नारीवादियों का मानना है कि दुनिया के सभी धार्मिक क़ानून महिलाओं व पुरषों में भेदभाव करते हैं। जमीन-जायदाद ,धन- सम्पत्ति,विवाह , संतति संरक्षण,पालन - पोषण ,परिवार ,समाज और धर्म-मजहब के मामलों में परम्परागत रूप से महिलाओं को तथाकथित रूप से कमतर इंसान माना जाता है। वेशक यह सब दासता की उस सामन्तकालीन -निर्मम व्यवस्था का चलन रहा होगा। किन्तु उससे पहले के कबीलाई दौर की अधिकांस व्यवस्थायें मातृसत्तात्मक ही रही हैं। जिनमें महिला ही कबीले की प्रमुख हुआ करती थी। किन्तु जब कबीलाई समाज विकसित होकर नागर ,नदी-घाटी सभ्यताओं की ओर अग्रसर हुआ ,जब खेती का चलन बढ़ने लगा जब व्न्य प्राणियों के शिकार पर पुरुष का वर्चस्व बढ़ने लगा ,जब दो या दो से अधिक कबीलों में हिंसक युद्ध होने लगे ,और युद्ध के बाद पराजित मनुष्यों को दास -दासी बनाने का चलन बढ़ने लगा तो 'महिलायें अपना वर्चस्व खोने लगी। लेकिन फिर भी सभ्यताओं के हर दौर में नारी और पुरुष की साख और उनका महत्व हमेशा घटता-बढ़ता ही रहा है। फिर भी नियति ने अपना संतुलन कभी नहीं खोया। क्योंकि सृष्टि का भी यही वैज्ञानिक नियम भी है। इतिहास साक्षी है नारी ही नारी की दुश्मन साबित हुई है।
मध्ययुगीन भारत में सौतिया डाह ,सती प्रथा सास-बहु स्पर्धा तो आम बात रही है ,लेकिन खास बात है यह रही है कि हर लड़के की माँ ने हर लड़की की माँ को हेय नजर से ही देखा है। वेशक हर लड़के का बाप भी हर लड़की के बाप को अपना गुलाम ही समझता रहा है। कुछ आदिवासी समाजों के अपवाद होंगे जहां लड़की वाले को इज्जत मिलती है और लड़के को अपनी ससुराल जाकर काम-धाम करना पड़ता है। यह व्यवस्था,अलीराजपुर अबूझमाण्ड ,झाबुआ और निमाड़ में पाई जाती है। पहाड़ी -हिमालयी समाजों में भी महिला को भरपूर सम्मान प्राप्त रहा है। कुछ जगहों पर बहुपति वयवस्था आज भी है। पुरुष के नाम से नहीं अब्ल्कि नारी के नाम से सम्पति का निस्तारण होता है। जिन महिलाओं को लगता है कि ज़रा सन्सार ही नारी उत्पीड़न में जुटा है वे शनि शिंगणापुर जाने के बजाय ,हिमाचल,उत्तराखंड और नेपाल की तराई में जाकर उसका अध्यन करें।
इतिहास में यदि कभी नारी मात्र दमित-शोषित -पीड़ित रही है तो पुरुष उससे भी ज्यादा दमन -शोषण का शिकार होता रहा है। दुनिया की किसी भी क्रांति का इतिहास उठकर देखे ,अमेरिकन क्रांति,फ्रांसीसी क्रांति ब्रिटेन की पूँजीवादी क्रांति ,रूस -चीन -क्यूबा -वियतनाम की कम्युनिस्ट क्रांतियों और भारत दक्षिण अफ्रीका समेत संसार के तमाम स्वाधीनता संग्रामों में हजारों नारियों ने बलिदान दिया। उनके साथ अत्याचार हुआ। किन्तु इन सभी क्रांतियों में पुरुष वर्ग की तादाद करोड़ों में रही है। अकेले द्वतीय विश्वयुद्ध में ही दो करोड़ रूसी और लाखों