बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

भारतीय राष्ट्रवाद इतना छुई -मुई नहीं कि दो-चार नारों से ही कुम्हला जाए !

जेएनयू परिसर में जिन छात्रों ने अफजल गुरु की पुण्य तिथि मनाई ,उसे शहीद बताया और ततसंबंधी अप्रिय नारे लगाए वे देशद्रोही तो नहीं कहे जा सकते  किन्तु नादान  अवश्य कहे जा सकते हैं। इन छात्र नेताओं से चूक तो अवश्य हुई  है। किन्तु यह गंभीर अपराध नहीं बल्कि महज  'मुर्गा बनाने'के दंड  लायक भर है ।  दरसल होना तो यह  चाहिए था कि जेएनयू प्रशासन या वीसी साहब इन छात्रों को बुलाकर डाँटते उन्हें मुर्गा बनाते और कड़ी चेतावनी देकर घटना का पटापेक्ष कर देते। किन्तु एवीबीपी को तो जेएनयू में  बंदर छाप धमाचौकड़ी मचाने का मौका चाहिए था । और सरकार समर्थक मीडिया ने उन्हें यह अवसर प्रदान कराने में महती भूमिका अदा की है। इसलिए जेएनयू प्रसंग अब विश्व व्यापी हो गया है। मोदी सरकार के राज में यह एक और दागदार कड़ी शामिल हो गयी है। इससे पहले नरेंद्र दाभोलकर ,पानसरे ,कलीबुरगी ,अख्लाख़ की हत्या को देश की असहिष्णु राजनीति का परिणाम माना जा चुका है। और उसके बाद  हैदरावाद केंद्रीय  विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने न केवल वर्तमान मोदी सरकार को बल्कि भारत की सामंती-जातीय व्यवस्था को भी दुनिया भर में शर्मशार  किया है।

जेएनयू परिसर में अफजल गुरु की पुण्य तिथि मनाने , उसकी फांसी की सजा को कायरता बताने और कुछ अप्रिय  भारत विरोधी नारे लगाने से किसी भी देशभक्त भारतीय को अच्छा नहीं लगा। किन्तु इस संदर्भ को देश के दक्षिणपंथी मीडिया और सरकार समर्थक साम्प्रदायिक लोगों ने  जिस तरह उत्तेजक ढंग से झूंठ परोसकर देश  को गुमराह किया वह नाकाबिले बर्दास्त है । संघ समर्थकों ने  'संघ परिवार' से बाहर के सभी भारतीयों को जो  देशद्रोही पेश किया वह भी शर्मनाक है। भाजपा संगठन  और मोदी सरकार की दिल्ली पुलिस की यह दलील है कि ''चूँकि कोर्ट ने अफजल गुरु को फाँसी की सजा सुनाई ,इसलिए उस पर एतराज उठाना देशद्रोह है ''! यह सब भारतीय कानून अर्थात संविधान के अनुरूप ही  हुआ है। वेशक यही सच है। किन्तु संघ और उनके समर्थक मीडिया को यह भी याद रखना चाहिये कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को भी आजाद भारत की ही  कोर्ट ने मृत्यु दंड दिया था। जब तथाकथित 'हिन्दुत्ववादी' लोग गोडसे की बरसी या पुण्य तिथि मनाते हैं या उस हत्यारे के मंदिर बनाने की बात करते हैं तो देश की धर्मनिरपेक्ष जनता को  बहुत बुरा लगता है किन्तु 'कभी भी  किसी  ने इन  'गोडसे भक्तों ' को फांसी देने की मांग  नहीं की ! यदि जेएनयू में अफजल के समर्थन में नारे लगाना देशद्रोह है तो ;गोडसे जिंदाबाद 'और गांधी जी को गाली देना भी देशद्रोह है।

यह स्वाभाविक है कि जब कश्मीर सहित  पूरे भारत  में ही  विदेशी आतंकी घुसे हैं और यदि  दो-चार गुमराह  छात्र  जेएनयू में भी पनपते पाये जाएँ तो इसमें क्या अचरज  है ? लेकिन सनातन यक्ष प्रश्न यह है कि राष्ट्र - राज्य अथवा 'राष्ट्रवाद' की अंतिम परिभाषा कौन तय करेगा ? उसका दायरा कितना -कहाँ तक  होना चाहिए ?भारतीय संविधान  के अनुसार तो इस तरह की नारेबाजी 'देशद्रोह' का आधार कदापि नहीं हो सकता। भारतीय  राष्ट्रवाद  इतना छुई -मुई नहीं कि दो-चार नारों से  ही कुम्हला जाए ! यदि नारे लगाना  देशद्रोह है तो क्या रेलवे की पटरियाँ उखाड़ना ,बसें जलाना ,दुकाने जलाना ,निर्दोष को पीटना क्या देशभक्ति है ?  हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि क्रांतिकारियों ने नारे लगाकर ही देश को आजादी दिलाई है । आजादी के बाद ,देश के हर संगठन ,हर आंदोलन में रोज -रोज हजारों नारे लगते आ रहे हैं ,और हर पार्टी हर छात्र संगठन के अपरिपक्व नेताओं ने  भूल से एक दो नारे कभी-कभार 'गलत' भी अवश्य लगाये होंगे। उनमें  कुछ  तो मंत्री भी बनते आ रहे हैं और कुछ तो देशभक्ति के तमगे भी अपने सीने पर लटकाये घूम रहे हैं। जेनएयू में हुई  छात्र नारेबाजी पर कोहराम मचाने वालो से आग्रह है कि अपने-अपने गिरेबाँ में झाँककर  भी देखो !

