रविवार, 7 फ़रवरी 2016

बिल्ली काली हो या सफेद यदि चूहों को मारती है तो हमारे काम की है ''-माओत्से तुंग !


 किसी भी आदर्श लोकतान्त्रिक व्यवस्था में  विपक्ष और आम जनता द्वारा 'सत्ता पक्ष 'की स्वश्थ आलोचना जायज है। सिर्फ जायज ही नहीं बल्कि देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी है।किन्तु सिर्फ आलोचना ही करते रहें और आलोचक गण कोई विकल्प  भी पेश न करें तो यह अनैतिक कृत्य कहा जा सकता है । कोई और विकल्प पेश न करे पाएँ तो  कोई बात नहीं , किन्तु जो नीतियाँ और कार्यक्रम  आधी शताब्दी  में देश का भला नहीं कर सकीं, राष्ट्र संचालन के जो तौर-तरीके  देश हित में नहीं रहे ,जिनके कारण आर्थिक,सामाजिक और हर किस्म की असमानता बढ़ती ही  चली गई ,उन पर पुनर्विचार क्यों नहीं होना चाहिये ?  और यदि मोदी सरकार उन्हें पलट रही है ,तो उसका स्वागत क्यों नहीं किया जाना चाहिए  ? वेशक अतीत में जब कांग्रेस सत्ता में रही है  तब  विपक्षी भाजपा और अन्य विपक्षी दलों ने भी यही नकारात्मक  रोन्ट्याई का खेल खेला है । किन्तु यह सिलसिला अनंतकाल तक जारी नहीं रखा जा सकता ? अब तो इसका अंत होना ही चाहिए। क्योंकि न केवल  सिंगापुर,ताइवान ,उत्तर कोरिया ,क्यूबा जैसे छोटे-छोटे देश बल्कि सारी दुनिया ही  भारत से आगे निकल चुकी  हैं। चीन ,अमेरिका,फ़्रांस,एंग्लेंड , जापान ,जर्मनी और रूस तो पहले से ही बहुत आगे चल रहे हैं। वर्तमान मोदी सरकार शतप्रतिशत पाप का घड़ा तो अवश्य  नहीं  है ? और सारी  पुण्याई  का ठेका उनके पास  भी नही  है जो केवल मोदी सरकार की आलोचना ही किये जा रहे हैं ? क्या विचित्र बिडंबना है कि लोग खूब आलोचना किये जा रहे हैं ,और शिकायत भी कर रहे हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है। सहिष्णुता नहीं है। कहने-सुनने ,लिखने  - पढ़ने  का मौका  नहीं मिल रहा है।  क्या ये  आरोप सरासर झूंठा नहीं है ? और यदि ऐंसा कुछ देखने -सुनने में आ भी  रहा है ,तो वो दुनिया का सनातन दस्तूर है। यह कभी भी किसी भी व्यवस्था में शैतान की मानिंद अपनी हाजरी देता ही रहेगा। निर्दोष सीता का वनवास  'रामराज्य'में  ही हुआ था। इमाम हुसेन और मोहम्मद [सल्ल]के नवासे को सपरिवार  ख़लीफ़ाई इस्लाम के स्वर्णिम दौर में ही  निर्मम शहादत देनी पडी थी। कामरेड स्टालिन के दौर में नाजी हिटलर मारा गया, फासिज्म पराजित हुआ ,ठीक बात है ,किन्तु यह सब तीन करोड़ रूसी कामरेडों की शहादत से सम्भव हुआ।  

