एक -''देशभक्ति मूल रूप से एक धारणा ही है कि कोई देश दुनिया में इसलिए सबसे बेहतर है क्योंकि आप वहाँ पैदा हुए हैं '' जार्ज वर्नाड शॉ
दो-उपरोक्त सिद्धांत को यों भी पेश किया जा सकता है ''मजहबी आस्था और धार्मिक विश्वास मूल रूप से एक धारणा ही है कि कोई धर्म-मजहब -पंथ इसलिए बेहतर है क्योंकि आप उस धर्म-मजहब में पैदा हुए हैं '' !
तीन-चूँकि मैं भारत में जन्मा हूँ इसलिए यही सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र है। यदि में चीन -पाकिस्तान या किसी अन्य मुल्क में जन्मता तो वे मेरे सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र होते !
चार- क्योंकि मैं हिन्दू -ब्राह्मण कुल में जन्मा हूँ ,इसलिए मुझे अपने वंशानुगत धर्म और जात के आगे कुछ नजर नहीं आता। और यदि में मुस्लिम,ईसाई,सिख ,जैन,या यहूदी कुल में जन्मता तो वे मुझे सर्वप्रिय होते !
उपरोक्त द्वैतभाव या अनेकांतवाद' तभी तक विद्द्य्मान रहता है जब तक व्यक्ति किसी खास धर्म, मजहब , या राष्ट्र की संकीणता में बाँध दिया जाता है। लेकिन जब कोई व्यक्ति 'कम्युनिस्ट' हो जाता है तब या जब कोई व्यक्ति 'विदेह' हो जाता है तब वह इन सीमाओं से परे निकल जाता है। जिस तरह एक सांख्य योगी कर्म करता हुआ भीउसके कर्तापन से निस्पृह रहता है ,उसी तरह एक कम्युनिस्ट को भी अपने राष्ट्ररूपी शरीर की देखभाल बिना किसी अन्य के प्रति घृणा या बैरभाव के करनी होती है। यहाँ चमत्कारिक रूप से गीतोक्त सिद्धांतों और मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों में बहुत साम्य है।ईसाई ,इस्लामिक ,बौद्ध और सिख पंथ में भी सम्पूर्ण जगत के प्रति सांख्य भाव या सम्यकभाव का ही मूल सिद्धांत स्थापित है। लेकिन धर्म-मजहब का जब-जब राज्य सत्ता के लिए दुरूपयोग हुआ है ,तब-तब पाखंडवाद ,आतंकवाद और संकीर्ण राष्ट्रवाद ने अंगड़ाई ली है। भारत में जबसे दक्षिणपंथी संकीर्णतावादी लोग सत्ता में तबसे असहिष्णुता के दिन फिरे हैं।
जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष -कन्हैयाकुमार का मात्र इतना अपराध था कि वह उस मंच पर उपस्थित था जहाँ कुछ 'गुमराह' छात्रों ने भारत विरोधी नारे लगाये। अब इसमें कन्हैयाकुमार का कितना क्या कसूर है ये तो अब न्यायालय ही तय करेंगे। किन्तु 'करे कोई और भरे कोई 'की सामंतकालीन भर्राशाही वाली लोकोक्ति चरितार्थ नहीं होना चाहिए ! भारत के दक्षिणपंथी संकीर्णतावादी संगठनों और उनके भेड़िया धसान समर्थकों की लीला अजब निराली है। उन्हें कश्मीर में आजादी का नारा लगाने वाले पीडीपी विधायकों और पाकिस्तान का झंडा लहराने वाले -अलगाववादी लोगों के साथ सरकार बनाने में कोई शर्म नहीं !उन्हें हरियाणा में आरक्षण के नाम पर रेल रोकते ,पटरियाँ उखाड़ते और वाहन जलाते गुंडे देशभक्त दीखते हैं। जादवपुर बंगाल में तृणमूलियोँ की मर्कटलीला उन्हें नहीं दिखती। उन्हें सिर्फ पढ़ने-लिखने वाले विचारशील लड़के -लड़कियाँ ही देशद्रोही दीखते हैं। उन्हें बेलेन्टाइन डे और प्यार-मोहब्बत करने वाले अच्छे नहीं लगते। उन्हें अपने धर्म के सिवाय दुसरे धर्म-मजहब के लोग सिर्फ आतंकी ही दीखते हैं। इतिहास सावित करेगा कि अनुदार लोगों का यह संकीर्ण नजरिया ही सबसे बड़ा देशद्रोह है।
निसंदेह भारत में राष्ट्रवाद और सामाजिक समरसता के बनिस्पत अलगाव ,धर्म- मजहब और जाति का जोर ज्यादा है। हर धर्म-मजहब -पंथ के लोग सिर्फ अपनी पहचान और 'आस्पद'के लिए संघर्षरत हैं। हिन्दुत्ववादियों को हिंदुत्व की चिंता है,इंडियन मुजाहदीन ,सिमी और अन्य मजहबी मुस्लिम संगठनों को इस्लाम की चिंता है। ईसाईयों ,बौद्धों,जैनों ,सनातनियों ,सिखों और आधुनिक बाजारवादी बाबाओं को अपने -अपने पंथ-धर्म और धंधे की चिंता है। जो आरक्षण की मलाई जीम रहे हैं ,उन्हें उस मलाई की रखवाली की चिंता है। जिन्हे आरक्षण नहीं मिला अवसरों से वंचित हैं उन्हें उसे हर हाल में पाने की चिंता है। ये तमाम आंतरिक संघर्ष हर देश में हो सकते हैं। लेकिन भारत में कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। अब यदि 'राष्ट्रवाद' की चिंता करने वाला कोई है ,तो उसे सिर्फ इस वजह से नजर अंदाज नहीं किया जा सकता ,कि वह तो 'संघ परिवार' से है ! और संघ परिवार 'वालों को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि एकमात्र वे ही सच्चे देशभक्त हैं। क्या उनके तमाम अपराध सिर्फ देशभक्ति के दिखावटी नारे लगाने से छिप जायेंगे? क्या संघ में शामिल सब के सब देशभक्त ही होते हैं ?
