देश का विभाजन और आधी -अधूरी आजादी मिलने के कुछ ही महिनों बाद जहाँ एक ओर भूतपूर्व सामंतों-जागीरदारों और बेईमान धनिक वर्ग ने संसदीय राजनीति पर कब्जा जमा लिया था। वहीँ दूसरी ओर अंग्रज प्रभु की असीम अनुकम्पा -प्राप्त जातीय - आरक्षणवादी नेतत्व भी लगातार जातीयता और मजहबी आधार पर समाज को बांटने में जुट गया था । उनकी इस फितरत को वोट कबाड़ने का प्रयास भी माना जा सकता है। इन जातिवादी नेताओं का राष्ट्रवाद ,देशभक्ति,धर्मनिरपेक्षता - समाजवाद से कभी कोई सरोकार नहीं रहा । ये गैर कांग्रेसी ,गैर कम्युनिस्ट और गैर भाजपाई जातीय नेता अपने वैयक्तिक हितों की खेती करने में जुट गए ।
कुंठित मानसिकता के ये 'अराष्ट्रवादी ' नेता लोग सामाजिक अलगाव के आंदोलन चलाकर,तिलक-तराजू और तलवार,या वामन बनिया ठाकुर छोड़,,के नारे लगाकर ,बहुजनवाद की भयानक खाई में खुद ही ओंधे मुँह जा गिरे ! ये छुद्र नेता जब अकेले ही आम चुनाव जीतकर भारत राष्ट्र के सर्वेसर्वा नहीं बन पाये तो फिर झक मारकर राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य धारा के सौदेबाज हो गए। इससे पहले आजादी से पूर्व यही काम जिन्ना ने भी किया था और उसने अंग्रजों की शै पर पाकिस्तान भी ले लिया था। बटवारे के दौरान सक्षम और ताकतवर हिन्दू तो भारत आ गए लेकिन अधिकांस कमजोर वर्ग के दलित ,आदिवासी और निर्धन ब्राह्मण वहीँ रह गए। इस्लामिक पाकिस्तान में इन बेचारों को कट्टरपंथी जमातों ने जीते जी मार दिया ! जिन लोगों ने सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान को सता -सता कर मार डाला ,उनके परिवार को नष्ट कर दिया ,जिन्होंने जिए सिंध के बड़े नेता को ताजिंदगी जेलों में ठूँस रखा ,जिन्होंने १४ साल की बच्ची मलाला यूसफ जई को ही नहीं बख़्शा उन्ही शैतानों ने पाकिस्तान में शेष बचे हिन्दुओं को और खास तौर से उनकी बहु -बेटियों का सर्वस्व नष्ट कर दिया।
इधर भारत में दारुल हरब बनाम दारूल हरम सिद्धांत पर चलकर अधिकांस अल्पसंख्यक नेता न केवल 'इंडियन मुस्लिम' को मुस्लिम इण्डिया में नचाते आरहे हैं । बल्कि सत्तारूढ़ वर्ग से टैक्टिकल वोटिंग की तालमेल बिठाकर अपना निजी हित साधते आरहे हैं। जो ऐंसा नहीं कर सके ,सामंजस्य नहीं बिठा सके वे विपक्षी गठबंधन या विद्रोही लाबी के बगलगीर होते चले गए। जो इन दोनों ही रास्तों पर चलने का साहस नहीं जुटा सके वे धर्म-परिवर्तन और जेहाद जैसे ओछे हथकंडों पर भी उत्तर आये। और जो यह भी नहीं कर सके वे आतंकी होते चले गये। इस वैचारिक दरिद्रता और चारित्रिक अधःपतन के लिए वे खुद जिम्मेदार रहे हैं। याकूब मेमन और अफजल गुरु की फांसी के बहाने ये तत्व भारतीय न्याय पालिका को बार-बार रुसवा किये जा रहे हैं। इसी तरह दलित और पिछड़ों की बदहाली पर मगरमच्छ के आंसू बहाने वाले दलित नेता ,पिछड़े नेता भी इक्कीसवीं सदी के सोलहवें साल की शरुआत तक केवल अपनी जाति का ही जाप किये जा रहे हैं। वे उस संविधान का ही सम्मान नहीं कर सके जो उनके ही 'महान आदर्श' नेता के कर कमलों द्वारा सृजित किया गया है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित बेमुला की 'आत्महत्यास' के प्रसंग में शायद उसी परम्परा का निर्वाह किया गया है।
चूँकि मुख्यधारा का सत्ताधारी वर्ग कभी कांग्रेस और कभी गैर कांग्रेसवाद को ही आजमाता रहा है। यह वर्ग उद्दाम आवारा पूँजी की बदौलत देश के विकास की आड़ में खुद के विकाश की कोशिश में जुटा रहता है। इस वर्ग के लिए जातीयता और मजहबी सरोकार महज लोकतांत्रिक खाद-पानी है। सामाजिक विषमता और मजहबी उन्माद तो उनके लिए चुनावी जीत के साधन मात्र है। कांग्रेस-भाजपा के रूप में सत्तारूढ़ अभिजात्य वर्ग के राजनैतिक संस्करण का लाभ केवल ,बिचोलियों अफसरों और भृष्ट नेताओं तथा उनके पॉलिटिकल स्टैक होल्डर्स को ही मिलता रहा है। देश के गरीबों किसानों -मजदूरों की दुर्दशा पर आंसू बहाने वाला कोई नहीं रहा । लालू मुलायमसिंह का समाजवाद केवल पिछड़ों -अल्पसंख्यकों के लिए है। नीतीश-ममता और मायावती के मन में केवल अल्पसंख्य्क और दलित-पिछड़े वोटों का लालच भरा हुआ है। देश के लिए उनके मन में कोई स्थान नहीं। सिर्फ वामपंथ ही है जो सभी के हित की बात करता है. उसका नारा है 'दुनिया के मजदूरो एक हो '!