 यदि जुबान पकड़ना शुरुं करोगे तो अमित शाह, योगी आदित्यनाथ ,साक्षी महाराज और तमाम कुबक्ता-प्रबक्ता  जाने-अनजाने 'देशद्रोह' के 'बाड़े' में धकेल दिए जाएंगे। यदि  धर्मनिपेक्ष-लोकतान्त्रिक भारत में  'राष्ट्रवाद' की कोई संकीर्ण और तंग नजीर पेश की गयी तो इस देश में कोई भी 'राष्ट्रवादी' नहीं होगा !हमारे  विद्वान न्यायधीश भी शायद  यह  अवश्य जानते होंगे। दुनिया में शोषण विहीन राष्ट्र राज्य की अवधारणा से किसे इंकार है ? वेशक इससे  वही इंकार कर सकता है जो जागते हुए भी सोने का बहाना कर रहा हो ! क्योंकि बिना राष्ट्रवाद के सामाजिक  , आर्थिक व राजनैतिक असमानता से मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता !राष्ट्रवाद तो सभी देशवासियों का जीवन अमृत है ,उनका भी जो अलगाववादी या आतंकी हैं। लेकिन यह 'राष्ट्रवाद'जनता के लिए ही हो। यदि 'राष्ट्रवाद ' की अवधारणा को राजनीती में बढ़त हासिल करने के लिए हिटलर-मुसोलनि जैसे  फ़ासीवादियों का ब्रह्माश्त्र बना दिया जाये तो बड़ी मुश्किल होगी ! तब केवल ग्रह युद्ध ही नहीं ,विश्व युद्ध भी सम्भव है। इस संदर्भ में  कुछ जिम्मेदारी उनकी भी है जो गलत-नारेबाजी या बयानबाजी  करते रहते हैं । और  उनकी भी कुछ जिम्मेदारी है जो दोनों ओर के अन्धसमर्थक हैं ! 

मानलो कि भारतीय संविधान की मौजूदा  अवधारणा के अनुसार जेनएयू के नारेबाज छात्र निर्दोष हैं । किन्तु शतप्रतिशत शुद्धता की गारंटी कोई  कैसे दे सकता है  ? क्योंकि  न केवल भाववादी बल्कि वैज्ञानिक तथ्य भी चीख-चीख कर कह रहे  हैं की 'इस सचेतन जगत में कोई भी व्यक्ति,वस्तु अथवा संस्था पूर्णतः निर्दोष नहीं है ' साइंस का 'टेंड्स टू जीरो एरॉयर ' और उपनिषद का  'ब्रह्मसत्यम जगन्मिथ्या'' दोनों ही सिद्धांत किसी की शुद्धता की गारंटी नहीं देते। जेएनयू प्रकरण में सत्तारूढ़ दल ,दिल्ली पुलिस अथवा काले कोट वाले गुंडों ,आरोपी छात्र कन्हैया कुमार  को पुलिस के समक्ष पीटने वाले और  संविधान का मखौल उड़ाने वाले फासिस्टों के पापों पर पर्दा डालना निहायत ही नीच कर्म है । लेकिन न्याय के तरफदार लोगों का और वास्तविक राष्ट्रवादियों का  मकसद यह होना चाहिए कि जेएनयू बनाम फासीवाद की  द्वंदात्मकता का कोई ठोस नतीजा जरुर निकले ! प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवियों का मकसद भी यही रहे कि'सिर्फ हंगामा खड़ा करना हमारा मकसद नहीं और , हमारी फितरत है कि ये  सूरत बदलनी चाहिए 'जेएनयू के छात्रों -प्रोफेसरों का  मकसद  भी इससे अलग कुछ भी नहीं होना चाहिए ! उन्हें संघियों की बेजा आलोचना का संयत स्वर में तार्किक जबाब देना चाहिए !

मान लो कि मैं  शरीर से लम्बा तड़ंगा,हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ  हूँ। और यदि कोई ठस  दिमाग वाला मुझे मरियल या रुग्ण कहे तो  मुझे बुरा नहीं मानना चाहिए । क्योंकि मुझे मरियल या रुग्ण बताने वाला न केवल  सरासर  झूंठ बोल रहा है,बल्कि वह असंज्ञेय भी है। उसके झूँठ को सभी न्याय प्रिय लोग साक्षात देख  भी रहे होते हैं। इसलिए मुझे अपने क्रूर  निंदक की असत्य निंदा या आलोचना पर आपा खोने की जरुरत नहीं है। और यदि मैं वास्तव में मरियल-रुग्ण शरीर वाला हूँ ,तब तो मुझे अपने  'प्रिय निंदक' की बात का बुरा कदापि  नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह सच  ही तो कह रहा  है। भले ही वह नितांत कटु ही क्यों न हो किन्तु उसकी सच बयानी  का  आदर सहित स्वागत किया जाना  चाहिए ! महर्षि वेद व्यास जैसे परम वीतरागी का भी यही परम उपदेश है कि - 'सम शत्रौ च मित्रे च तथा  मान अपमानयो ' [भगवद् गीता] । इस सूक्त अर्ध श्लोक को शब्दश : मानने लेने की क्षमता ही धीरोदात्त  चरित्र के व्यक्ति को प्रगतिशील,धर्मनिरपेक्ष और क्रांतिकारी बनाती  है।और सत्य भले ही परेशान किया जाता रहे किन्तु अंततोगत्वा  जीत सत्य की ही होती है।

जेएनयू के मामलों में जब तथाकथित पढ़ने-लिखने वाले - एबीवीपी वाले और दक्ष्णिपंथी मीडिया वाले ही खुद जानबूझकर देश को  गुमराह कर  रहे हैं। तो देश की आवाम के मष्तिष्क में क्या चल रहा होगा ? उधर जेएनयू में भी सब कुछ तो सही नहीं हो सकता।वेशक ९९% छात्र देशभक्त और अनुशासित  होंगे ,किन्तु वामपंथ  के  धनिया -पोदीना में १% खरपतवार 'आतंकी' खरपतवार मान लेने में क्या हर्ज है ?   कुछ अभी जेएनयू यदि शुद्ध सात्विक है तो उसके हितग्रहियों -छात्रों ,प्रोफेसरों और समर्थकों को अनावश्यक प्रतिक्रियावाद में नहीं उलझना चाहिए। बल्कि इस महाभृष्ट सिस्टम खदबदाते 'खोखले राष्ट्रवाद में रहते हुए भी  शालीनता और    पर या उसके समर्थकों पर 'संघ अपरिवार' यदि देशद्रोह का आरोप लगाये जा रहा है। प्रतिवाद में छात्र और ज्यादा आंदोलित हो रहे  हैं। इंग्लैंड ,अमेरिका ,पाकिस्तान और दुनिया भर के अन्य विश्विद्यालय जेएनयू के पक्ष में खुलकर आ गए हैं।  तो इसमें विचलित होने की क्या बात है ?  सनातन से झूँठ बोलते आ रहे लोगों के झूंठे आरोपों से किंचित बिचलित क्यों होना ?

आदर्शवादी या उटोपियाई ही  सही किन्तु उपरोक्त सिद्धांत के अनुसार ही  जेएनयू समर्थकों और जेएनयू विरोधियों के द्वन्द समाप्त किया जा सकता है। वरना मीडिया द्वारा स्थापित आरोप -प्रत्यारोप का निदान आसानी से नहीं किया जा सकता है। सब जानते  हैं कि न्याय के समक्ष भी प्रशासनिक बेईमानी का अवतरण हमेशा से  होता चला आ रहा है।  नौ फरवरी -२०१६ को जेएनयू परिसर में घटित अप्रिय [?] घटना के मुद्दे पर भारतीय समाज दो वर्गों में वट गया है। केंद्र सरकार ,संघ परिवार और जेएनयू  से ईर्ष्या करने वाले कुण्ठित  अमर्यादित लोगों को लगता है कि जेएनयू  से भारत को खतरा है। और जेएनयू का स्वायत्तशाशी स्टेट्स खत्म किया जाना चाहिए ! इस पक्ष के सब लोगों को  अपने जेहन में सदा के लिए यह लिखकर रख लेना चाहिए कि जेएनयू के अधिकांस  छात्र, प्रोफेसर, और समग्र स्टाफ  शतप्रतिशत देशभक्त है। जेएनयू से देश को या दुनिया को  कोई खतरा नहीं।  देशभक्ति के लिए जेएनयू  किसी ऐरे-गैरे -नथ्थू खैरे के सर्टिफिकेट का  मोहताज नहीं !

वेशक जेएनयू जैसे शिक्षण संस्थानों के रहते भारत में फासीवाद या नाजीवादकी स्थापना  सम्भव नहीं !शायद यही वजह है कि सत्तारूढ़ -नव-फासीवादी और असहिष्णुतावादी खरपतवार ने जेनएयू की इस हरी -भरी फसल को चौपट करने का काम एबीवीपी के माध्यम से प्रारम्भ कर दिया है। दरअसल दुनिया की तमाम मानवतावादी क्रांतियों का जो अक्श जेएनयू में चमक रहा है वह भारत के संकीर्णतावादियों की आँखों में खटक रहा है!
       
                                                                       श्रीराम  तिवारी   

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