कोई युवा -छात्र यदि अज्ञानवश विदेशी एजेंसियों के बहकाबे में आकर देश विरोधी नारे लगाये ,यह तो उसका छम्य अपराध है। किन्तु इन घटनाओं में देश की सुरक्षा एजेंसियों और सरकार की क्या जिम्मेदारी है ? नारे लगाने वाले लड़कों की हरकत और उस अवसर पर महज उपस्थित रहे कन्हैयाकुमार जैसे छात्र का जुर्म कितना है यह तो कानून तय करेगा। किन्तु इस स्थिति तक आने देने के लिए,इस सिस्टम की प्रशासनिक असफलता के लिए किसे सजा दी जाएगी ? उच्च अधिकारी और बस्सी जैसे चाटुकार पुलिस अधिकारी यदि सत्तासीन नेताओं का मुँह देखकर रिपोर्ट तैयार करेंगे तो वह कदाचरण दुनिया से कैसे छिपेगा ? आधुनिक सूचना संचार तंत्र की अति सुगम उपलब्धता और माध्यंमों की सजगता से 'सब को सब कुछ मालूम है ' ! और पड़ोसी मुल्क वाले भी यदि हमारी परेशानियों का भरपूर मजा लेने लगे तो इसमें क्या शक है ? आज जो अपराधी आरक्षण के बहाने रेलें रोकते हैं ,पटरियाँ उखाड़ते हैं ,कानून को जेब में रखते हैं और देश की सम्पदा को भारी नुकसान पहुँचाते है !उन्हें तो केंद्र और राज्य सरकार बड़े प्यार से इकरार से ,मोहब्बत से वार्तालाप की मेज पर चाय के लिए बुलाती है। मान मनुहार ,नास्ता एवं आश्वाशन देते हैं। दूसरी ओर पढ़ने-लिखने वाले छात्रों -छात्राओं पर चौतरफा हमला ! वाह क्या अदा है अच्छे दिनों की ? क्या यह अंधेर नगरी चौपट राज वाली स्थिति नहीं है ?
देश की चिंता सिर्फ उन्हें ही हो सकती है ,जो धर्म -मजहब के पाखंड से बहुत दूर हैं और राष्ट्रीय चेतना एवं हर क्सिम की सकारात्मक क्रांति के लिए जद्दोजहद करते आ रहे हैं।सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि सारे संसार के वामपंथी वैचारिक अंतर्राष्ट्रीयतावादी होते हुए भी असल में पक्के 'राष्ट्रवादी' ही होते हैं। दुनिया के जिन राष्ट्रों में क्रांति हुई वे सभी राष्ट्र अपनी सीमाओं को अक्षुण रखने में सौ फीसदी सफल रहे। चीन, क्यूबा ,बेनेजुएला नेपाल ,वियतनाम या पूर्व सोवियत संघ के उदाहरण सबसे अग्रणी हैं। वेशक वामपंथ की राष्ट्रनिष्ठा वैश्विक सर्वहारा के बरक्स ही हुआ करती है।
साम्यवादियों का राष्ट्रवाद महज नदियों,पहाड़ों या समुद्रों के लिए नहीं होता। अपितु उच्चतर मानवीय मूल्यों से युक्त उनका 'राष्ट्रवाद 'तो मानवमात्र के लिए उनकी आर्थिक ,सामाजिक व वैज्ञानिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में होता है। वे दक्षिणपंथियों की तरह राष्ट्रवाद के खोखले नारों से संचालित नहीं होते। बल्कि वे चीन की तरह , वियतनाम की तरह ,क्यूबा की तरह अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा में अद्वितीय होते हैं। क्रांतिकारी वाम - पंथ को राष्ट्रवाद सिखाना जैसे सूरज को दिया दिखाना है ! भारत के कुछ अपढ़ ,गवाँर ,मुँहजोर और स्वयंभू राष्ट्रवादी इन दिनों यह सावित करने में जुटे हैं कि यह भारत देश और समस्त ब्रह्माण्ड हो उनकी 'कनिष्ठा' पर टिका हुआ है ! जिस तरह बेलगाडी के पीछे-पीछे चलने वाला कुत्ता समझता है कि वही गाड़ी खींच रहा है और गाड़ी खींचने वाले बेलों के प्रति कृतघ्न होता है। उसी तरह भारत के मेहनतकश-मजदूर-किसान ही इस देश की गाड़ी खेंच रहे हैं । पूँजीपतियों के दलाल नकली देशभक्तों को भारी बहम है कि वे ही देश चला रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे न होते तो यह देश रसातल में चला जाता। यह बीमारी सिर्फ बहुसंख्यक हिन्दुत्ववादियों को ही नहीं हैं। बल्कि अल्पसंख्यक वर्ग के भी कुछ लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं। सभी धर्म-मजहब के लोग इस देश से ऊपर अपने निहित स्वार्थों को ही देखते हैं।
दुनिया के सभी धर्म-मजहब -पंथ और ईश्वरवादियों को अपनी-अपनी तथाकथित विशिष्ठताओं पर बड़ा गर्व -गुमान है। किसी को अपनी हिंसक प्रवृत्ति पर ,किसी को अपनी फिजिकल ताकत पर ,किसी को अपने संख्या बल पर ,किसी को अपनी रूहानी और आध्यात्मिक चमत्कारिक शक्ति पर बड़ा अभिमान है। कोई कहता है कि हमसे ज्यादा सभ्य और सुसंस्कृत तो इस ब्रह्माण्ड में दूसरा कोई हो ही नहीं सकता !किसी का कहना है करुणा,दया,सेवा,परोपकार और मानवतावाद का सारा ठेका हमने ही ले रखा है। किसी- किसी को अपनी आदिम पुरातन सभ्यता- संस्कृति पर बड़ा नाज है। और किसी को अपनी नूतनता,खुलेपन,आधुनिकता और खुलेपन की नंगई पर बहुत अभिमान है। दुनिया में सभी कौम ,सभी देश ,सभी मजहब के मनुष्यों को कुछ न कुछ गर्व-गुमान जरूर है। यह कोई अनहोनी नहीं है। वामपंथ को और संघ के आलोचकों को हमेशा यह याद रखना चाहिए कि आईएसआईएस वालों को इस्लाम की जितनी चिंता है ,उतनी संघ को उनके हिंदुत्व की या भारत की शायद नहीं है। सऊदी,अरब ,ईराक ,सीरिया ,पाकिस्तान और यमन-सूडान के बुद्धिजीवी कहाँ गए ?इन देशों के धर्मनिरपेक्ष लोग जब तक वहाँ कटटरवाद से नहीं लड़ेंगे तब तक भारत में फासीवाद को रोक पाना सम्भव नहीं !
कोई कहता है कि हमारे पंथ में तो सब चंगा ही चंगा है जी ! हमारे गुरु तो जाती-पाँति के खिलाफ थे !और हमें लिखकर दे गए हैं कि ''मानुष की जाती सबै एकउ पहिचानवे ''!और ''शूरा सोई जाणिये ,लड़े दीन के हेतु। लेकिन हकीकत यह है कि सबसे ज्यादा स्त्री-पुरुष लिंगानुपात इन्ही के पंथ -समाज में पाया जाता है। सबसे ज्यादा गरीबों -दीन जनों याने दिहाड़ी मजदूरों का शोषण पंजाब के बड़े -बड़े जमींदार और किसान ही किया करते हैं। जबकि उनके खुद के लड़के हर किस्म के नशे में डूबने को बेताब हैं। पंजाब -हरियाणा ही नहीं बल्कि पूरे भारत में अधिकांस उच्च वर्ण के सिख -जाट ,हूँण ,खत्री और सवर्ण ही हैं। इन सभ्रांत सिंह साहिबानों ने कभी सरदार बूटासिंग जैसे दलित के साथ हमेशा ओछा व्यवहार ही किया है। विगत वीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कटटरता वादी निहंग सिखों ने पंजाब के अनेक निरंकारी सिखों का भयंकर कत्लेआम किया । भिंडरावाले जैसे अलगाववादी -आतंकियों ने पंजाब में वाम पंथियों ,दलितों - पिछड़ों और निर्दोष हिन्दुओं पर जो कहर बरपाया वह दुनिया में सबसे रक्त रंजित और बर्बर मंजर रहा है। उस दौर के ज्ञानियों,ग्रंथियों, अकालतख्त के सभी सिंह साहिवानों ने और शिरोमणि अकालियों ने भी निरंकारियों को थोक में मरवाया था। इतना ही नहीं उन्होंने तो 'गुरमित बाबा राम रहीम ' को भी खूब परेशान किया। उसकी फ़िल्में -पोस्टर फाडे और खूब धमकाया।
उन्होंने 'बिठ्ठा' जैसे देशभक्त को महज कांग्रेस के समर्थक होने के कारण सिख ही नहीं माना। सबसे अधिक नसेड़ी और बिगड़ैल युवा इसी जमात में तैयार हो रहे हैं। सिर्फ मुठ्ठी भर युवा ही होंगे जिन्हे शहीद भगतसिंह या कामरेड सुरजीत जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान की याद होगी। और उनके इंकलाबी विचारों को समझने की तमन्ना रखते होंगे !अन्यथा पंथिक साम्प्रदायिकता के प्रभाव में राष्ट्रीय स्वाभिमान बहुत क्षीण और सिखी का गर्व गुमान कुछ ज्यादा ही होगा !
कोई कहता है कि हमारे ,मजहब में तो सब बराबर हैं। कोई ऊँच नहीं -कोई नीच नहीं ! लेकिन सबसे ज्यादा गैरबराबरी का मंजर इनके ही समाज में व्याप्त है। शिया -सुन्नी ,शेख़ -सैयद ,मुगल-पठान ,उम्मेदिया-कुरैश ,गजनी -उजवेग ये तो बहुत पुराने खाप या खांचे हैं। इतिहास गवाह है कि अरबी-हिन्दुस्तानी बंगाली-पंजाबी ,सिंधी,बलूच, मुहाजिर-पख्तून भी कई पीढ़ियों से एक दूसरे की आँखें नोचने के लिए लालायित रहे हैं। आईएसआईएस वाले सीरिया और इराक में जिनको मार रहे हैं वे भी उनके ही सगोत्रीय हैं। और कश्मीर में हिंसक आतंकियों ने जिन पंडितों -हिन्दुओं को चुन-चुन कर मारा उनके पूर्वज भी उसी खाप या गोत्र के थे। सनातन से हिन्दुओं में जो-जो जात -पाँत चली आ रही है ,भारतीय उपमहाद्वीप में वे सभी जातियाँ -खापें मुसलमानों में यथावत हैं और तब तक बनी रहेंगी जब तक दुनिया के अन्य धर्म-मजहब में रहेंगी।
कोई कहता है कि हम तो अहिंसावादी हैं जी !हम जीव हिंसा नहीं करते। लेकिन ये लोग मिलावटी खाद्य पदार्थ जरुर बेचते हैं। कम तौलना ,सूदखोरी करना ,दूसरों से घृणा करना इनका सहज स्वभाव है। धर्मान्धता का मीठा जहर और कर्मकाण्डीय पाखंड का यहां सर्वोच्च शृंगार यहीं मिलेगा। कोई कहता है कि हम तो ''वसुधैव कुटुंबकम वाले हैं जी! हम तो इस संसार को मायामय ही मानते हैं जी !''ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या'' है जी !हमारा तो नारा ही है कि ''सर्वे भवन्तु सुखिनः ,,,सर्वे सन्तु निरामया ,,,!'' याने इनसे बड़ा दयालु,कृपालु संसार में कोई नहीं। लेकिन बीफ के बहाने किसी निर्दोष की जान लेने में इन्हे हिचक नहीं !इन्हे दलितों,मुसलमानों ,ईसाइयों , और कम्युनिस्टों से बड़ी एलर्जी है। ये अम्बानियों,अडानियों ,बिड़लाओं,मित्तलों ,गोयलों, सिन्हानियों, सेठों ,के बड़े परम भक्त हैं जी ! गाय ,गंगा ,गायत्री को भी कभी -कभी याद कर लेते हैं।
कहने का तातपर्य यह है कि सभी को अपने -अपने दड़वों -पोखरों से भरी लगाव है। कोई उससे निकलना नहीं चाहता ! जो इस मजहबी-पाखंड के दल-दल से निकलना चाहते हैं ,उन्हें मार दिया जाता है ,जैसे गांधी, मार्टिन लूथरकिंग ,सफदर हासमी , दाभोलकर, पानसरे,कलबर्गी और ,,,,,,,,,,!
मजहब के संसार में ,गरज रही बन्दूक।
वे न हटेंगे लीक से ,जो हैं कूप मंडूक।। ,,,,,,,!