भारत में इन दिनों देश की दक्षिणपंथी ताकतें जानबूझकर भारतीय सम्विधान ,कांग्रेस और वामपंथ को टारगेट कर रहीं हैं। ये पूँजीवादी -सम्प्रदायिक ताकतें भूल रहीं हैं कि कांग्रेस की सेहत पर इनके हमलों का कोई असर नहीं पडेगा। क्योंकि वह तो 'अमरवेलि' है। ''ज्यों जहाज का पंछी 'पुनि जहाज पै आवे '' इसलिए ही तो उसे बिना किये धरे ही आपातकाल लगाने के वावजूद सत्ता वापिस मिल जाती है। १९८४ के दंगे भूलकर जनता फिर उसी कांग्रेस को सत्ता में ले आती है। अटल-आडवाणी का 'इंडिया शाइनिंग' व 'फीलगुड' भूलकर जनता पुनः 'विदेशी' सोनिया जी को स्वदेशी मान लेती है। उन्हें इज्जत से देश की सत्ता सौंप देती है। भले ही वे सिंहासन पर खुद न बैठ पाईं हों और 'मनमोहनसिंह' जी को बिठातीं रहीं हों ! लेकिन वामपंथ को तो उसके 'जन -संघर्षों के परिणाम का ,उसकी निष्काम कर्मयोग वाली क़ुर्बानियाँ का केवल इतिहास ही हाथ लगा है। भारतीय वामपंथ को ही क्रूर काल की कठोर नियति क्यों हमेशा ठगती रहती है ? जेएनयू प्रकरण में कांग्रेस का कोई लेना-देना नहीं है।यह जेएनयू की वैश्विक और वामपंथी छवि के प्रति दक्षिणपंथ का सौतिया डाह जैसा मामला है। लेकिन 'अमानक' नारेबाजी से बौखलाकर खुद केंद्र सरकार व संघ के सभी आनुषंगिक संगठनों ने पूरे देश में कांग्रेस और उनके उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर हल्ला बोल दिया है। मोदी सरकार जो भी कर रही है वो कांग्रेस की वापिसी का ही इंतजाम कर रही है। किन्तु वामपंथ को क्या मिलेगा ? शायद दो-चार वामपंथी बुद्धिजीवी प्रोफेसर और छात्र जरूर 'लाल झंडा -जिन्दावाद' का नारा लगाने में साथ देने लग जायेंगे ! किन्तु भारत में किसी भी तरह की सर्वहारा क्रांति का मार्ग अभी भी अवरुद्ध है !
के पास तो खोने के लिए कुछ भी नहीं है। केवल त्रिपुरा की माणिक सरकार ही शेष बची है। और वैसे भी साम्यवादियों का लक्ष्य इस दोषपूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था में महज सत्ता प्राप्ति नहीं है । बल्कि सर्वहारा क्रांति ही उनका अंतिम अभीष्ट है। और उस लक्ष्य को पाने के लिए संसार का सम्पूर्ण सर्वहारा उनके साथ है। उनके पास बेहतरीन वैज्ञानिक विचारधारा है। किन्तु देश की युवा पीढ़ी को अभी इस दौर में वैज्ञानिक धर्मनिरपेक्ष तथा जनवादी -इंकलाबी विचार कुछ ज्यादा आकर्षित नहीं कर पाये है। चूँकि आईएसआईएस और अन्य इस्लामिक आतंकी संगठनों का दुनिया में बहुत बोलवाला है ,अपितु उनकी देखा देखी न केवल भारत के बल्कि दुनिया भर के हिन्दू युवाओं में 'संघ परिवार' की हिन्दुत्ववादी विचारधारा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है।
भारतीय वामपंथ की आवाज इन दिनों -बुद्धिजीवियों, छात्रों ,साहित्यकारों ,दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए ही उठ रही है। उठनी भी चाहिए क्योंकि वे वाकई शोषित -पीड़ित हैं। इन वंचित वर्गों का समर्थन करना बहुत अच्छी बात है। किन्तु निर्धन गरीब सर्वहारा वर्ग में तो सभी वर्ग के वंचित शामिल हैं ,वे भी वेरोजगार और गरीब हैं जो कुदरत की गलती से ठाकुर,वामन या कोई और सवर्ण घर पैदा हो गये हैं । फिर केवल पिछड़ा,दलित और अल्पसंख्यक राग ही क्यों छेड़ा जा रहा है ? इनकी अभिव्यक्ति की बात ही जुदा क्यों उठाई जा रही है ? और यदि उनकी बात पृथक से की जा रही है , तो गरीब बेरोजगार ,दमित ,वंचित सवर्ण सर्वहारा की बात कौन उठाएगा ? कहीं गरीब -वेरोजगार और असहाय सवर्णों के लिए उनकी तथाकथित 'ऊंची जात' ही अभिशाप तो नहीं बन गयी है? जिन गरीब छात्रों ने सवर्ण होने के अभिशाप वश जेएनयू का ,हैदराबाद विश्विद्यालय का या पूना फिल्म इंस्टीटूट का नाम भी नहीं सुना हो ,अपनी फटेहाल माली हालत के चलते प्रायमरी,मिडिल और मेट्रिक तक भी न पढ़ सकें हों , यदि उन्हें आरक्षण की बागड़ ने खेत में ही घुसने न दिया हो और हर तरफ कुत्ते की तरह दुत्कार कर भगा दिया गया हो ,उनकी लड़ाई कौन लड़ेगा ? क्या जेएनयू के सभी छात्र बाकई सर्वहारा हैं ? क्या हैदराबाद विश्वविद्यालय का शोध छात्र रोहित बेमुला बाकई यतीम था ? क्या लम्बे -लम्बे बालों वाले और फ़ेसनेबुल दाढ़ी वाले फिल्म इंस्टीटूट के आंदोलनकारी छात्र बाकई सर्वहारा हैं?
इन दिनों मीडिया ,राजनीती और बौद्धिक विमर्श के केंद्र में केवल निम्न वर्ग की जातीयता और साम्प्रदायिक विमर्श की ही गूँज है। पूरी कौम ,पूरा सर्वहारा पूरा देश और पूरा का पूरा भारतीय समाज हासिये पर धकेल दिया गया है। 'वर्ग संघर्ष' की बात कोई नहीं करना चाहता। भारत का अर्धसामन्ती और अर्धपूँजीवादी शासकवर्ग यही तो चाहता है। किसे नहीं मालूम आरक्षण का लाभ केवल कुछ मुठ्ठी भर दलित-पिछड़े और मौकापरस्त ही उठाये जा रहे हैं ?जबकि भारत की ९०% दलित-पिछड़ा -अति पिछड़ा आबादी अभी भी या तो निर्धन सर्वहारा वर्ग में शामिल है या निरक्षर है। सवर्ण तो दूर की बात ये वंचित दीन -हीन दलित भी नहीं जानते कि उनके आरक्षण का हक कौन लोग मार रहे हैं। उन्हें लगातार भरमाया जाता रहा है कि उनके दुखों-कष्टों और अभावों के लिए सवर्ण लोग जिम्मेदार हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि इस अपराध के लिए सवर्ण जन नहीं बल्कि वह कुटिल शासक वर्ग जिम्मेदार है जिसमें कि अर्धसामन्ती,अर्धपूँजीवादी और आरक्षणवादी नेता शामिल हैं। भारत की दुर्दशा के लिए अर्धसामन्ती-अर्धपूँजीवादी और आरक्षणधारी वर्ग जिम्मेदार है ।यह नापाक गठजोड़ ही भारत में वर्ग संघर्ष को पनपने नहीं दे रहा है। भारतीय दक्षिणपंथ को यही माहोल मुफीद है।
सुखद सम्भावनाओं के द्वार इस पूँजीवादी मशक्कत से तो शायद ही खुल सकें। हो सकता है कि वर्तमान मोदी सरकार को भी विगत मनमोहनसिंह सरकार की अबूझ अनगढ़ आर्थिक नीतियों में भारत का समग्र विकास या भारतीय समाज का उज्ज्वल भविष्य परिलक्षित हो रहा हो ! इंदिरा युग की कुछ आंशिक सफलताओं के अलावा अभी तक इस देश के पास कुछ भी गर्वोक्ति के लायक नहीं है। वेशक भारत की युवा पीढ़ी में अकूत सम्भावना मौजूद है। हो सकता है कि उदंड आवारा पूँजी और उदारवादी विकास के पैटर्न को वैश्विक परिदृश्य पर भारत की जलवायु और युवा श्रम शक्ति पसंद हो । लेकिन इसके लिए भी उसे सुशासन और शांति की बेहद आवश्यकता है। सुशासन और शांति तभी संभव है जब भारत में लोकतंत्र बना रहे । सहिष्णुता बनी रहे । भृष्टाचार ,महँगाई और आतंकवाद पर सरकार का कुछ नियंत्रण हो। यदि मोदी जी चाहते हैं कि उनके 'मन की बात' को अमली जामा हर हाल में पहनाया जाए तो उन्हें कम से कम अपने संगी साथियों को तो अवश्य नियंत्रित करना चाहिये। जो करते धरते तो कुछ खास नहीं किन्तु उनके फ़ूहड़ बोल-बचन और विषयांतर से देश में अराजकता ,असहिष्णुता और असामाजिकता का वातावरण अवश्य बना रहता हैं। जन सरोकारों के विषय गर्त में धकेल दिए जाते हैं।
चाहे आधुनिकतम तकनीकी इंफ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट हो ,चाहे मानव संसाधन और स्किल डेवलपमेंट की बात हो ,चाहे सुशासन और विकास की आम जरूरत हो ,सभी मामलों में भारत अभी 'ग्रोथ क्राईसस' से गुजर रहा है। जिस तरह कोई सद्द प्रसूता स्त्री ततकाल अपने घर का चौका -चूल्हा नहीं संभाल सकती। यदि घर में उसी समय चोर -डाकु घुस आएं ,तो मुकाबला भी नहीं कर सकती। इन हालात में उस प्रसव वेदना से पीड़ित महिला से घर के विकास या तरक्की की उम्मीद करना और भी नादानी होगी। ठीक यही स्थिति जातीय और मजहब पर आधारित लोकतंत्र वाले साठोत्तरी भारत की भी है। फिलहाल भारत अर्ध पूँजीवादी और अर्ध सामंती ग्रोथ क्राइसस से गुजर रहा है। एक सद्द प्रसूता स्त्री की तरह भारत को भी चौतरफा संकट से जूझना पड़ रहा है। देश में व्याप्त भृष्टचार पर किसी का कोई अंकुश नहीं। विदेशों में जमा काले धन का अता -पता नहीं। बहुध्रुवीय ,बहुजातीय ,बहुधर्मीय ,लोकतांत्रिक भारत में राजनीति के नाम पर संसद में अनुशासन का घोर अभाव है।
कुछ जातिवादी लोगों को सिर्फ अपने आरक्षण और अपने हकों की ही चिंता है। जातिगत ताकत के बल पर सत्ता हथियाने की चिंता है। इसी तरह कुछ खास मजहब के अराष्ट्रवादियों को केवल अपने 'विशेषाधिकर की चिंता है। उन्हें देश पर हो रहे आतंकी हमले दिखाई नहीं देते। उन्हें बाहरी दुश्मनों द्वारा भारत पर हो रहे हर तरह के आर्थिक हमले दिखाई नहीं देते। उन्हें पाकिस्तान प्रेषित नकली करेंसी और ड्रग माफिया की काली करतूत दिखाई नहीं देती। देश में हो रहीं रोज-रोज दर्जनों अकाल मौतें उन्हें दिखाई नहीं दे रहीं हैं । रोज सैकड़ों लोग रोड एक्सीडेंट से मर रहे हैं. कुछ भूंख से मर रहे हैं लेकिन इन के लिए वे आह तक नहीं भरते। वोट की राजनीति का दस्तूर चल पड़ा है कि भारत में यदि कोई नकली सर्टिफिकेट बनवाकर दलित हो जाए और पोल खुलने के डर से वो आत्म हत्या कर ले तो उसे शहीदों की मानिंद पेश किया जाता है। दलित शोषण का पाखंडी ढपोरशंख बजाया जाता है। सारे संसार में भारतीय समाज व्यवस्था की जमकर खिल्ली उड़ाई जाती है। वोट के आकांक्षी नेता भी मीडिया के सामने ,कैमरे के सामने ,मगरमच्छ के आंसू बहाने लगते हैं। छिः ! धिक्कार है !
इसी तरह यदि कोई लुच्चा-लफंगा अपना खुद का धर्म -मजहब छिपाकर किसी दूसरे धर्म-मजहब की लड़की को बहला फुसलाकर भगा ले जाए तो कुछ धर्मनिरपेक्ष लोगों को उसमें असहिष्णुता नजर आने लगेगी और कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोगों को उसमें लव जेहाद दिखाई दने लगता है। जबकि यह विशुद्ध कानून और व्यवस्था का मामला है। फ्राड और लुच्चे-लफंगे लोग 'लव जेहाद' कर ही नहीं सकते। ये तो वे दलाल और बदमास हैं जो मजहब के नाम पर कलंक है। दुबई या अरब के ऐयास शेखों के सामने भारत की हजारों मासूम बच्चियों को परोसने वाले गुनहगारहैं। ये ही अपने आकाओं को डॉन कहते हैं। जब कोई देशी दलाल कानून के चंगुल में फंस जाता है तो उसके पक्ष में ममता बेनर्जी ,केजरीवाल और जनाब ओबेसी खड़े हो जाते हैं।
सारी दुनिया में भारत की थू-थू होने लगती है की कितना असहिष्णु राष्ट्र है ? का धर्म-मजहब छुइ-मुई तो किसी की जात छुइ-मुई। मजहबी - धार्मिक जातीयतावादी पाखंडियों को अपने-अपने ठियों याने पाखंड के ठिकानों की चिंता है। भारत का यह नव सुविधा भोगी वर्ग केवल संवैधानिक अधिकार की बात करता है। वोट की राजनीति में खुल्लेआम ब्लेकमेलिंग हो तो काहे का लोकतंत्र और काहे का सुशासन ? अपने हिस्से की क़ुरबानी का बक्त जब आता है तो यह वर्ग उम्मीद करता है कि देश में भगतसिंग तो पैदा हो ,किन्तु उसके घर में नहीं ,बल्कि पड़ोसी के यहाँ पैदा हो। वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत को अंतराष्टीय बाजारवादियों ने पहले ही किनारे कर रखा है। डॉलर की ताकत के सामने रुपया वर्षों से ओंधे मुँह पड़ा है। आयात -निर्यात का असंतुलन बर्दास्त से बाहर है। पाकिस्तान -चीन और इस्लामिक आतंक ने भारत को चारों ओर से घेर रखा है। इन हालात में यह देश 'स्मार्ट इण्डिया' कितना बन पायेगा ? यदि कुछ बन भी गया तो उसका लाभ दमित-शोषित वंचित वर्ग को भी मिलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। इस परिदृश्य को इस दौर के साहित्यकार ,कलाकर और बुद्धिजीवी केवल असहिष्णुता या 'संघ परिवार' की आलोचना में ही देख आरहे हैं। जबकि इस्लामिक आतंकवाद को ये धर्मनिरपेक्ष-जनवादी संगठन बहुत हल्के से ले रहे हैं । यह निराशजनक है। सम्मान वापसी के खेल से भारत में इस्लामिक आतंकवाद के हमलों में तेजी आई है।
कुंठित मानसिकता के ये 'अराष्ट्रवादी ' नेता लोग सामाजिक अलगाव के आंदोलन चलाकर,तिलक-तराजू और तलवार,या वामन बनिया ठाकुर छोड़,,के नारे लगाकर ,बहुजनवाद की भयानक खाई में खुद ही ओंधे मुँह जा गिरे ! ये छुद्र नेता जब अकेले ही आम चुनाव जीतकर भारत राष्ट्र के सर्वेसर्वा नहीं बन पाये तो फिर झक मारकर राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य धारा के सौदेबाज हो गए। इससे पहले आजादी से पूर्व यही काम जिन्ना ने भी किया था और उसने अंग्रजों की शै पर पाकिस्तान भी ले लिया था। बटवारे के दौरान सक्षम और ताकतवर हिन्दू तो भारत आ गए लेकिन अधिकांस कमजोर वर्ग के दलित ,आदिवासी और निर्धन ब्राह्मण वहीँ रह गए। इस्लामिक पाकिस्तान में इन बेचारों को कट्टरपंथी जमातों ने जीते जी मार दिया ! जिन लोगों ने सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान को सता -सता कर मार डाला ,उनके परिवार को नष्ट कर दिया ,जिन्होंने जिए सिंध के बड़े नेता को ताजिंदगी जेलों में ठूँस रखा ,जिन्होंने १४ साल की बच्ची मलाला यूसफ जई को ही नहीं बख़्शा उन्ही शैतानों ने पाकिस्तान में शेष बचे हिन्दुओं को और खास तौर से उनकी बहु -बेटियों का सर्वस्व नष्ट कर दिया।
इधर भारत में दारुल हरब बनाम दारूल हरम सिद्धांत पर चलकर अधिकांस अल्पसंख्यक नेता न केवल 'इंडियन मुस्लिम' को मुस्लिम इण्डिया में नचाते आरहे हैं । बल्कि सत्तारूढ़ वर्ग से टैक्टिकल वोटिंग की तालमेल बिठाकर अपना निजी हित साधते आरहे हैं। जो ऐंसा नहीं कर सके ,सामंजस्य नहीं बिठा सके वे विपक्षी गठबंधन या विद्रोही लाबी के बगलगीर होते चले गए। जो इन दोनों ही रास्तों पर चलने का साहस नहीं जुटा सके वे धर्म-परिवर्तन और जेहाद जैसे ओछे हथकंडों पर भी उत्तर आये। और जो यह भी नहीं कर सके वे आतंकी होते चले गये। इस वैचारिक दरिद्रता और चारित्रिक अधःपतन के लिए वे खुद जिम्मेदार रहे हैं। याकूब मेमन और अफजल गुरु की फांसी के बहाने ये तत्व भारतीय न्याय पालिका को बार-बार रुसवा किये जा रहे हैं। इसी तरह दलित और पिछड़ों की बदहाली पर मगरमच्छ के आंसू बहाने वाले दलित नेता ,पिछड़े नेता भी इक्कीसवीं सदी के सोलहवें साल की शरुआत तक केवल अपनी जाति का ही जाप किये जा रहे हैं। वे उस संविधान का ही सम्मान नहीं कर सके जो उनके ही 'महान आदर्श' नेता के कर कमलों द्वारा सृजित किया गया है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित बेमुला की 'आत्महत्यास' के प्रसंग में शायद उसी परम्परा का निर्वाह किया गया है।
चूँकि मुख्यधारा का सत्ताधारी वर्ग कभी कांग्रेस और कभी गैर कांग्रेसवाद को ही आजमाता रहा है। यह वर्ग उद्दाम आवारा पूँजी की बदौलत देश के विकास की आड़ में खुद के विकाश की कोशिश में जुटा रहता है। इस वर्ग के लिए जातीयता और मजहबी सरोकार महज लोकतांत्रिक खाद-पानी है। सामाजिक विषमता और मजहबी उन्माद तो उनके लिए चुनावी जीत के साधन मात्र है। कांग्रेस-भाजपा के रूप में सत्तारूढ़ अभिजात्य वर्ग के राजनैतिक संस्करण का लाभ केवल ,बिचोलियों अफसरों और भृष्ट नेताओं तथा उनके पॉलिटिकल स्टैक होल्डर्स को ही मिलता रहा है। देश के गरीबों किसानों -मजदूरों की दुर्दशा पर आंसू बहाने वाला कोई नहीं रहा । लालू मुलायमसिंह का समाजवाद केवल पिछड़ों -अल्पसंख्यकों के लिए है। नीतीश-ममता और मायावती के मन में केवल अल्पसंख्य्क और दलित-पिछड़े वोटों का लालच भरा हुआ है। देश के लिए उनके मन में कोई स्थान नहीं। सिर्फ वामपंथ ही है जो सभी के हित की बात करता है. उसका नारा है 'दुनिया के मजदूरो एक हो '!
