भारत के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर कोई अवधारणा प्रस्तुत करने से पहले, मैं विगत १७ मई-२०१४ को भोपाल में घटित एक घटना की तरफ सभी प्रबुद्धजनों का ध्यानाकर्षण चाहूंगा। मध्यप्रेदश की राजधानी भोपाल की अदालत में कल १७-मई को उस समय माहौल गरमा गया जब कड़ी सुरक्षा के बीच सिमी के १५ -आतंकवादियों को पेशी कराकर वापिस जेल ले जाया रहा था। तभी उन्होंने अचानक उग्र नारेबाजी शुरू कर दी। नारेबाजी की शुरुआत फैजल नामक आतंकवादी ने की। उसने कहा "वी वांट तालिवान ,अल्लाह सुपर पॉवर है,अब मोदी का नंबर है "इतना सुनते ही शेष सभी आतंकियों ने भी 'तालिवान जिन्दावाद' लगाए। सुरक्षाकर्मियों ने जैसे -तैसे स्थति को नियंत्रित किया और उन सभी आतंकियों को जेल वाहन में ठूंसकर वापिस जेल ले गए। कोर्ट परिसर में मोदी को जान से मारने की धमकी देने और तालिवान के समर्थन में नारे लगाने वाले आतंकी अबु फेजल समेत सभी आतंकियों के खिलाफ एम पी नगर थाना, भोपाल पुलिस ने धारा २९५-ए ,१५३-डी के तहत मामला दर्ज कर लिया है। इस घटना से देश और दुनिया को क्या संदेश मिलता है यह तो मुझे नहीं मालूम किन्तु में इस्लामिक आतंकियों की इस हरकत को भाजपा के पक्ष में ही देखता हूँ। वेशक वे जितना उग्र होंगे ,हिन्दू समाज उसके व्युत्क्रमानुपाती उद्देलित होगा। वो कटटर हिंदुत्वाद के रूप में 'संघ परिवार' की और ध्रवीकृत होगा। 'अल्लाह सुपर पॉवर है ' इसमें किसको शक है ?सभी जानते हैं सभी मानते हैं किन्तु 'अब मोदी का नंबर है ' या 'वी वांट तालिवान' जैसे हिंसक और राष्ट्रघाती नारे लगाओगे तो फिर कोई भी यह भी नहीं कहगी कि खुदा खैर करे !
सिमी आतंकियों ने न्यायालय परिसर में देश की अखंडता को ठेस पहुंचाने वाले नारे लगाए , एक लोकतांत्रिक तरीके से विजयी सांसद [प्रस्तावित पीएम ]श्री नरेंद्र मोदी को भी उन्होंने अपना 'टारगेट ' बताया तो अब सवाल है की देश की जनता क्यों चुप रहेगी। यदि हिंसा और आतंक से डरकर कुछ न कर सकेगी तो कम-से कम उन्ही को जिता देगी जो कुछ कर सकते हैं। चूँकि लोगों को लग रहा है कि मोदी इन आतंकियों को ठीक कर सकते हैं, इसलिए देश का बहुमत मोदी को जिताने के लिए 'कमल 'के साथ हो लिया है । जो-जो दल और नेता इन आतंकियों के पक्ष में बोलते रहे हैं या तठस्थ होने का कायराना स्वांग रचते रहे हैं वे सब इस चुनाव में ठिकाने लगा दिए गए है । वेशक नरेंद्र मोदी की विचारधारा से मैं भी सहमत नहीं हूँ । अन्य धर्मनिपेक्षतावादियों की मानिंद मैं भी संघ परिवार ,भाजपा और एनडीए का प्रवल विरोधी हूँ ,किन्तु मैं इस आधार पर यह दावा नहीं कर सकता कि जिन्होंने 'अबकी बार -मोदी सरकार ' का नारा लगाकर भाजपा और एनडीए को भरपल्ले से बहुमत में जिताया वे सब कसूरवार हैं। मैं यह दवा भी नहीं कर सकता कि वे दल और नेता जो बुरी तरह हार गए वे सब के सब साक्षात देवदूत ही हैं। वेशक जो हार गए हैं उनकी नीतियां बेहतर हो सकतीं हैं। वेशक जो जीत गए हैं, हो सकता है कि उनकी नीति और नियत में खोट हो। बहुत संभव है कि नरेंद्र मोदी भी पूरी तरह पाक-साफ़ न हों। किन्तु यह साफ़ है किअब 'नमो'किसी ख़ास व्यक्ति का नाम भर नहीं है ,बल्कि वह एक खास किस्म की विचाधारा के प्रतिनिधि भी हैं। भले ही वो विचारधारा कटटरवाद और साम्प्रदायिकता की ही हो। किन्तु यदि इस देश के बहुमतजन को वह विचारधरा पूसा रही है तो इसके कारणों की खोजबीन की जानी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि सिमी जैसे आतंकी संगठनों , कश्मीर या अन्य क्षेत्रों के अलगाववादियों ,पाकिस्तान की आईएसआई की दहशतगर्दी और भारत विरोधी गतिविधियों से आजिज आकर अधिसंख्य हिन्दू मतदाताओं ने भाजपा को रिकार्ड जीत दिला दी हो ? भोपाल जिला कोर्ट में मौजूद कटटरवादी सिमी आतंकियों और विभिन्न शहरों में परिलक्षित अल्पसंख्यक- धर्मान्ध - दहशतगर्दों की ओर -कांग्रेस ,सोनियाजी ,राहुल या मनमोहनसिंह की अंगुली ज़रा कम ही उठी है। इसी तरह अन्य धर्मनिरपेक्ष और जनतंत्र वादी दलों ने या तीसरे मोर्चे के नेताओं ने भी अल्पसंख्यक वोटों की खातिर हमेशा घातक चुप्पी साध रखी है। इस तरह के दोगलेपन से नाखुश होकर भारत के बहुसंख्यक धर्मनिपेक्ष हिन्दू मतदाताओं ने भी 'संघ परिवार' के अनुषंगी राजनैतिक संगठन भाजपा को मजबूरी में यदि चुन लिया हो तो कौन सा आसमान फैट पड़ा है। ? भोपाल जिला कोर्ट की कल की घटना तो यही इंगित कर रही प्रतीत होती है कि साम्प्रदायिक ध्रवीकरण में इस बार अल्पसंख्यक वोटों के तलबगार नेता गच्चा खा गए हैं।
मौजूदा आम चुनाव में भाजपा को मिली बम्फर जीत और कांग्रेस सहित अन्य दलों की मर्मान्तक हार से न केवल हारने वाले बल्कि जीतने वाले भी भौचक्के हैं। हारने वाले अपनी करारी हार से क्षत-विक्षत हैं और जीतने वाले अपनी अप्रत्याशित जीत से गदगदायमान हो रहे हैं। इन ऐतिहासिक चुनावी परिणामों की अपने-अपने मिजाज और सोच के अनुसार शल्य क्रिया भी जारी है। जीतने वालों ने तो बयानबाजी के भी रिकार्ड तोड़ डाले हैं। कुछ तो जीत के जोश में होश खोकर अल्ल - बल्ल भी बकने लगे हैं। कुछ शर्मनाक हार से हताश-निराश होकर 'शमशान वैराग्य' को प्राप्त हो रहे हैं। सही मायने में चुनाव परिणामों की प्रतिक्रिया का आकलन अभी भी अपेक्षित है। वेशक श्री लाल कृष्ण आडवाणी - श्रीमती सुषमा स्वराज की प्रतिक्रिया जरूर वास्तविकता के करीब कही जा सकती है । उनके कथन का भावार्थ यदि यह है की यह यूपीए और कांग्रेस की नाकामयियों का परिणाम है । यह चुनाव परिणाम -मंहगाई ,भृष्टाचार तथा कुशासन के खिलाफ परिवर्तन की लहर है। जिस ने भाजपा को जिताया है तो यह निष्कर्ष काफी हद तक सही है। हालांकि संघ परिवार ने इस दफे ज़रा ज्यादा ही कड़ी मेहनत की है ।
इस महा बिकराल परिणाम में कुछ 'नमो' का प्रशश्ति गान और बहुत कुछ वो हिन्दुत्ववादी ध्रुवीकरण भी सहायक रहा है जिसे सिमी जैसे उन्मादियों ने सुलगाया और कटटर हिन्दुत्तवादियों ने हवा दी। ये ऐतिहासिक चुनाव इस मायने में भी बेमिशाल रहे हैं। कई लोक सभा क्षेत्रों में मुस्लिम -दलित -पिछड़ा वर्ग के वोटों की घटिया राजनीति का क्षरण स्पस्ट दिख रहा है। अल्पसंख्यक वोटों पर या दलित वोटों को अपनी जागीर समझने वाली बहिनजी आज कोमा में हैं। आजमगढ़ ,मुजफ्फरनगर, मेरठ पश्च्मिी उत्तर प्रदेश के साम्प्रदायिक दंगों के लिए यदि 'संघ परिवार' जिम्मेदार था तो रालोद का सूपड़ा साफ़ क्यों हुआ ? अजीतसिंह तो 'पाक-साफ' थे न !वे तो हेमा मालिनी से गए गुजरे निकले। उत्तर भारत में इस्लामिक आतंकवाद के उफान का प्रत्यक्ष प्रभाव यह रहा कि सीधा फायदा नरेंद्र मोदी को ही मिला है। उत्तर भारत का सवर्ण और सभ्रांत समाज बहुत दिनों से पिछड़ी-दलित -मुस्लिम युति से आहात था। चूँकि उसे कार्पोरेट पूँजी नियंत्रित अनुदारवादी दक्षिणपंथी 'संघ परिवार' इस दौर में मुफीद लगा इसलिए बहुसंख्यक सवर्ण समाज ने एकजुट होकर भाजपा , एनडीए और 'नमो' को अपने समथन से मालामाल कर दिया।
चूँकि विगत तीस साल से उत्तर प्रदेश ,बिहार, झारखंड को क्षेत्रीय दलों ने बुरी तरह छत-विक्षत कर रखा था। समूचे उत्तर और मध्य भारत को जाति की राजनीति में बुरी तरह झोक डाला था, निम्न वर्ग केवल वोटर वनकर रह गया था इससे न केवल बहुसंख्यक हिन्दू सवर्ण समाज बल्कि आरक्षण से वंचित अधिकांस दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक भी इस बार एक स्वर में बोल गए -'अबकी बार ,मोदी सरकार ' गुजरात ,गोधरा , मुजफ्फरनगर,मुंबई,मेरठ,जम्मू,श्रीनगर,असम ,कोकराझार तथा उत्तर-पश्चिम सीमा पार से हुई भारत विरोधी कार्यवाइयों को , देश भर में विभिन्न स्थानों पर हुई साम्प्रदायिक घटनाओं को सीमाओं पर और पाकिस्तान में हिन्दुओं पर किये जा रहे अत्याचार को ,बांग्लादेश में हिन्दुओं के कत्ले आम को 'संघ परिवार' ने इन चुनावों में जमकर भुनाया। इसके अलावा उनकी इस चुनावी सफलता के लिए अल्पसंख्यक आतंकवाद भी जिम्मेदार है।
इस्लामिक आतंकवाद की प्रतिक्रियास्वरूप 'हिन्दुत्ववादी ताकतों ने इन चुनावों के माध्यम से देश में 'फासिज्म' की नीव रख दी है। सब कुछ हिटलर के उदय और जर्मनी के 'नाजीवाद' की ओर बढ़ने की तरह घटित हो रहा है। उस समय वहाँ प्रशा और जर्मनी में यहूदियों की जर्मन साम्राज्य से अनिष्ठा थी तो यहाँ इस दौर में सिमी के आतंकवादी ही नहीं बल्कि और भी है जो देश की जड़ें खोद रहे हैं। इसीलिये इस्लामिक उग्रवाद पर संदेह के बादल मंडरा रहे हैं। यही वजह है कीआज बहुसंखयक हिन्दू समाज एकजुट होकर 'संघ परिवार' के साथ खड़ा हो गया है। गरीबी ,मेंहगाई ,बेकारी और भुखमरी से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई भी मोदी समर्थक अभी १५ साल तक कुछ नहीं बोलने वाला। 'संघ परिवार' और 'नमो' ने बड़ी चतुराई से अब लड़ाई 'राष्ट्रवाद' बनाम आतंकवाद की है। पेट्रोल के दाम दुगने कर दो ,बिजली -पानी मंहगा कर दो, ,लोग भूंखे रह लेंगे,भीख मांग लेंगे पर कोई आंदोलन नहीं करेंगे , भले ही अम्बानी-अडानी मालामाल होते रहें ,गरीब और गरीब होकर भूखे प्यासे मरते रहें ,लेकिन कोई चूं चपड़ नहीं कर पायेगा क्योंकि उन्हें भारी बहुमत दिलाने -विजय प्राप्त करने के लिए जो पैसा पानी की तरह बहाना पड़ा वो इन्ही सरमायेदारों का था।
वे आतंकवाद का हौआ और राष्ट्रवाद का 'बिजूका' दिखाकर जनता के सवालों को उलझाते रहेंगे। जन सरोकारों या जनता के सबालों पर संगठित मजदूर आंदोलन और वामपंथ के अलावा कोई आंदोलन नहीं करने वाला। यही बात आज 'नमो' के पक्ष में जा रही है। कहने का तात्पर्य ये की भारत में धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र आज यदि खतरे में है तो इसके लिए केवल फासीवादी ताकतें ही नहीं बल्कि जाति - मजहब ,क्षेत्रीयतावाद और कार्पोरेट पूँजी की बेजा भूंख भी इस पतन के लिए जिम्मेदार है. 'संघ परिवार' भाजपा और 'नमो' द्वारा इन चुनावों में इन कमजोर कड़ियों का अखूबी इस्तेमाल किया गया है। उसी के बलबूते इतनी बड़ी जीत हासिल हुई है। जिससे की विजेता अब 'मलंग' हुए जा रहे हैं। वेशक यूपी बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड में 'नमो' का कुछ व्यक्तिगत प्रभाव अवश्य पड़ा है। बंगाल,केरल त्रिपुरा ,तमिलनाडु और उड़ीसा में भाजपा को अभी भले ही कोई उल्लेखनीय सफलता न मिली हो किन्तु , मध्यप्रदेश,गुजरात ,राजस्थान छग में उसे जो विजय हासिल हुई है वो अद्भुत और अप्रत्याशित है। इन राज्यों में मोदी का कम भाजपा और आरएसएस का सर्वाधिक योगदान रहा है। आने वाले बरसों में ,आगामी १५ सालों में बंगाल में तृणमूल का भी नामोनिशान नहीं रहेगा। तमिलनाडु से एआईडीएमके या डीएमके को हम 'ढूढ़ते रह जायंगे 'नवीन पटनायक और चन्द्र बाबू भी फना हो जायंगे। आखरी द्वन्द इस देश में केवल पूंजीपतियों और सर्वहारा के बीच ही होगा। जाहिर है पूँजीपतियों के सेनापति कोई 'संघनिष्ठ' ही होंगे और देश के सर्वहारा का नेतत्व उसका 'हरावल दस्ता करेगा। वेशक यह फाइनल संघर्ष अभी दूर है। अभी तो १५ साल केवल; भाजपा और नमो के लिए 'नियति' ने सुरक्षित कर रखे हैं।
इतिहास में संभवतः पहली बार भारत के सहिष्णु-धर्मनिरपेक्ष -हिन्दू समाज ने अपने आक्रोश को साम्प्रदायिक आधार पर अभिव्यक्त किया है। इस चुनाव परिणाम से एक आशा भी जगी है कि जातीयता की राजनीति को भी हिंदुत्व की इस आंधी हिलाकर कर रख दिया है। अब उस आरक्षण पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है जिस के कारण करोड़ों दलित-आदिवासी आजादी के ६७ साल बाद भी नंगे -भूंखे है और चंद दलित नेता और दलित अधिकारी वंशानुगत इस आरक्षण की वैशाखी का बेजा मजा लूटते जा रहे हैं। इस जातिवादी विचारधारा की राजनीतिक ने धर्मनिरपेक्षता की अनुगूँज को खतरे में डालने का काम भी किया है। अब सभी हरल्ले केवल मुसलमानों को कोस रहे हैं। मानों धर्मनिरपेक्षता का ठेका केवल मुसलमानों ने ही ले रखा हो।मायावती,मुलायम, नीतीश और कांग्रेस की हार तो वेशक अल्पसंख्यक वोटों की बंदरबाँट से ही हुई है। बंगाल में वेशक तृणमूल कांग्रेस ने बेजा चुनावी धांधली की है , न सिर्फ वाम मोर्चा बल्कि भाजपा ने भी उसकी लिखित शिकायत की है किन्तु यह भी एक कटु सच्चाई है की ममता बेनर्जी ने मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए नरेंद्र मोदी को न केवल मुसलमानों का बल्कि बंगालियों का भी दुश्मन बताया। इस चुनाव में दीदी ने पानी-पीकर वामपंथ और 'नमो' को जो गालियां दीं हैं वे तृणमूल के सांसदों के रूप में संसद में मौजूद रहेंगी। नरेंद्र मोदी भी इस सदन के नेता होंगे। याने भारत के प्रधानमंत्री होंगे। यह बहुत संभव है कि वामपंथ के बजाय ममता को अपना हितेषी मानकर बंगाल के [बांग्लादेशियों ने भी] के मुसलमानों ने ममता को इकतरफा समर्थन दिया हो।
भारत में आज जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं उसके लिए बहुत हद तक पाकिस्तान में हिन्दुओं का कत्ले आम और सीमाओं पर पाकिस्तानी फौज की नृशंसता भी परोक्ष रूप से जिम्मेदार है। बांग्लादेश ,श्रीलंका नेपाल ,चीन और अमेरिका सभी ने भारत को लहूलुहान कर रखा है , सब ओर से परेशान -हैरान -पढ़े-लिखे नौजवान अब सब्र नहीं कर सकते। वे मीडिया के प्रचार और बाजार के पाखण्ड से प्रभावित होकर भारत को विश्व मंच पर चमत्कारिक ढंग से उपस्थति दर्ज कराने के लिए लालायत हैं। उनके इस अभीष्ट या मकसद यदि नरेंद्र मोदी फिट हैं तो वे उन को समर्थन क्यों नहीं देंगे ? यह केवल कांग्रेस ,डॉ मनमोहनसिंह ,सोनिया गांधी या राहुल गांधी का ही कसूर नहीं हैं बल्कि यह कुछ दोष उनका भी है जो जीत की ख़ुशी में अपने दामन के दाग छुपा रहे हैं। इतिहास अवश्य पूंछेगा की अधिसंख्य धर्मनिरपेक्ष हिन्दू समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रवीकृत करने के कारक कौन-कौन थे। वे कौन से तत्व हैं जिन्होंने अधिसंख्य हिन्दू समुदाय को एकजुट होकर भाजपा और मोदी के पक्ष में मतदान के लिए मजबूर किया है ।यदि यह संभव हुआ है तो भी वह अपावन कैसे हो सकता है ?जब तक अल्पसंख्यक वोट पाने वाले सत्ता सुख भोगने वाले आपवन घोषित नहीं कर दिए जाते। तब तक 'नमो' और भाजपा की इस मौजूदा जीत के लिए जिम्मेदार बहुसंखयक हिन्दू मतदाताओं को कैसे कसूरवार ठहराया जा सकता है ?
भारत में जिन लोगों ने इस १६ वीं संसद के चुनाव तक - इस्लामिक कट्टरवाद को कमतर और हिन्दू कट्टर वाद को ज्यादा खतरनाक- मानकर राजनीति की है वे वास्तविकता से बहुत दूर हैं। मायावती आज यदि रुदाली बनकर मुसलमानों की आपसी फूट तथा मुस्लिम वोटों के 'बिखरने' पर करुणक्रन्दन या स्यापा कर रहीं हैं तो यह उनका मानसिक दिवालियापन है। उन्हें किसने कहा था कि वे मुसलमान या दलित वोटों को अपनी खानदानी जागीर समझती रहें ? उन्हें यह जानना -समझना चाहिए कि यदि वे सच्ची दलित नेता हैं या थीं तो उनके पास 'नॉनट्रान्सफरेबल 'करोड़ों दलित वोट और अरबों रुपयों का अम्बार होते हुए भी वे बुरी तरह क्यों हार गईं ? भगीरथ- प्रसाद, उदितराज ,रामदास आठवले , पासवान जगदम्बिका पाल जैसे सारे के सारे दलित-पिछ्डे , दल -बदलू नेता - जिन्हे मायावती ने हमेशा दुत्कारा। वे 'संघ' परिवार का नाम और 'स्पर्श' पाकर चुनाव जीत गए हैं ! भले ही 'मोदी सरकार' के कारण 'मजदूरों' गरीबों के अच्छे दिन ना आ सकें किन्तु यह अकाट्य सत्य है कि जातिवाद की राजनीति करने वालों के बुरे दिन आने वाले हैं !आतंकवाद के दिन भी जरूर लदने वाले हैं ! यदि हम वाकई सत्य के पक्षधर हैं तो सच कहने का माद्दा भी हममें होना चाहिये !
श्रीराम तिवारी
सिमी आतंकियों ने न्यायालय परिसर में देश की अखंडता को ठेस पहुंचाने वाले नारे लगाए , एक लोकतांत्रिक तरीके से विजयी सांसद [प्रस्तावित पीएम ]श्री नरेंद्र मोदी को भी उन्होंने अपना 'टारगेट ' बताया तो अब सवाल है की देश की जनता क्यों चुप रहेगी। यदि हिंसा और आतंक से डरकर कुछ न कर सकेगी तो कम-से कम उन्ही को जिता देगी जो कुछ कर सकते हैं। चूँकि लोगों को लग रहा है कि मोदी इन आतंकियों को ठीक कर सकते हैं, इसलिए देश का बहुमत मोदी को जिताने के लिए 'कमल 'के साथ हो लिया है । जो-जो दल और नेता इन आतंकियों के पक्ष में बोलते रहे हैं या तठस्थ होने का कायराना स्वांग रचते रहे हैं वे सब इस चुनाव में ठिकाने लगा दिए गए है । वेशक नरेंद्र मोदी की विचारधारा से मैं भी सहमत नहीं हूँ । अन्य धर्मनिपेक्षतावादियों की मानिंद मैं भी संघ परिवार ,भाजपा और एनडीए का प्रवल विरोधी हूँ ,किन्तु मैं इस आधार पर यह दावा नहीं कर सकता कि जिन्होंने 'अबकी बार -मोदी सरकार ' का नारा लगाकर भाजपा और एनडीए को भरपल्ले से बहुमत में जिताया वे सब कसूरवार हैं। मैं यह दवा भी नहीं कर सकता कि वे दल और नेता जो बुरी तरह हार गए वे सब के सब साक्षात देवदूत ही हैं। वेशक जो हार गए हैं उनकी नीतियां बेहतर हो सकतीं हैं। वेशक जो जीत गए हैं, हो सकता है कि उनकी नीति और नियत में खोट हो। बहुत संभव है कि नरेंद्र मोदी भी पूरी तरह पाक-साफ़ न हों। किन्तु यह साफ़ है किअब 'नमो'किसी ख़ास व्यक्ति का नाम भर नहीं है ,बल्कि वह एक खास किस्म की विचाधारा के प्रतिनिधि भी हैं। भले ही वो विचारधारा कटटरवाद और साम्प्रदायिकता की ही हो। किन्तु यदि इस देश के बहुमतजन को वह विचारधरा पूसा रही है तो इसके कारणों की खोजबीन की जानी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि सिमी जैसे आतंकी संगठनों , कश्मीर या अन्य क्षेत्रों के अलगाववादियों ,पाकिस्तान की आईएसआई की दहशतगर्दी और भारत विरोधी गतिविधियों से आजिज आकर अधिसंख्य हिन्दू मतदाताओं ने भाजपा को रिकार्ड जीत दिला दी हो ? भोपाल जिला कोर्ट में मौजूद कटटरवादी सिमी आतंकियों और विभिन्न शहरों में परिलक्षित अल्पसंख्यक- धर्मान्ध - दहशतगर्दों की ओर -कांग्रेस ,सोनियाजी ,राहुल या मनमोहनसिंह की अंगुली ज़रा कम ही उठी है। इसी तरह अन्य धर्मनिरपेक्ष और जनतंत्र वादी दलों ने या तीसरे मोर्चे के नेताओं ने भी अल्पसंख्यक वोटों की खातिर हमेशा घातक चुप्पी साध रखी है। इस तरह के दोगलेपन से नाखुश होकर भारत के बहुसंख्यक धर्मनिपेक्ष हिन्दू मतदाताओं ने भी 'संघ परिवार' के अनुषंगी राजनैतिक संगठन भाजपा को मजबूरी में यदि चुन लिया हो तो कौन सा आसमान फैट पड़ा है। ? भोपाल जिला कोर्ट की कल की घटना तो यही इंगित कर रही प्रतीत होती है कि साम्प्रदायिक ध्रवीकरण में इस बार अल्पसंख्यक वोटों के तलबगार नेता गच्चा खा गए हैं।
मौजूदा आम चुनाव में भाजपा को मिली बम्फर जीत और कांग्रेस सहित अन्य दलों की मर्मान्तक हार से न केवल हारने वाले बल्कि जीतने वाले भी भौचक्के हैं। हारने वाले अपनी करारी हार से क्षत-विक्षत हैं और जीतने वाले अपनी अप्रत्याशित जीत से गदगदायमान हो रहे हैं। इन ऐतिहासिक चुनावी परिणामों की अपने-अपने मिजाज और सोच के अनुसार शल्य क्रिया भी जारी है। जीतने वालों ने तो बयानबाजी के भी रिकार्ड तोड़ डाले हैं। कुछ तो जीत के जोश में होश खोकर अल्ल - बल्ल भी बकने लगे हैं। कुछ शर्मनाक हार से हताश-निराश होकर 'शमशान वैराग्य' को प्राप्त हो रहे हैं। सही मायने में चुनाव परिणामों की प्रतिक्रिया का आकलन अभी भी अपेक्षित है। वेशक श्री लाल कृष्ण आडवाणी - श्रीमती सुषमा स्वराज की प्रतिक्रिया जरूर वास्तविकता के करीब कही जा सकती है । उनके कथन का भावार्थ यदि यह है की यह यूपीए और कांग्रेस की नाकामयियों का परिणाम है । यह चुनाव परिणाम -मंहगाई ,भृष्टाचार तथा कुशासन के खिलाफ परिवर्तन की लहर है। जिस ने भाजपा को जिताया है तो यह निष्कर्ष काफी हद तक सही है। हालांकि संघ परिवार ने इस दफे ज़रा ज्यादा ही कड़ी मेहनत की है ।
इस महा बिकराल परिणाम में कुछ 'नमो' का प्रशश्ति गान और बहुत कुछ वो हिन्दुत्ववादी ध्रुवीकरण भी सहायक रहा है जिसे सिमी जैसे उन्मादियों ने सुलगाया और कटटर हिन्दुत्तवादियों ने हवा दी। ये ऐतिहासिक चुनाव इस मायने में भी बेमिशाल रहे हैं। कई लोक सभा क्षेत्रों में मुस्लिम -दलित -पिछड़ा वर्ग के वोटों की घटिया राजनीति का क्षरण स्पस्ट दिख रहा है। अल्पसंख्यक वोटों पर या दलित वोटों को अपनी जागीर समझने वाली बहिनजी आज कोमा में हैं। आजमगढ़ ,मुजफ्फरनगर, मेरठ पश्च्मिी उत्तर प्रदेश के साम्प्रदायिक दंगों के लिए यदि 'संघ परिवार' जिम्मेदार था तो रालोद का सूपड़ा साफ़ क्यों हुआ ? अजीतसिंह तो 'पाक-साफ' थे न !वे तो हेमा मालिनी से गए गुजरे निकले। उत्तर भारत में इस्लामिक आतंकवाद के उफान का प्रत्यक्ष प्रभाव यह रहा कि सीधा फायदा नरेंद्र मोदी को ही मिला है। उत्तर भारत का सवर्ण और सभ्रांत समाज बहुत दिनों से पिछड़ी-दलित -मुस्लिम युति से आहात था। चूँकि उसे कार्पोरेट पूँजी नियंत्रित अनुदारवादी दक्षिणपंथी 'संघ परिवार' इस दौर में मुफीद लगा इसलिए बहुसंख्यक सवर्ण समाज ने एकजुट होकर भाजपा , एनडीए और 'नमो' को अपने समथन से मालामाल कर दिया।
चूँकि विगत तीस साल से उत्तर प्रदेश ,बिहार, झारखंड को क्षेत्रीय दलों ने बुरी तरह छत-विक्षत कर रखा था। समूचे उत्तर और मध्य भारत को जाति की राजनीति में बुरी तरह झोक डाला था, निम्न वर्ग केवल वोटर वनकर रह गया था इससे न केवल बहुसंख्यक हिन्दू सवर्ण समाज बल्कि आरक्षण से वंचित अधिकांस दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक भी इस बार एक स्वर में बोल गए -'अबकी बार ,मोदी सरकार ' गुजरात ,गोधरा , मुजफ्फरनगर,मुंबई,मेरठ,जम्मू,श्रीनगर,असम ,कोकराझार तथा उत्तर-पश्चिम सीमा पार से हुई भारत विरोधी कार्यवाइयों को , देश भर में विभिन्न स्थानों पर हुई साम्प्रदायिक घटनाओं को सीमाओं पर और पाकिस्तान में हिन्दुओं पर किये जा रहे अत्याचार को ,बांग्लादेश में हिन्दुओं के कत्ले आम को 'संघ परिवार' ने इन चुनावों में जमकर भुनाया। इसके अलावा उनकी इस चुनावी सफलता के लिए अल्पसंख्यक आतंकवाद भी जिम्मेदार है।
इस्लामिक आतंकवाद की प्रतिक्रियास्वरूप 'हिन्दुत्ववादी ताकतों ने इन चुनावों के माध्यम से देश में 'फासिज्म' की नीव रख दी है। सब कुछ हिटलर के उदय और जर्मनी के 'नाजीवाद' की ओर बढ़ने की तरह घटित हो रहा है। उस समय वहाँ प्रशा और जर्मनी में यहूदियों की जर्मन साम्राज्य से अनिष्ठा थी तो यहाँ इस दौर में सिमी के आतंकवादी ही नहीं बल्कि और भी है जो देश की जड़ें खोद रहे हैं। इसीलिये इस्लामिक उग्रवाद पर संदेह के बादल मंडरा रहे हैं। यही वजह है कीआज बहुसंखयक हिन्दू समाज एकजुट होकर 'संघ परिवार' के साथ खड़ा हो गया है। गरीबी ,मेंहगाई ,बेकारी और भुखमरी से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई भी मोदी समर्थक अभी १५ साल तक कुछ नहीं बोलने वाला। 'संघ परिवार' और 'नमो' ने बड़ी चतुराई से अब लड़ाई 'राष्ट्रवाद' बनाम आतंकवाद की है। पेट्रोल के दाम दुगने कर दो ,बिजली -पानी मंहगा कर दो, ,लोग भूंखे रह लेंगे,भीख मांग लेंगे पर कोई आंदोलन नहीं करेंगे , भले ही अम्बानी-अडानी मालामाल होते रहें ,गरीब और गरीब होकर भूखे प्यासे मरते रहें ,लेकिन कोई चूं चपड़ नहीं कर पायेगा क्योंकि उन्हें भारी बहुमत दिलाने -विजय प्राप्त करने के लिए जो पैसा पानी की तरह बहाना पड़ा वो इन्ही सरमायेदारों का था।
वे आतंकवाद का हौआ और राष्ट्रवाद का 'बिजूका' दिखाकर जनता के सवालों को उलझाते रहेंगे। जन सरोकारों या जनता के सबालों पर संगठित मजदूर आंदोलन और वामपंथ के अलावा कोई आंदोलन नहीं करने वाला। यही बात आज 'नमो' के पक्ष में जा रही है। कहने का तात्पर्य ये की भारत में धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र आज यदि खतरे में है तो इसके लिए केवल फासीवादी ताकतें ही नहीं बल्कि जाति - मजहब ,क्षेत्रीयतावाद और कार्पोरेट पूँजी की बेजा भूंख भी इस पतन के लिए जिम्मेदार है. 'संघ परिवार' भाजपा और 'नमो' द्वारा इन चुनावों में इन कमजोर कड़ियों का अखूबी इस्तेमाल किया गया है। उसी के बलबूते इतनी बड़ी जीत हासिल हुई है। जिससे की विजेता अब 'मलंग' हुए जा रहे हैं। वेशक यूपी बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड में 'नमो' का कुछ व्यक्तिगत प्रभाव अवश्य पड़ा है। बंगाल,केरल त्रिपुरा ,तमिलनाडु और उड़ीसा में भाजपा को अभी भले ही कोई उल्लेखनीय सफलता न मिली हो किन्तु , मध्यप्रदेश,गुजरात ,राजस्थान छग में उसे जो विजय हासिल हुई है वो अद्भुत और अप्रत्याशित है। इन राज्यों में मोदी का कम भाजपा और आरएसएस का सर्वाधिक योगदान रहा है। आने वाले बरसों में ,आगामी १५ सालों में बंगाल में तृणमूल का भी नामोनिशान नहीं रहेगा। तमिलनाडु से एआईडीएमके या डीएमके को हम 'ढूढ़ते रह जायंगे 'नवीन पटनायक और चन्द्र बाबू भी फना हो जायंगे। आखरी द्वन्द इस देश में केवल पूंजीपतियों और सर्वहारा के बीच ही होगा। जाहिर है पूँजीपतियों के सेनापति कोई 'संघनिष्ठ' ही होंगे और देश के सर्वहारा का नेतत्व उसका 'हरावल दस्ता करेगा। वेशक यह फाइनल संघर्ष अभी दूर है। अभी तो १५ साल केवल; भाजपा और नमो के लिए 'नियति' ने सुरक्षित कर रखे हैं।
इतिहास में संभवतः पहली बार भारत के सहिष्णु-धर्मनिरपेक्ष -हिन्दू समाज ने अपने आक्रोश को साम्प्रदायिक आधार पर अभिव्यक्त किया है। इस चुनाव परिणाम से एक आशा भी जगी है कि जातीयता की राजनीति को भी हिंदुत्व की इस आंधी हिलाकर कर रख दिया है। अब उस आरक्षण पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है जिस के कारण करोड़ों दलित-आदिवासी आजादी के ६७ साल बाद भी नंगे -भूंखे है और चंद दलित नेता और दलित अधिकारी वंशानुगत इस आरक्षण की वैशाखी का बेजा मजा लूटते जा रहे हैं। इस जातिवादी विचारधारा की राजनीतिक ने धर्मनिरपेक्षता की अनुगूँज को खतरे में डालने का काम भी किया है। अब सभी हरल्ले केवल मुसलमानों को कोस रहे हैं। मानों धर्मनिरपेक्षता का ठेका केवल मुसलमानों ने ही ले रखा हो।