिता की पूँजी है।



  आम चुनाव में करारी हार  के उपरान्त जहां एक ओर  कांग्रेस और उसके  'नेता ' बचकानी हरकतें करते हुए - अपना भेजा फिराई करने मे व्यस्त हैं ,  अप्रत्याशित चोट से बिलबिलाये तमाम अन्य हरल्ले नेता और पार्टियाँ अवसाद ग्रस्त हो रहीं हैं ,जिस दौर में कार्पोरेट नियंत्रित दक्षिणपंथी  वेशर्म  मीडिया केवल चाटुकारिता और पाखंडजनित विजयगान में मस्त है। इन  बदतर हालात में जबकिउन्मादी  और  खतरनाकतेज बहाव के साथ   मुर्दे भी  तिर  रहे  हैं , इस दशा में भी  देश के राजनैतिक क्षितिज पर लोकतांत्रिक -धर्मनिरपेक्ष जनता को भारत के बेहतर भविष्य और आशा की एक किरण दिखाई दे रही है।  छले गए लोगों को 'सत्य' पर यकीन रखना चाहिए। झूंठ थोड़े समय के लिए ही  परवान चढ़ सकता है ,हमेशा के लिए नहीं। जिनके पास लोकतंत्र समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की समझ है वे  इस प्रतिगामी कठिन दौर में  भी  अडिग हैं।  इस नकारात्मक   प्रचण्ड  राजनैतिक आंधी के झंझावात में ,समय के तेज  और विपरीत  प्रवाह  में उस के प्रतिकूल  तैरने में ,जो अपना धैर्य बनाये  रखने और सही निर्णय लेने में सक्षम रहे हैं उनमें बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और जदयू नेता नीतीश का नाम इतिहास के पन्नो पर स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। नीतीश ने न  केवल  बिहार की राजनीति को ,न केवल सम्पूर्ण भारत  राजनीति  को  बल्कि भारत के पक्षपाती महापाखण्डी - पूंजीवादी मीडिया को भी मजबूर कर दिया कि  वो ३० % वोट पाकर इतरा रहे तथाकथित विजेयताओं का या  किसी खास नेता  के काल्पनिक पराक्रम का  उसके व्यक्तित्व का महिमा मंडन तो खूब करे किन्तु इस सबसे उसे थोड़ी  फुर्सत मिले तो देश की जनता - उसके संघर्षों और उसके सवालों को  भी  अपने कवरेज में स्थान देने का कष्ट करे !
            चुनावी हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर नीतीश ने वही किया जो सच्चे और श्रेष्ठ नेता किया करते हैं।  जीतराम मांझी को  बिहार का मुख्यमंत्री बनवाने और स्वयं  पद से त्याग पात्र देकर नीतीश ने न केवल राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया  ,चारित्रिक नैतिकता का प्रमाण दिया है, बल्कि यह भी स्थापित किया है कि धर्मनिरपक्ष - 'जनवादी-समाजवादी' विचारधारा  ही वास्तविक लोकतंत्र  के आधारभूत स्तम्भ हैं।  ये मूल्य सर्वकालिक हैं और सदैव प्रसांगिक हैं। वेशक इस मर्तवा सत्ता पक्ष के खिलाफ बेजा 'एंटी इन्कम्बेंसी फेक्टर था , जो नेता और पार्टी साधन सम्पन्न थी ,विकल्प में उपस्थित थी वो   बहुसंख्यक समाज के वोटों  का साम्प्रदायिक और जातीय  ध्रवीकरण  करने में सफल रही। अल्पसंख्यक वोटों के ठेकेदार और दलित-पिछड़ी जातियों के जागीरदार इतने बदनाम  हो चुके हैं की इनमे से जो इस बार जीते हैं वे भी 'सवर्ण' समाज की असीम अनुकम्पा से अभिभूत हैं। इस रौ में वे  यह भूल रहे हैं कि इसमें कार्पोरेट पूँजी की बाजीगरी  का कितनास्वार्थी और   खतरनाक रोल है?  नीतीश नहीं भूले तो ये भारतीय अस्मिता की पूँजी है। बहुसंख्यक समाज के सबल  - जातीय -साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के  परिणामस्वरूप  काठ की हांडी इस बार तो सत्ता के चूले  पर अवश्य ही चढ़ गई  है किन्तु  यह सभी को याद रखना चाहिए कि 'सदा तुरैया न फूले और  सदा न सावन होय  ! सदा न क्षत्रिय रण चढ़े ,सदा न जीवे कोय ! ! परिमालरासो  का यह उद्धरण किसी  की समझ में ना आये तो एक और  उद्धरण पेश है :-

                  ' 'रहिमन हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार "

                    श्रीराम तिवारी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें