यह केवल एग्जिट पोल या प्रीपोल के आंकड़ों पर विश्वाश -अविश्वाश करने की बात नहीं है बल्कि अधिकांस तठस्थ राजनैतिक विश्लेषकों का भी यही अभिमत है की १६ मई को जो परिणाम आयंगे उसमें भाजपा का १६ वीं संसद में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उपस्थित होना तय है।लेकिन भगवा प्रकोष्ठ के अति उत्साहीलालों की आकाशवाणी कि अकेले भाजपा ही २७६ सीटे जीतकर आ रही है ,मुंगेरीलाल के हसीन सपनो से ज्यादा कुछ नहीं है। वेशक भाजपा को २०० से २२० तक सांसदों की सीटें मिल गई तब भी वह रिकार्ड ही तो तोड़ेगी ! इसके उपरान्त भी एनडीए की सरकार बनाने के लिये 'संघ परिवार' को आधा सैकड़ा सांसदों की सख्त दरकार है। संभावित अलायन्स को लेकर और अपने ही 'वरिष्ठों' के मिजाज को लेकर 'संघपरिवार' में इस समय यही माथा पच्ची चल रही है। उधर बाह्य समर्थन के सवाल पर -ममता ,मायावती,जया ,नवीन ओर चंद्रशेखरराव जुबान पर दही जमाये हुये हैं। इधर अपने ही धुरंधर - आडवाणी,सुषमा ,मुरली मनोहर और उमा भारती जैसे अनेक भाजपाई 'कोप भवन ' की ओर अग्रसर हैं। तमाम संभावनाओं के बावजूद संघ के सुरेश सोनी,रामलाल, होस्बोले और राम माधव ही नहीं बल्कि स्वयं मोहनराव भागवत भी दिल्ली के केशव कुञ्ज में इस 'महाचुनौती' से जूझने में जुट गए हैं। वे खुद ही आश्वत नहीं हैं कि राज्य सत्ता का यह 'महागरल' मोदी सहज ही पचा पाएंगे। वे जान गए हैं कि उनके शागिर्द के राज्यारोहण का पथ उतना निरापद नहीं है जितना की जेटली, राजनाथसिंग और स्वयं नरेन्द्र मोदी बता रहे है।
यह तो उचित ही है कि कांग्रेस का पाटिया उलाल तय है। कांग्रेस का १०० सीटों के आसपास सिमिट जाना तय है। ये भी अनुमान है कि बाकी लगभग २०० सीटें गैर एनडीए -गैर यूपीए याने - सपा,बसपा जदयू ,राजद,झमो,आप , तृणमूल ,नवीन जया ललिता तथा वाम दलों की होंगी। एनडीए और यूपीए से अलहदा यदि तीसरे मोर्चे की संयुक्त ताकत को तितर-वितर होने से बचाए जाये। राष्ट्र के आम आदमी के हितों के लिए यह अति आवश्यक है कि केंद्रीय सत्ता को पूँजीवादी दलालों के हाथों खरीद-फरोख्त से रोका जाये। गैर कांग्रेस ,गैर भाजपा और क्षेत्रीय दलों की एकता से निर्मित यह तीसरा मोर्चा लोकतंत्र के लिए वरदान साबित हो सकता है। तब देश को यूपीए से निजात तो मिलेगी ही ,साथ ही भाजपा के व्यक्तिवादी- अहमन्यवादी-साम्प्रदायिक - बेलगाम निर्मम पूँजीवाद पर अब भी अंकुश लगाया जा सकता है.
मोदी जी का गुजरात विकाश मॉडल ओर 'गुड गवर्नेश ' केवल एक ऐसा अर्ध सत्य है जो कांग्रेस और यूपीए के प्रति आवाम के चिर असंतोष को भाजपा की 'संसदीय' ताकत में इजाफा करने के काम तो आ सकता है। लेकिन भारत का उद्धार नहीं कर सकता। वेशक इस हो-हल्ले में भाजपा बाजी मार ले जाए। किन्तु तब भी उनसे ज्यादा सीटें तो गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की ही होंगी। चूँकि जनादेश यूपीए के खिलाफ आने वाला है। चूँकि भाजपा नीत एनडीए बेसब्री से सत्ता की प्रतीक्षा में हैं ,उसके' नेता नरेंद्र मोदी का व्यक्तिगत परफार्मेंस भी अन्य दलों ओर नेताओं से कुछ ज्यादा ही रेखांकित किया गया है। इसलिए १७ मई को भाजपा संसदीय बोर्ड द्वारा श्री नरेन्द्र भाई मोदी को विधिवत अपना नेता [प्रधानमंत्री प्रत्याशी] घोषित कर दिया जाएगा.
जिन्होंने 'नमो' के नाम पर बड़ा दाँव लगाया है ,चुनाव प्रचार में अरबों फूंके हैं, वे एग्जिट पोल के फ़ौरन बाद 'वसूली' में जुट गए हैं।विगत ४८ घंटे में अडानी के खातों में ४९५९ करोड़ और अम्बानी-रिलायंस के खातों में २१०० करोड़ की बेतहसा बृद्धि हुई है।यह पैसा कहाँ से आया ? जाहिर है कि मध्यम वर्गीय निवेशकों के खातों में घटत हुई होगी,जिसे वे देश की आवाम को लूटकर ,जिंसों के दाम बढ़ाकर या सट्टा बाजारी के मार्फ़त पूरा करेंगे। यह विचारधारा है उस पूंजीवाद की जिसे 'नमो' ने गुजरात -कच्छ -केरन में आजमाकर कुछ मुठ्ठी भर गुजरातियों को मालामाल कर दिया गया है. भले ही हजारों गाँवों को उजाड़कर दो -चार शहर 'जगमगा' दिए गए हों मगर इस चकाचौंध में यह देखने की फुर्सत किसी को नहीं कि बाकी कितनों को भूंखो मरने के लिए भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।
हालाँकि श्री मोदी पर लगे अनेक आरोपों का जबाब अभी तक देश और दुनिया को नहीं मिला है। वेशक बहुसंख्यक साम्प्रदायिक तत्ववादियों के प्रसाद पर्यन्त और कुख्यातनिर्मम क्रोनी कैपिटलिज्म जीत गया है। इन्ही काली ताकतों के वरद्हस्त से इस बार के आम चुनाव मजाक बन कर रह गए है। लोकतंत्र को धनतंत्र -प्रचारतंत्र ओर व्यक्तिगत ग्लैमर के वशीभूत कर ये चुनाव लड़े गए। सब कुछ इन ताकतों के अनुकूल है. इस तरह बहाव के अनुकूल तैरना इन हालात में मोदी जी के लिए बहुत आसान है। बहुत सम्भव है की२७२ सीटें वे अवश्य ही जुगाड़ लेंगे। तब तीसरा मोर्चा बन पाने के चांस क्या खाक होंगे ? केबल वाम मोर्चा ही है जिसने न केवल अपने सीमित साधनों ओर सीमित संसदीय ताकत के बिना पर यूपीए और एनडीए की विनाशकारी आर्थिक नीतियों पर अंकुश लगाने के लिए निरतंर संघर्ष किये हैं। केवल वामपंथ ही है जिसने कभी भी ,कहीं भी, मोदी और संघ परिवार को घास नहीं डाली। वामपंथ के साथ कुछ तो होंगे जिन्हे धर्मनिर्पक्षता, समता ,न्याय के मूल्यों सहित राष्ट्र के मजदूर -किसानों की वास्तविक फ़िक्र होगी ! ये तो हो नहीं सकता कि सारे के सारे दल ही तो यूपीए के साथ या एनडीए के साथ सदा सर्वदा सत्ता सुख भोगेंगे । कुछ तो अवश्य होंगे जो फासीवाद , पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता से लड़ने के अपने सिद्धान्त पर अडिग रहेंगे। यदि कोई नहीं तो वामपंथ अकेले ही संघर्ष के मैदान में फासिज्म का ,क्रोनी पूंजीवाद का और इस अधोगामी निजाम का डटकर मुकाबला करेगा।
श्रीराम तिवारी
स्वाभाविक है कि एनडीए या मोदी को वामपंथ का सहयोग तो कतई नहीं मिलेगा। लेकिन मोदी यदि ममता का समर्थन नहीं लेते और फिर भी सत्ता सीन हो जाते हैं तब 'वामपंथ' को क्या स्टेण्ड लेना चाहिए ? क्या एनडीए के साथ किसी तरह के पुनर्विचार या कामन मिनिमम प्रोग्राम की फिर भी कोई गुंजाइश नहीं है ? क्या यह सच नहीं की भाजपा के भीतर अभी तक नरेन्द्र मोदी एकमात्र नेता हैं जिन्होंने देश के तमाम उन दलों और नेताओं को धो डाला है जिन्होंने एनडीए या मोदी का बहिष्कार कर रखा है। मोदी ने केवल वामपंथ के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। उन्होंने त्रिपुरा में भी सीपीएम की सरकार के खिलाफ कुछ नहीं कहा। वे कुछ कुछ अटल जी की तरह ही वामपंथ का लिहाज करते प्रतीत हो रहे हैं। इसके उलट वामपंथ की कतारों में 'नमो' हमेशा सर्वथा त्याज्य ओर निंदनीय रहे हैं। वैसे भी वामपंथ के द्वारा काग्रेस और भाजपा को एक समान निशाने पर लेने की नीति के वाबजूद कांग्रेस और यूपीए को वाम की ओर से सदाशयता मिलती ही रही है। जबकि एनडीए ,भाजपा और मोदी केवल ' महाछूत' ही रहे हैं। इन्ही कारणों से देश में कई जगहों पर वाम कार्यकर्ता या तो निष्क्रिय हो चले हैं या 'आप' के साथ हो लिये हैं।
इन हालात में जबकि माया ,ममता ,जय ललिता जैसी स्वयंभू नेत्रियां देश की नहीं अपने अहम की चिंता में 'दुबली' हो रही हों , देवेगौड़ा , नीतीश , मुलायम कालातीत होने जा रहे हों ,नवीन पटनायक चन्द्र बाबु नायडू ओर अगप ने एनडीए का हाथ थाम लिया हो तब 'वाम पंथ ' को क्या स्टेण्ड लेना चाहिए ? वाम मोर्चे के द्वारा २००४ में जब यूपीए - प्रथम को बाहर से 'मुद्दों पर आधारित' समर्थन दिया जा सकता है और वक्त आने पर २००८ में [1.२ ,३ एटमी करार पर असहमति स्वरूप]वापिश भी लिया जा सकता है तो२०१४ में एनडीए को बाहर से समर्थन क्यों नहीं दिया सकता ? यदि भाजपा २०० सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आती है तो स्वाभाविक है कि अन्य क्षेत्रीय दल भी उसके साथ जुड़ेंगे ही। तब तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने का प्रयास केवल एक औपचारिक राजनैतिक रस्म अदायगी ही रह जायेगी। वेशक भारत में केवल वाम पंथ ही है जो जनआकांक्षी , न्याय आधारित , शोषण मुक्त समजा व्यवस्था के लिए सर्वजनहितकरी नीतियों पर अडिग रहा है,उसके संसदीय प्रजातंत्र के हस्तेक्ष की डगर में कुछ खुशनुमा दौर आये हैं तो मैदानी जन संघर्षों में भी मेहनत कशों ने खून पसीना एक किया है। वाम पंथ कोइ छुइ -मुई नहीं कि कोई मोदी छु ले ,कोइ भाजपा छु ले ,या 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' पर आधारित एनडीए छु ले तो वो कुम्हला जायेगा। वेशक जब एक बार यूपीए -प्रथम को समर्थन देकर वामपंथ ने डॉ मनमोहन सिंह के उदार पूंजीवाद से 'मनरेगा ,आर टी आई और कमजोरों -दलितों आदिवासियों के हितार्थ अनेक सार्थक फैसले लागु करवाये हैं तो एनडीए के उग्र पूँजीवाद से नाउम्मीद क्यों ?जहां तक संघ पोषित बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता का सवाल है वो तो देश की जनता के जनादेश से ही परिभाषित हो जाएगा। यदि यूपीए के कुकर्मो से एनडीए की साम्प्रदायिकता बड़ी है तो उस पर देश को समवेत फैसला लेना चाहिए। कुर्बानी का ,देशभक्ति का और धर्मनिरपेक्षता का ठेका क्या अकेले वामपंथ ने ले रखा है ? क्या वाम पंथ ने ओमान चांडी या ममता से कुछ कम धर्मनिरपेक्षता का आचरण किया था ?जो केरल और बंगाल में हार का मुँह देखना पड़ा ? क्या संसदीय प्रजातंत्र में आदर्शों की बलिबेदी केवल भारत के उस संगठित पक्ष के लिए ही बनी है? मेहनतकश जनता के हरावल दस्तों का यूं ही चूक पर चूक करते हुए अप्रसांगिक होते जाना क्या साबित करता है? कौनसा वर्ग संघर्ष होने जा रहा है?
किसी भी पक्ष की ओर से मोदी का व्यक्तिगत अंध विरोध उन पर अनैतिक आचरण के आरोप किसी भी तरह से जायज नहीं है। उनकी नीतियों पर असहमति हो सकती है ,उनसे बेहतर नेता भी भारत में ढेरों हो सकते हैं , यह भी जाहिर है कि मोदी की नीतियां- कार्यक्रम व सोच भी उतनी वैज्ञानिक और प्रेक्टिकल नहीं है जितनी की वे बताते हुये नहीं थक रहे हैं। वेशक जिस तरह मुंबई कोलकता नहीं हो सकता ,जिस तरह जयपुर झुमरी तलैया नहीं हो सकता और जिस तरह जापान फिलिस्तीन नहीं हो सकता उसी तरह समग्र भारत गुजरात नहीं हो सकता।लेकिन सकारात्मक सोच और तरक्की के सपने देखने वाले मोदी कम से कम उस धूर्त -स्वार्थी ,लालची मजदूर विरोधी ममता से तो बेहतर ही हैं जो सत्ता लिप्सा के लिए नक्सलवादियों ,माओवादियों से लेकर बांग्लादेशी घुसपैठियों ओर घोर वाम विरोधी कठमुल्लाओं की गोद में जा बैठी है।
जो लोग कांग्रेस और भाजपा को भारत के विकाश ,सुरक्षा और समृद्धि के लिए रोड़ा मानते हैं ,मैं उनसे सहमत हूँ। जो लोग भाजपा और संघ परिवार में 'फासिज्म' के बीज देखते हैं मैं उनसे भी सहमत हूँ। जो लोग कांग्रेस को राजनीति की भृष्ट 'गन्दलाई ' हुई असहनीय गटर गंगा समझते हैं ,मैं उनसे भी कुछ-कुछ सहमत हूँ। लेकिन जो लोग पूरी की पूरी कांग्रेस और पूरी की पूरी भाजपा को 'अधम-अपावन' समझते हैं मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। मेरा मन्तब्य यह हैं की जब कांग्रेस में ,भाजपा में वामपंथ या अन्य राजनैतिक दलों में कोई व्यक्ति गलत बात कहता है तो उसका विरोध स्वाभाविक और जायज है किन्तु जब वह व्यक्ति राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सही और देश हित की बात करता है तो उसका स्वागत भी किया जाना चाहिए।
गुजरात के मुख्य मंत्री और भाजपा के 'पी एम् इन वेटिंग' नरेंद्र मोदी बंगाल में जाकर ममता की वास्तविकता जनता के सामने रखते हैं ,उसकी पोल' खोलते हैं , सत्ता में आने पर बँगला देश के घुसपैठियों को भारत से निकाल बाहर करने की बात करते हैंऔर ममता को कठघरे में खड़ा करते हैं तो वे केवल भाजपा का ही हित देखते हुए नहीं लगते। बल्कि वे भारत की सुरक्षा और ममता की राष्ट्र विरोधी -असल तस्वीर भी पेश कर रहे होते हैं। ममता ओर मोदी दोनों मेरे पसंदीदा नेता नहीं हैं। किन्तु इस प्रसंग में मोदी को मैं ममता से बेहतर मानने को बाध्य हुँ । क्योंकि ममता ने केवल वोट की गन्दी राजनीती के लिए और वामपंथ की वापिसी रोकने के लिए बंगाल में तो मोदी का विरोध कर रखा है जबकि राजनीतिक क्षितिज पर उसकी नजरें एनडीए और भाजपा से मिली हुई हैं। उसके प्रवक्ता 'डेरेक ओ ब्राइन का बयान उसी गुप्त कड़ी का एक हिस्सा है। श्री रामपुर [बंगाल] की आम सभा भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ममता को सराहते हैं ,उन्हें वामपंथ ओर कांग्रेस से लड़ने और भाजपा से प्यार की पैगे बढ़ाने को फुसलाते हैं तो मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं की राजनाथसिंह झूंठे ओर कपटी हैं। जबकि नरेंद्र मोदी उनसे कहीं ज्यादा साफ़ गोई के प्रतीक हैं। उन्हें वाम की ओर से समर्थन न सही लेकिन जनता का बहुमत यदि मिलतता है तो कम से कम यूपीए ओर कांग्रेस से तो देश को मुक्त होने ही दिया जाये !
श्रीराम तिवारी
यह तो उचित ही है कि कांग्रेस का पाटिया उलाल तय है। कांग्रेस का १०० सीटों के आसपास सिमिट जाना तय है। ये भी अनुमान है कि बाकी लगभग २०० सीटें गैर एनडीए -गैर यूपीए याने - सपा,बसपा जदयू ,राजद,झमो,आप , तृणमूल ,नवीन जया ललिता तथा वाम दलों की होंगी। एनडीए और यूपीए से अलहदा यदि तीसरे मोर्चे की संयुक्त ताकत को तितर-वितर होने से बचाए जाये। राष्ट्र के आम आदमी के हितों के लिए यह अति आवश्यक है कि केंद्रीय सत्ता को पूँजीवादी दलालों के हाथों खरीद-फरोख्त से रोका जाये। गैर कांग्रेस ,गैर भाजपा और क्षेत्रीय दलों की एकता से निर्मित यह तीसरा मोर्चा लोकतंत्र के लिए वरदान साबित हो सकता है। तब देश को यूपीए से निजात तो मिलेगी ही ,साथ ही भाजपा के व्यक्तिवादी- अहमन्यवादी-साम्प्रदायिक - बेलगाम निर्मम पूँजीवाद पर अब भी अंकुश लगाया जा सकता है.
मोदी जी का गुजरात विकाश मॉडल ओर 'गुड गवर्नेश ' केवल एक ऐसा अर्ध सत्य है जो कांग्रेस और यूपीए के प्रति आवाम के चिर असंतोष को भाजपा की 'संसदीय' ताकत में इजाफा करने के काम तो आ सकता है। लेकिन भारत का उद्धार नहीं कर सकता। वेशक इस हो-हल्ले में भाजपा बाजी मार ले जाए। किन्तु तब भी उनसे ज्यादा सीटें तो गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की ही होंगी। चूँकि जनादेश यूपीए के खिलाफ आने वाला है। चूँकि भाजपा नीत एनडीए बेसब्री से सत्ता की प्रतीक्षा में हैं ,उसके' नेता नरेंद्र मोदी का व्यक्तिगत परफार्मेंस भी अन्य दलों ओर नेताओं से कुछ ज्यादा ही रेखांकित किया गया है। इसलिए १७ मई को भाजपा संसदीय बोर्ड द्वारा श्री नरेन्द्र भाई मोदी को विधिवत अपना नेता [प्रधानमंत्री प्रत्याशी] घोषित कर दिया जाएगा.
जिन्होंने 'नमो' के नाम पर बड़ा दाँव लगाया है ,चुनाव प्रचार में अरबों फूंके हैं, वे एग्जिट पोल के फ़ौरन बाद 'वसूली' में जुट गए हैं।विगत ४८ घंटे में अडानी के खातों में ४९५९ करोड़ और अम्बानी-रिलायंस के खातों में २१०० करोड़ की बेतहसा बृद्धि हुई है।यह पैसा कहाँ से आया ? जाहिर है कि मध्यम वर्गीय निवेशकों के खातों में घटत हुई होगी,जिसे वे देश की आवाम को लूटकर ,जिंसों के दाम बढ़ाकर या सट्टा बाजारी के मार्फ़त पूरा करेंगे। यह विचारधारा है उस पूंजीवाद की जिसे 'नमो' ने गुजरात -कच्छ -केरन में आजमाकर कुछ मुठ्ठी भर गुजरातियों को मालामाल कर दिया गया है. भले ही हजारों गाँवों को उजाड़कर दो -चार शहर 'जगमगा' दिए गए हों मगर इस चकाचौंध में यह देखने की फुर्सत किसी को नहीं कि बाकी कितनों को भूंखो मरने के लिए भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।
हालाँकि श्री मोदी पर लगे अनेक आरोपों का जबाब अभी तक देश और दुनिया को नहीं मिला है। वेशक बहुसंख्यक साम्प्रदायिक तत्ववादियों के प्रसाद पर्यन्त और कुख्यातनिर्मम क्रोनी कैपिटलिज्म जीत गया है। इन्ही काली ताकतों के वरद्हस्त से इस बार के आम चुनाव मजाक बन कर रह गए है। लोकतंत्र को धनतंत्र -प्रचारतंत्र ओर व्यक्तिगत ग्लैमर के वशीभूत कर ये चुनाव लड़े गए। सब कुछ इन ताकतों के अनुकूल है. इस तरह बहाव के अनुकूल तैरना इन हालात में मोदी जी के लिए बहुत आसान है। बहुत सम्भव है की२७२ सीटें वे अवश्य ही जुगाड़ लेंगे। तब तीसरा मोर्चा बन पाने के चांस क्या खाक होंगे ? केबल वाम मोर्चा ही है जिसने न केवल अपने सीमित साधनों ओर सीमित संसदीय ताकत के बिना पर यूपीए और एनडीए की विनाशकारी आर्थिक नीतियों पर अंकुश लगाने के लिए निरतंर संघर्ष किये हैं। केवल वामपंथ ही है जिसने कभी भी ,कहीं भी, मोदी और संघ परिवार को घास नहीं डाली। वामपंथ के साथ कुछ तो होंगे जिन्हे धर्मनिर्पक्षता, समता ,न्याय के मूल्यों सहित राष्ट्र के मजदूर -किसानों की वास्तविक फ़िक्र होगी ! ये तो हो नहीं सकता कि सारे के सारे दल ही तो यूपीए के साथ या एनडीए के साथ सदा सर्वदा सत्ता सुख भोगेंगे । कुछ तो अवश्य होंगे जो फासीवाद , पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता से लड़ने के अपने सिद्धान्त पर अडिग रहेंगे। यदि कोई नहीं तो वामपंथ अकेले ही संघर्ष के मैदान में फासिज्म का ,क्रोनी पूंजीवाद का और इस अधोगामी निजाम का डटकर मुकाबला करेगा।
श्रीराम तिवारी
स्वाभाविक है कि एनडीए या मोदी को वामपंथ का सहयोग तो कतई नहीं मिलेगा। लेकिन मोदी यदि ममता का समर्थन नहीं लेते और फिर भी सत्ता सीन हो जाते हैं तब 'वामपंथ' को क्या स्टेण्ड लेना चाहिए ? क्या एनडीए के साथ किसी तरह के पुनर्विचार या कामन मिनिमम प्रोग्राम की फिर भी कोई गुंजाइश नहीं है ? क्या यह सच नहीं की भाजपा के भीतर अभी तक नरेन्द्र मोदी एकमात्र नेता हैं जिन्होंने देश के तमाम उन दलों और नेताओं को धो डाला है जिन्होंने एनडीए या मोदी का बहिष्कार कर रखा है। मोदी ने केवल वामपंथ के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। उन्होंने त्रिपुरा में भी सीपीएम की सरकार के खिलाफ कुछ नहीं कहा। वे कुछ कुछ अटल जी की तरह ही वामपंथ का लिहाज करते प्रतीत हो रहे हैं। इसके उलट वामपंथ की कतारों में 'नमो' हमेशा सर्वथा त्याज्य ओर निंदनीय रहे हैं। वैसे भी वामपंथ के द्वारा काग्रेस और भाजपा को एक समान निशाने पर लेने की नीति के वाबजूद कांग्रेस और यूपीए को वाम की ओर से सदाशयता मिलती ही रही है। जबकि एनडीए ,भाजपा और मोदी केवल ' महाछूत' ही रहे हैं। इन्ही कारणों से देश में कई जगहों पर वाम कार्यकर्ता या तो निष्क्रिय हो चले हैं या 'आप' के साथ हो लिये हैं।
इन हालात में जबकि माया ,ममता ,जय ललिता जैसी स्वयंभू नेत्रियां देश की नहीं अपने अहम की चिंता में 'दुबली' हो रही हों , देवेगौड़ा , नीतीश , मुलायम कालातीत होने जा रहे हों ,नवीन पटनायक चन्द्र बाबु नायडू ओर अगप ने एनडीए का हाथ थाम लिया हो तब 'वाम पंथ ' को क्या स्टेण्ड लेना चाहिए ? वाम मोर्चे के द्वारा २००४ में जब यूपीए - प्रथम को बाहर से 'मुद्दों पर आधारित' समर्थन दिया जा सकता है और वक्त आने पर २००८ में [1.२ ,३ एटमी करार पर असहमति स्वरूप]वापिश भी लिया जा सकता है तो२०१४ में एनडीए को बाहर से समर्थन क्यों नहीं दिया सकता ? यदि भाजपा २०० सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आती है तो स्वाभाविक है कि अन्य क्षेत्रीय दल भी उसके साथ जुड़ेंगे ही। तब तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने का प्रयास केवल एक औपचारिक राजनैतिक रस्म अदायगी ही रह जायेगी। वेशक भारत में केवल वाम पंथ ही है जो जनआकांक्षी , न्याय आधारित , शोषण मुक्त समजा व्यवस्था के लिए सर्वजनहितकरी नीतियों पर अडिग रहा है,उसके संसदीय प्रजातंत्र के हस्तेक्ष की डगर में कुछ खुशनुमा दौर आये हैं तो मैदानी जन संघर्षों में भी मेहनत कशों ने खून पसीना एक किया है। वाम पंथ कोइ छुइ -मुई नहीं कि कोई मोदी छु ले ,कोइ भाजपा छु ले ,या 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' पर आधारित एनडीए छु ले तो वो कुम्हला जायेगा। वेशक जब एक बार यूपीए -प्रथम को समर्थन देकर वामपंथ ने डॉ मनमोहन सिंह के उदार पूंजीवाद से 'मनरेगा ,आर टी आई और कमजोरों -दलितों आदिवासियों के हितार्थ अनेक सार्थक फैसले लागु करवाये हैं तो एनडीए के उग्र पूँजीवाद से नाउम्मीद क्यों ?जहां तक संघ पोषित बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता का सवाल है वो तो देश की जनता के जनादेश से ही परिभाषित हो जाएगा। यदि यूपीए के कुकर्मो से एनडीए की साम्प्रदायिकता बड़ी है तो उस पर देश को समवेत फैसला लेना चाहिए। कुर्बानी का ,देशभक्ति का और धर्मनिरपेक्षता का ठेका क्या अकेले वामपंथ ने ले रखा है ? क्या वाम पंथ ने ओमान चांडी या ममता से कुछ कम धर्मनिरपेक्षता का आचरण किया था ?जो केरल और बंगाल में हार का मुँह देखना पड़ा ? क्या संसदीय प्रजातंत्र में आदर्शों की बलिबेदी केवल भारत के उस संगठित पक्ष के लिए ही बनी है? मेहनतकश जनता के हरावल दस्तों का यूं ही चूक पर चूक करते हुए अप्रसांगिक होते जाना क्या साबित करता है? कौनसा वर्ग संघर्ष होने जा रहा है?