भारत में इन दिनों देश की दक्षिणपंथी ताकतें जानबूझकर भारतीय सम्विधान ,कांग्रेस और वामपंथ को टारगेट कर रहीं हैं। ये पूँजीवादी -सम्प्रदायिक ताकतें भूल रहीं हैं कि कांग्रेस की सेहत पर इनके हमलों का कोई असर नहीं पडेगा। क्योंकि वह तो 'अमरवेलि' है। ''ज्यों जहाज का पंछी 'पुनि जहाज पै आवे '' इसलिए ही तो उसे बिना किये धरे ही आपातकाल लगाने के वावजूद सत्ता वापिस मिल जाती है। १९८४ के दंगे भूलकर जनता फिर उसी कांग्रेस को सत्ता में ले आती है। अटल-आडवाणी का 'इंडिया शाइनिंग' व 'फीलगुड' भूलकर जनता पुनः 'विदेशी' सोनिया जी को स्वदेशी मान लेती है। उन्हें इज्जत से देश की सत्ता सौंप देती है। भले ही वे सिंहासन पर खुद न बैठ पाईं हों और 'मनमोहनसिंह' जी को बिठातीं रहीं हों ! लेकिन वामपंथ को तो उसके 'जन -संघर्षों के परिणाम का ,उसकी निष्काम कर्मयोग वाली क़ुर्बानियाँ का केवल इतिहास ही हाथ लगा है। भारतीय वामपंथ को ही क्रूर काल की कठोर नियति क्यों हमेशा ठगती रहती है ? जेएनयू प्रकरण में कांग्रेस का कोई लेना-देना नहीं है।यह जेएनयू की वैश्विक और वामपंथी छवि के प्रति दक्षिणपंथ का सौतिया डाह जैसा मामला है। लेकिन 'अमानक' नारेबाजी से बौखलाकर खुद केंद्र सरकार व संघ के सभी आनुषंगिक संगठनों ने पूरे देश में कांग्रेस और उनके उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर हल्ला बोल दिया है। मोदी सरकार जो भी कर रही है वो कांग्रेस की वापिसी का ही इंतजाम कर रही है। किन्तु वामपंथ को क्या मिलेगा ? शायद दो-चार वामपंथी बुद्धिजीवी प्रोफेसर और छात्र जरूर 'लाल झंडा -जिन्दावाद' का नारा लगाने में साथ देने लग जायेंगे ! किन्तु भारत में किसी भी तरह की सर्वहारा क्रांति का मार्ग अभी भी अवरुद्ध है !
के पास तो खोने के लिए कुछ भी नहीं है। केवल त्रिपुरा की माणिक सरकार ही शेष बची है। और वैसे भी साम्यवादियों का लक्ष्य इस दोषपूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था में महज सत्ता प्राप्ति नहीं है । बल्कि सर्वहारा क्रांति ही उनका अंतिम अभीष्ट है। और उस लक्ष्य को पाने के लिए संसार का सम्पूर्ण सर्वहारा उनके साथ है। उनके पास बेहतरीन वैज्ञानिक विचारधारा है। किन्तु देश की युवा पीढ़ी को अभी इस दौर में वैज्ञानिक धर्मनिरपेक्ष तथा जनवादी -इंकलाबी विचार कुछ ज्यादा आकर्षित नहीं कर पाये है। चूँकि आईएसआईएस और अन्य इस्लामिक आतंकी संगठनों का दुनिया में बहुत बोलवाला है ,अपितु उनकी देखा देखी न केवल भारत के बल्कि दुनिया भर के हिन्दू युवाओं में 'संघ परिवार' की हिन्दुत्ववादी विचारधारा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है।
भारतीय वामपंथ की आवाज इन दिनों -बुद्धिजीवियों, छात्रों ,साहित्यकारों ,दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए ही उठ रही है। उठनी भी चाहिए क्योंकि वे वाकई शोषित -पीड़ित हैं। इन वंचित वर्गों का समर्थन करना बहुत अच्छी बात है। किन्तु निर्धन गरीब सर्वहारा वर्ग में तो सभी वर्ग के वंचित शामिल हैं ,वे भी वेरोजगार और गरीब हैं जो कुदरत की गलती से ठाकुर,वामन या कोई और सवर्ण घर पैदा हो गये हैं । फिर केवल पिछड़ा,दलित और अल्पसंख्यक राग ही क्यों छेड़ा जा रहा है ? इनकी अभिव्यक्ति की बात ही जुदा क्यों उठाई जा रही है ? और यदि उनकी बात पृथक से की जा रही है , तो गरीब बेरोजगार ,दमित ,वंचित सवर्ण सर्वहारा की बात कौन उठाएगा ? कहीं गरीब -वेरोजगार और असहाय सवर्णों के लिए उनकी तथाकथित 'ऊंची जात' ही अभिशाप तो नहीं बन गयी है? जिन गरीब छात्रों ने सवर्ण होने के अभिशाप वश जेएनयू का ,हैदराबाद विश्विद्यालय का या पूना फिल्म इंस्टीटूट का नाम भी नहीं सुना हो ,अपनी फटेहाल माली हालत के चलते प्रायमरी,मिडिल और मेट्रिक तक भी न पढ़ सकें हों , यदि उन्हें आरक्षण की बागड़ ने खेत में ही घुसने न दिया हो और हर तरफ कुत्ते की तरह दुत्कार कर भगा दिया गया हो ,उनकी लड़ाई कौन लड़ेगा ? क्या जेएनयू के सभी छात्र बाकई सर्वहारा हैं ? क्या हैदराबाद विश्वविद्यालय का शोध छात्र रोहित बेमुला बाकई यतीम था ? क्या लम्बे -लम्बे बालों वाले और फ़ेसनेबुल दाढ़ी वाले फिल्म इंस्टीटूट के आंदोलनकारी छात्र बाकई सर्वहारा हैं?