यहूदी पुरुष मारे गए। गुलाम भारत के लाखों सिख यूरोप के प्रथम विश्व युद्द में काम आये। जबकि उसमें एक भी महिला का जिक्र नहीं है। तब बराबरी की बात क्यों नहीं उठी ? जब चैयरमेन माओ के नेत्तव में १० लाख मेहनतकश किसानों -मजदूरों ने बीजिंग की ओर लांग मार्च किया ,और रास्ते में ही आधे से जयादा चीनी मर-खप गए तब महिला विमर्श का जिक्र क्यों नहीं हुआ ? उस लांग मार्च में मरने के लिए ओरतें कितनी थीं ?वेशक भूंख ,कुपोषण और हत्या-बलात्कार में नारी को पहले भोगना पड़ता है ,क्योंकि वह ''माँ' है। और ''माँ' को स्त्री-पुरुष असमानता की तराजू पर तौलना उचित नहीं।
भारत की महिलाओं ने भी अतीत के कबीलाई दौर में पुरुषों के बराबर ही सब कुछ खोया और पाया है। मानव सभ्यता के विकास और 'वाहरी आक्रमणों की दरम्यान ने'भारत की नारियों को दोहरी गुलामी की मांद में धकेल दिया गया। वरना वैदिक काल में तो भारत में नारियों के नाम से ही कुल या वंश का निर्धारण होता था। दिति के दैत्य ,अदिति के देवताओं से तो सभी परिचित होंगे। किन्तु लोपामुद्रा,गार्गी,व मैत्रयी जैसी महिलाओं को जानने के लिए आरण्यक और उपनिषद भी पढ़ने होंगे। कैकई नदन ,सुमित्रानंदन,कौशल्या नंदन,देवकी नंदन ,यशोदा नंदन तो घर-घर में हैं ही। लेकिन गंगाप्रसाद,नर्मदाप्रसाद और सरस्वतीचन्द भी कम नहीं। ये प्रमाण है कि पुरुष को नारी से ही पहचान मिली है।
मध्ययुगीन भारत में सौतिया डाह ,सती प्रथा सास-बहु स्पर्धा तो आम बात रही है ,लेकिन खास बात है यह रही है कि हर लड़के की माँ ने हर लड़की की माँ को हेय नजर से ही देखा है। वेशक हर लड़के का बाप भी हर लड़की के बाप को अपना गुलाम ही समझता रहा है। कुछ आदिवासी समाजों के अपवाद होंगे जहां लड़की वाले को इज्जत मिलती है और लड़के को अपनी ससुराल जाकर काम-धाम करना पड़ता है। यह व्यवस्था,अलीराजपुर अबूझमाण्ड ,झाबुआ और निमाड़ में पाई जाती है। पहाड़ी -हिमालयी समाजों में भी महिला को भरपूर सम्मान प्राप्त रहा है। कुछ जगहों पर बहुपति वयवस्था आज भी है। पुरुष के नाम से नहीं अब्ल्कि नारी के नाम से सम्पति का निस्तारण होता है। जिन महिलाओं को लगता है कि ज़रा सन्सार ही नारी उत्पीड़न में जुटा है वे शनि शिंगणापुर जाने के बजाय ,हिमाचल,उत्तराखंड और नेपाल की तराई में जाकर उसका अध्यन करें।
इतिहास में यदि कभी नारी मात्र दमित-शोषित -पीड़ित रही है तो पुरुष उससे भी ज्यादा दमन -शोषण का शिकार होता रहा है। दुनिया की किसी भी क्रांति का इतिहास उठकर देखे ,अमेरिकन क्रांति,फ्रांसीसी क्रांति ब्रिटेन की पूँजीवादी क्रांति ,रूस -चीन -क्यूबा -वियतनाम की कम्युनिस्ट क्रांतियों और भारत दक्षिण अफ्रीका समेत संसार के तमाम स्वाधीनता संग्रामों में हजारों नारियों ने