भारतीय राजनीति 'नौ दिन चले अढ़ाई कोस' पर टिकी है।यहाँ राजनीति के हम्माम में लगभग सभी दल नंगे हैं। कांग्रेस ,डेमोक्रेटिक विपक्ष और वामपंथ सहित सभी गैर भाजपाई  ये आरोप जड़ते रहते हैं  कि मोदी सरकार सब कुछ गलत कर रही है। लेकिन ये नहीं बताते कि  गलत क्या है ? और सही क्या होना चाहिए  ? उनका तकिया कलाम यह है कि मोदी सरकार यदि यह करेगी तो हम संसद में विरोध करेंगे । यदि वह करेगी तो हम सड़कों पर विरोध करेंगे। चूँकि कांग्रेस ,सपा, वसपा जदयू, और अन्य पूँजीवादी  दल तो बिना सींग के साँड़ हैं  ,उन्हें देश की या देश के सर्वहारा की फ़िक्र क्यों होने लगी ? लेकिन वामपंथ को तो यह अवश्य सोचना होगा कि वे ही  इस देश के बेहतरीन विकल्प  हैं। और वे भाजपा  विरोध ,मोदी विरोध या संघ विरोध  का अमोघ अश्त्र हर मौके पर बार-बार इस्तेमाल नहीं कर सकते । विरोध की  इस निरंतरता के कारण  न केवल विश्वसनीयता खतरे में है  बल्कि अधिकांस  धर्मनिरपेक्ष जनता भी अनायास ही दिग्भर्मित होकर  वामपंथ से दूर छिटक रही है। दरसल वामपंथ को यह कहना चाहिए कि मोदी सरकार यदि देश की जनता के साथ अन्याय करेगी तो हम विरोध उसका विरोध  करेंगे। और यदि मोदी सरकार ने वामपंथ के बताये विकल्प का अनुसरण किया या जन -आकांक्षा के अनुरूप समाजहित या देशहित में काम किया तो हम [वामपंथ] इस सरकार का समर्थन करेंगे।

वेशक मोदी सरकार उन नीतियों पर कदापि नहीं चल रही जो  ९० साल पहले 'संघ' ने निर्धारित की थीं। इसका  एक सजीव प्रमाण तो  यही है कि  मोदी सरकार के  केंद्रीय पुरातत्व बिभाग ने भी कांग्रेस सरकारों की तर्ज पर  धार के भोजशाला  बनाम मस्जिद फसाद  पर अपना धर्मनिरपेक्ष रुख अपनाया है।  अपने ही 'संघी भाइयों को निराश करते हुए शिवराज सरकार और केंद्रीय पुरातत्व विभाग ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों जमातों को एक ही नजर  से देखा है। सरस्वती पूजन या  नमाज अदा करने  की रूपरेखा पर स्थानीय प्रशासन ने धर्मनिर्पेक्षतावादियों को  ही महत्व दिया है। आरएसएस या हिंदुत्वादियों  तो केवल लाल-पीले ही हो रहे हैं। यदि  इसके वावजूद भी कुछ   लोग इस प्रकरण में  केंद्र और राज्य सरकार की आलोचना  करते हैं । तो उन्हें  मेरी ओर से सिर्फ धिक्कार ही मिलेगी। अनेक सवाल उठना सम्भव है। क्या अंध विरोध की यह प्रवृत्ति देश हित या समाजहित में है ?क्या इस तरह के असत्याचरण से कोई क्रांतिकारी  विचारधारा फलफूल सकती है  ? क्या मजहबी और साम्प्रदायिक  अल्पसंख्यकवाद  के काल्पनिक दमन  के बहाने  वोट की राजनीति करने से कोई क्रांति सम्भव है ?    

क्या विवेक ,बुद्धि ,प्रगति , राष्ट्रनिष्ठा इत्यादि  रत्न केवल उनके ही पास हैं ,जिन्हे  विपक्ष कहलाने लायक  जनादेश भी  नहीं मिला ? जो सत्ता लोग सत्ता से वंचित  हैं और सत्ता पक्ष का सिर्फ अंध विरोध ही करते चले जा रहे हैं। हो सकता है की जो आज  सत्ता में हैं  उन्होंने छल-कपट ,प्रलोभन  और भावनात्मक जन-दोहन करके  ही देश  की सत्ता  हथियाई हो ।लेकिन क्या इसमें नीतियों की असफलता और कांग्रेसी नेतत्व का कोई कसूर नहीं है ?  अब  जो दल या व्यक्ति हार गए हैं ,यदि  वे सिर्फ विरोध के लिए विरोध ही जारी रखेंगे तो इसकी क्या गारंटी है कि  जनता आइन्दा उन्हें अवसर देगी। क्योंकि निषेध की  नकारात्मक परम्परा वैसे भी भारत के  स्वश्थ चिंतन  के अनुकूल नहीं है।  कौन महा मंदमति  होगा जो इस तरह के प्रमादी - नकारात्मक - आलोचकों का संज्ञान लेगा ?

 भारत में  इन दिनों  बहुत से लोग  खास तौर से युवा वर्ग आँख मींचकर 'संघ - परिवार' अर्थात  सत्तापक्ष  के साथ खड़े  हैं।  उन्हें तो इस 'मोदी सरकार' में केवल  अच्छाई ही नजर आ रही  है। जबकि विपक्षी लोगों को इस सरकार के नाम से ही  चिड़ है। ये दोनों ही प्रजाति के भद्र नेता ,समर्थक और 'बोलू' प्राणी इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक और  सोशल मीडिया पर भी अपना  प्रचंड शौर्य दिखला रहे हैं। मेरा दावा है कि दोनों ही किस्म के  ये आधुनिक जीव राष्ट्रनिष्ठा , नैतिकता  और लोकतांत्रिकता के वास्तविक ज्ञान से वंचित हैं। दोनों ही ओर के नर-नारी घोर नकारात्मक आलोचना एवं  अन्योन्याश्रित  निंदा रस सिंड्रोम से पीड़ित हैं। क्या उन्हें  नहीं मालूम कि फासिज्म और तानाशाही  के भूत लोकतांत्रिक असफलता  के इसी अँधेरे में विचरण करते  है।

क्या ही बिडंबना है कि जो लोग प्रगतिशीलता के अलम्बरदार हैं ,जिनके कर-कमलों में सामाजिक,आर्थिक एवं  वैचारिक  परिवर्तन की मशाल  है,  वे लोग इन दिनों भारतीय  राजनीति की निर्णायक शक्ति नहीं रहे । इन्ही  दिनों मोदी सरकार सत्ता में है। मोदी सरकार हर फटी-पुरानी चीज को उल्ट-पलट रही है। वह मनरेगा योजना  आधार-योजना , ज्ञान आयोग ,पंचवर्षीय योजनाएं , बेसिक इन्फ्रस्ट्क्चर और उद्द्य्मों के लिए भूमि अधिग्रहण इत्यादि के लिए संघर्षरत  करती है ,  धारा -३७०, पर्सनल -ला ,आरक्षण और शैक्षणिक ढर्रे पर संसद  के दोनों सदनों में  कोई विधयेक पेश करती है या पुनर्विचार करने की कोई बात  करती है तो  सारे निहित  स्वार्थी तत्व  संसद ही नहीं चलने देते। जबकि इन विषयों पर नीति-निर्णय का अधिकार भारतीय संसद को ही है। वैसे भी इस सिस्टम की हर नाकाम चीज बदले  जाने योग्य है। मान लो कि  वामपंथ सत्ता में आता है ,तो क्या वह  भी इस सड़ी -गली कांग्रेसी  दवरा बनाई गयी भृष्ट व्यवस्था  को ही जारी रखेगा ? नहीं ! फिर मोदी सरकार के लिए ही  अलग मापदंड क्यों ? क्या यह  आचरण क्रांतिकारी चरित्र के अनुकूल है ?

जब इस संसदीय व्यवस्था में हर चीज सड़ांध युक्त है तो उसकी असफलता का ठीकरा मोदी सरकार के सिर  पर ही क्यों फोड़ा जा रहा है ?  यदि जनता का स्पष्ट  जनादेश मोदी सरकार के लिए हैं,तो यह भी स्पष्ट है कि भारत  की बहुसंख्यक  जनता  नीतिगत बदलाव  चाहती है ! अल्पमत  के पक्ष में नाजायज हो हल्ला मचाकर  कांग्रेस ,ममता,सपा ,वसपा यदि संसद में और सड़कों पर मोदी सरकार की हर बात का  विरोध कर रहे हैं तो उनका अनुसरण वामपंथ को कदापि नहीं करना चाहिए।  यह वोटों की घ्रणित राजनीति का शोर मचाने वाले पूँजीवादी  दल और नेता  जो कुछ ऊंटपटांग  करते हैं  वह वामपंथ को कदापि नहीं करना  चाहिए। यह देश हित में  या सर्वहारा वर्ग के  हित  में कदापि नहीं है। वैसे भी किसी भी तरह के  विपक्ष को संसद में वीटो का अधिकार नहींहै  । अतीत में जब भाजपा ,कम्युनिस्ट या जनसंघ  विपक्ष में  हुआ करते थे तब उनकी कितनी सुनवाई हुयी ? वेशक तत्कालीन संयुक्त विपक्ष ने  हर दौर  की काग्रेस सरकारों की संसद में और सड़कों पर नाक में दम  किया होगा , लेकिन अब इस परम्परा का समापन होना ही चाहिए।''वो अफ़साना जिसे अंजाम तक ले जाना न हो मुमकिन ,,,,,उसे इक  खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ''। संसद में पक्ष-विपक्ष का यह शत्रुतापूर्ण भारतीय पैटर्न कहीं लोकतंत्र की असफलता का कारक  ही न  बन जाये ! फासिज्म अथवा तानाशाही का भूत लोकतांत्रिक असफलता के अँधेरे से ही उतपन्न होता है।

 भारतीय आवाम के एक बड़े  हिस्से को मोदी जी के नारों पर बड़ा भरोसा है। खास कर शिक्षित युवाओं को स्मार्ट इण्डिया,डिजिटल इण्डिया ,स्वच्छ भारत ,समृद्ध भारत ,सबका  साथ -सबका विकास' पर बहुत भरोसा है। सड़क बिजली ,सिचाई, शिक्षा का निजीकरण और आर्थिक नीतियों का उदारीकरण तो डॉ मनमोहनसिंह पहले ही कर चुके थे। मोदी सरकार तो सिर्फ लेवल बदलने ,कांग्रेस का नाम पोंछने और 'संघ परिवार' का नाम लिखवाने में ही जुटी है। इन नामकरण वाले  बदलाव वाली  बातों से  कांग्रेस का खपा होना स्वाभाविक है। कांग्रेस की तो गांधी-नेहरू-इंदिरा  ही पहचान है। किन्तु  क्या किसी क्रांतिकारी चिंतक या विचारक के लिए अथवा संघर्षशील योद्धा के लिए यह सब उचित है कि  वह इस पतनशील व्यवस्था की सड़ी-गली चीजों के  समर्थन और विरोध की जूतम -पैजार में उलझ कर रह जाए ?  कोई प्रगतिशील -वामपंथी जन संगठन या कार्यकर्ता इस अधोगामी व्यवस्था की  मरी हुई  बंदरिया को  हरदम अपने सीने से क्यों चिपकाये रहे ?इससे बड़ी बिडंबना और अचरज वाली बात क्या हो सकती  है कि  जो रूढ़िवाद और यथास्थतिवाद के  नुमाइंदे हैं  जैसे कि मोदी जी ,वे  हर गयी गुजरी चीज को -नाकाम  कार्यनीति और सिस्टम को बदलना चाहते हैं । जबकि  वाम मोर्चे की पार्टियाँ  और उनके समर्थक विद्वान  इस बदलाव की खबर से कुपित होकर मोदी जी और आरएसएस पर  निरंतर  शब्दभेदी बाण चला रहे हैं। वे वैश्विक आतंकवाद को गंभीरता से नहीं लेते।  जब देश की जनता को  कोई  फरक नहीं पड़ता कि मोदी जी द्वारा उधेड़ी जा रही फाइलें या टूटी-फूटी पुरानी  चीजें -नेहरू ,गांधी के ज़माने की हैं ,या ततकालीन  नेताओं ने कोई गलत -सलत एग्रीमेंट कर लिया  तो हम वामपंथी उसके लिए हलकान क्यों होते  रहें ?किसी सामंतयुगीन कबीलाई समाज के  आज्ञाकारी  अंधश्रद्धालुओं की तरह नकारात्मक कृतज्ञता में  क्यों डूबे रहें?

भारत में लोकतंत्र का दुरूपयोग बहुत बढ़  रहा है। देशकाल के अनुरूप  स्वस्थ्य -तार्किक समालोचना का घोर अभाव  है।  हालाँकि मैं  स्वयं [इस आलेख का लेखक ] भी 'संघ' की विचारधारा से सहमत नहीं हूँ।और मोदी जी  की भी अनेक बार भूरि-भूरि किन्तु स्वश्थ  आलोचना  कर चुका हूँ। मेरे निजी ब्लॉग www. janwadi. blogspot.com  पर मोदी सरकार के विरोध में  इतनी सामग्री उपलब्ध है कि  ५० पुस्तकें प्रकाशित की जा सकतीं हैं।  और यदि वे कुछ गलत करते हैं तो  आइन्दा विरोध करता  भी रहूँगा। लेकिन  एनडीए सरकार या पी एम मोदी जी ,जब कोई देश हित का काम करेंगे ,कोई नीतिसंगत-न्यायसंगत  काम  करेंगे तो उसका स्वागत करने में पीछे नहीं रहूँगा। और जब कोई बाहरी दुश्मन भारत की ओर बुरी नजर से देखेगा ,प्रधान मंत्री को धमकी देगा तो  दुश्मन के प्रतिकार हेतु  हर देशभक्त  सरकार का पुरजोर समर्थन करंगे। ''इससे कोई फर्क नहीं पङता की बिल्ली काली है या सफेद यदि  चूहों को मारती है तो हमारे काम की है '' - चैयरमेन -माओत्से तुंग !

                                             कुछ लोग पीएम नरेंद्र मोदी को ऐंसे ट्रीट कर रहे हैं ,मानों उन्होंने  कोई तख्ता पलट करते हुए राज्य सत्ता  हथियाई  हो ! मानों  उन्होंने  चुनाव ही नहीं जीता हो ! मानों उन्होंने ,चौधरी चरण सिंह , वीपी सिंह ,चंद्रशेखर ,देवगौड़ा , गुजराल की तरह कोई जोड़-तोड़ से सरकार बनाई  हो !कुछ लोग तो उन्हें हिटलर,मुसोलनि ,ईदी अमीन जियाउलहक या परवेज मुसर्रफ  जैसा ही  मानकर  ही चल रहे हैं। ये महाज्ञानी राष्ट्र चिंतक आँख- मींचकर प्रधान मंत्री श्री मोदी जी की हर बात का मखौल उड़ाए जा रहे हैं। वेशक  मोदी जी कोई उदभट विद्द्वान,मुमुक्षु चिंतक, या साइंटिफिक दर्शनशास्त्री  नहीं हैं। वे पंडित नेहरू जैसे पूर्व-पश्चिम की समन्वित आधुनिक  विचाधारा के मूर्धन्य  प्रवर्तक या नीति द्रष्टा भी नहीं हैं। किन्तु इतना तय है कि उन्होंने कोई गेस्टापो नहीं बनाया है। और  मुझे पक्का यकीन है कि वे बनाएंगे भी नहीं। क्योंकि वे वाकई 'पैटी बुर्जुवा' हैं। आखिकार इस देश की जनता जैसी है मोदी सरकार  भी तो वैसी  ही है। बहुमत जनता  की जो सोच है उसने वैसा ही अपनी  सरकार चुनी है। जो पांच साल तक तो यों  ही चलेगी ! जो पंछी सत्ता के फलदार आम की शाख पर अभी नहीं  बैठ पाये हैं ,उन्हें फ़ालतू  फड़फड़ाने का मन करता है तो फड़फड़ाते रहें। किन्तु सत्ता के मीठे फल तभी मिल पाएंगे जब देश की जनता चाहेगी। और देश की जनता का मूड तभी बदलेगा जब मोदी सरकार कुछ गलतियां करेगी।  इसलिए विपक्ष को चाहिए की संसद चलने दे ! मोदी जी  के मन की बात चलने दे ! यदि मोदी जी गलती पर गलती किये जाएंगे तो विपक्ष को ही लाभ होगा। यदि वे सही काम करेंगे तो देश आगे बढ़ेगा  - इससे बेहतर और क्या हो सकता है  ? श्रीराम तिवारी

-:  श्रीराम तिवारी ;-
 

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