किसी भी पक्ष की ओर से मोदी का व्यक्तिगत अंध विरोध उन पर अनैतिक आचरण के आरोप किसी भी तरह से जायज नहीं है। उनकी नीतियों पर असहमति हो सकती है ,उनसे बेहतर नेता भी भारत में ढेरों हो सकते हैं , यह भी जाहिर है कि मोदी की नीतियां- कार्यक्रम व सोच भी उतनी वैज्ञानिक और प्रेक्टिकल नहीं है जितनी की वे बताते हुये नहीं थक रहे हैं। वेशक जिस तरह मुंबई कोलकता नहीं हो सकता ,जिस तरह जयपुर झुमरी तलैया नहीं हो सकता और जिस तरह जापान फिलिस्तीन नहीं हो सकता उसी तरह समग्र भारत गुजरात नहीं हो सकता।लेकिन सकारात्मक सोच और तरक्की के सपने देखने वाले मोदी कम से कम उस धूर्त -स्वार्थी ,लालची मजदूर विरोधी ममता से तो बेहतर ही हैं जो सत्ता लिप्सा के लिए नक्सलवादियों ,माओवादियों से लेकर बांग्लादेशी घुसपैठियों ओर घोर वाम विरोधी कठमुल्लाओं की गोद में जा बैठी है।
जो लोग कांग्रेस और भाजपा को भारत के विकाश ,सुरक्षा और समृद्धि के लिए रोड़ा मानते हैं ,मैं उनसे सहमत हूँ। जो लोग भाजपा और संघ परिवार में 'फासिज्म' के बीज देखते हैं मैं उनसे भी सहमत हूँ। जो लोग कांग्रेस को राजनीति की भृष्ट 'गन्दलाई ' हुई असहनीय गटर गंगा समझते हैं ,मैं उनसे भी कुछ-कुछ सहमत हूँ। लेकिन जो लोग पूरी की पूरी कांग्रेस और पूरी की पूरी भाजपा को 'अधम-अपावन' समझते हैं मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। मेरा मन्तब्य यह हैं की जब कांग्रेस में ,भाजपा में वामपंथ या अन्य राजनैतिक दलों में कोई व्यक्ति गलत बात कहता है तो उसका विरोध स्वाभाविक और जायज है किन्तु जब वह व्यक्ति राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सही और देश हित की बात करता है तो उसका स्वागत भी किया जाना चाहिए।
गुजरात के मुख्य मंत्री और भाजपा के 'पी एम् इन वेटिंग' नरेंद्र मोदी बंगाल में जाकर ममता की वास्तविकता जनता के सामने रखते हैं ,उसकी पोल' खोलते हैं , सत्ता में आने पर बँगला देश के घुसपैठियों को भारत से निकाल बाहर करने की बात करते हैंऔर ममता को कठघरे में खड़ा करते हैं तो वे केवल भाजपा का ही हित देखते हुए नहीं लगते। बल्कि वे भारत की सुरक्षा और ममता की राष्ट्र विरोधी -असल तस्वीर भी पेश कर रहे होते हैं। ममता ओर मोदी दोनों मेरे पसंदीदा नेता नहीं हैं। किन्तु इस प्रसंग में मोदी को मैं ममता से बेहतर मानने को बाध्य हुँ । क्योंकि ममता ने केवल वोट की गन्दी राजनीती के लिए और वामपंथ की वापिसी रोकने के लिए बंगाल में तो मोदी का विरोध कर रखा है जबकि राजनीतिक क्षितिज पर उसकी नजरें एनडीए और भाजपा से मिली हुई हैं। उसके प्रवक्ता 'डेरेक ओ ब्राइन का बयान उसी गुप्त कड़ी का एक हिस्सा है। श्री रामपुर [बंगाल] की आम सभा भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ममता को सराहते हैं ,उन्हें वामपंथ ओर कांग्रेस से लड़ने और भाजपा से प्यार की पैगे बढ़ाने को फुसलाते हैं तो मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं की राजनाथसिंह झूंठे ओर कपटी हैं। जबकि नरेंद्र मोदी उनसे कहीं ज्यादा साफ़ गोई के प्रतीक हैं। उन्हें वाम की ओर से समर्थन न सही लेकिन जनता का बहुमत यदि मिलतता है तो कम से कम यूपीए ओर कांग्रेस से तो देश को मुक्त होने ही दिया जाये !
श्रीराम तिवारी
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