सभ्य समाज में केवल साम्यवादी ही नर नारी को हर स्थिति में बराबरी का दर्जा देते हैं,अन्यथा अन्य सभी राजनीतिक दर्शन और धर्म मजहब के अधिकांश पुरुष- सत्तात्मक समाज* में एक विचित्र समानता है कि वे लोग नारी मात्र को दोयम दर्जे का मानते हैं। किंतु समझदार आदमी वह है जो हर क्षण याद रखे कि :-
नारी नारी सब कहें, नारी नर की खान!
नारी से नर होत हैं, ध्रुव प्रह्लाद समान!!
सभी धर्मों के श्रेष्ठ पुरुषों को चाहिए कि वे यदि सच्चे आस्तिक हैं,नैतिकतावादी हैं तो अपने अपने धर्म मजहब की श्रेष्ठ बातों को ही ग्रहण करे;और जो गलत है उसका शिद्दत से विरोध करें एवं नारी मात्र का सम्मान करें! जो नास्तिक हैं,बुद्धिवादी हैं, उनसे अपेक्षा है कि वे सिर्फ बाचिक लफ्फाजी या फिक्शनरी पोथन्ना लिखकर ही इति श्री न कर लें!देश और दुनिया के समक्ष ठोस उदाहरण पेश करें!
यदि कोई व्यक्ति किसी धर्म विशेष या व्यक्ति विशेष का कट्टर समर्थक है तो वह अपनी बौद्धिक चेतना और अस्मिता को उससे पत्थर की लकीर की मानिंद न जोड़े। श्रीमद् भगवदगीता के *स्थितिप्रज्ञ पुरूष* की तरह समत्व भाव के द्वारा सत् चित् आनन्द को प्राप्त होवै! अस्तू!
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