इन दिनों मीडिया ,राजनीती और बौद्धिक विमर्श के केंद्र में केवल निम्न वर्ग की जातीयता और साम्प्रदायिक विमर्श की ही गूँज है। पूरी कौम ,पूरा सर्वहारा पूरा देश और पूरा का पूरा भारतीय समाज हासिये पर धकेल दिया गया है। 'वर्ग संघर्ष' की बात कोई नहीं करना चाहता। भारत का अर्धसामन्ती और अर्धपूँजीवादी शासकवर्ग यही तो चाहता है। किसे नहीं मालूम आरक्षण का लाभ केवल कुछ मुठ्ठी भर दलित-पिछड़े और मौकापरस्त ही उठाये जा रहे हैं ?जबकि भारत की ९०% दलित-पिछड़ा -अति पिछड़ा आबादी अभी भी या तो निर्धन सर्वहारा वर्ग में शामिल है या निरक्षर है। सवर्ण तो दूर की बात ये वंचित दीन -हीन दलित भी नहीं जानते कि उनके आरक्षण का हक कौन लोग मार रहे हैं। उन्हें लगातार भरमाया जाता रहा है कि उनके दुखों-कष्टों और अभावों के लिए सवर्ण लोग जिम्मेदार हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि इस अपराध के लिए सवर्ण जन नहीं बल्कि वह कुटिल शासक वर्ग जिम्मेदार है जिसमें कि अर्धसामन्ती,अर्धपूँजीवादी और आरक्षणवादी नेता शामिल हैं। भारत की दुर्दशा के लिए अर्धसामन्ती-अर्धपूँजीवादी और आरक्षणधारी वर्ग जिम्मेदार है ।यह नापाक गठजोड़ ही भारत में वर्ग संघर्ष को पनपने नहीं दे रहा है। भारतीय दक्षिणपंथ को यही माहोल मुफीद है।
सुखद सम्भावनाओं के द्वार इस पूँजीवादी मशक्कत से तो शायद ही खुल सकें। हो सकता है कि वर्तमान मोदी सरकार को भी विगत मनमोहनसिंह सरकार की अबूझ अनगढ़ आर्थिक नीतियों में भारत का समग्र विकास या भारतीय समाज का उज्ज्वल भविष्य परिलक्षित हो रहा हो ! इंदिरा युग की कुछ आंशिक सफलताओं के अलावा अभी तक इस देश के पास कुछ भी गर्वोक्ति के लायक नहीं है। वेशक भारत की युवा पीढ़ी में अकूत सम्भावना मौजूद है। हो सकता है कि उदंड आवारा पूँजी और उदारवादी विकास के पैटर्न को वैश्विक परिदृश्य पर भारत की जलवायु और युवा श्रम शक्ति पसंद हो । लेकिन इसके लिए भी उसे सुशासन और शांति की बेहद आवश्यकता है। सुशासन और शांति तभी संभव है जब भारत में लोकतंत्र बना रहे । सहिष्णुता बनी रहे । भृष्टाचार ,महँगाई और आतंकवाद पर सरकार का कुछ नियंत्रण हो। यदि मोदी जी चाहते हैं कि उनके 'मन की बात' को अमली जामा हर हाल में पहनाया जाए तो उन्हें कम से कम अपने संगी साथियों को तो अवश्य नियंत्रित करना चाहिये। जो करते धरते तो कुछ खास नहीं किन्तु उनके फ़ूहड़ बोल-बचन और विषयांतर से देश में अराजकता ,असहिष्णुता और असामाजिकता का वातावरण अवश्य बना रहता हैं। जन सरोकारों के विषय गर्त में धकेल दिए जाते हैं।
चाहे आधुनिकतम तकनीकी इंफ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट हो ,चाहे मानव संसाधन और स्किल डेवलपमेंट की बात हो ,चाहे सुशासन और विकास की आम जरूरत हो ,सभी मामलों में भारत अभी 'ग्रोथ क्राईसस' से गुजर रहा है। जिस तरह कोई सद्द प्रसूता स्त्री ततकाल अपने घर का चौका -चूल्हा नहीं संभाल सकती। यदि घर में उसी समय चोर -डाकु घुस आएं ,तो मुकाबला भी नहीं कर सकती। इन हालात में उस प्रसव वेदना से पीड़ित महिला से घर के विकास या तरक्की की उम्मीद करना और भी नादानी होगी। ठीक यही स्थिति जातीय और मजहब पर आधारित लोकतंत्र वाले साठोत्तरी भारत की भी है। फिलहाल भारत अर्ध पूँजीवादी और अर्ध सामंती ग्रोथ क्राइसस से गुजर रहा है। एक सद्द प्रसूता स्त्री की तरह भारत को भी चौतरफा संकट से जूझना पड़ रहा है। देश में व्याप्त भृष्टचार पर किसी का कोई अंकुश नहीं। विदेशों में जमा काले धन का अता -पता नहीं। बहुध्रुवीय ,बहुजातीय ,बहुधर्मीय ,लोकतांत्रिक भारत में राजनीति के नाम पर संसद में अनुशासन का घोर अभाव है।
कुछ जातिवादी लोगों को सिर्फ अपने आरक्षण और अपने हकों की ही चिंता है। जातिगत ताकत के बल पर सत्ता हथियाने की चिंता है। इसी तरह कुछ खास मजहब के अराष्ट्रवादियों को केवल अपने 'विशेषाधिकर की चिंता है। उन्हें देश पर हो रहे आतंकी हमले दिखाई नहीं देते। उन्हें बाहरी दुश्मनों द्वारा भारत पर हो रहे हर तरह के आर्थिक हमले दिखाई नहीं देते। उन्हें पाकिस्तान प्रेषित नकली करेंसी और ड्रग माफिया की काली करतूत दिखाई नहीं देती। देश में हो रहीं रोज-रोज दर्जनों अकाल मौतें उन्हें दिखाई नहीं दे रहीं हैं । रोज सैकड़ों लोग रोड एक्सीडेंट से मर रहे हैं. कुछ भूंख से मर रहे हैं लेकिन इन के लिए वे आह तक नहीं भरते। वोट की राजनीति का दस्तूर चल पड़ा है कि भारत में यदि कोई नकली सर्टिफिकेट बनवाकर दलित हो जाए और पोल खुलने के डर से वो आत्म हत्या कर ले तो उसे शहीदों की मानिंद पेश किया जाता है। दलित शोषण का पाखंडी ढपोरशंख बजाया जाता है। सारे संसार में भारतीय समाज व्यवस्था की जमकर खिल्ली उड़ाई जाती है। वोट के आकांक्षी नेता भी मीडिया के सामने ,कैमरे के सामने ,मगरमच्छ के आंसू बहाने लगते हैं। छिः ! धिक्कार है !