मायावती,मुलायम, नीतीश और कांग्रेस की हार तो वेशक अल्पसंख्यक वोटों की बंदरबाँट से ही हुई है। बंगाल में वेशक तृणमूल कांग्रेस ने बेजा चुनावी धांधली की है , न सिर्फ वाम मोर्चा बल्कि भाजपा ने भी उसकी लिखित शिकायत की है किन्तु यह भी एक कटु सच्चाई है की ममता बेनर्जी ने मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए नरेंद्र मोदी को न केवल मुसलमानों का बल्कि बंगालियों का भी दुश्मन बताया। इस चुनाव में दीदी ने पानी-पीकर वामपंथ और 'नमो' को जो गालियां दीं हैं वे तृणमूल के सांसदों के रूप में संसद में मौजूद रहेंगी। नरेंद्र मोदी भी इस सदन के नेता होंगे। याने भारत के प्रधानमंत्री होंगे। यह बहुत संभव है कि वामपंथ के बजाय ममता को अपना हितेषी मानकर बंगाल के [बांग्लादेशियों ने भी] के मुसलमानों ने ममता को इकतरफा समर्थन दिया हो।
भारत में आज जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं उसके लिए बहुत हद तक पाकिस्तान में हिन्दुओं का कत्ले आम और सीमाओं पर पाकिस्तानी फौज की नृशंसता भी परोक्ष रूप से जिम्मेदार है। बांग्लादेश ,श्रीलंका नेपाल ,चीन और अमेरिका सभी ने भारत को लहूलुहान कर रखा है , सब ओर से परेशान -हैरान -पढ़े-लिखे नौजवान अब सब्र नहीं कर सकते। वे मीडिया के प्रचार और बाजार के पाखण्ड से प्रभावित होकर भारत को विश्व मंच पर चमत्कारिक ढंग से उपस्थति दर्ज कराने के लिए लालायत हैं। उनके इस अभीष्ट या मकसद यदि नरेंद्र मोदी फिट हैं तो वे उन को समर्थन क्यों नहीं देंगे ? यह केवल कांग्रेस ,डॉ मनमोहनसिंह ,सोनिया गांधी या राहुल गांधी का ही कसूर नहीं हैं बल्कि यह कुछ दोष उनका भी है जो जीत की ख़ुशी में अपने दामन के दाग छुपा रहे हैं। इतिहास अवश्य पूंछेगा की अधिसंख्य धर्मनिरपेक्ष हिन्दू समाज को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रवीकृत करने के कारक कौन-कौन थे। वे कौन से तत्व हैं जिन्होंने अधिसंख्य हिन्दू समुदाय को एकजुट होकर भाजपा और मोदी के पक्ष में मतदान के लिए मजबूर किया है ।यदि यह संभव हुआ है तो भी वह अपावन कैसे हो सकता है ?जब तक अल्पसंख्यक वोट पाने वाले सत्ता सुख भोगने वाले आपवन घोषित नहीं कर दिए जाते। तब तक 'नमो' और भाजपा की इस मौजूदा जीत के लिए जिम्मेदार बहुसंखयक हिन्दू मतदाताओं को कैसे कसूरवार ठहराया जा सकता है ?
भारत में जिन लोगों ने इस १६ वीं संसद के चुनाव तक - इस्लामिक कट्टरवाद को कमतर और हिन्दू कट्टर वाद को ज्यादा खतरनाक- मानकर राजनीति की है वे वास्तविकता से बहुत दूर हैं। मायावती आज यदि रुदाली बनकर मुसलमानों की आपसी फूट तथा मुस्लिम वोटों के 'बिखरने' पर करुणक्रन्दन या स्यापा कर रहीं हैं तो यह उनका मानसिक दिवालियापन है। उन्हें किसने कहा था कि वे मुसलमान या दलित वोटों को अपनी खानदानी जागीर समझती रहें ? उन्हें यह जानना -समझना चाहिए कि यदि वे सच्ची दलित नेता हैं या थीं तो उनके पास 'नॉनट्रान्सफरेबल 'करोड़ों दलित वोट और अरबों रुपयों का अम्बार होते हुए भी वे बुरी तरह क्यों हार गईं ? भगीरथ- प्रसाद, उदितराज ,रामदास आठवले , पासवान जगदम्बिका पाल जैसे सारे के सारे दलित-पिछ्डे , दल -बदलू नेता - जिन्हे मायावती ने हमेशा दुत्कारा। वे 'संघ' परिवार का नाम और 'स्पर्श' पाकर चुनाव जीत गए हैं ! भले ही 'मोदी सरकार' के कारण 'मजदूरों' गरीबों के अच्छे दिन ना आ सकें किन्तु यह अकाट्य सत्य है कि जातिवाद की राजनीति करने वालों के बुरे दिन आने वाले हैं !आतंकवाद के दिन भी जरूर लदने वाले हैं ! यदि हम वाकई सत्य के पक्षधर हैं तो सच कहने का माद्दा भी हममें होना चाहिये !
श्रीराम तिवारी
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