बलिदान दिया। उनके साथ अत्याचार हुआ। किन्तु इन सभी क्रांतियों में पुरुष वर्ग की तादाद करोड़ों में रही है। अकेले द्वतीय विश्वयुद्ध में ही दो करोड़ रूसी और लाखों यहूदी पुरुष मारे गए। गुलाम भारत के लाखों सिख यूरोप के प्रथम विश्व युद्द में काम आये। जबकि उसमें एक भी महिला का जिक्र नहीं है। तब बराबरी की बात क्यों नहीं उठी ? जब चैयरमेन माओ के नेत्तव में १० लाख मेहनतकश किसानों -मजदूरों ने बीजिंग की ओर लांग मार्च किया ,और रास्ते में ही आधे से जयादा चीनी मर-खप गए तब महिला विमर्श का जिक्र क्यों नहीं हुआ ? उस लांग मार्च में मरने के लिए ओरतें कितनी थीं ?वेशक भूंख ,कुपोषण और हत्या-बलात्कार में नारी को पहले भोगना पड़ता है ,क्योंकि वह ''माँ' है। और ''माँ' को स्त्री-पुरुष असमानता की तराजू पर तौलना उचित नहीं।
भारत की महिलाओं ने भी अतीत के कबीलाई दौर में पुरुषों के बराबर ही सब कुछ खोया और पाया है। मानव सभ्यता के विकास और 'वाहरी आक्रमणों की दरम्यान ने'भारत की नारियों को दोहरी गुलामी की मांद में धकेल दिया गया। वरना वैदिक काल में तो भारत में नारियों के नाम से ही कुल या वंश का निर्धारण होता था। दिति के दैत्य ,अदिति के देवताओं से तो सभी परिचित होंगे। किन्तु लोपामुद्रा,गार्गी,व मैत्रयी जैसी महिलाओं को जानने के लिए आरण्यक और उपनिषद भी पढ़ने होंगे। कैकई नदन ,सुमित्रानंदन,कौशल्या नंदन,देवकी नंदन ,यशोदा नंदन तो घर-घर में हैं ही। लेकिन गंगाप्रसाद,नर्मदाप्रसाद और सरस्वतीचन्द भी कम नहीं। ये प्रमाण है कि पुरुष को नारी से ही पहचान मिली है।
इस दौर में जो महिलायें गार्गी,मैत्रयी ,लोपामुद्रा जैसी हैं, वे आधुनिक मीडिया में देश और समाज के सामने आएं। उन्हें शंकराचार्यों के बराबर का दर्जा अवश्य मिलेगा। नहीं मिलेगा तो वे खुद छीन सकतीं हैं। जिसे यकीन न हो आगामी सिंहस्थ के लिए शिप्रा में डुबकी लगाने उज्जैन आ जाये। वहाँ राधे माताएं ,महा महामण्डलेश्वरी और साध्वियां सम्मान विराजित मिलेंगी। लेकिन कोई रोजा लक्जमवर्ग जैसी क्रांतिकारी नहीं मिलेगी। इंद्रा नुई जैसी संघर्षशील ,,कल्पना चावला जैसी कल्पनातीत बहादुर और मेरीकॉम ,सानिया मिर्जा ,नेहवाल जैसी वहाँ एक भी नहीं। यदि हो तो उसे किस पुरुष से बराबरी करना है? वो तो सभी पुरषों से श्रेष्ठ है। नारी -महिला इन शब्दों का रूपांतरण जब ''माँ'' के रूप में होता है तो उसकी बराबरी भगवान भी नहीं कर सकता। पुरुषों के बराबर तुलना पुरुष की माता की हो भी नहीं सकती। वास्तव में पुरषों से भी जयादा महान और ताकतवर है नारी। शनि शिंगणापुर में जो नाटक चल रहा है उसकी पट कथा अवश्य किसी महा धूर्त या धूर्तनी ने लिखी है। श्रीराम तिवारी
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