इसी तरह यदि कोई लुच्चा-लफंगा अपना खुद का धर्म -मजहब छिपाकर किसी दूसरे धर्म-मजहब की लड़की को बहला फुसलाकर भगा ले जाए तो कुछ धर्मनिरपेक्ष लोगों को उसमें असहिष्णुता नजर आने लगेगी और कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोगों को उसमें लव जेहाद दिखाई दने लगता है। जबकि यह विशुद्ध कानून और व्यवस्था का मामला है। फ्राड और लुच्चे-लफंगे लोग 'लव जेहाद' कर ही नहीं सकते। ये तो वे दलाल और बदमास हैं जो मजहब के नाम पर कलंक है। दुबई या अरब के ऐयास शेखों के सामने भारत की हजारों मासूम बच्चियों को परोसने वाले गुनहगारहैं। ये ही अपने आकाओं को डॉन कहते हैं। जब कोई देशी दलाल कानून के चंगुल में फंस जाता है तो उसके पक्ष में ममता बेनर्जी ,केजरीवाल और जनाब ओबेसी खड़े हो जाते हैं।
सारी दुनिया में भारत की थू-थू होने लगती है की कितना असहिष्णु राष्ट्र है ? का धर्म-मजहब छुइ-मुई तो किसी की जात छुइ-मुई। मजहबी - धार्मिक जातीयतावादी पाखंडियों को अपने-अपने ठियों याने पाखंड के ठिकानों की चिंता है। भारत का यह नव सुविधा भोगी वर्ग केवल संवैधानिक अधिकार की बात करता है। वोट की राजनीति में खुल्लेआम ब्लेकमेलिंग हो तो काहे का लोकतंत्र और काहे का सुशासन ? अपने हिस्से की क़ुरबानी का बक्त जब आता है तो यह वर्ग उम्मीद करता है कि देश में भगतसिंग तो पैदा हो ,किन्तु उसके घर में नहीं ,बल्कि पड़ोसी के यहाँ पैदा हो। वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत को अंतराष्टीय बाजारवादियों ने पहले ही किनारे कर रखा है। डॉलर की ताकत के सामने रुपया वर्षों से ओंधे मुँह पड़ा है। आयात -निर्यात का असंतुलन बर्दास्त से बाहर है। पाकिस्तान -चीन और इस्लामिक आतंक ने भारत को चारों ओर से घेर रखा है। इन हालात में यह देश 'स्मार्ट इण्डिया' कितना बन पायेगा ? यदि कुछ बन भी गया तो उसका लाभ दमित-शोषित वंचित वर्ग को भी मिलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। इस परिदृश्य को इस दौर के साहित्यकार ,कलाकर और बुद्धिजीवी केवल असहिष्णुता या 'संघ परिवार' की आलोचना में ही देख आरहे हैं। जबकि इस्लामिक आतंकवाद को ये धर्मनिरपेक्ष-जनवादी संगठन बहुत हल्के से ले रहे हैं । यह निराशजनक है। सम्मान वापसी के खेल से भारत में इस्लामिक आतंकवाद के हमलों में तेजी आई है।
सीरिया हो या ईराक हो ,सूडान हो या सऊदी अरब हो ,अल्जीरिया हो या अफगानिस्तान हो , भारत हो या पाकिस्तान हो, पठानकोट हो या पेशावर हो ,काबुल हो या कश्मीर हो 'वे 'हर जगह बिना राग -द्वेष - भय या पक्षपात के ,पूरे सम्यक भाव से खून की होली खेल रहे हैं। उनकी बंदूकों से निकली हर गोली पर ,उनके द्वारा किये गए हर किस्म के कत्लेआम पर उन्हें नाज है। उस पर तुर्रा ये कि यह कुकृत्य करते हुए वे नारा लगाते हैं 'अल्लाह इज़ ग्रेट '! इसमें क्या शक है ? यह तो सभी जानते और मानते हैं कि बाकई ''अल्लाह इज ग्रेट'' !लेकिन उस परवरदिगार की महानता क्या मानवमात्र के रक्तपात में निहित है ?