:-श्रीराम तिवारी ,:-,,,!
दो-उपरोक्त सिद्धांत को यों भी पेश किया जा सकता है ''मजहबी आस्था और धार्मिक विश्वास मूल रूप से एक धारणा ही है कि कोई धर्म-मजहब -पंथ इसलिए बेहतर है क्योंकि आप उस धर्म-मजहब में पैदा हुए हैं '' !
तीन-चूँकि मैं भारत में जन्मा हूँ इसलिए यही सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र है। यदि में चीन -पाकिस्तान या किसी अन्य मुल्क में जन्मता तो वे मेरे सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र होते !
चार- क्योंकि मैं हिन्दू -ब्राह्मण कुल में जन्मा हूँ ,इसलिए मुझे अपने वंशानुगत धर्म और जात के आगे कुछ नजर नहीं आता। और यदि में मुस्लिम,ईसाई,सिख ,जैन,या यहूदी कुल में जन्मता तो वे मुझे सर्वप्रिय होते !
उपरोक्त द्वैतभाव या अनेकांतवाद' तभी तक विद्द्य्मान रहता है जब तक व्यक्ति किसी खास धर्म, मजहब , या राष्ट्र की संकीणता में बाँध दिया जाता है। लेकिन जब कोई व्यक्ति 'कम्युनिस्ट' हो जाता है तब या जब कोई व्यक्ति 'विदेह' हो जाता है तब वह इन सीमाओं से परे निकल जाता है। जिस तरह एक सांख्य योगी कर्म करता हुआ भीउसके कर्तापन से निस्पृह रहता है ,उसी तरह एक कम्युनिस्ट को भी अपने राष्ट्ररूपी शरीर की देखभाल बिना किसी अन्य के प्रति घृणा या बैरभाव के करनी होती है। यहाँ चमत्कारिक रूप से गीतोक्त सिद्धांतों और मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों में बहुत साम्य है।ईसाई ,इस्लामिक ,बौद्ध और सिख पंथ में भी सम्पूर्ण जगत के प्रति सांख्य भाव या सम्यकभाव का ही मूल सिद्धांत स्थापित है। लेकिन धर्म-मजहब का जब-जब राज्य सत्ता के लिए दुरूपयोग हुआ है ,तब-तब पाखंडवाद ,आतंकवाद और संकीर्ण राष्ट्रवाद ने अंगड़ाई ली है। भारत में जबसे दक्षिणपंथी संकीर्णतावादी लोग सत्ता में तबसे असहिष्णुता के दिन फिरे हैं।
जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष -कन्हैयाकुमार का मात्र इतना अपराध था कि वह उस मंच पर उपस्थित था जहाँ कुछ 'गुमराह' छात्रों ने भारत विरोधी नारे लगाये। अब इसमें कन्हैयाकुमार का कितना क्या कसूर है ये तो अब न्यायालय ही तय करेंगे। किन्तु 'करे कोई और भरे कोई 'की सामंतकालीन भर्राशाही वाली लोकोक्ति चरितार्थ नहीं होना चाहिए ! भारत के दक्षिणपंथी संकीर्णतावादी संगठनों और उनके भेड़िया धसान समर्थकों की लीला अजब निराली है। उन्हें कश्मीर में आजादी का नारा लगाने वाले पीडीपी विधायकों और पाकिस्तान का झंडा लहराने वाले -अलगाववादी लोगों के साथ सरकार बनाने में कोई शर्म नहीं !उन्हें हरियाणा में आरक्षण के नाम पर रेल रोकते ,पटरियाँ उखाड़ते और वाहन जलाते गुंडे देशभक्त दीखते हैं। जादवपुर बंगाल में तृणमूलियोँ की मर्कटलीला उन्हें नहीं दिखती। उन्हें सिर्फ पढ़ने-लिखने वाले विचारशील लड़के -लड़कियाँ ही देशद्रोही दीखते हैं। उन्हें बेलेन्टाइन डे और प्यार-मोहब्बत करने वाले अच्छे नहीं लगते। उन्हें अपने धर्म के सिवाय दुसरे धर्म-मजहब के लोग सिर्फ आतंकी ही दीखते हैं। इतिहास सावित करेगा कि अनुदार लोगों का यह संकीर्ण नजरिया ही सबसे बड़ा देशद्रोह है।
निसंदेह भारत में राष्ट्रवाद और सामाजिक समरसता के बनिस्पत अलगाव ,धर्म- मजहब और जाति का जोर ज्यादा है। हर धर्म-मजहब -पंथ के लोग सिर्फ अपनी पहचान और 'आस्पद'के लिए संघर्षरत हैं। हिन्दुत्ववादियों को हिंदुत्व की चिंता है,इंडियन मुजाहदीन ,सिमी और अन्य मजहबी मुस्लिम संगठनों को इस्लाम की चिंता है। ईसाईयों ,बौद्धों,जैनों ,सनातनियों ,सिखों और आधुनिक बाजारवादी बाबाओं को अपने -अपने पंथ-धर्म और धंधे की चिंता है। जो आरक्षण की मलाई जीम रहे हैं ,उन्हें उस मलाई की रखवाली की चिंता है। जिन्हे आरक्षण नहीं मिला अवसरों से वंचित हैं उन्हें उसे हर हाल में पाने की चिंता है। ये तमाम आंतरिक संघर्ष हर देश में हो सकते हैं। लेकिन भारत में कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। अब यदि 'राष्ट्रवाद' की चिंता करने वाला कोई है ,तो उसे सिर्फ इस वजह से नजर अंदाज नहीं किया जा सकता ,कि वह तो 'संघ परिवार' से है ! और संघ परिवार 'वालों को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि एकमात्र वे ही सच्चे देशभक्त हैं। क्या उनके तमाम अपराध सिर्फ देशभक्ति के दिखावटी नारे लगाने से छिप जायेंगे? क्या संघ में शामिल सब के सब देशभक्त ही होते हैं ?
कोई युवा -छात्र यदि अज्ञानवश विदेशी एजेंसियों के बहकाबे में आकर देश विरोधी नारे लगाये ,यह तो उसका छम्य अपराध है। किन्तु इन घटनाओं में देश की सुरक्षा एजेंसियों और सरकार की क्या जिम्मेदारी है ? नारे लगाने वाले लड़कों की हरकत और उस अवसर पर महज उपस्थित रहे कन्हैयाकुमार जैसे छात्र का जुर्म कितना है यह तो कानून तय करेगा। किन्तु इस स्थिति तक आने देने के लिए,इस सिस्टम की प्रशासनिक असफलता के लिए किसे सजा दी जाएगी ? उच्च अधिकारी और बस्सी जैसे चाटुकार पुलिस अधिकारी यदि सत्तासीन नेताओं का मुँह देखकर रिपोर्ट तैयार करेंगे तो वह कदाचरण दुनिया से कैसे छिपेगा ? आधुनिक सूचना संचार तंत्र की अति सुगम उपलब्धता और माध्यंमों की सजगता से 'सब को सब कुछ मालूम है ' ! और पड़ोसी मुल्क वाले भी यदि हमारी परेशानियों का भरपूर मजा लेने लगे तो इसमें क्या शक है ? आज जो अपराधी आरक्षण के बहाने रेलें रोकते हैं ,पटरियाँ उखाड़ते हैं ,कानून को जेब में रखते हैं और देश की सम्पदा को भारी नुकसान पहुँचाते है !उन्हें तो केंद्र और राज्य सरकार बड़े प्यार से इकरार से ,मोहब्बत से वार्तालाप की मेज पर चाय के लिए बुलाती है। मान मनुहार ,नास्ता एवं आश्वाशन देते हैं। दूसरी ओर पढ़ने-लिखने वाले छात्रों -छात्राओं पर चौतरफा हमला ! वाह क्या अदा है अच्छे दिनों की ? क्या यह अंधेर नगरी चौपट राज वाली स्थिति नहीं है ?
देश की चिंता सिर्फ उन्हें ही हो सकती है ,जो धर्म -मजहब के पाखंड से बहुत दूर हैं और राष्ट्रीय चेतना एवं हर क्सिम की सकारात्मक क्रांति के लिए जद्दोजहद करते आ रहे हैं।सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि सारे संसार के वामपंथी वैचारिक अंतर्राष्ट्रीयतावादी होते हुए भी असल में पक्के 'राष्ट्रवादी' ही होते हैं। दुनिया के जिन राष्ट्रों में क्रांति हुई वे सभी राष्ट्र अपनी सीमाओं को अक्षुण रखने में सौ फीसदी सफल रहे। चीन, क्यूबा ,बेनेजुएला नेपाल ,वियतनाम या पूर्व सोवियत संघ के उदाहरण सबसे अग्रणी हैं। वेशक वामपंथ की राष्ट्रनिष्ठा वैश्विक सर्वहारा के बरक्स ही हुआ करती है।
साम्यवादियों का राष्ट्रवाद महज नदियों,पहाड़ों या समुद्रों के लिए नहीं होता। अपितु उच्चतर मानवीय मूल्यों से युक्त उनका 'राष्ट्रवाद 'तो मानवमात्र के लिए उनकी आर्थिक ,सामाजिक व वैज्ञानिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में होता है। वे दक्षिणपंथियों की तरह राष्ट्रवाद के खोखले नारों से संचालित नहीं होते। बल्कि वे चीन की तरह , वियतनाम की तरह ,क्यूबा की तरह अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा में अद्वितीय होते हैं। क्रांतिकारी वाम - पंथ को राष्ट्रवाद सिखाना जैसे सूरज को दिया दिखाना है ! भारत के कुछ अपढ़ ,गवाँर ,मुँहजोर और स्वयंभू राष्ट्रवादी इन दिनों यह सावित करने में जुटे हैं कि यह भारत देश और समस्त ब्रह्माण्ड हो उनकी 'कनिष्ठा' पर टिका हुआ है ! जिस तरह बेलगाडी के पीछे-पीछे चलने वाला कुत्ता समझता है कि वही गाड़ी खींच रहा है और गाड़ी खींचने वाले बेलों के प्रति कृतघ्न होता है। उसी तरह भारत के मेहनतकश-मजदूर-किसान ही इस देश की गाड़ी खेंच रहे हैं । पूँजीपतियों के दलाल नकली देशभक्तों को भारी बहम है कि वे ही देश चला रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे न होते तो यह देश रसातल में चला जाता। यह बीमारी सिर्फ बहुसंख्यक हिन्दुत्ववादियों को ही नहीं हैं। बल्कि अल्पसंख्यक वर्ग के भी कुछ लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं। सभी धर्म-मजहब के लोग इस देश से ऊपर अपने निहित स्वार्थों को ही देखते हैं।
दुनिया के सभी धर्म-मजहब -पंथ और ईश्वरवादियों को अपनी-अपनी तथाकथित विशिष्ठताओं पर बड़ा गर्व -गुमान है। किसी को अपनी हिंसक प्रवृत्ति पर ,किसी को अपनी फिजिकल ताकत पर ,किसी को अपने संख्या बल पर ,किसी को अपनी रूहानी और आध्यात्मिक चमत्कारिक शक्ति पर बड़ा अभिमान है। कोई कहता है कि हमसे ज्यादा सभ्य और सुसंस्कृत तो इस ब्रह्माण्ड में दूसरा कोई हो ही नहीं सकता !किसी का कहना है करुणा,दया,सेवा,परोपकार और मानवतावाद का सारा ठेका हमने ही ले रखा है। किसी- किसी को अपनी आदिम पुरातन सभ्यता- संस्कृति पर बड़ा नाज है। और किसी को अपनी नूतनता,खुलेपन,आधुनिकता और खुलेपन की नंगई पर बहुत अभिमान है। दुनिया में सभी कौम ,सभी देश ,सभी मजहब के मनुष्यों को कुछ न कुछ गर्व-गुमान जरूर है। यह कोई अनहोनी नहीं है। वामपंथ को और संघ के आलोचकों को हमेशा यह याद रखना चाहिए कि आईएसआईएस वालों को इस्लाम की जितनी चिंता है ,उतनी संघ को उनके हिंदुत्व की या भारत की शायद नहीं है। सऊदी,अरब ,ईराक ,सीरिया ,पाकिस्तान और यमन-सूडान के बुद्धिजीवी कहाँ गए ?इन देशों के धर्मनिरपेक्ष लोग जब तक वहाँ कटटरवाद से नहीं लड़ेंगे तब तक भारत में फासीवाद को रोक पाना सम्भव नहीं !
कोई कहता है कि हमारे पंथ में तो सब चंगा ही चंगा है जी ! हमारे गुरु तो जाती-पाँति के खिलाफ थे !और हमें लिखकर दे गए हैं कि ''मानुष की जाती सबै एकउ पहिचानवे ''!और ''शूरा सोई जाणिये ,लड़े दीन के हेतु। लेकिन हकीकत यह है कि सबसे ज्यादा स्त्री-पुरुष लिंगानुपात इन्ही के पंथ -समाज में पाया जाता है। सबसे ज्यादा गरीबों -दीन जनों याने दिहाड़ी मजदूरों का शोषण पंजाब के बड़े -बड़े जमींदार और किसान ही किया करते हैं। जबकि उनके खुद के लड़के हर किस्म के नशे में डूबने को बेताब हैं। पंजाब -हरियाणा ही नहीं बल्कि पूरे भारत में अधिकांस उच्च वर्ण के सिख -जाट ,हूँण ,खत्री और सवर्ण ही हैं। इन सभ्रांत सिंह साहिबानों ने कभी सरदार बूटासिंग जैसे दलित के साथ हमेशा ओछा व्यवहार ही किया है। विगत वीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कटटरता वादी निहंग सिखों ने पंजाब के अनेक निरंकारी सिखों का भयंकर कत्लेआम किया । भिंडरावाले जैसे अलगाववादी -आतंकियों ने पंजाब में वाम पंथियों ,दलितों - पिछड़ों और निर्दोष हिन्दुओं पर जो कहर बरपाया वह दुनिया में सबसे रक्त रंजित और बर्बर मंजर रहा है। उस दौर के ज्ञानियों,ग्रंथियों, अकालतख्त के सभी सिंह साहिवानों ने और शिरोमणि अकालियों ने भी निरंकारियों को थोक में मरवाया था। इतना ही नहीं उन्होंने तो 'गुरमित बाबा राम रहीम ' को भी खूब परेशान किया। उसकी फ़िल्में -पोस्टर फाडे और खूब धमकाया।
उन्होंने 'बिठ्ठा' जैसे देशभक्त को महज कांग्रेस के समर्थक होने के कारण सिख ही नहीं माना। सबसे अधिक नसेड़ी और बिगड़ैल युवा इसी जमात में तैयार हो रहे हैं। सिर्फ मुठ्ठी भर युवा ही होंगे जिन्हे शहीद भगतसिंह या कामरेड सुरजीत जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान की याद होगी। और उनके इंकलाबी विचारों को समझने की तमन्ना रखते होंगे !अन्यथा पंथिक साम्प्रदायिकता के प्रभाव में राष्ट्रीय स्वाभिमान बहुत क्षीण और सिखी का गर्व गुमान कुछ ज्यादा ही होगा !
कोई कहता है कि हमारे ,मजहब में तो सब बराबर हैं। कोई ऊँच नहीं -कोई नीच नहीं ! लेकिन सबसे ज्यादा गैरबराबरी का मंजर इनके ही समाज में व्याप्त है। शिया -सुन्नी ,शेख़ -सैयद ,मुगल-पठान ,उम्मेदिया-कुरैश ,गजनी -उजवेग ये तो बहुत पुराने खाप या खांचे हैं। इतिहास गवाह है कि अरबी-हिन्दुस्तानी बंगाली-पंजाबी ,सिंधी,बलूच, मुहाजिर-पख्तून भी कई पीढ़ियों से एक दूसरे की आँखें नोचने के लिए लालायित रहे हैं। आईएसआईएस वाले सीरिया और इराक में जिनको मार रहे हैं वे भी उनके ही सगोत्रीय हैं। और कश्मीर में हिंसक आतंकियों ने जिन पंडितों -हिन्दुओं को चुन-चुन कर मारा उनके पूर्वज भी उसी खाप या गोत्र के थे। सनातन से हिन्दुओं में जो-जो जात -पाँत चली आ रही है ,भारतीय उपमहाद्वीप में वे सभी जातियाँ -खापें मुसलमानों में यथावत हैं और तब तक बनी रहेंगी जब तक दुनिया के अन्य धर्म-मजहब में रहेंगी।
कोई कहता है कि हम तो अहिंसावादी हैं जी !हम जीव हिंसा नहीं करते। लेकिन ये लोग मिलावटी खाद्य पदार्थ जरुर बेचते हैं। कम तौलना ,सूदखोरी करना ,दूसरों से घृणा करना इनका सहज स्वभाव है। धर्मान्धता का मीठा जहर और कर्मकाण्डीय पाखंड का यहां सर्वोच्च शृंगार यहीं मिलेगा। कोई कहता है कि हम तो ''वसुधैव कुटुंबकम वाले हैं जी! हम तो इस संसार को मायामय ही मानते हैं जी !''ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या'' है जी !हमारा तो नारा ही है कि ''सर्वे भवन्तु सुखिनः ,,,सर्वे सन्तु निरामया ,,,!'' याने इनसे बड़ा दयालु,कृपालु संसार में कोई नहीं। लेकिन बीफ के बहाने किसी निर्दोष की जान लेने में इन्हे हिचक नहीं !इन्हे दलितों,मुसलमानों ,ईसाइयों , और कम्युनिस्टों से बड़ी एलर्जी है। ये अम्बानियों,अडानियों ,बिड़लाओं,मित्तलों ,गोयलों, सिन्हानियों, सेठों ,के बड़े परम भक्त हैं जी ! गाय ,गंगा ,गायत्री को भी कभी -कभी याद कर लेते हैं।
कहने का तातपर्य यह है कि सभी को अपने -अपने दड़वों -पोखरों से भरी लगाव है। कोई उससे निकलना नहीं चाहता ! जो इस मजहबी-पाखंड के दल-दल से निकलना चाहते हैं ,उन्हें मार दिया जाता है ,जैसे गांधी, मार्टिन लूथरकिंग ,सफदर हासमी , दाभोलकर, पानसरे,कलबर्गी और ,,,,,,,,,,!
मजहब के संसार में ,गरज रही बन्दूक।
वे न हटेंगे लीक से ,जो हैं कूप मंडूक।। ,,,,,,,!
:-श्रीराम तिवारी ,:-,,,!
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