भारत के प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोग [मैं खुद भी] हमेशा यह मानते आये हैं कि भारत में साम्प्रदायिकता , फैलाने ,अलगाववाद रोपने और देश के बटवारे के लिए अंग्रेजों की 'फुट डालो-राज करो ''की नीति जिम्मेदार है। आजादी के बाद से हम सब यही मानते आ रहे हैं कि भारत में साम्प्रदायिक उन्माद के लिए हिन्दू -मुस्लिम कटटरपंथी दोनों ओर के कटटरपंथी जिम्मेदार हैं। हो सकता है कि स्वाधीनता संग्राम को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने भारत में बाकई अलगाव का बीज वपन किया हो ! हो सकता है मुस्लिम लीग ,हिन्दू महा सभा और आरएसएस वाले भी समान रूप से मजहबी झगड़ों के लिए कुछ हद तक कसूरवार हों ! किन्तु यदि सऊदी अरब और ईरान में कूटनीतिक जंग छिड़ी है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? यदि आईएसआईएस वाले सीरिया ,इराक ,फ़्रांस ,अमेरिका और सारी दुनिया में आग मूत रहे हैं ,रूस का विमान ध्वस् कर रहे हैं ,तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? इक्कीसवीं सदी का सोलहवाँ साल और मेरा भारत महान
प्रगतिशील और वैज्ञानिक नजरिया झूँठ पर आधारित नहीं हो सकता। तलवार और सुई को बराबर मानना या हाइड्रोजन बम और दीवाली के पटाखे की तुलना करके बराबर दिखाना ही प्रगतिशीलता या वामपंथी दृष्टिकोण है तो ऐंसा दम्भी प्रगतिशील -क्रांतिकारी कहलाना मुझे मंजूर नहीं। जिस नजरिये में खूँखार -आदमखोर बहसी इस्लामिक आतंकियों के सापेक्ष केवल मुँह चलाने वाले ,गाल बजाने वाले ,पतली दाल और धनिया पुदीना खाने वाले हिन्दुत्ववादियों को यदि ज्यादा खतरनाक माना जाए,तो इस असत्याचरण को देश की जनता क्यों पसंद करेगी ? इस इक्कीसवीं सदी के सोलहवें साल की शुरुआत में पाकिस्तान के आतंकी शिविरों मे प्रशिक्षित और पाकिस्तान के फौजी जनरलों के पालतू कुत्तों ने भारत के पठानकोट एयरबेस पर ही आक्रमण कर दिया। यही नहीं उसके तुरंत बाद उस आतंकी नरक के दूसरे कीड़ों ने चारसद्दा स्थित बाचा यूनिवर्सिटी पर भी हमला कर दिया। दरसल दक्षेस में पाकिस्तान के आतंकियों और उसके फौजी जनरलों के अलावा कोई सुरक्षित नहीं है। इसके वावजूद वहाँ किसी साहित्यकार,बुद्धिजीवी ,लेखक और फिल्मे हीरो को असहिष्णुता की शिकायत नहीं। अफगानिस्तान ,सीरिया और इराक की धरती मानव लहू से लाला हो रही है ,लेकिन वहाँ के लोगों को किसी तरह की कोई शिकायत नहीं है। यदि है भी तो वे सम्मानपदक नहीं लौटा रहे है ।
वेशक जो बाहरी ताकतें भारत में कोहराम मचा रहीं हैं ,देश को बर्बाद करने के मंसूबे बाँध रहीं हैं वे ही देश के और असहिष्णुता के बीच द्वन्द के लिए जिम्मेदार हैं। कुछ लोग यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि हिन्दुत्ववादियों की ताकत बढ़ने से उन्हें राज्य सत्ता मिलने से यह झगड़ा पैदा हुआ है। क्या बाकई भारत के धनिया-पालक खाने वाले फलाहारी हिन्दूओं से या चना-चबेना -सत्तू -खाने वाले संघियों से किसी प्रकार की हिंसक और तामसिक असहिष्णुता का अंदेशा है ? कथा बाचक,भजन गायक और योग सिखाने वाले साधुओं या उनके आश्रित लफंगों को इस बहाने अपने व्यापारिक साम्राज्य विस्तार का भरपूर अवसर प्राप्त है। इन बाबाओं की राजनैतिक समझ ही कितनी भौंथरी है कि वे पाकिस्तान को और आतंकवादियों को अपनी मन्त्र शक्ति से भस्म करने के बजाय अपनी गर्दभ बाणी से उकसाने पर तुले हैं। क्या इन अनंग -धडंग निहत्ते बाबाओं की उन आतंकियों से कोई बराबरी की जा सकती है , जो हाइड्रोजन बम की ताकत से लेस हैं ? जो अमेरिका की वर्ल्ड ट्रेड बिल्डिंग गिरा सकते हैं। जो पेंटागन पर हमला कर सकते हैं। और जो व्हाईट हाउस या शार्ली एब्दो पर भी हमला कर सकते हैं।
भारत में अलगाव और आंतरिक विग्रह की इस नियति के लिए केवल बाहरी ताकतें ही जिम्मेदार नहीं हैं . बल्कि खुद यहाँ के सत्तारूढ़ कटटरपंथी हिन्दुत्ववादी भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। चूँकि पूंजीवाद की पतनशील अधोगामी व्यवस्था के संदर्भ में उनकी कोई रणनीति या सोच ही नहीं है, अतएव वे वोट तो हिंदुत्व के नाम पर खूब बटोर लेते हैं ,किन्तु हिंदुत्व के नाम पर राज नहीं कर पा रहे हैं। उनकी यह कमजोरी किसी से छिपी नहीं है। उनसे न तो गंगा स्वच्छ हो पा रही है और न राम लला मंदिर बन पा रहा है। एक देश भर एक कानून तो दूर की बात केंद्र में सत्तारूढ़ होते हुए भी कश्मीर में स्थिर सरकार नहीं बना पाये हैं। एक आचार संहिता ,एक सोच तथा एक आदर्श के फासीवादी सिद्धांत को कार्यान्वित कर पाने में वे पूरी तरह असमर्थ हैं। चूँकि वे देश का संविधान बदल सकने में सक्षम नहीं हैं ,इसलिए हर मोर्चे पर असफल होना उनकी नियति है। वे केवल विपक्ष पर झूँठे आरोप लगा सकते हैं। वे केवल राष्ट्रवाद का आभासी ढपोरशंख बजा सकते हैं । लेकिन वे न तो देश का विकास कर सकते हैं और न ही अपनी कोई विश्वश्नीयता स्थापित कर सकते हैं ! दूसरी ओर भारत में सर्वहारा क्रांति के मार्ग में जातीवादी और साम्प्रदायिक समाज चीन की दीवार बनकर खड़ा है। इसलिए वामपंथ को आर्थिक,सामाजिक या व्यवस्था गत बदलाव के लिए अभी और इन्तजार करना होगा !
श्रीराम तिवारी !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें