शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

मुफ़्ती और भाजपा की दोस्ती ने कश्मीर के पंडितों को और पूरे भारत को रुसवा किया है !


                               वेशक  डॉ मनमोहन सिंह  के राज में  भारत की अर्थव्यवस्था चौपट हो रही थी , अंदरुनी हालत  भी ठीक नहीं थे।  भृष्टाचार चरम पर था। किन्तु  अंतर्राष्ट्रीय जगत में भारत की धर्मनिरपेक्ष  छवि पर तब भी किसी ने अंगुली नहीं उठाई। भारत  की धर्मनिरपेक्षता और लोकशाही पर प्रश्न चिन्ह  लगने  की नौबत कभी नहीं आयी । विगत यूपीए सरकार की गठबंधनात्मक कमजोरियों ,प्रशासनिक नाकामियों, व्यवस्थाजन्य   भृष्टाचार  , महँगाई  और उसके खिलाफ उतपन्न  जनाक्रोश को भाजपाई  बड़बोले नेता अपनी सत्ताप्राप्ति  का साधन बनाने मेंविभिन्न कारणों से  सफल रहे।  किन्तु  सत्ता का   प्रचंड बहुमत मिलने सेएक ओर उन्हें  अहंकार हो चला  है, तो दूसरी ओर हर मोर्चे पर असफलता के कारण उनके  हाथों से  तोते उड़ने लगे हैं।

                जब भूमिअधिग्रहण कानून में  कार्पोरेट की चाकरी में व्यस्त हों  ,जब कालेधन की वापिसी में असफल रहे हों ,जब कश्मीर में मुफ्ती जैसे दोगले  और ग़ैरजिम्मेदार  साम्प्रदायिक नेता को मुख्यमंत्री बनाकर उलझ गए हों  , जब मुसरत के पथ्थरबाजों को बिरयानी खिलाई जा रही हो  ,जब संयुक्त विपक्ष ने राज्य सभा में 'लौह  नेतत्व' को बार-बार  पटकनी दी हो ,जब  इनकी नादानी  के कारण देश   आर्थिक,सामाजिक ,वैदेशिक  नीति में   चौतरफा विफल हो रहा हो ,जब राष्ट्र चौतरफा  संकट से घिर  चुका हो , तब न केवल  सत्तारूढ़ पार्टी में , न केवल  देश  के आमजन में , न केवल भारतीय  वुद्धिजीवी  वर्ग में   ,न  केवल कांग्रेस या  सम्पूर्ण गैर भाजपाई- विपक्ष   के मन में बल्कि  भारत के  प्रगतिशील तबकों  में  भी बैचेनी स्वाभाविक है।  बहरहाल तमाम सुधीजनों को   'मोदी मान मर्दन' की चिंता  छोड़कर  अपने वतन की चिंता करनी चाहिए ।
                                                   मौजूदा दौर में कश्मीर  सहित देश की सीमाओं पर राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र और उसके बरक्स बदतरीन   हालात पर सियासत मौजू नहीं है।  महाप्रलयकारी  वैश्विक आतंकवाद की  स्याह काली परछाई  की  झलक स्पष्ट परिलक्षित हो रही है। जब  अमेरिका  ,यूरोप  ,इजरायल  ,इंग्लैंड  ,फ़्रांस ,चीन ,रूस सऊदी अरब ,यमन और ईरान  जैसे  देश भी आईएस का कुछ नहीं उखाड़ पा रहे हैं। तो अफगानिस्तान  ,भारत  या पाकिस्तान के अमनपसंद लोग  इस चुनौती से निपटने में कितना  कुछ प्रतिरोध कर पाएंग
                                       हालाँकि  दूनिया के इस खतरनाक  खूनी  मंजर  की तुलना में भारतीय समाज का सामाजिक  - साम्प्रदायिक   सौहाद्र कहीं ज्यादा काबिले तारीफ़ है। भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को  बनाने में किसी  ओबामा का या ओसामा का कोई रोल नहीं। वर्तमान  सत्तारूढ़ नेतत्व  का भीइसमें  कोई रोल नहीं है ।   भारत की गंगा जमुनी तहजीब के परिष्करण में  उन ताकतों का  भी कोई हाथ नहीं जो दुनिया में अपने पेशाब से चिराग जलाने की असफल  कोशिश कर  रहे हैं।  आज  भारत को  न केवल  अमेरिका नसीहत दे रहा है , न केवल मुफ्ती  और मुसर्रत आलम  भारत को धोखा दे रहे हैं ,बल्कि अब तो  श्रीलंका का  नवनिर्वाचित राष्ट्रपति विक्रमसिंघे  भी तमिल अस्मिता को दवाने के नाम पर भारत को आँखें दिखा रहा है। नेपाल में लगातार भारत के खिलाफ  विष वेलि  बोई जा रही है। भारत की धर्मनिरपेक्षता , भारत का लोकतंत्र और भारत की उत्कृष्ट सांस्कृतिक  सभ्यता का निर्माण- साम्राज्य्वादी श्वेत प्रभुओं के द्वारा नहीं  हुआ है। कश्मीर के पथ्थरबाज युवा  शायद नहीं जानते कि भारतीय लोकतंत्र और पाकिस्तानी 'रोगतंत्र' में क्या फर्क है ? उन्हें तो  स्वाधीनता संग्राम के महान अमर शहीदों के बलिदानों  की भी कोई जानकारी नहीं है। यदि वे शहीद भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के विचारों को जा पाते तो  वे भारत विरोधी नारे नहीं लगाते। यदि किसी को संघ परिवार या भाजपा की नीतियों से परहेज है तो  वेशक वो उनके खिलाफ नारे  लगाए। लेकिन यह कदापि असहनीय है कि मोदी सरकार या मुफ्ती सरकार की असफलताओं का ठीकरा 'भारत राष्ट्र' के सर पर फोडा जाए !यह कतई  बर्दास्त नहीं किया जा सकता कि  भारत की सरजमीं पर पाकिस्तान का झंडा लहराए जाए ।  यह सौ फीसदी   सच है कि  भारत में  हिन्दुओं,मुसलमानों या किसी भी  अन्य धर्म -मजहब के लिए कोई खतरा नहीं है।यहाँ  दरसल किसी भी दर्शन या विचार को कहीं कोई खतरा नहीं है ।
                                    आम धारणा है कि  इस दौर में  वे ही ज्यादा  असुरक्षित है जो किसी धर्म मजहब  केगृह-उपग्रह हैं। इसीलिये वे कुछ साम्प्रदायिक किस्म के  नेताओं की वोट कबाडु  घटिया राजनीति  का चारा बनने को तैयार हो जाते हैं। कोई जातिवाद के कारण ,कोई  मजहब के कारण ,कोई  राजनीति   में धर्म को घुसेड़ने के कारण तो  कोई  अपनी  भाषाई -क्षेत्रीय अहमन्यता के कारण  अपने ही  देश को तोड़ने पर आमादा है।  कोई घोर पूँजीवादी  आर्थिक नीतियों के कारण  उपेक्षित  है। वर्तमान  आर्थिक नीतियों की कुदृष्टि से सर्वहारा वर्ग तो मरने की कगार पर है ही, किन्तु  भारत का मध्यम वर्ग भी अब   खतरे  की जद में  ही आ  चुका  है।  इस तरह देखा  जाए तो  मोदी राज में केवल कश्मीर ही नहीं बल्कि  पूरा देश ही असुरक्षित है।
                   यह जग  जाहिर है कि   'मोदी सरकार'  को केवल कार्पोरेट जगत की  ही चिंता  है ? उन्हें अब मंदिर की  चिंता नहीं , हिंदुत्व की चिंता नहीं  , धारा -३७० की चिंता नहीं ।   फिर कश्मीरी पथ्थरवाजों की समस्या क्या है ?एक  समान  कानून की भी अब कोई बात नहीं करता। खुद मंदिर वाले और कमंडल वाले ही अब  सब कुछ भूलकर  'हर-हर मोदी' 'के नमोगान' में निरंतर लीन  रहता है। फिर आईएस और इस्लामिक कटट्रपंथ की प्राब्लम क्या है ? जब भारत के अधिकांस हिन्दू और मुसलमान आपस में एकजुट हैं तो बेगानी शादी में अलकयदा  वालों को रूचि क्यों है ?
                      वैसे भी भारत की केवल वामपंथी पार्टियाँ  ही नहीं बल्कि भाजपा और कांग्रेस समेत तमाम  अर्धसामंती ,अर्धपूँजीवादी  और क्षेत्रीय  राजनैतिक पार्टियाँ भी धर्मनिरपेक्षता , लोकतंत्र , समाजवाद का गुणगान सनातन से करती आ रही हैं।  फिर इसमें पाकिस्तानी  फौज और उसकी नाजायज ओलाद हाफिज सईद  के  कश्मीरी पिठ्ठुओं की समस्या क्या है ? वे क्यों भारत विरोधी  नारे लगा रहे  हैं। क्या 'वैश्विक खूखार आतंक' और भारत विरोधी ताकतों का सही आकलन करने की फुर्सत  वर्तमान  भारतीय नेतत्व को है ? इस  देश की जनता को  महँगाई  ने मारा।  भृष्टाचार ने मारा।  'मंदिर-मस्जिद' विवाद ने मारा । गठबंधन धर्म ने मारा। झंडे -झाड़ू ने  मारा।   कभी कही  ' शायनिंग  इण्डिया'  ने मारा ।  किन्तु ऐंसा किसी  ने  कभी नहीं मारा जैसा अब मुफ़्ती और भाजपा की दोस्ती ने  कश्मीर के पंडितों को और पूरे भारत को रुसवा किया  है !
                       हमारे कुछ प्रगतिशील मित्र भी सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए दुबले हुए जा रहे हैं। इन सूमड़ों को याद रखना चाहिए कि   जब अधिकांस भारतीय असुरक्षित हैं , जब अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं ,जब  देश का मजदूर  और किसान असुरक्षित है  तो हिन्दू कैसे सुरक्षित रह सकते हैं ? जब दुनिया भर में ईसाई ,मुस्लिम मारे जा रहे हैं तो भारत के  अधिसंख्य हिन्दू नागरिक सुरक्षित कैसे हो सकते हैं  ? ऊपर  से तुर्रा ये कि  जो लोग हिंदुत्व का वोट  बैंक बनाकर सत्ता का खजाना  खाली करने में जुटे हैं, वे हिन्दुओं के लिए  तो कुछ भी नहीं कर रहे हैं। उलटे शेखी बघारकर इस्लामिक आतंकवादियों को हिन्दुओं  के खिलाफ आक्रामक बना रहे हैं। वे हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर ,बाबाओं की यौन लिप्सा पर या मंदिरों में एकत्रित अपार धन राशि के उचित  एवं  युक्तियुक्तकरण  पर  मौन हैं। वे केवल सत्ता सुख लूट रहे हैं।  वे  'मुफ्तियों' के आगे  शरणम गच्छामि हो रहे हैं। वे उस  मुसर्रत आलम से गलबहिंयां  डाल रहे हैं। जो नामी पथ्थरबाज था है और रहेगा। वो हाफिज सईद को सलाम करता है।  वो दाऊद के साथ डिनर करेंगा ।  हमारे नेता उचित कार्यवाही के वयानों में व्यस्त हैं।
                         बड़े  दुःख की बात ये हैं कि  संसदीय राजनीति  की इस दुरवस्था को देश की जनता अभी भी समझ नहीं पायी है !संतोष की बात है कि  -समझदार सचेतन  वामपंथी बुद्धिजीवी -प्रगतिशील तबकों  द्वारा अल्पसंख्यक वर्ग के हितों की पूरी-पूरी वकालत मौजूद है।  किन्तु उनके द्वारा  भी  जाने-अनजाने अधिकांशतः     हिन्दुओं को ही टारगेट किया जा रह है। इससे अल्पसंख्यक वर्ग में एक काल्पनिक असुरक्षा का  भाव  पैदा हो रहा है।   शायद   भी - नाहक ही  आक्रामक और उग्र हो उठते हैं। देश  में वाम पंथ की हिन्दू विरोधी छवि बन चुकी  है। अल्पसंख्यक वर्ग भी टैक्टिकल वोटिंग के कारण एकमुश्त उसे वोट करने लगा है जो भाजपा को हरा सके।  संसदीय लोकतंत्र में वाम की ताकत का कम होना  भी देश के लिए अशुभ  है। टैक्टिकल वोटिंग के कारण  आमतौर पर  देश में और खास तौर  से  बंगाल  के अल्पसंख्यक ममता के साथ हो लिए हैं ।
 हिन्दू   मतदाताओं ने  भी बंगाल में ममता और  लेफ्ट से  ऊपर  भाजपा को  तरजीह देना शुरू आकर दिया  है  ! यह कटु सत्य है कि इसीलिये भारत में लेफ्ट की राजनीति अब केवल 'संघर्ष' तक ही सिमिटती  जा रही  है।
                              कोई 'आरएसएस ' का विरोध करे  ,  मोहन भागवत का विरोध करे ,मोदी जी का तर्कसंगत विरोध करे तो यह उसका अधिकार ही नहीं बल्कि कर्तव्य भी है । मैं भी संघ परिवार का धुर विरोधी हूँ।  किन्तु जब कोई 'मुफ्ती'  आतंकियों  का कृपापात्र हो जाए या कोई ओबामा  जैसा बड़ा नेता सम्पूर्ण हिन्दू  मानस को ही  धर्मनिरपेक्षता की नसीहत दे तो  हमें अपनी सोच को अपडेट करना पडेगा।  हम केवल मोहन भागवत  जी  या मोदी जी या हिन्दू नेताओं   के उग्र वयानों  के निषेध तक ही सीमित क्यों रहें ?  हम  भगोड़े  दाऊद के बारे में ,हाफिज सईद के बारे में ,अफजल गुरु के बारे में या अब्दुलगनी लोन के बारे में चुप क्यों रहें ?वेशक हर धर्म-मजहब का  कोई भी  पढ़ा -लिखा  वेरोजगार  युवा भले ही भूँखों मर रहा हो, किन्तु   अब  वह  'गरीब' 'सर्वहारा'  कहलाना पसंद नहीं करता।  वह ज़िंदा रहने के लिए किसी भी नैतिक  -अनैतिक  'साधन' को अपना सकता है।  उसे किसी धर्म-मजहब के उसूलों की  या  सर्वहारा क्रांति की कोई दरकार नहीं ! दरसल भारत को खतरा  इसी अधकचरी  मानसिकता  से है। यह वही युवा  वर्ग है जो भटका हुआ है।  यह वर्ग  कभी  भारत के सुरक्षा बालों पर पत्थर फ़ेंकत है। कभी लव-जेहाद का नाटक  करता है।  कभी साम्प्रदायिकता की 'हुड़दंगलीला' में शामिल हो जाया करता है।  इस दौर में  कुछ मुठ्ठी भर युवा ही वैज्ञानिक,धर्मनिरपेक्ष  और क्रांतिकारी सोच की समझ  रखते हैं। बाकी अधिकांस तो मजहबी नेताओं द्वारा ऊगले जा रहे लावे में जलने-मरने को फुदकते रहते हैं। कुछ   आधुनिक  मध्यम  वर्गीय उच्च शिक्षित युवा  भी  कार्पोरेट जगत की असुरक्षित  चाकरी के निमित्त ,  कोल्हू के बैल की मानिंद जीने के लिए अभिशप्त हैं। वे नहीं जानते कि  'आजादी' किस चिड़िया का नाम है ?
        जिनसे अमेरिका को खतरा है ,जिनसे पाकिस्तान को खतरा है ,जिनसे शार्ली  एब्दो   को खतरा है। जिनसे सारी  सभ्य दुनिया को खतरा है।  उन्ही से भारत को भी खतरा है। किन्तु बड़ी विचित्र और मानसिक दुरवस्था है कि दवे कुचले  उन निर्धन  भारतीयों को ही दोनों ओर  के कटट्रपंथ की ओर से  टारगेट किया जा रहा है जो  दुंर्भाग्य से ' हिन्दू ' कहलाते हैं ,जिन्हे अतीत में भी सैकड़ों सालों से  चुन-चुन कर  मारा  जाता रहा है । दरसल हिन्दू  निर्धन युवक  आज भी दुनिया में हासिये पर ही है।  उसके लिए कहने को आरएसएस है।उनके वोट बटोरने को  भाजपा है।  धर्म रक्षा के लिए वीएचपी है।  जय-जयकार के लिए अटल-आडवाणी और मोदी हैं। किन्तु इन वेरोजगार या  अपढ़ हिन्दू युवाओं  के लिए ,हिन्दू मजदूरों के लिए ,गरीब हिन्दू किसानों  के लिए  रोटी-कपड़ा -मकान जुगाड़ने के लिए मुस्लमान युवाओं की ही तरह खुद ही संघर्ष करना होगा।
                       वर्तमान  सरकार की हैसियत तो  एक मामूली 'मुफ्ती' के सामने  अब भटे  के  बराबर भी नहीं रही ।  भाजपा विधायकों के समर्थन से मुख्य मंत्री बना व्यक्ति देश विरोधी कामों में   जुट गया और ये सिर्फ संसद में स्यापा कर रहे हैं। क्या इनके भरोसे हिंदुत्व की रक्षा  सम्भव है ?इससे बेहतर तो  'बाप-बेटे' की ही सरकार थी।  वो देश के ख़िलाफ़ तो  कभी नहीं गए।   मुफ्ती साहब  ने खूब  सबक सिखाया  दिया है कि  धारा  ३७०  हटाने की बात तो भूल ही जाओ। एक झंडा ,एक संविधान और एक क़ानून तो छोड़िये  'मुफ्तीजी' को तो कश्मीर के चुनाव में पाकिस्तान की 'कृपा ' ही सर्वत्र नजर आ रही है।  भारतीय फौजियों के सर काटने वाले आतंकी तो 'मुफ्ती' को क्रांतिकारी नजर आ रहे हैं।  इस अंधेरगर्दी के खिलाफ एक शब्द नहीं है मोहन भागवत जी के पास।  केवल मोदी जी की क्लाश लेने से 'देशभक्ति' पूरी नहीं हो जाती।  सत्ता की मिठास में  तो  पूरा 'संघ परिवार' शामिल  ,किन्तु जब 'मुफ़्ती' का कड़वा 'सच' सामने आया तो  अब 'अमित शाह और मोदीजी  पर  आँखें तरेर रहे हैं। इधर पूरा विपक्ष भी सरकार को सांस नहीं लेने दे रहा।   वेशक मोदीजी ही इन घटनाओं के लिए प्रारंभिक तौर  पर जिम्मेदार हैं। किन्तु कश्मीर में यदि भाजपा को बहुमत नहीं मिला  तो इसमें भी क्या मोदी जी की ही जिम्मेदारी   है ? यदि पीडीपी के साथ गठबंधन नहीं बनाते तो भी आरोप तो लग ही रहे थे कि  राष्ट्रपति शासन की जुगाड़ चल  रही है !अब  वक्त का तकाजा है कि पूरा देश मोदी को बाद में घेरे-कभी किसी चुनाव में।  अभी तो ततकाल  कश्मीर को बचाने की बात करे। पूरी संसद और पूरा देश एकजुट हो जाए तो न केवल गिलानी 'साहब'को ,न केवल मुसरत आलम को , न केवल यासीन मलिक को , न केवल उनके नापाक  पाकिस्तानी आकाओं को  बल्कि मुफ्ती साहब को  भी भारतीय लोकतंत्र के  जन-गण -मन का और भारतीय तिरंगे का सम्मान करना  सिखाया जा सकता है।


                          श्रीराम तिवारी

 

जेटली जी ने तो मनमोहन के हाथों बुनी गयी बजट की "ज्यों की त्यों धर दीनी चादरिया।



       स्वर्गीय बाल  ठाकरे  के निधन पर कुछ लोगों ने घोषणा की थी ,अब  शिव सेना का अंत  निकट है। कुछ का अनुमान था कि  सम्भवतः राज ठाकरे वाला धड़ा ही बचेगा और उद्धव वाला  धड़ा डूब जाएगा।  सभी अनुमान गलत साबित हुए हैं। राज  की  'मनसे' का अता-पता नहीं। जबकि  उद्धव -उनकी सेना  और 'सामना'पूरी सिंह गर्जना के साथ मौजूद है।  न केवल महाराष्ट्र में बल्कि  भारत की संसद में  ,न केवल  संसद में बल्कि कैविनेट मंत्रिमंडल में वह  मोदी जी की  ५६ इंच की छाती पर मूंग दल रही है।  तभी तो भारी  उद्द्योग मंत्री -अनंत गीते ने बड़ी बेबाकी से - अरुण जेटली के बजट को 'मध्यम  वर्ग विरोधी ' बताया है।  लोकतांत्रिक परम्परानुसार यह    सामूहिक  जिम्मेदारी के  बरक्स  गीते  ने जो बजट का विरोध किया वह संवैधानिक संकट  उतपन्न कर सकता है।  प्रधानमंत्री की यह  नैतिक जिम्मेदारी है कि  देश को और देश की संसद को संतुष्ट करें।   बहरहाल  गीते  के बोलबचन से सिद्ध होता है कि भारत के मध्यम वर्ग  को  इस बजट से ज्यादा खुश होने की जरुरत नहीं है।
                इस  बजट पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया   हास्यापद  है।  कहाँ हो डॉ मनमोहनसिंह ! आपको मेरा सुझाव है कि सिर्फ इतना ही कह   देते  कि  यह बजट बहुत अच्छा है। कोई नयी रेल नहीं ,कोई नयी पटरी नहीं ,कोई किराया नहीं बढ़ा।  याने सब कुछ यथावत ! याने आपका मनमोहनी बजट ही अभी एक साल तक जारी रहेगा  !अब कांग्रेस के लोग भलते  ही  रेल बजट की बखिया उघेड़ रहे हैं।  इससे तो  यही सिद्ध होता है कि  जो आपका यूपीए वाला बजट था वो ही घटिया था।  पहले  सुरेश  प्रभु  और अब अरुण जेटली के बजट ने भी चिदंबरम, और   डॉ मनमोहनसिंह  जी  आपको बहुत कुछ मौका दिया  है  ,किन्तु आपका मौन ही कांग्रेस  की दुर्गति का कारण है। आपसे बेहतर खिलाड़ी तो मोदी जी निकले कि पहले तो आपके मनरेगा की समाधि बना  डाली  फिर उसी का बजट बनाकर  ढोल भी पीट रहे हैं। आदरणीय मनमोहनसिंह जी   आपके बजट ने ही तो सबसे पहले   देश के मध्यम  वर्ग  को जुतियाया  था। अब जेटली जी ने तो मनमोहन के हाथों  बुनी  गयी  "ज्यों की त्यों धर   दीनी  चादरिया।इनकम टैक्स का स्लेब नहीं बढ़ा।  सर्विस टैक्स बढ़ा दिया।  सब्सिडी को मिनिमाइज किया और शान से कह  रहे हैं 'अच्छे दिन आने वाले हैं'।  डॉ मनमोहनसिंह की जगह कोई अदना सा नेता भी होता तो सारे देश में ढोल पीट-पीटकर बताता कि  ये तो मेरी ही नीतियों का विस्तार है।
                        मेरी  यूपीए सरकार  की नीतियों को और जयादा कार्पोरेट परस्त बनाकर जेटलीजी ने  देश की आम जनता के सामने परोसा है। इस  अर्थ नीति ने ही  जिस तरह कांग्रेस को  'अच्छे दिनों '  बहुत दूर कर दिया है। उसी तरह  यह  मनमोहनी बजट  इस मोदी सरकार  का भी  पीछा ही नहीं छोड़ने वाला ।  अभी तो किसी ठोस विकल्प के अभाव में   यही   लगता है कि  यह पूंजीवादी अर्थशाश्त्र   देश का  अभिशाप बन गया है।  दुःख इसी बात का है कि  जनता को बोतल बदलने में ही मजा आ रहा है जबकि शराब वही पुरानी है।

                             श्रीराम तिवारी 
 

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

अबकी बार भी भारत में वसंत छाया है। अच्छा बजट आया है !

  जब  विक्रम रुपी अरुण जेटली ने  पूर्व  के वित्त मंत्रियों की  तरह ही कार्पोरेट रुपी  वैताल के  बजट को अपने  काँधे पर टाँगकर  संसद रुपी 'अभ्यारण्य 'की ओर  कूच  किया तो कुछ भी नया या अनहोना नहीं  किया। वित्त मंत्री  ने अपनी एनडीए सरकार का  सालाना  बजट [पूँजीवादी वैताल]  पेश  किया  तो  ये बताने की जरुरत  नहीं कि सारे चैनलस पर  चक्खलस सुनाई  पड़ने लगी।  अर्थशाष्त्री -अर्थविशेषज्ञ  और  विश्लेषक  ही नहीं बल्कि  अखवार भी चीख  चीखकर बताने लगे  कि  बजट नामक 'प्रेत'  आखिर है क्या  चीज ?
                                    कुछ   पत्रकार और मीडिया वाले तो होली के ही मूड में ही  हंसी -मजाक पर उत्तर आये।   वे  राह चलते हर  उस -आम    परेशान आदमी  के मुँह  में माइक घुसेड़कर  सवाल करने लगे   कि " हाँ  जी  आप बताईये कि  बजट कैसा है "?  इससे पहले की उत्तर देने वाला कुछ  तैयार हो कि  चैनल वाली लड़की या लड़का   किसी और  चेहरे पर माइक को सटा  देता। जनता में भी कुछ पत्रकारों के भी बाप मिल ही  जाते हैं। वे मुस्कराकर बताते हैं कि  "नयी बोतल में पुरानी शराब है जी !" या  " बजट  तो उनका है जी जो बजट वाले हैं जी  " या  "बजट तो बहुत बड़ा है जी हम तो १०० रूपये की १० भिन्डी लाये हैं जी  " या   " अपन तो बहुत गरीब  हैं , प्रधानमंत्री जी ने  खाता  खोलने को कहा  था सो वो तो खुलवा लिया किन्तु  बैंक में पैसा अभी तक नहीं पहुंचा,अब देखते हैं जेटली जी कितने रूपये भिजवाते  हैं  ? " या  " सरकार  ने किसानों की उपजाऊ  जमीन किन्ही अडानी-अम्बानी को देने के लिए कोई 'पैकेज' दिया है जी ,हमें तो मुवावजा ही मिल जाए इसी में खैर है "या "समाज के हरामखोरों की बुरी नियत से  जिसकी जेब कट गयी हो,  जिसके बीबी बच्चे अस्पताल में इलाज के लिए इन्तजार कर रहे हों , जो अस्पताल में डॉ की फीस  के इंतजाम  लिए हलकान हो रहा हो ,   जो दरिद्रजन या निम्नमध्मयवर्गीय मरीज महँगी  दवाईंयों  और महँगे  इलाज  के लिए मारे-मारे फिर रहे  हों , जो छात्र फीस के लिए - किताबों के लिए या रोजगार के लिए  भटक रहे हों ,  जो किसान गाँव  में- खेत में अपनी   ओला -पाला से बची खुची फसल  ढोरों  से बचाने में जुटे हों!  उन  से  भी तो पूंछो कि  बजट कैसा है ?  बजट किसका है ?  अपने  लोक लुभावन  वादों में  यूपीए सरकार ने  दस साल तक जिस घटिया आर्थिक नीति से भारत की आवाम को   मूर्ख  बनाया ,उसी घटिया और लूटखोरों के पक्षधर बजट को यदि 'मोदी सरकार' के 'वजीरे खजाना '  भी देश के सामने  परोसें तो  अल्बर्ट  पिन्टो का  गुस्सा  होना  स्वाभाविक है !
                           शासक वर्ग की कतारों  में  तमाम लोग हैं कि  'मारते हैं और रोने भी नहीं  देते '!  खास  तौर  से निम्न मध्यमवर्गीय युवाओं को तो क्या  प्रांतीय बजट  क्या  राष्ट्रीय बजट  सब बराबर  हैं।  विगत दिनों  ग्वालियर में एक भर्ती के दौरान  ही बिना काम-धाम पाये ही कई युवा   आपस में लड़- भिड़  मरे । कुछ घायल भी हुए। इस व्यवस्था में केंद्र या राज्य के  किसी  भी तथाकथित आकर्षक  बजट से क्या यह सिलसिला  रुक सकता है ? नहीं ! सब जानते हैं कि  निर्धन -मजबूर -किसानों ,मजदूरों और वेरोजगार  युवाओं को  तो 'सदा दीवाली संत की  बारह  मॉस वसंत' ही है  !  किसी खास विचारधारा की समझ -बूझ  के अभाव  में वेचारे अपनी दुर्दशा पर  कोई सवाल करने या आंदोलित होने के बजाय किसी मंदिर में मत्था टेकने चले जायंगे। ज्यादा  मजबूरी हुई तो चोरी चकारी  की राह चल   देंगे। वे  रेल में हों , जेल मैं  हों ,या राजनीती के गंदे खेल में हों किन्तु   कटना  उन्ही  तरबूजों  को ही है।  इस  उत्तरआधुनिक युग में भी वे  लोक काल परिश्थितियों की बदौलत  किसी भी वैज्ञानिक चेतना से महरूम हैं।
                                                 
                         वे नहीं  जानते कि   मौजूदा वैश्विक परिदृश्य  किन  कारणों से  भयावह  है ? उन्हें नहीं मालूम  कि  मौजूदा दौर में दुनिया का साझा संकट  क्या है ?  केवल पुराने वित्त वर्ष के कागजी पुलन्दे को पुनर्संशोधित कर संसद  में पेश करने मात्र  से उनकी तकदीर कैसे बदलेगी वे यह भी नहीं समझ  पा हैं।  उन्हें देशज और  वैश्विक झंझावतों का अतंरसंबंध भी नहीं मालूम।  एक  तरफ आईएस ,अलकायदा  तालिवान  और  अन्य  खतरनाक  चरमपंथी साम्प्रदायिक   संगठनों द्वारा दुनिया भर में  निरंतर  निर्दोषों का रक्त बहाया जा  रहा है।  दूसरी ओर  वैश्विक बाजारीकरण ,निजीकरण ,कारपोरेटीकरण,पूँजी निवेश और कृषि भूमि के जबरिया  अधिग्रहण की अवैज्ञानिक सोच  के परिणामस्वरूप  अमीर और गरीब के बीच का फासला बढ़ता ही जा रहा  है। इन दोनों खतरनाक राक्षसों से मुकाबला करने के लिए क्रांतिकारी तत्वों की  वैश्विक  व्यापक  प्रतिरोध जरुरी है। न  भारतीय युवाओं को बल्कि अन्य अविकसित देशों के युवाओं को अपने भविष्य पर मंडराते इन खतरे के बादलों को देखने -समझने की क्षमता विकसित करनी ही होगी !  प्रायः देखा जा रहा है कि  सूचना -संचार संसाधनों से लेस  अधिकांस युवा वर्ग  को किसी 'बजट' या 'नीति  आयोग' से कोई लेना देना  ही नहीं होता।  उन्हें बजट में , अखवारों में ,साहित्यिक गोष्ठियों में ,साहित्यिक सम्मेलनों में कोई दिलचस्पी नहीं।  वे क्रिकेट पर भूंखे पेट घंटों  बहस कर सकते हैं।  वे फेसबुक ,ट्वीटर या वॉट्सऐप पर  ठिलवई कर सकते हैं। वे होली की हुड़दंग के  नंगे नाच पर ही खुश हैं। वे  व्यवस्था की प्रायोजित प्रहसन -अनुक्रमणिका में खोये हुए हैं। विश्व पूंजीवाद मानों   उनसे  कह  रहा हो - बेखबर युवाओं सुनों !  खुशियाँ मनाओ ! नाचो-गाओ  ! धूम मचाओ !   अबकी बार भी  भारत में वसंत छाया है। अच्छा बजट आया है।  नव्य  उपनिवेशवाद की ऐसी -तैसी  ! वैश्विक संकट या  राष्ट्रीय आपदा की ऐंसी -तेंसी !  सत्तासीन नेताओं की आलोचना  करना महापाप है ! वे देवदूत हैं !  उनकी चरण वंदना  करो - चाटुकारिता करो ।  बोलो जय-जय सियाराम !
                                           सोशल मीडिया पर रोज-रोज  अपने व्यक्तिगत ,स्टाइलिस या पारिवारिक  फोटो पोस्ट करने वाले  वर्तमान में   कुछ चंद ट्रेडयूनियंस और वामपंथ  की सीमित कतारों  में ही उक्त हमलों का औपचारिक   विरोध प्रतिध्वनित हो रहा है। कदाचित  हमला  जब बिकराल  हो, द्विगुणित हो  तो उसके प्रतिकार के साधन और तदनुसार मजबूत  हाथों का बहुगुणित होना  भी  जरुरी  हैं।  इसके लिए  आधुनिक  सूचना संचार संसाधनों से सुसज्जित युवाओं को  वैज्ञानिक और वर्ग चेतना से लेस होना आवश्यक है। देश  के   क्रांतिकारी छात्र संगठनों और प्रगतिशील  युवाओं की व्यापक एकता  के अलावा  इस असंगठित और दिशाहीन  युवा शक्ति  को  भी 'मेंन स्ट्रीम' में आना चाहिए। अधिसंख्य  युवाओं की  विराट प्रतिरोध क्षमता  के    निर्माण से ही कोई क्रांति  कोई बदलाव   सम्भव है।    वरना पूंजीवादी बजट जितना ज्यादा आकर्षक होगा  मेहनतकश  जनता का शोषण उतना ही अधिक होगा ! कारपोरेट  के पक्ष  में जितना ज्यादा आकर्षक बजट संसद में पेश होगा आम आदमी को वह वजट उतना   कर्कश होता चला जाएगा।
                                     साम्प्रदायिक और जातीयता की राजनीति  के कारण  भारत  की तरुणाई में बिखराव बहुत है। किसी सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत जुगाड़ने में  , सम्पर्कों की तिकड़म भिड़ाने में ,भीड़ के रूप में अपनी पहचान  खो देने में , या आजीविका प्राप्ति की जद्दोजहद में अपनी  जान  दे देने  के लिए  आज का युवा अभिशप्त है। वह सवाल भी ठीक से नहीं करता कि  "कौन है इसका जिम्मेदार "? यदि सवाल सही होगा तो  जबाब भी सही मिलेगा।  केरियरिस्ट युवाओं को ही नहीं बल्कि हर किस्म के युवाओं को यह नहीं मालूम कि  उनकी परेशानियों का जबाबदेह कौन है ?  केंद्र और राज्य सरकारों के बजट उनके लिए किस तरह फलदायी हैं ? प्रतिस्पर्धी वातावरण में  युवा शक्ति द्वारा जितना पसीना बहाया जा रहा है , समाज में जितना  अलगाव और अनिश्चितता का बोलबाला है वह पूर्णतः व्यवस्था जन्य ही  है।किसी बजट की सार्थकता का पैमाना यही हो सकता है कि काम   के घंटे तो कम हों किन्तु  युवाओं के श्रम  का बाजिब मूल्य भी  उचित सामाजिक संरक्षण के साथ मुहैया कराया जाये ! वैज्ञानिक अवदान और टेक्नॉलॉजी  के कमाल का फायदा सिर्फ पूँजीपतियों  तक ही सीमित  क्यों होना चाहिए ?  कम  समय  कम  श्रम व्यव्य  में  संघर्षशील युवा  शक्ति को भी वह सब हासिल क्यों नहीं होना चाहिए ?   वर्तमान व्यवस्था के बजट में  क्या यह प्रावधान संभव है ?  जो  न्यूनतम संसाधन   जिन्दा रहने के लिए जरूरी  है।  जिसके  वे हकदार हैं।  क्या यह विचार गत या नीतिगत रूप से वर्तमान बजट में दुर्ष्टिगोचर हो रहा है ?  कदापि नहीं  !  यह तभी सम्भव है जब  आधुनिक युवा वर्ग   हीरोपंती वाली वर्तमान  घटिया शासन  व्यवस्था  में पैबंद लगाना बंद कर दें। मेरा आशय यह कदापि नहीं कि  सब नक्सलवादी हो जाएँ ! किन्तु वे  हर-हर  'मोदी-मोदी ' या अण्णा -अण्णा  का  व्यक्तिवादी  जाप छोड़कर 'आप' की तरह खुद का  कोई  क्रांतिकारी  राजनैतिक विकल्प  तो तैयार कर ही सकते हैं   ! वे यह  भी सुनिश्चित  कर सकते हैं कि   आइन्दा जब कोई ऐरा-गैरा नत्थू खेरा  जंतर-मंतर  पर  या रामलीला मैदान पर  अपनी नौटंकी जमाये  तो यह देखा जाए कि  उसके पास विकल्प क्या है ?  क्या उसका बजट 'अरुण जेटली ' के बजट  जैसा ही है ? क्या वह बजट डॉ मनमोहनसिंह  द्वारा विगत १० सालों तक जारी किया गया 'बजट' ही है ?  या उसके विलग कोई क्रांतिकारी  वित्तीय नीति आधारित वास्तविक जान-कल्याणकारी बजट है  ?  कहीं वह  सिर्फ आवाम के  वोट का तलबगार तो नहीं है।  क्या उसके पास जमीनी सच्चाइयों पर आधारित  कोई रोडमेप है ?  क्या वह  वेरोजगार युवाओं को ,उत्पीड़ित लड़कियों व् महिलाओं को वास्तव में विश्वसनीय संरक्षण देने का अलम्बरदार है ?  क्या वह  वयोब्रद्ध जनों के चीत्कार को सुनने की क्षमता रखता  है ?  ऐंसा कोई  वित्तीय या राजनैतिक  विकल्प तभी  सम्भव  है जबकि   भारत की युवा शक्ति को साम्प्रदायिक संगठनों से दूर रखा जाए । उन्हें जातीय आरक्षण  के मीठे जहर से निजात मिले। धर्मनिरपेक्ष ,लोकतान्त्रिक  और   समाजवादी   विचार की  चेतना  से सुशिक्षित  युवाओं की  व्यापक एकता के लिए यह भी जरुरी है कि  युवा वर्ग  किसी साम्प्रदायिक या सामाजिक विभाजन का कोपभाजन नहीं बने।  किसी तरह के आतंक या अलगाव की दिशा में पलायन न करे  !
             
                   श्रीराम तिवारी     

सर सी वी रमन का सादर पुण्य स्मरण !

 आज  २८ फरवरी को   भारत का  नेशनल साइंस डे है।  आज ही  के ही दिन  महान  वैज्ञानिक,नोबल पुरस्कार प्राप्त - सर  चन्द्रशेखर वेंकटरमण ने अपने   महानतम  आविष्कार 'रमन इफेक्ट'  के सफल अनुसंधान  की घोषणा भी  की थी।  वैसे इनका जन्म ८ नवंबर -१८८८ को मद्रास [चेन्नई] में हुआ था। उन्होंने प्रकाश किरणों के विशिष्ट प्रभाव  और ततसंबंधी अनेक  नवीनतम अन्वेषण  प्रस्तुत  किये। उन्होंने  प्रकाशकीय अनुसंधानों में मॉलिक्यूलर डिफ़्रेक्सन  की क्रांतिकारी   खोज की। उन्होंने भारत का मान बढ़ाया।  सर सी वी रमन का  सादर  पुण्य  स्मरण !   

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

किसान विरोधी और कार्पोरेट समर्थक छवि तो मोदी सरकार की बन ही चुकी है।


आर्थिक उदारीकरण और बाजारीकरण की नयी नीतियों के   प्रारम्भिक दौर में भी जब नरसिम्हाराव और मनमोहनसिंह की जुगलबंदी ने  देश और दुनिया के पूँजीपतियों  -कार्पोरेट घरानों के लिए ,मल्टिनेसनल कम्पनियों के लिए भूमि अधिग्रहण की शुरुआत की थी तब  भी देश  की संसद में और देश की सड़कों पर सिर्फ वामपंथी ही  इसके खिलाफ  संघर्ष किया  करते थे। अण्णा  और  अन्य सोशल एक्टिवस्ट तो  बहुत बाद में २० साल बाद  ही  रामलीला मैदान में प्रकट हुए।  वहां भी उन्होंने अब तक  केवल 'लोकपाल' की ही  ढपली ही बजायी है  ।  जिस लोकपाल के नाम पर उन्होंने डॉ मनमोहनसिंह को 'महाखलनायक' बना डाला,यूपीए को सत्ता से और कांग्रेस को भारत से मुक्त  कराने का नेक काम किया ,  उस 'लोकपाल' नामक ' बिजूके ' का तो अब  चीथडा  भी गायब हो चुका है ।  वेशक अन्ना के कर्मों का प्रति फल भाजपा और मोदी जी को भरपल्ले से मिला। अन्ना आंदोलन का कुछ फल  केजरीवाल और 'आप'  को भी मिल गया । किन्तु देश  की जनता  को क्या मिला ?  'ठन-ठन गोपाल ! देश के किसानों को क्या  मिला  ? 'भूमि अधिग्रहण बिल'।  मजदूरों को क्या  मिला ? 'श्रम  संशोधन बिल' ।  अण्णा  हजारे को मिला अपयश।  इसलिए अन्ना  हजारे अब की बार जंतर-मन्तर पर ' मोदी  विनाशक' मंत्र  पढ़ रहे हैं।  कुछ दिन बाद 'रामलीला' मैदान में वे कुछ और  भी 'लीला' करेंगे।

                               विगत यूपीए के राज में  भी  कई बार संसद में और संसद से बाहर  गैर कांग्रेस -गैर भाजपा  विपक्ष  ने भी  ' भूमि अधिग्रहण बिल' का विरोध किया  है। तब भाजपा  विपक्ष में हुआ करती  थी। उस ने भी  बड़े  वेमन से   कई मौकों पर संसद से   'वाक् आउट' में शेष  विपक्ष का साथ दिया  है। ततकालीन यूपीए की  नितांत  मनमोहनी -चिदंबरी  नकारात्मक  नीतियों से परेशान जनता ने उसे  विगत  मई २०१४ में केंद्र की  सत्ता से बेदखल कर दिया।  अब भाजपा सत्ता में है।  किन्तु वह यूपीए की उन्ही विनाशकारी नीतियों पर चलने पर आमादा है। खुद भाजपा   की  मातृ  संस्था 'संघ'  भी  इस बिल पर  दबी जबान  से असहमति जता रही है। इधर संसद में   नाम मात्र  के विपक्ष - कांग्रेस ,  वामपंथी , जदयू ,सपा  और  क्षेत्रीय दलों की सीमित ताकत  ने  भूमि  अधिग्रहण बिल को लेकर  सही स्टेण्ड लिया  है  । वेशक  मोदी सरकार  की  सभी  जगह  थू-थू   हो रही   है। उनकी  राह  संसद से लेकर सड़कों तक कहीं भी आसान नहीं है। इस किसान विरोधी बिल को लेकर उसकी स्थिति 'साँप -छछूंदर' की हो चुकी है।

                                मोदी सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत किये जा रहे मौजूदा  'भूमि अधिग्रहण बिल' के खिलाफ सत्र  के प्रथम कामकाजी दिवस पर ही  संसद से 'सम्पूर्ण विपक्ष ' ने वाक् ऑउट ' किया। यह बहुत शानदार एकता है। यह  एकता अस्थायी ही  सही किन्तु उस सोच को प्रतिध्वनित करती है कि  भारत में एकमात्र कृषि सेक्टर ही है जो १२५ करोड़ लोगों को भूँखों नहीं मरने देता। कृषि योग्य सिचित  और  दो-फसली , तीन फसली जमीन को किसी 'यूनियन कार्बाईड'  जैसे मानवहंता  के सुपुर्द करने का तात्पर्य 'सबका विकाश ,सबका साथ कैसे हो सकता है ?  इसीलिये सम्पूर्ण  विपक्ष ने  संसद से बहिर्गमन कर  बहुत अच्छा किया। देश की सड़कों पर और देश की संसद में जो भी इस बिल का विरोध कर रहे हैं  वे  सभी  धन्यवाद के पात्र हैं। उन सभी का यह देशभक्तिपूर्ण कार्य काबिले तारीफ़ है।
                                         पहले  ततसंबंधी अध्यादेश और अब   इस 'भूमि अधिग्रहण  बिल'  की  आज चारों ओर  मुखालफत हो रही है। देश के १६० संगठनों सहित वामपंथ ने  भी प्रमुखतः के साथ धरना दिया।   प्रदर्शन  भी किया।  सभी संगर्षरत साथियों को  लाल सलाम ! हालाँकि  मीडिया को यह सब नहीं दिखा।  सम्भव है कि  लोक सभा में अपने प्रचंड बहुमत के मद चूर होकर सरकार इस 'भूमि अधिग्रहण  बिल ' को वापिस ही  न ले या आंशिक संशोधन ही करे , किन्तु इस आत्मघाती कदम से  किसान विरोधी और कार्पोरेट समर्थक  छवि तो  मोदी सरकार की बन ही चुकी है।  हो सकता है कि भारतीय मध्य  मार्गी  मीडिया को  केवल अण्णा की नौटंकी  और केजरीवाल का नाटक  ही दिखाई दिया हो ! उसे  यूनियन गवर्मेंट या भाजपा  के प्रवक्ता ही  दिखाई दे रहे हैं।  जो  किसान आत्महत्या कर रहे हैं   वे इस अपरिपक्व   मीडिया को नहीं दिख रहे। जो किसान संगठन और वामपंथी  ट्रेडयूनियन्स तथा  कार्यकर्त्ता  लगातार 'जल -जंगल-जमीन ' बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं,  जेल  जा रहे हैं , हिंसा   शिकार हो रहे हैं  वे इस  वर्तमान मीडिया को कम ही दिख रहे हैं। सीपीआई  नेता  कामरेड पानसरे जैसे सैकड़ों  क्यों मारे जा रहे हैं  ?  मीडिया को नहीं मालूम।  वे  तो अन्ना हजारे को भी नहीं  देखते।  यदि अण्णा  दिल्ली कुछ नहीं करते।
                                          मीडिया की ही कृपा से जनता  के एक खास हिस्से को लगने  लगता है कि   मोदी जी देश के 'कर्णधार' हैं।  कभी मीडिया की ही कृपा से 'आप' को लगता है कि  केवल  अण्णा  हजारे  ही देश का  तारणहार है। जबकि  मोदी जी  एक साधारण राजनैतिक प्राणी मात्र हैं।  अण्णा  हजारे तो उनसे भी गए  गुजरे हैं।  वे  घोर व्यक्तिवादी और यशेषणा का  मनो रोगी है।   अण्णा को जब भी लगने लगता है कि  वह  मीडिया से  ओझल हो  रह हैं  या जनचर्चा से दूर हो   रहे हैं  ,  तो   उनका  दिल   " हूम्म -हुम्म ' करने लगता है। बेकाबू  होने लगता है। उनका दिल   फौरन से पेस्तर  दिल्ली कूच करने को मचलने लगता है। अण्णा  को  अपने पठ्ठों की कीर्ति भी रास नहीं आती।  वे केजरीवाल से भी  ईर्षा  करते हैं । क्योंकि केजरवाल  को अण्णा  का इस्तेमाल करना आता है।  अन्ना हजारे तो मन ही मन  किरण वेदी  की जीत  चाहते थे।   किन्तु जब किरण वेदी हार  गयी  तो अण्णा  को क्रोध आ गया।  अण्णा  हजारे को  अपने गुप्त सहयोगी  'आरएसएस' की  भी  अब उतनी जरुरत नहीं।   इसीलिये 'संघ'  के  विगत अवदान को भूलकर  वह दिल्ली में मोदी  विरुद्ध अनुष्ठान का आह्वान कर  रहे हैं। अन्ना को  अपना  नालायक चेला  केजरीवाल  अब काबिल  पठ्ठा नजर आने लगा है। इसीलिये  ही तो अपना वादा तोड़कर  अन्ना ने जंतर-मन्तर  पर  'आप' नेता  केजरीवाल से मंच साझा करने  की  छूट दी। अब यदि वामपंथी नेता  नाराज हों तो होते रहें। अण्णा  सफाई देते रहें किन्तु  केजरी का लड़कपन तो जाहिर हो ही गया।
                                             अखिल भारतीय किसान सभा के  जुझारू कामरेड हन्नान मौलाह  [सीपीएम] और कामरेड  अतुल अनजान [सीपीआई] भीअपने   हजारों वामपंथी कार्यकर्ताओं के  साथ अन्ना के इस धरने में शामिल हुए थे ।   चूँकि देश के  किसानों के  खिलाफ और  इजारेदार पूंजीपतियों  के पक्ष में  मोदी सरकार द्वारा आहूत  इस 'भूमि अधिग्रहण बिल'  के खिलाफ  राष्ट्रव्यापी एक जुट आंदोलन  बहुत जरुरी  है। इसलिए  न केवल वामपंथ बल्कि  हर  देशभक्त भारतीय  इस आंदोलन का  आज समर्थन कर रहा  है। इस आलेख के लेखक ने  अपने पूर्व  के  कई आलेखों में - विगत बर्षों  में मैंने  अण्णा  के व्यक्तित्व को और उनके आंदोलन को "अनाड़ी की दोस्ती जी का जंजाल माना है''।  हमेशा आशंका व्यक्त की  है  कि  अन्ना का  विचारविहीन  अस्थिर  मन और  अनियंत्रित  आंदोलन  शायद ही  किसी  क्रांतिकारी बदलाव  के लिए  मुफीद हो ! अन्ना के 'मन में भावे मूड़   डुगावे ' से कौन परिचित नहीं है ? वे अपने आपको गांधीवादी कहते हैं किन्तु गांधीवाद का 'ककहरा' भी नहीं जानते। अण्णा   व्यक्तिशः  किसी राजनैतिक बन्दूक के खाली  कारतूस से ज्यादा कुछ नहीं  हैं। मैं  आज  भी अपने उस पूर्ववर्ती स्टेण्ड पर अडिग हूँ। जिसे आज  २४ फ़रवरी -२०१५   के धरने पर अरविन्द केजरीवाल ने सही साबित कर  दिखाया। अरविन्द केजरीवाल को  मंच साझा करने की इजाजत देकर अण्णा  ने  अपनी राजनैतिक  अपरिपक्वता  ही   प्रदर्शित  की है।

  अण्णा  और केजरीवाल की इस  अप्रत्याशित  हरकत  का  विरोध करते हुए जंतर- मंतर  से कामरेड अतुल अनजान और कामरेड हन्नान मौलाह  ने सही निर्णय लिया। इस अवसर पर  जिन  वाम पंथी  किसान संगठनों , सिविल सोसायटी के साथ अण्णा  हजारे ने धरना दिया  उनकी अनदेखी की गयी।  यह निंदनीय कृत्य   है। न केवल  अरविन्द केजरीवाल को मंच से तक़रीर का अवसर देकर  सामूहिक उत्तरदायित्व की उपेक्षा की गई।  बल्कि उनके इस कृत्य में फासिस्ज्म की बू आती है। अण्णा  हजारे और उनके  चेले   भूमि अधिग्रहण  बिल  का  विरोध  करें  यह  सभी को  स्वीकार्य है।  किन्तु वे इसकी आड़ में  किये जा रहे  आंदोलन का  राजनैतिक   समर्थन केवल अपने लिए  जुटाएँ यह  कदापि उचित नहीं है ।

केजरीवाल  और अन्ना हजारे भले ही साहित्यकार न हों ,  भले ही उनके पास कोई क्रांतिकारी दर्शन नहीं है किन्तु कम से कम वे शब्दों का चयन  तो ढंग से  करें ! इस संदर्भ मेंआज का  ही एक उदाहरण काबिलेगौर है।  मीडिया को बाइट देते हुए   केजरीवाल   ने  और मंच से अन्ना हजारे ने  कई  बार 'खिलाफत' शब्द का प्रयोग किया।  उनके अधिकांस  वाक्य इस प्रकार हैं।  " हम केंद्र सरकार के इस किसान विरोधी बिल  की खिलाफत करते हैं" या 'हम भृष्टाचार की खिलाफत करते हैं "  आम आदमी इस खिलाफत शब्द का सत्यानाश करे तो माफ़ किया जा सकता है।  किन्तु 'आम आदमी पार्टी ' का नेता  केजरीवाल और अपने आप को गांधीवादी कहने वाले  बड़े समाज सेवी   अन्ना हजारे  द्वारा इस 'खिलाफत' शब्द की दुर्गति   नाकाबिले - बर्दास्त है।  केजरीवाल को , अन्ना हजारे को और उन सभी को  जो  सार्वजनिक जीवन में काम करते हैं - मेरा यह   सुझाव है कि  वे 'खिलाफत' शब्द का इस्तेमाल  ही न  करें तो बेहतर है।  दरअसल खिलाफत का मतलब है  'इस्लामिक बादशाहत '।या  "धर्मगुरु की सर्वोच्च सत्ता" । दरशल   इस खिलाफत शब्द पर तो बहुत बड़ा ग्रन्थ भी  लिखा जा सकता है।  कुछ लोग हिंदी के  'विरोध'  शब्द  की जगह  अरबी-फारसी का या उर्दू का यह  'खिलाफत'  शब्द जबरन  घुसेड़ देते हैं। यदि  किसी को  उर्दू या फ़ारसी  का इतना ही शौक  चर्राये  ,तो  उसे  चाहिए कि  उस  जगह ' मुखालफत'  शब्द का प्रयोग करे , जहाँ वह 'विरोध' शब्द कहने सुनने या लिखने से  कतराता है।
                                                   
                                         श्रीराम तिवारी    

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

माझी तेरी नॉव तो ,डूब गयी मझधार।




     सामाजिक  संघर्ष  की , बहती जहाँ   बयार।

     राजनीति  प्रयोग   की ,भूमि  बनी  बिहार।।


     दलित सवर्ण पिछड़े भिड़े ,फूट बिकट बिकराल।

     सोशल डेमोक्रेट्स  की , राजनीति  बदहाल ।। 


     आरक्षण की  नीतियाँ  ,करतीं खड़े सवाल।

    लालू -नीतीश  माझी  बने ,  सत्ता सीन दलाल ।


   दल-दल में दंगल मचा ,नाहक ठानी  रार।

   माझी   तेरी नॉव तो  ,डूब   गयी  मझधार।


                     श्रीराम  तिवारी



     

 

  

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

सूप बोले सो बोले ,किन्तु छलनी भी बोले !


 दक्षिणपंथी पूंजीवादी  संसदीय लोकतंत्र की राजनीति  में महाचालू और  मजे हुए नेता और राजनैतिक दल जब बम्फर जीत हासिल करते हैं  तो वे जीत का श्रेय अपने 'हीरो' को देते हैं।  इसके साथ -साथ जीत की इस वेला में आम जनता याने मतदाता तब उन्हें बहुत समझदार लगती  है। किन्तु जब वे बुरी तरह हार जाते हैं तो उस हार का मरा हुआ साँप  किसी गई गुजरी गैर दुधारू गाय  के गले में डालकर ,जनता को मुफ्तखोर और स्वार्थी बताने लगते हैं।   हारे हुए नेताओं की दिव्यवाणी में 'जन लत मर्दन ' का इजहार खूब हुआ करता है।

    दिल्ली राज्य चुनाव में 'आप' की  ऐतिहासिक बम्फर जीत  को नकरात्मक नजरिये से देखने वालों  के  तीन    महत्वपूर्ण  'ओपिनियन'  प्रस्तुत हैं।  पहला -राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का।  'संघ '  का आकलन है कि  ''दिल्ली राज्य चुनाव में  भाजपा की करारी हार के लिए - किरण वेदी जिम्मेदार हैं। उनका यह भी आकलन है कि  यह जनादेश 'मोदी सरकार' के खिलाफ नहीं है।  जनता को मुफ्तखोरी पसंद है इसलिए वह केजरीवाल के नकली  -  लोकलुभावन नारों में उनके साथ हो ली। भाजपा की हार के लिए  पार्टी के स्थापित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा  भी जिम्मेदार है। बाहरी नेताओं को दल बदल करवाने ,उन्हें  तवज्जो देने का फैसला ही अहम  है। उनका यह भी कहना है कि  इस चुनाव में  केजरीवाल के खिलाफ व्यक्तिगत आरोप और 'मामूली' चंदे की बात को जरा ज्यादा ही उछाला  गया।''  इस विश्लेषण  में भाजपा के सर्वोच्च नेता कहाँ हैं ?  क्या संघ के इस निष्कर्ष से यह सावित नहीं  होता है कि  दिल्ली  में  भाजपा की इस दुर्गति के लिए  केवल और केवल 'मोदी सरकार' ही जिम्मेेदार है ?
   
                  किरण वेदी को भाजपा में  लाने और रथारूढ़ अकरने  की जिम्मेदारी किसकी है ? पार्टी कार्यकर्ताओं  या दिल्ली भाजपा -नेताओं की उपेक्षा किसने की ? 'आप' नेता  केजरीवाल पर उल-जलूल आरोप  किसने लगाए ? संघ का  मोदी जी को क्लीन चिट देना और किरण वेदी  के सर हार का ठीकरा फोड़ना क्या सिद्ध करता है ? क्या  संघ का दिल्ली में  भाजपा की शर्मनाक हार का  चुनावी विश्लेषण विरोधाभासी नहीं  है?  क्या  यह संघ की राजनैतिक परिपक्वता का सूचक है ?  वेशक  यह भी सम्भव है कि  अपनी वैयक्तिक कमजोरियों के कारण  शायद  संघ  के शीर्ष  पदाधिकारी  भी मोदी  जी से डरते  हों !  जो खुद अपराधबोध से  ग्रस्त  होते हैं  वही सत्ता से  भयातुर हुआ करते हैं। कुंठित और दासत्व वोध से पीड़ित लोगों का श्रीहीन होना स्वाभाविक है। वरना संघ जैसे भीमकाय 'महाबलशाली  संगठन'  के उच्चतर पदाधिकारियों  का अपने ही एक साधारण से भूतपूर्व   प्रचारक की गणेश परिक्रमा करने का तातपर्य क्या है ?  क्या  'संघियों' के लिए अब  सत्ता संगठन से भी महान हो गयी ?  यदि नहीं तो उस से इतना भयभीत होने का क्या मतलब है ? कहीं ऐंसा  तो नहीं कि ;-
             इमि  कुपंथ पग देत  खगेशा।  रहे न तेज तनु बुधि  बल लेशा।।  [रामचरितमानस]

अर्थ :- जब कोई व्यक्ति या संगठन गलत राह पर चलने को  पहला कदम रखता है तो उसके पैर कांपते हैं , जुबान लडखडाती है , शरीर निश्तेज  और बलहीन  हो जाता है और बुद्धि  नष्ट हो जाती  है।

संघ  के  इस हालिया 'दिल्ली बौद्धिक विमर्श' और चुनावी विश्लेषण ने  उसे  विराट से  'वामन'  नहीं अपितु  बौना बना दिया है।  संभव है कि  संघ  की इस बौद्धिक मशक्क़त से मोदी जी पुनः अपनी ऊंचाई पर पुनर्प्रतिष्ठित  हो जाएँ किन्तु संघ' जैसे 'विश्व विख्यात' गैर राजनैतिक [?] संगठन ने केजरीवाल जैसे मामूली हैसियत के नेता  को  विराट 'संघ  परिवार' के समक्ष खड़ा कर  उसे बहुत  'बड़ा' नेता  तो बना ही  दिया है।

                                         यह  जग जाहिर है कि  'आप' की इस जीत  से यह तो सावित हुआ ही है कि  बिना साम्प्रदायिक उन्माद के और बिना जातीय ध्रुवीकरण के  भी लोकतंत्र में चुनाव जीता जा सकता है। वशर्ते  ईमानदारी  से  लड़ने  का साहस हो। स्थानीय  तात्कालिक समस्याओं पर  फोकस  हो।  वेशक  'आप' की इस जीत में किसी भी जातीय  और साम्प्रदायिक   संगठन  का  कोई  'हाथ'  नहीं है।  किसी जातिवादी साम्प्रदायिक   नेता का भी कोई रोल नहीं है।  किसी अम्बानी-अडानी या कार्पोरेट हाउस का भी कोई हाथ नहीं है । अण्णा  हजारे से  भी  'आप' को  इस चुनाव में  किसी  तरह की कोई मदद नहीं मिली।  'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ'  का तो   भाजपा के अलावा किसी और को  'आशीर्वाद' देने का सवाल ही नहीं। फिर भी कुछ नेता और नेत्रियाँ अपने राजनैतिक  विश्लेषण   में 'आप' की जीत  में  'संघ'  को  जबरन घुसेड़ रहे हैं। यह अतार्किक और असम्भव आरोप कोई नासमझ लगाए तो कोई बात नहीं। किन्तु यदि कोई  स्थापित  धर्मनिरपेक्ष और फासिस्ज्म से लड़ने वाला नेता लगाए तो  यह सोचनीय बात  है। यह ऐंसा आरोप है कि  जैसे किसी ब्रहिंल्ला  पर शीलभंग का आरोप लगाया जाए।
            कांग्रेस के महासचिव और मध्यप्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्वजयसिह ने 'आप ' के नेता अरविन्द केजरीवाल और 'संघ' के बीच  साठगांठ का आरोप लगाया है। 'आप' की जीत को उन्होंने 'कांग्रेस मुक्त भारत' की  संघी योजना का  हिस्सा और तदनुसार अमल  करार दिया है। विगत रविवार को उन्होंने ट्वीट किया है कि "केजरीवाल संघ की कांग्रेस मुक्त  भारत योजना का  हिस्सा हैं.''  काश  दिग्विजयसिंह जी सही होते !  वावजूद इसके कि  वे भारत के सर्वश्रेष्ठ विद्वान नेताओं में से एक हैं।  वावजूद इसके की वे लोकतंत्र ,ध्रर्मनिरपेक्षता के अलमबरदार  है।  वावजूद इसके कि  वे फासिस्ज्म और क्रोनी पूंजीवाद के आलोचक  हैं , इन सब सद्गुणों के वावजूद मेरा अनुमान है कि   'दिग्गी राजा' की 'आप' पर उपरोक्त नकारात्मक टिप्पणी तार्किकता से परे  है ।

                  आदरणीय दिग्विजयसिंह जी को  यह याद रखना होगा कि इन चुनावों में 'आप' बीच में नहीं पड़ती तो दिल्ली पर भी  भाजपा का  ही  परचम लहराया होता !गनीमत समझो  कि  केवल कांग्रेस मुक्त  दिल्ली या भारत की गूँज ही नहीं बल्कि इस के साथ साथ ही  दिल्ली  में भाजपा  मुक्ति की  अनुगूंज  भी आपने सुनी है !यह भी याद रखें कि मध्यप्रदेश ,छग राजस्थान ,हरियाणा , महाराष्ट्र और  कश्मीर में 'आप' के कारण आपकी [कांग्रेस] हार नहीं हुई है।  कांग्रेस को  संघ या भाजपा ने  भी नहीं  हराया। दरसल  कांग्रेस यदि चाहे तो उसे   कोई हरा भी नहीं सकता। दुनिया  जानती है कि कांग्रेस को खुद कांग्रेस ही हरवाती है। दिल्ली में कांग्रेस की मर्मान्तक हार के लिए  आप   'आप' को संघ से नथ्थी मत कीजिये ! हो सकता है आपके ट्वीट का कंटेंट मेरी समझ से पर हो या सम्भवतः  आप कुछ  और सावित करना  चाहते हों किन्तु मुझे तब भी यकीन है की  आपकी  यह अभिव्यंजना  अतिरंजित है। अतिश्योक्तिपूर्ण है !

                                          'सूप बोले सो बोले किन्तु अब तो छलनी भी  बोले '  वसपा  सुप्रीमो सुश्री मायावती  बहिन जी ने  भी अपनी दलित राजनीत के  पराभव का  ' महाबोधत्व'   प्राप्त कर लिया  है । उन्होंने पता लगा लिया है कि  दिल्ली में  उनकी जमानत जब्त होने का  यूरेका !  यूरेका ! क्या है ? इसीलिये वे कहती हैं   :-    "अरविन्द केजरीवाल  आर एस  एस  का आदमी है। उसके पिता श्री अभी भी   'संघ'  की शाखाओं में जाते हैं। केजरीवाल  के कारण 'आप' को दिल्ली में मेरे [ मायावती के जरखरीद]  दलितों के वोट ट्रांसफर हो गये हैं। केजरीवाल तो दलितों[जिन पर मायावती जी का  जन्म सिद्ध अधिकार  है ] आरक्षण खत्म करना चाहता है "  वाह ! क्या  अदा है  बहिनजी  की  ? क्या बाकई  आपके वोट बैंक पर 'आप' ने  डाका  डाला है ?  मायावती जी आपका डर  तो बाजिब है।  क्योंकि लोग साम्प्रदायिकता और जातीयतावाद से मुक्त होकर यदि 'शुद्ध'  चुनाव करेंगे तो  साम्प्रदायिक और जातीयता के 'दलदल' के दिन लदे  ही समझिए।  वेशक तब 'आप' जैसों का ही  भविष्य उज्ज्वल है।
                                                               
                                                                                                     श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

जनता ने विकल्पहीनता और असन्तोष में अपने आप को लुभा लेने की इजाज़त केजरीवाल और ‘आप’ को दी है

कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े पूँजीपतियों के हितों की सेवा करने वाले चुनावी राजनीतिक दलों, तमाम छोटे-बड़े क्षेत्रीय पूँजीवादी दलों और संसदीय वामपंथियों से ऊबी हुई दिल्ली की जनता ने पिछली बार अधूरी रह गयी अपने दिल की कसर को तबीयत से निकाला है। ‘आप आदमी पार्टी’ को हालिया विधानसभा चुनावों में 70 में 67 सीटों पर विजय मिली। 67 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान किया और उसमें से 54 प्रतिशत मत ‘आप’ को प्राप्त हुए। ‘आप’ को विशेष तौर पर ग़रीब मेहनतकश जनता और निम्न मध्यवर्ग के वोट प्राप्त हुए है। मँझोले व उच्च मध्यवर्ग ने भी ‘आप’ को वोट दिया है, लेकिन उनके एक अच्छे-ख़ासे हिस्से ने भाजपा को भी वोट दिया है। इन चुनावों के नतीजों से कुछ बातें साफ़ हैं।
केजरीवाल की अगुवाई में ‘आप’ की ज़बर्दस्त जीत के निहितार्थArvind kejriwal
पहली बात-कांग्रेस और भाजपा द्वारा खुले तौर पर अमीरपरस्त और पूँजीपरस्त नीतियों को लागू किये जाने के ख़िलाफ़ जनता का पुराना असन्तोष खुलकर निकला है। हाल ही में भाजपा सरकार द्वारा श्रम कानूनों को बेअसर करने की शुरुआत, भूमि अधिग्रहण कानून द्वारा किसानों की इच्छा के विपरीत ज़मीन अधिग्रहण का प्रावधान करना, रेलवे का भाड़ा बढ़ाया जाना, विश्व बाज़ार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में भारी गिरावट के अनुसार पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में कमी न करना और महँगाई पर नियन्त्रण न लगा पाने के चलते मोदी सरकार विशेष तौर पर मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के बीच अलोकप्रिय होती जा रही है, हालाँकि इस अलोकप्रियता के देशव्यापी बनने में अभी कुछ समय है; कांग्रेस ने अपने कुल पाँच दशक के राज में जनता को ग़रीबी, महँगाई, अन्याय और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ ख़ास नहीं दिया; जनता कहीं न कहीं कांग्रेस से ऊबी हुई भी थी; ऐसे में, जनता ने इन दोनों पार्टियों के विरुद्ध जमकर अपना गुस्सा और असन्तोष इन चुनावों में अभिव्यक्त किया है।
दूसरी बात-जनता के भीतर पहले भी लम्बे समय से यह गुस्सा और असन्तोष पनप रहा था लेकिन पूँजीवादी चुनावी राजनीति के भीतर उसे कोई विकल्प नहीं दिख रहा था। पिछले तीन दशकों में सपा, बसपा, जद(यू), आदि जैसे तमाम दलों की भी कलई खुल चुकी है। ऐसे में, ‘आम आदमी पार्टी’ सदाचार, ईमानदारी और पारदर्शिता की बात करते हुए लोगों के बीच आयी। लोगों को उसने भ्रष्टाचार-मुक्त दिल्ली और देश का सपना दिखलाया। उसने जनता को बतलाया कि हर समस्या के मूल में भ्रष्टाचार है, चाहे वह शोषण हो, ग़रीबी हो या फिर बेरोज़गारी। उनके अनुसार देश की व्यवस्था में और पूँजीवाद में कोई बुराई नहीं है। बस दिक्कत यह है कि अगर सभी सरकारी नौकर ईमानदारी हो जायें, सभी पूँजीपति ईमानदारी से मुनाफ़ा कमायें तो सबकुछ सुधर जायेगा! केजरीवाल के अनुसार समस्या केवल नीयत है। फिलहाल जो लोग सत्ता में हैं, उनकी नीयत ख़राब है और ‘आम आदमी पार्टी’ अच्छी नीयत वाले लोगों की पार्टी है। अगर वह सत्ता में आ जाये तो भारत की और दिल्ली की सभी समस्याएँ देर हो जायेंगी, लोग खुशहाल हो जायेंगे, केजरीवाल के शब्दों में ‘ग़रीब और अमीर दोनों दिल्ली पर राज करेंगे!’ अव्यवस्था, ग़रीबी, बेरोज़गारी और महँगाई से त्रस्त आम मेहनतकश जनता इस कदर नाराज़ है, इस कदर थकी हुई है, इस कदर श्रान्त और क्लान्त है और विकल्पहीनता से इस कदर परेशान है कि उसे केजरीवाल और ‘आप’ की लोकलुभावन बातें लुभा रही हैं। बल्कि कह सकते हैं कि जनता ने विकल्पहीनता और असन्तोष में अपने आप को लुभा लेने की इजाज़त केजरीवाल और ‘आप’ को दी है। इसका एक कारण जनता के भीतर कांग्रेस और भाजपा की खुली अमीरपरस्ती के विरुद्ध वर्ग असन्तोष भी है। वह ‘आम आदमी पार्टी’ के दावों को लेकर इतनी आश्वस्त नहीं है, जितनी कि दो प्रमुख पूँजीवादी दलों से नाराज़ है। ‘आम आदमी पार्टी’ की ऊपर से ग़रीब के पक्ष में दिखनेवाली जुमलेबाज़ी ने काफ़ी हद तक आम ग़रीब जनता के गुस्से का कुशलता से इस्तेमाल किया है।
तीसरी बात-जनता के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से में ‘आम आदमी पार्टी’ को लेकर एक विभ्रम भी बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि पिछली बार ‘आप’ को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था, जिसका बहाना बनाकर उसे अपने असम्भव वायदों से भागने का अवसर मिल गया था। सभी जानते हैं कि केजरीवाल के पिछली बार 49 दिनों के बाद भागने के पीछे जो असली वजह थी, वह जनलोकपाल बिल को लेकर हुआ विवाद नहीं था, बल्कि दिल्ली के 60 लाख ठेका मज़दूरों और कर्मचारियों का स्थायी करने के वायदे को पूरा करने का दबाव था। लेकिन अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद में लगे मेहनतकश लोग जल्दी भूल भी जाते हैं और जल्दी माफ़ भी कर देते हैं। ख़ास तौर पर तब जबकि कोई अन्य विकल्प मौजूद न हो! इसके अलावा, जनता के एक हिस्से को भी यह लगता है कि कोई और बेहतर विकल्प नहीं है इसलिए एक बार केजरीवाल सरकार को ही पूरा बहुमत देकर मौका दिया जाना चाहिए। वास्तव में, केजरीवाल से जुड़े विभ्रम के टूटने के लिए यह ज़रूरी भी है कि एक बार दिल्ली की मेहनतकश जनता के दिल में अधूरी रह गयी कसर ढंग से निकल जाये।
चौथी बात-केजरीवाल की ज़बर्दस्त जीत ने यह दिखलाया है कि पूँजीवादी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के संकट और अन्तरविरोध जब-जब एक हद से ज़्यादा बढ़ते हैं तो किसी न किसी श्रीमान् सुथरे का उदय होता है, जो कि (1) गर्म से गर्म जुमलों का इस्तेमाल कर जनता के गुस्से को अभिव्यक्ति देता है और इस प्रकार उसे निकालता है; (2) जो जनता के दुख-दर्द का एक काल्पनिक कारण जनता के सामने पेश करता है, जैसे कि भ्रष्टाचार और नीयत आदि जैसे कारक; (3) जो वर्गों के संघर्ष को बार-बार नकारता है और वर्ग समन्वय की बातें करता है, जैसे कि केजरीवाल ने अमीरों और ग़रीबों के बँटवारे को ही नकार दिया है और बार-बार केवल सदाचारी और भ्रष्टाचारी के बँटवारे पर बल दिया है। केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ इस समय पूँजीवादी व्यवस्था की ज़रूरत हैं। वे पूँजीवादी समाज और व्यवस्था के असमाधेय अन्तरविरोधों के वर्ग चरित्र को छिपाने का काम करते हैं और वर्ग संघर्ष की चेतना को कुन्द करने का कार्य करते हैं। यही कार्य एक समय में भारत की पूँजीवादी राजनीति के इतिहास में जेपी आन्दोलन ने निभायी थी। आज एक दूसरे रूप में भारतीय पूँजीवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था भयंकर संकट का शिकार है। उसका एक तानाशाहाना और फासीवादी समाधान नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की साम्प्रदायिक फासीवादी सरकार पेश कर रही है, तो वहीं एक दूसरा समाधान ‘आम आदमी पार्टी’ और अरविन्द केजरीवाल पेश कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि केजरीवाल की लहर उनके अपने वायदों से मुकरने साथ किनारे लगती जायेगी और आज जो लोग पूँजीवादी व्यवस्था की सौग़ातों से तंग आकर प्रतिक्रिया में केजरीवाल के पीछे गये हैं, उनमें से कई पहले से ज़्यादा प्रतिक्रिया में आकर भाजपा और संघ परिवार जैसी धुर दक्षिणपंथी, फासीवादी ताक़तों के समर्थन में जायेंगे जो कि मज़दूर वर्ग के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
क्या अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ मेहनतकश ग़रीबों के दोस्त हैं?
हम मज़दूरों के लिए जो सबसे अहम सवाल है वह यह है कि क्या अरविन्द केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ हमारी दोस्त है? या क्या वह कांग्रेस या भाजपा जैसी पार्टियों से वास्तव में भिन्न है या उनसे बेहतर है? क्या हम उससे कुछ उम्मीद रख सकते हैं? इस बात की पड़ताल किस पैमाने पर की जानी चाहिए हम मज़दूर केवल एक पैमाने पर इसकी पड़ताल कर सकते हैं और वह है मज़दूर वर्ग का पैमाना। आइये देखते हैं कि केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ का इस बारे में क्या मानना है।
‘अमीर और ग़रीब दोनों साथ में दिल्ली पर राज करेंगे।’ क्या वाकई?
हाल ही में, ‘आम आदमी पार्टी’ के चाणक्य योगेन्द्र यादव ने बताया कि कि ‘आम आदमी पार्टी’ वर्गों के संघर्ष में भरोसा नहीं करती। उसका मानना है कि अमीरों से कुछ भी छीना नहीं जाना चाहिए। ग़रीबों को जो भी मिलेगा वह भ्रष्टाचार ख़त्म करके मिलना चाहिए, न कि अमीरों से छीनकर। यही बात अरविन्द केजरीवाल ने भी कई बार अलग-अलग टीवी चैनलों को कही है। लेकिन इस पूरी बात में एक बड़ा गोरखधन्धा है। हम मज़दूरों के लिए सोचने का सवाल यह है कि अमीर अमीर हुआ कैसे? ग़रीब ग़रीब क्यों है? और अमीर के अमीर रहते और ग़रीब के ग़रीब रहते समाज में खुशहाली कैसे आयेगी? समाज में धन-सम्पदा पैदा कौन करता है उसका बँटवारा कैसे होता है? क्या हम जानते नहीं हैं कि अमीर वर्ग, मालिक वर्ग, पूँजीपति वर्ग अमीर इसीलिए है क्योंकि वह हम मज़दूरों की मेहनत को लूटता है? क्या हम जानते नहीं हैं उसकी अमीरी, उसकी शानो-शौक़त और ऐयाशियों की कीमत हम मज़दूर अपना खून और पसीना बहाकर अदा करते हैं?
हम अच्छी तरह से जानते हैं कि पूँजीपतियों की भारी सम्पत्ति आसमान से नहीं टपकी है; उनका विशालकाय बैंक बैलेंस ‘ईश्वर की देन’ नहीं है; उनके नौकरों-चाकरों की फौज ‘देवताओं’ ने नहीं भिजवायी है! इस सबकी कीमत हम अदा करते हैं। निजी सम्पत्ति और कुछ नहीं बल्कि पूँजी है; पैसा अपने आपमें कुछ भी नहीं अगर उससे ख़रीदने के लिए तमाम वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन न हो; वस्तुएँ व सेवाएँ दुकानदार, व्यापारी, पूँजीपति, मालिक या ठेकेदार नहीं पैदा करते! उन्हें हम मज़दूर बनाते हैं! सुई से लेकर जहाज़ तक-हरेक वस्तु! इन वस्तुओं को बनाने के बावजूद ये वस्तुएँ हमसे छीन ली जाती हैं और हमें बदले में मुश्किल से जीने की खुराक मिलती है। यही लूट तो हमारी ग़रीब का कारण है! ऐसे में, हम तब तक ग़रीब बने रहेंगे जब तक कि पूरा उत्पादन पूँजीपतियों के हाथों में है, जब तक कि यह उत्पादन समाज की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि पूँजीपति के मुनाफ़े के लिए होता हो। पूँजीपति की मुनाफ़े की शर्त हमारी ग़रीबी और बदहाली है! हमें ग़रीब, बेकार और बदहाल बनाये बगै़र पूँजीपति अपना उत्पादन कम लागत में कर ही नहीं सकता और मुनाफ़ा कमा ही नहीं सकता। आपस में कुत्तों की तरह लड़ते पूँजीपति पर हमेशा बाज़ार का यह दबाव काम करता है कि वह हमें लूटे और बरबाद करे; वह हमें कम-से-कम मज़दूरी दे और हमसे ज़्यादा से ज़्यादा काम करवाये! चाहे पूँजीपति अच्छी नीयत और सन्त प्रकृति का ही क्यों न हो, अगर उसे पूँजीपति के तौर पर ज़िन्दा रहना है तो उसे मज़दूर को लूटना होगा, उसे बेकारी के दलदल में धकेलना ही होगा। सवाल नीयत या इरादे का है ही नहीं, सवाल वर्ग का है! सवाल पूरी व्यवस्था और सामाजिक ढाँचे का है! केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था पर कहीं सवाल नहीं खड़ा करते, बल्कि उसका समर्थन करते हैं। वे बस उस भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की बात करते हैं जिससे मध्यवर्ग दुखी रहता है और पूँजीपति वर्ग परेशान रहता है। इसीलिए वे ग़रीबी और अमीरी का बँटवार ख़त्म करने की बात नहीं करते, बल्कि यह हवा-हवाई बात करते हैं कि ‘दिल्ली पर ग़रीब और अमीर साथ में राज करेंगे और खुशी-खुशी रहेंगे!’ ग़रीब के ग़रीब रहते और अमीर के अमीर रहते, ऐसा मुमकिन नहीं है क्योंकि अमीर इसी शर्त पर अमीर होता है कि ग़रीब और ग़रीब होता जाय। समृद्धि मज़दूर वर्ग अपनी मेहनत झोंक कर, अपनी ज़िन्दगी और वक़्त लगाकर पैदा करता है। वह उससे पूँजीपति ले लेता है और बदले में उसे जीने की खुराक भर दे देता है। इसी प्रक्रिया से अमीर अमीर बनता है और मज़दूर ग़रीब होता जाता है। ऐसे में, केजरीवाल सरकार का यह कहना कि अमीर से वह कुछ नहीं लेगी और ग़रीब को सबकुछ देगी, मज़ाकिया है और केवल यह दिखाता है कि या तो केजरीवाल और उसके लग्गू-भग्गू मूर्ख हैं, या फिर दिल्ली के ग़रीब मज़दूरों को मूर्ख बना रहे हैं।
क्या भ्रष्टाचार ख़त्म होने से मज़दूरों का शोषण ख़त्म हो जायेगा?
केजरीवाल सरकार अगर सारा भ्रष्टाचार ख़त्म कर भी दे, तो इससे मज़दूर की लूट ख़त्म नहीं होती। अगर पूँजीपति और मालिक एकदम संविधान और श्रम कानूनों के अनुसार भी चले तो एक मज़दूर को कितनी मज़दूरी मिल जायेगी? अगर दिल्ली राज्य में न्यूनतम मज़दूरी के कानून को पूर्णतः लागू भी कर दिया जाय तो एक मज़दूर को ज़्यादा से ज़्यादा 10-11 हज़ार रुपये तक ही मिलेंगे। ऐसे में, हम मज़दूर क्या खुशहाल हो जायेंगे? वह भी दिल्ली में जहाँ ज़िन्दगी जीना इतना महँगा है कि दो जून की रोटी भी मुश्किल से कमायी जाती है? वैसे भी केजरीवाल श्रम कानूनों के उल्लंघन के मसले को कभी नहीं उठाते, हालाँकि यह सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है क्योंकि दिल्ली के 60 लाख से भी ज़्यादा मज़दूरों के लिए यह सबसे बड़ा मसला है। यह वह भ्रष्टाचार है कि जिससे कि दिल्ली की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा प्रभावित होता है। लेकिन केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ इसके बारे में चुप्पी साधे रहती है। इसका कारण यह है कि ‘आप’ के समर्थकों और नेताओं तक का एक बड़ा हिस्सा छोटे और मँझोले मालिकों, ठेकेदारों, व्यापारियों, प्रापर्टी डीलरों और दुकानदारों से आता है। पिछली ‘आप’ सरकार का श्रम मन्त्री गिरीश सोनी स्वयं एक कारखाना-मालिक था! इसी से पता चलता है कि मज़दूरों के मुद्दों पर ‘आप’ का क्या रुख़ है।
‘आम आदमी पार्टी’ की छोटे कारखाना मालिकों, ठेकेदारों, दलालों और दुकानदारों से यारी
केजरीवाल ने हाल ही एक टीवी इण्टरव्यू में माना है कि अपनी पिछली 49 दिनों की सरकार के दौरान उन्होंने टैक्स चोरी करने वाली भ्रष्टाचारी दुकानदारों और व्यापारियों पर छापा मारने से सरकारी कर विभाग को रोका था।
उनका तर्क यह था कि ये सरकारी विभाग और उनके कर्मचारी कर चोरी करने वाले दुकानदारों से रिश्वत लेते थे। यानी कि सरकारी विभाग के भ्रष्टाचार और व्यापारियों के भ्रष्टाचार में केजरीवाल ने केवल सरकारी विभाग और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को निशाना बनाया और व्यापारियों के भ्रष्टाचार को छोड़ दिया या फिर बचाया। यही केजरीवाल की पूरी नीति है। वह केवल सरकारी अमलों और नेताओं के भ्रष्टाचार को निशाना बनाते हैं और वह भी वह भ्रष्टाचार जिससे दुकानदारों, पूँजीपतियों आदि को नुकसान होता है। इसीलिए केजरीवाल ने कहा था कि वह बनिया जाति से आते हैं और बनियों यानी कि व्यापारियों का दुख-दर्द जानते हैं! केजरीवाल ने विशेष तौर पर छोटे मालिकों, उद्यमियों और दुकानदारों को भरोसा दिलाया कि उन्हें ‘आप’ की सरकार से डरने की ज़रूरत नहीं है! उन्हें तो सरकारी विभाग के भ्रष्टाचार-रोधी छापों से मुक्ति मिलेगी!
साथ ही, केजरीवाल ने पूँजीपतियों से वायदा किया है कि वह दिल्ली में धन्धा लगाने और चलाने को और आसान बना देंगे। कैसे?
आपको पता होगा कि कोई भी कारखाना या दुकान लगाने से पहले पूँजीपतियों को तमाम सरकारी जाँचों से गुज़रना पड़ता है, जैसे पर्यावरण-सम्बन्धी जाँच, श्रम कानून सम्बन्धी जाँच, कर-सम्बन्धी जाँच आदि। केजरीवाल ने वायदा किया है कि इन सभी जाँचों (इंस्पेक्शनों) से पूँजीपतियों को छुटकारा मिलेगा! लेकिन मज़दूरों को श्रम कानूनों से मिलने वाले अधिकार सुनिश्चित किये जायेंगे, श्रम विभाग में लेबर इंस्पेक्टरों और फैक्टरी इंस्पेक्टरों की संख्या बढ़ायी जायेगी, श्रम कानूनों को लागू करने को सुनिश्चित किया जायेगा, ऐसी माँगों पर केजरीवाल कोई ठोस वायदा नहीं करते हैं। इसी से पता चलता है कि केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ मज़दूरों के साथ वोट के लिए धोखा कर रही है, जबकि उसका असली मक़सद है दिल्ली के पूँजीपतियों और विशेष तौर पर छोटे और मँझोले पूँजीपतियों की सेवा करना।
ठेका मज़दूरी ख़त्म करने वायदे से पिछली बार क्यों मुकर गयी थी केजरीवाल सरकार और इस बार मज़दूरों को धोखा देने की उसकी रणनीति क्या है?
यह सच है कि केजरीवाल ने पिछले चुनावों में ठेका प्रथा का उन्मूलन करने का वायदा किया था। लेकिन 49 दिनों के दौरान केजरीवाल सरकार इस वायदे से मुकर गयी थी। उसके श्रम मन्त्री गिरीश सोनी ने 6 फरवरी को हज़ारों मज़दूरों के एक प्रदर्शन के सामने खुलकर यह बात कही थी कि वह ठेका प्रथा नहीं समाप्त कर सकते क्योंकि उन्हें मालिकों, प्रबन्धन और ठेकेदारों के हितों को भी देखना है! इस बार ठेका प्रथा उन्मूलन की वायदा ‘आम आदमी पार्टी’ ने अपने घोषणापत्र में तो किया है, लेकिन इस पर ज़्यादा बल नहीं दिया गया है। इसका कारण यह है कि पिछली 49 दिनों की सरकार के दौरान केजरीवाल सरकार को दिल्ली के ठेका मज़दूरों और कर्मचारियों ने बार-बार घेरा था। डीटीसी के ठेकाकर्मियों से लेकर दिल्ली मेट्रो रेल, दिल्ली के विभिन्न औद्योगिक इलाकों के ठेका मज़दूरों, ठेके पर काम करने वाले होमगार्डों, शिक्षकों आदि ने केजरीवाल सरकार को बार-बार घेरकर इस वायदे की याद दिलायी थी। 6 फरवरी का प्रदर्शन इस कड़ी में आख़िरी बड़ा प्रदर्शन था जिसके एक हफ्ते बाद ही केजरीवाल गद्दी छोड़कर भाग खड़े हुए थे। उन्हें भी समझ में आ गया था कि इस माँग को वह पूरा नहीं कर सकते क्योंकि फिर दिल्ली के छोटे मालिक, व्यापारी, ठेकेदार आदि ‘आम आदमी पार्टी’ से नाराज़ हो जायेंगे। फिर ‘आम आदमी पार्टी’ को चन्दा कौन देगा? फिर ‘आम आदमी पार्टी’ के वे तमाम नेता कहाँ जायेंगे जो खुद कारखाना-मालिक, ठेकेदार या दुकानदार हैं? इस बार केजरीवाल सरकार ने एक बदलाव किया है। उसने पिछली बार की तरह यह नहीं कहा है कि वह छह महीनों में आधे वायदों को पूरा कर देगी। इस बार केजरीवाल सरकार ने कहा है कि ये वायदे 5 साल में पूरे किये जायेंगे। उसकी रणनीति यह है कि शुरुआती कुछ महीने कुछ प्रतीकात्मक माँगों को पूरा करके, मध्यवर्ग को खुश करके, और भ्रष्टाचार आदि पर दिखावटी हो-हल्ला मचाकर काट दिये जायें। मज़दूरों को आश्वासन दे-देकर इन्तज़ार कराया जाय और उनके इस वायदे को भूलने का इन्तज़ार किया जाय। यानी, केजरीवाल सरकार इस बार उच्च मध्यवर्ग और मँझोले मध्यवर्ग से की गयी कुछ प्रतीकात्मक माँगों को पहले पूरा करेगी और मज़दूरों को ठेंगा दिखाते हुए 5 साल बिता देगी। यही उनकी योजना है।
बिजली के बिल आधे करने और पानी मुफ्त करने के वायदों के पीछे केजरीवाल सरकार की रणनीति
बिजली के बिल आधे करने के बारे में भी केजरीवाल सरकार इस बार दूसरी भाषा में बात कर रही है, जिस पर किसी का ध्यान ठीक तरीके से नहीं गया है। वह कह रही है कि बिजली कम्पनियों का ऑडिट कराये जाने तक सरकार अपने ख़जाने से सब्सिडी देकर बिजली के बिल आधे करेगी और ऑडिट का नतीजा आने के बाद बिजली के बिल तय किये जायेंगे। पिछली बार भी जब सब्सिडी देना मुश्किल हो गया था तो केजरीवाल सरकार ने यह तर्क दिया था। लेकिन पिछली बार चुनावों से पहले केजरीवाल ने यह नहीं कहा था कि बिजली के बिल केवल तब तक आधे रहेंगे जब तक कि ऑडिट नहीं हो जाता। यह बात 49 दिनों की सरकार के दौरान उन्होंने कही थी, जब उन्हें यह समझ में आ गया था कि अनन्त काल तक सैंकड़ों करोड़ रुपयों की सब्सिडी नहीं दी जा सकती है। ख़ैर, यह ऑडिट ‘कैग’ नामक एक सरकारी संस्था करती है। अब तक के इतिहास में इस संस्था ने कोई ऐसा ऑडिट नहीं किया है जो कि बड़ी कम्पनियों के सीधे ख़िलाफ़ जाये। दिल्ली में बिजली पैदा नहीं होती बल्कि उसे बाहर से ख़रीदना पड़ता है। इस बिजली के वितरण का कार्य पहले सरकारी विभाग ‘दिल्ली विद्युत बोर्ड’ करता था। फिर इसे दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में टाटा की कम्पनी एनडीपीएल और अम्बानी की कम्पनी बीएसईएस को सौंप दिया गया। ‘कैग’ के ऑडिट में स्पष्ट हो जायेगा कि इन कम्पनियों को मुनाफ़ा कमाते हुए यदि बिजली का वितरण करना है तो बिजली के बिल आधे नहीं किये जा सकते। और फिर केजरीवाल सरकार बिजली के बिलों में मामूली-सी कटौती करके हाथ खड़े कर देगी और कहेगी कि ‘जब ऑडिट के नतीजे में यह सिद्ध हो गया है कि बिजली के बिलों में ज़्यादा कटौती नहीं की जा सकती, तो हम क्या कर सकते हैं।’ ऐसा भी हो सकता है कि बिलों में कोई कटौती न की जाय! बिजली के बिलों में कोई ख़ास कटौती तभी हो सकती है जबकि बिजली वितरण का निजीकरण समाप्त कर दिया जाय। पिछली बार केजरीवाल ने संकेत दिये थे कि अगर कोई समाधान नहीं बचेगा तो निजीकरण समाप्त कर दिया जायेगा। लेकिन इस बार वह कह रहे हैं कि देश में बहुतेरी कम्पनियाँ हैं, उनमें से किसी और को बिजली वितरण का ठेका दे दिया जायेगा! निश्चित तौर पर, कोई भी कम्पनी मुनाफ़े के लिए ठेका लेगी, दिल्ली की जनता को सस्ती बिजली देने के लिए नहीं और कितनी भी प्रतियोगिता हो, निजीकरण के तहत बिजली के बिल एक स्तर से नीचे नहीं आयेंगे। निजीकरण के तहत बिजली के बिल हमेशा के लिए आधे कर दिये जायें यह तो सम्भव ही नहीं है क्योंकि केजरीवाल सरकार अनन्तकाल तक सरकारी ख़ज़ाने से सब्सिडी नहीं दे सकती है। ऐसे में, सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे भी नहीं बचेंगे! यही बात पानी को मुफ्त करने पर भी लागू होती है। लम्बे समय तक ऐसा कर पाना पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में रहते हुए बेहद मुश्किल है।
केजरीवाल सरकार ने इस बार झुग्गीवासियों से एक बार फिर से वायदा किया है कि उन्हें उनकी झुग्गी के स्थान पर ही पक्के मकान दिये जायेंगे। यह भी एक हवा-हवाई वायदा है और दिल्ली के झुग्गीवासी पाँच साल तक इसका इन्तज़ार ही करते रह जायेंगे। इसका कारण यह है कि तमाम झुग्गियाँ रेलवे व अन्य कई केन्द्रीय विभागों के स्थान पर बनी हैं और उसी जगह पर मालिकाने के साथ पक्के मकान देने का कार्य घुमावदार नौकरशाहाना पेच में ही फँसकर रह जायेगा। इसी प्रकार के अन्य कई ग़रीबों को लुभाने वाले झूठे वायदे करके केजरीवाल सरकार इस बार भारी बहुमत के साथ सत्ता में आयी है।
‘आम आदमी पार्टी’ के बारे में मज़दूरों के लिए कुछ अन्य ज़रूरी बातें
हम मज़दूरों और मेहनतकशों को कुछ बातें समझ लेनी चाहिएः जो पार्टी पूँजीपतियों और मज़दूरों में समझौते की बात करते हुए खुशहाली का वायदा करती है वह आपको धोखा दे रही है; दूसरी बात, जिस पार्टी के तमाम नेता स्वयं कारखानेदार, ठेकेदार, व्यापारी, दुकानदार, भूतपूर्व खाते-पीते नौकरशाह और एनजीओ चलाने वाले धन्धेबाज़ हों, वह मज़दूरों का भला कैसे कर सकती है? सत्तासीन हुई केजरीवाल सरकार मज़दूरों को ठेका प्रथा से मुक्ति देने के लिए एक ऐसे विधेयक का वायदा क्यों नहीं करती जो कि दिल्ली राज्य में सभी नियमित प्रकृति के कार्य पर ठेका मज़दूरी पर प्रतिबन्ध लगा देगा? अगर भ्रष्टाचार के प्रश्न पर केन्द्रीय कानून होने के बावजूद दिल्ली राज्य स्तर पर एक जनलोकपाल विधेयक पारित करवाया जा सकता है, तो फिर केन्द्रीय ठेका मज़दूरी कानून के कमज़ोर होने पर दिल्ली राज्य स्तर पर एक ठेका मज़दूर उन्मूलन विधेयक क्यों नहीं पारित करवाया जा सकता है? अगर भ्रष्टाचार के लिए पिछली बार की तरह एक हेल्पलाइन शुरू की जा सकती है, तो मज़दूरों के ख़िलाफ़ होने वाले अन्याय और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक अलग मज़दूर हेल्पलाइन क्यों नहीं शुरू की जा सकती है? दिल्ली राज्य में जीवन के महँगे होने के मद्देनज़र केजरीवाल सरकार यह वायदा क्यों नहीं करती कि वह न्यूनतम मज़दूरी को दिल्ली राज्य स्तर पर बढ़ाकर कम-से-कम 15000 रुपये तक करेगी? इसलिए क्योंकि ये माँगें पूँजीपतियों और मालिकों के ख़िलाफ़ जायेगी, जिनसे दरवाज़े के पीछे केजरीवाल सरकार और ‘आम आदमी पार्टी’ की यारी है। केजरीवाल सरकार ग़रीबों और मज़दूरों को बस कुछ लोकलुभावन नारे दे सकती है और कुछ प्रतीकात्मक सुधार के कदम उठा सकती है। मज़दूरों की असली समस्याओं को दूर करना उसके लिए सम्भव नहीं है क्योंकि वह मज़दूर वर्ग की पार्टी नहीं है, बल्कि छोटे मालिकों, ठेकेदारों, दुकानदारों और खाते-पीते मध्यवर्ग की पार्टी है। इसलिए ‘आम आदमी पार्टी’ मज़दूरों की मित्र नहीं है, बल्कि मज़दूरों को सबसे ख़तरनाक किस्म का धोखा देने वाली पार्टी है। सवाल यह उठता है कि अब जबकि केजरीवाल की अगुवाई में ‘आम आदमी पार्टी’ अभूतपूर्व बहुमत के साथ दिल्ली में सरकार बना रही है तो हम मज़दूरों को, जिनके वोटों के बूते केजरीवाल को मुख्यमन्त्री की गद्दी नसीब हुई है, क्या करना चाहिए?
हम मज़दूरों को क्या करना चाहिए?
हम मज़दूरों को केजरीवाल सरकार को बार-बार याद दिलाना होगा कि उसने हमसे क्या वायदा किया है। हमें मुख्य तौर पर दो वायदों को पूरा करने के लिए केजरीवाल सरकार को बार-बार घेरना होगा। लोग जब सत्ता में पहुँच जाते हैं तो वायदे भूल जाते हैं क्योंकि वायदे किये ही सत्ता में पहुँचने के लिए जाते हैं। ऐसे में, हमें बार-बार इन वायदों की याददिहानी करनी होती है। हमारे लिएदो वायदे सबसे अहम हैं। पहला है ठेका प्रथा को समाप्त करने का वायदा। और दूसरा है झुग्गीवासियों को उनकी झुग्गी के स्थान पर पक्के मकान देने का वायदा।
इसमें एक वायदा है जिसके बारे में केजरीवाल सरकार कह सकती है कि इसमें वक़्त लगेगा और पाँच साल के लिए इन्तज़ार किया जाय। यह वायदा है झुग्गियों के स्थान पर पक्के मकान देने का वायदा। इसके लिए मज़दूरों को यह माँग करनी चाहिए कि केजरीवाल सरकार पक्के मकान देने की एक पूरी योजना प्रस्तुत करे जिसमें कि अलग-अलग इलाकों में पक्के मकान देने की एक अन्तिम तिथि दी जाय, चाहे वह दो, तीन या चार साल बाद ही क्यों न हों। जब तक हम एक समयबद्ध वायदा नहीं लेते तब तक झुग्गियों की जगह पक्के मकान देने के वायदे का कोई अर्थ नहीं होगा। दूसरी बात यह कि हमें केजरीवाल सरकार से इस बाबत ठोस वायदा लेने के लिए दबाव बनाना चाहिए कि जब कि पक्के मकान नहीं दिये जाते, एक भी झुग्गी उजाड़ी नहीं जायेगी। क्योंकि अगर ऐसा होगा तो झुग्गियों के स्थान पर पक्के मकानों के वायदे का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
दूसरा वायदा ऐसा है जिसे तुरन्त पूरा करने की शुरुआत की जा सकती है। यह वायदा है ठेका प्रथा समाप्त करने का वायदा। इस बाबत दिल्ली के ठेका मज़दूरों को संगठित होकर यह माँग करनी चाहिए कि दिल्ली राज्य के स्तर पर केजरीवाल सरकार एक ऐसा कानून पारित करे जो कि सभी नियमित प्रकृति के कार्यों पर ठेका मज़दूर रखने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाये। ऐसे कानून के बिना ठेका मज़दूरी का उन्मूलन दिल्ली में हो ही नहीं सकता है। केन्द्रीय कानून में मौजूद तमाम कमियों का इस्तेमाल करके ठेकेदार और मालिक ठेका प्रथा को जारी रखेंगे। इसलिए अगर केन्द्रीय भ्रष्टाचार-रोधी कानून के कमज़ोर होने पर दिल्ली राज्य स्तर पर एक जनलोकपाल कानून पारित किया जा सकता है, तो फिर एक ठेका उन्मूलन कानून भी पारित किया जा सकता है। अगर केजरीवाल सरकार इससे मुकरती है, तो साफ़ है कि ठेका मज़दूरी उन्मूलन का उसका वायदा झूठा है। ऐसा कानून बनने के बाद दिल्ली के मज़दूरों को यह माँग भी करनी चाहिए कि यह कानून सही ढंग से लागू हो सके इसके लिए उचित प्रबन्ध किये जाने चाहिए। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है दिल्ली राज्य सरकार के श्रम विभाग में कर्मचारियों की संख्या में बढ़ोत्तरी करना। पहले भी सरकारें बार-बार यह कहकर पल्ला झाड़ती रही हैं कि श्रम विभाग में पर्याप्त लेबर इंस्पेक्टर व फैक्टरी इंस्पेक्टर नहीं हैं। जब दिल्ली राज्य में लाखों की संख्या में ग्रेजुएट व पोस्ट-ग्रेजुएट बेरोज़गार घूम रहे हैं तो केजरीवाल सरकार श्रम विभाग में भारी पैमाने पर भर्ती करके रोज़गार भी पैदा कर सकती है और साथ ही श्रम कानूनों के कार्यान्वयन को भी सुनिश्चित कर सकती है। ठेका प्रथा के उन्मूलन सम्बन्धी माँग को पुरज़ोर तरीके से उठाने के लिए दिल्ली के सभी निजी व सार्वजनिक उपक्रमों व विभागों में कार्य करने वाले ठेका कर्मचारियों व मज़दूरों को गोलबन्द और संगठित किया जाना चाहिए। केवल इसी तरीके से यह सिद्ध हो सकेगा कि केजरीवाल सरकार वाकई ग़रीबपरस्त है या फिर उसने वोटों के लिए दिल्ली के ग़रीबों के साथ एक भारी धोखा किया है।
एक अन्य माँग जिसे दिल्ली के मज़दूरों और निम्न मध्यवर्ग के नौजवानों को ख़ास तौर पर उठानी चाहिए वह है दिल्ली राज्य स्तर पर एक रोज़गार गारण्टी विधेयक की माँग। हमारा तर्क यह है कि अगर कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने देश के स्तर पर एक ग्रामीण रोज़गार गारण्टी कानून पारित किया था, तो फिर दिल्ली राज्य पर जनता को रोज़गार गारण्टी कानून क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? हालाँकि मनरेगा में केवल 100 दिनों का रोज़गार मिलता था और उसके लिए भी न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिलती थी, यद्यपि हमें इस अधिकार की माँग करनी चाहिए और यह भी माँग उठानी चाहिए कि इस कानून के तहत 100 दिन नहीं बल्कि कम-से-कम 200 दिनों का रोज़गार मिलना चाहिए और उसके एवज़ में दिल्ली राज्य की न्यूनतम मज़दूरी मिलनी चाहिए। इस कानून में इस बात का प्रावधान होना चाहिए कि अगर दिल्ली सरकार दिल्ली के किसी नागरिक को रोज़गार नहीं दे पाती तो फिर उसे गुज़ारा-योग्य बेरोज़गारी भत्ता दिया जाना चाहिए। यानि कि उत्तर प्रदेश सरकार के समान 1000-1200 रुपये का बेरोज़गारी भत्ता नहीं बल्कि राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी के बराबर बेरोज़गारी भत्ता मिलना चाहिए। इस माँग से दिल्ली के मज़दूरों को कुछ सुरक्षा मिल सकती है, जो कि औद्योगिक मन्दी के चलते आए दिन बेकारी की मार झेलते हैं। साथ ही इस माँग के पूरा होने से दिल्ली के लाखों बेरोज़गारी युवाओं को भी रोज़गार मिल सकता है।
ये तीन बुनियादी माँगें उठाकर दिल्ली के मज़दूरों को संघर्ष करना चाहिए। आने वाले पाँच वर्षों में यह संघर्ष ही स्पष्ट करेगा कि ‘आम आदमी पार्टी’ और केजरीवाल के ‘सदाचार’ और ‘अच्छी नीयत’ के हो-हल्ले के पीछे का सच क्या है। हम मज़दूरों के सामने भी इनका असली चरित्र स्पष्ट होगा। मज़दूर आन्दोलन को ‘आम आदमी पार्टी’ का पिछलग्गू बनने की बजाय अपनी राजनीति की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता को बनाये रखना चाहिए। मज़दूर वर्ग यदि अपनी राजनीति की स्वतन्त्रता और स्वायत्ता को नहीं बनाये रखता, अगर वह अपने अलग स्वतन्त्र संगठनों की स्वायत्तता को नहीं बनाये रखता तो फिर वह एक अपनी शक्ति खो बैठता है। ऐसी सूरत में वह अपने ख़िलाफ़ किये जाने वाले धोखों और षड्यन्त्रों से नहीं लड़ सकता। वह निष्क्रिय हो जाता है, अशक्त हो जाता है। इसलिए ‘आम आदमी पार्टी’ की राजनीति के वर्ग चरित्र को समझने की आवश्यकता है। इस पार्टी ने जो वायदे हमसे किये हैं, तो उनमें से एक को भी पूरा करवाने के लिए हम मज़दूरों को अपने स्वतन्त्र आन्दोलन के ज़रिये केजरीवाल सरकार पर दबाव बनाना चाहिए, न कि उनकी पूँछ पकड़कर चलना चाहिए। अगर हमने चौकसी खोई, अगर हमने अपने स्वतन्त्र और स्वायत्त मज़दूर वर्गीय आन्दोलन को कमज़ोर होने दिया, तो आने वाले समय में हमें सिर्फ़ धोखा मिलेगा। चूँकि केजरीवाल सरकार ने हम मज़दूरों से बड़े-बड़े वायदे किये हैं इसलिए हमें अपने स्वतन्त्र मज़दूर वर्गीय आन्दोलन के बूते इनकी छाती पर सवार रहना होगा और इन्हें अपने वायदों से मुकरने का मौका नहीं देना होगा।

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

सुनों ! सुनों ! अरविन्द केजरीवाल सुनों !



      सुनों ! सुनों !  अरविन्द केजरीवाल   सुनों !

      विराट  नरमेद्नी  दिल्ली की -हूँकार सुनों !

      कांग्रेस -भाजपा  खेत रहे  चुनावी रण  में,

    इसीलिये अपना प्रतिपक्ष खुद 'आप' चुनों  !

      हिन्दू- मुस्लिम -सिख- ईसाई- जैन सभी  ,

      धर्मनिरपेक्ष जनों के  हित  की बात गुनों  !

      है क्रोनी पूंजीवाद तुम्हारे सम्मुख ध्यान रहे ,

      मेहनतकश जनता के संघर्षों की झंकार सुनों !

     भृष्टाचारी आँख दिखाएंगे यदि कदम  -कदम पर ,

     निर्भय होकर  रहो अडिग जन-जन  की आवाज सुनों !



                                           श्रीराम तिवारी
       

क्या अब भी अमेरिका को भारत पर किसी किस्म की नसीहत देने का अधिकार है ?



 यद्द्पि समस्त 'हिन्दू जगत  '  को  यह जानकर  बहुत दुःख हुआ होगा ,गुस्सा आया होगा ,क्षोभ  उतपन्न  हुआ होगा कि  इस साल के महाशिवरात्रि पर्व पर अमेरिकी नस्लवादियों ने 'हिन्दुओं' को  मुँह  चिढ़ाया  है। लेकिन इन अमेरिकी  'नस्लवादियों ' ने  इस कृत्य के मार्फ़त दो अच्छे  काम अनजाने में  कर दिये हैं।  वाशिंगटन के पवित्र  'शिवमंदिर'  की दीवार पर "गेट आउट' लिखकर  उन्होंने न केवल 'नमो' को चिढाया ,न केवल ओबामा को शर्मशार किया अपितु मेरे उस आलेख को सही सावित कर दिया जो मैंने पन्द्रह  दिनों पहले ऍफ़ बी पर पोस्ट किया था।  जिसे पढ़कर  अमेरिका के दलालों ने , भारतीय सत्ता के दलालों ने, संघी दूषित मानसिकता के रोगियों ने  'नाक भौं- बक्र शूक ' किया था।  प्रबुद्ध पाठकों और चिंतकों के विचारार्थ वह  आलेख  पुनः प्रस्तुत  किया जा रहा है। जो की  निम्नानुसार है

"अमेरिका में  नस्लीय हिंसा देख्रकर  न केवल महात्मा गांधी बल्कि  मार्टिन लूथर किंग  भी आंसू बहां रहे हैं!"

     वेशक भारत में  मजहबी झगड़े हैं। जाति -पाँति  की दीवारें हैं। राजनीति  व्यवसाय और लोकाचार में इन  का दुरूपयोग भी हो  रहा है। लेकिन  धर्मनिरपेक्षता की स्थति इतनी बुरी  भी  नहीं कि  "गांधी होते तो अफ़सोस करते "! जैसाकी यूएस  प्रेजिडेंट  बराक ओबामा ने अमेरिका में कहा !   उनके इस कथन पर जागरूक   भारतीय   पहले ही घोर आपत्ति जता  चुके हैं ।  लेकिन भारत के  'असली देशभक्तों ' ने  क्यों मुसीका लगा रखा है? यह समझना कठिन नहीं है।  दरसल बराक ओबामा  ने तो उन्ही पर चुटकी ली  है। भारत का यह दुर्भाग्य ही है कि   पहले तो  उसे मनमोहनसिंह जैसे  ' मौनी बाबा ' का मौन चुभता  रहा ,  अब वर्तमान सरकार के  'बोलू दी ग्रेट' ने भी  इस 'ओबामा उबाच' के बारे में अपनी जुबान पर दही जमा रखा  है।
                              अमेरिका में  अभी २ दिन पहले  तीन निर्दोष  मुसलमानों को उनके अमेरिकी पड़ोसियों ने   गोलियों से भून दिया गया।  वेशक  मारने वाले श्वेत प्रभु थे। अमेरिकी मीडिया और सरकार चुप रहते हैं। इस वीभत्स नृसंस हिंसा पर पाकिस्तान  चुप है। क्योंकि उसे तो केवल भारत  की बर्बादी के ही सपने आते हैं। उधर  बराक ओबामा  उर्फ़ 'बराक भाई' उर्फ़' बरक्वा ' को तब न तो गांधी याद आते हैं और न 'मार्टिन लूथर किंग ' !  'बराक ओबामा को 'नमो' ने बराक भाई कहा क्योंकि गुजराती  संस्कृति में हर पुरुष 'भाई'  और हर नारी 'बेन' है।  किन्तु भिंड मुरैना या बुंदेलखंड में बराक ओबामा यदि कुछ दिन रहेंगे तो  उन्हें इस तरह पुकारा जाएगा - अरे ओ बरक्वा  कितने आदमी …?
                  बहरहाल अभी परसों की बात  है  एक हिंदुस्तानी [गुजराती ] बुजुर्ग अमेरिका में अपने बेटे के पास कुछ दिन गुजारने पहुँचते हैं। चूँकि वे अंग्रेजी नहीं जानते हैं  ,चूँकि वे श्वेत नहीं हैं , इसलिए सड़क पर पैदल  चलने पर ही  अमेरिकी श्वेत पुलिस द्वारा उनकी बेरहमी से ठुकाई कर दी जाती है। ये बुजुर्ग अभी भी आईसीयू [अमेरिका] में भर्ती  हैं। अब कई  सवाल  हैं जो अमेरिका की तरफ  उठने चाहिए। यदि भारत सरकार डरती है तो  मीडिया क्यों मौन है ?  भाजपा ,कांग्रेस ,जदयू ,सपा और 'आप'  केवल सत्ता के लिए  ही हलकान हो रहे हैं।उनके मंच से ये  सवाल  क्यों नहीं उठते ?
                                    बराक ओबामा के राज में अमेरिका की  यह नस्लवादी दुर्दशा देखकर  स्वर्गस्थ  -  'मार्टिन लूथर किंग ' अफ़सोस करते या शाबाशी देते ?  क्या अब भी अमेरिका को भारत पर किसी किस्म की  नसीहत का अधिकार है ?  क्या  भारत के नेताओं में इतना भी नैतिक   साहस नहीं की अमेरिकी राजदूत को बुलाकर कहें की  आपके देश अमेरिका में  नस्लीय हिंसा देख्रकर  न केवल महात्मा गांधी बल्कि  मार्टिन लूथर किंग  भी आंसू बहां रहे हैं।  वे आप के बराक भाई पर और आपके अमेरिका पर अफ़सोस   कर रहे  हैं !

क्या अमेरिका ,क्या भारत ,क्या एशिया  क्या यूरोप  सभी जगह ,सभी देशों में ,सभी सभ्यताओं में एक सार्वभौम सत्य विद्द्य्मान है कि  '' जो सत्ता के लिए , व्यापार के लिए , मानवमात्र के शोषण के लिए ,अपने  -  छुद्रतम  स्वार्थों के लिए धर्म-मजहब ,जाति -नस्ल  का इस्तेमाल करते हैं वे ही इतिहास के असली खलनायक हुआ करते हैं"।

                           श्रीराम  तिवारी    [visit on www. janwadi.blogspot.com]

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

"'दिल्लीश्वरो व जगदीश्वरो वा " अर्थात जो दिल्लीश्वर है वही जगदीश्वर है !

   पाती प्रधान मंत्री जी के नाम !

       माननीय,
                       श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी जी ,

                       प्रधानमंत्री -भारत सरकार ,
     
                        ७-रेस कोर्स रोड ,नयी दिल्ली

                                                         'अत्र कुशलम तत्रास्तु '   !

                                                        यह  जानकर अत्यंत दुःख हुआ कि  दिल्ली चुनाव परिणामों से आपकी विश्वविख्यात छवि को ठेस पहुंची है। उससे  न केवल  आपके भक्तों को, न केवल  देश के उद्द्योगपतियों को ,न केवल  शेयर बाजार  के खिलाडियों को,न केवल  दिल्ली के सट्टाबाजरियों को बल्कि योगियों ,स्वामियों ,ज्ञानियों  को भी  भारी  आघात पहुंचा है। चूँकि आप जमीन से  जुड़े हुए  हैं, आप  आम आदमी की परेशनियों से वाकिफ नेता  हैं, इसलिए आपकी साम्प्रदायिक छवि  के  वावजूद  देश  और दुनिया के अनेक नर-नारी  आपसे प्यार करते हैं। लेकिन आपकी अमेरिका ,नेपाल ,भूटान ,आस्ट्रलिया ,जापान  यात्राओं  से भारत को जो  काल्पनिक -आभासी  यश प्राप्त हुआ  - वह दिल्ली चुनाव के परिणामों से  कुहांसा ही साबित हुआ। बड़े दुःख  की बात यह है कि कल तक  भारत में और विश्व में - इस धरती पर 'मोदी मोदी' का जाप करने वाले ही नहीं बल्कि कुछ भावुक देशभक्त भी   आप की पराजय से दुखी हैं !  वेशक  एक खास ऊंचाई के बाद  पतन प्रकृति का ही नियम है। इसमें  न  तो आपका और न ' ही आप' का कसूर है।  यह दौर तो उनके  विहंगावलोकन का है। जिन्हे 'राजमद' हो गया था।
                                       सुना है की आपने राजकोट का अपना 'नमो मंदिर' ध्वस्त करा  दिया है।यह अच्छा किया।  यह भी खबर है कि जो  सूट  आपने ओबामा जी के 'मिलन समारोह' में पहना  था वो रत्नजड़ित कीमती  दसलखिया सूट भी आपने नीलामी के लिए दे दिया है।  वाराणसी के किसी एनजीओ के मार्फ़त वह पैसा  शायद  'संघ' के काम आये !  इसमें क्या बुराई है ? कितना अच्छा होता कि  यह सब  पुनीत पावन  कर्तव्य आप दिल्ली चुनाव में हारने से पहले ही कर लेते  ?
                         खैर बुरी खबर ये है कि  जिस उपद्रवी गोत्र ने भाजपा को दिल्ली में हराया।  उसका पितृपुरुष अब भृष्टाचार के खिलाफ ताल ठोकने  जा रहा है।  भाजपा और आपका मानमर्दन  करने वाले अरविन्द केजरीवाल  और भाजपा की नाक कटवाने वाली किरण वेदी के गुरु -आराध्य -रालेगण सिद्धि प्रतिष्ठान के अधिष्ठाता -श्री   अन्ना  हजारे फिर से आंदोलन की बात करने जा रहे  हैं। आपके कुछ वरिष्ठ नेता जिन्हे आपने किनारे कर रखा था  वे  दिल्ली चुनाव परिणाम से बेहद उत्साहित हैं।
                                           शत्रुघ्न सिन्हा जी ने तो पहले ही भाजपा की हार घोशित  कर दी  थी।मीडिया वालों ने ,सर्वे वालों ने और खुद आपके अपने वालों ने तो  चुनाव  पूर्व ही भाजपा की हार  को  आपके गले में डाल  दिया था। अब गोविंदाचार्य जैसे विभीषण भी  अन्ना के अवैतनिक सलाहकार होने जा रहे हैं। आपके अश्वमेध का घोड़ा दिल्ली में ही घनचककर  हो गया है। केवल उद्धव ठाकरे ही नहीं ,केवल शिरोमणि अकाली दल ही नहीं बल्कि भाजपा और 'संघ परिवार' के अनेक क्षत्रप भी दिल्ली में आपकी रुसवाई से गदगद हैं ! इस दुरवस्था से 'भागवत'  जी भी हलकान हो रहे हैं ! लोग कहने लगे हैं की कांग्रेस मुक्त भारत के चक्कर में कहीं भाजपा मुक्त भारत की नौबत न आ जाये ?मोदी जी को मालूम हो कि केंद्र सरकार की लगभग पूरी कैविनेट  ,अधिकांस मुख्यमंत्री भी दिल्ली में भाजपा की हार से बेहद प्रसन्न हैं। बिलकुल कांग्रेस की ही मानिंद भाजपा के नेता  भी घोर अवसरवादिता पर उत्तर आये हैं।  भृष्टाचार में तो  ये भाजपाई  नेता अब कांग्रेसियों के भी  बाप हो चले हैं। अकेले मध्यप्रदेश में ही इतने घपले उजागर हो रहे हैं  की  अब तो लोगों ने  इसकी चर्चा करना ही छोड़  दिया।
                                              आशा है आपने विगत ३-४ दिन में दिल्ली की हार का मंथन कर लिया होगा !आपको वह गुलामी   के दौर की  सामन्तकालीन युक्ति  तो याद है न ! "'दिल्लीश्वरो व  जगदीश्वरो वा " अर्थात जो दिल्लीश्वर है वही जगदीश्वर है ! उसके अनुसार तो भाजपा का और 'नमो' का अश्वमेध अधूरा ही है। क्योंकि दिल्ली पर तो कोई और ही काबिज हो चुका है ! इस स्थति से निपटने के लिए आपको कांग्रेस मुक्त नहीं बल्कि साम्प्रदायिकता मुक्त ,भृष्टाचार मुक्त और गरीबी मुक्त भारत का नारा देना चाहिए। सामूहिक नेतत्व, लोकतांत्रिक  कार्यप्रणाली , सामाजिक सौम्यता, मानवीय विनम्रता और हर किस्म की समानता के आचरण से   ही आप 'आप' को हरा सकते हैं। कांग्रेस से आम आदमी  पार्टी से  या किसी अन्य दल से दल बदल करवाकर  ,बोगस  सदस्य बनाकर आपके अध्यक्षजी भाजपा को 'दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी ' बनाने चले थे।  चौबे जी छब्बे तो नहीं  दुब्बे  बनकर उदास हैं।
                                                  खबर है कि  दिल्ली में  भाजपा के  सदस्यों ने  ही भाजपा को वोट नहीं  दिया।  शायद  आपके अध्यक्ष को वास्तव में हर हिन्दुस्तानी हिन्दू ही नजर आया होगा। आपके साथियों को और  आपको  यह  स्मरण  रखना चाहिए कि   किसी की रेखा को  मिटाकर अपनी रेखा बढ़ाने वाले कभी इतिहास नहीं बना सकते। आपने  विगत लोक सभा चुनावों में देश की आवाम से ढेरों वादे किये हैं।  उनमे से  एक  भी  प्रकरण   पर अभी तक तो  कोई काम नहीं  हुआ।  आपने हिन्दुओं मतों को धुर्वीकृत करने वावत जितने भी प्रयास किये वे दिल्ली के युवाओं ने ठुकरा दिये।  देश के युवाओं को भी दिल्ली  के युवाओं का संदेश  भाने  लगा है। आपको भी  दिल्ली की जनता कुछ तो इशारे कर रही है।  शायद आप को कुछ  इशारा  तो समझ में आ ही गया होगा ! उन इशारों में कांग्रेसी पतन का इतिहास भी छिपा है। एनडीए और मोदी सरकार  ने उस एजंडे  को भूलकर १० महीने में ही जनादेश खो दिया।

  यह स्मरण रहे कि  भृष्टाचार  का मामला ,कालेधन का मामला,एफडीआई  का मामला ,अध्यादेशों का मामला ,किसानों -गऱीबों का मामला अब आपकी सत्ता की चूलें हिला सकता है।  यह भी  याद रखें  कि जिन्दा कौम  भले ही  पाँच  साल  इन्तजार कर ले किन्तु वर्तमान  युवा ५ महीना भी इंतजार नहीं कर सकता !  बिहारियों और युपैयों से तो आप  अभी दूर  ही रहो क्योंकि  उनकी आकांक्षाएं अनंत हैं।  वहां जो अलोकतांत्रिक फिजायें  बन चुकी हैं , जो अस्थिरता की हवाएँ बह रहीं हैं वे  चारों ओर   से  'संघ परिवार' और आपके खिलाफ हैं !


       आप यशश्वी हों  ! आप अपने किये गए वादों में कामयाब हों ! आप अमरीका और  पूंजीपतियों के बजाय देश के गऱीबोंब-किसानों और आम आदमी को प्रिय हों ! शुभकामनाओं सहित ,

       अभिवादन सहित ,  आपका शुभचिंतक !

                                                           श्रीराम तिवारी
                                         

             

नसीबबाले ने नक्सली-उपद्रवी को चाय पर बुलाया ! न सिर्फ बुलाया बल्कि चाय भी पी !

 

   दिल्ली में भाजपा की हार और 'आप' की जीत  के बारे में  सारे संसार में चर्चा है। अमेरिका ,इंग्लैंड ,पाकिस्तान , चीन ,जापान ,आस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, श्रीलंका समेत दुनिया भर  के अखवारों  के  प्रथम पृष्ठ पर दिल्ली के चुनाव  चर्चित  हैं। दुनिया भर के सोशल साइट्स पर ,डिजिटल  और इलक्ट्रॉनिक  मीडिया पर 'दिल्ली राज्य ' चुनाव के विश्लेषणों   की विगत दो दिनों खूब धूम  मची हुई  है।सबके अपने-अपने कयास हैं। सबके अपने-अपने विमर्श और विश्लेषण हैं।  भारतीय और  अंतर्राष्ट्रीय  विश्लेषणों में - कुछ वास्तविक ,कुछ  काल्पनिक ,कुछ अर्धसत्य ,कुछ  वास्तविकता  से दूर और कुछ अतिरंजित व्यंग मात्र हैं। इनमें सबसे खतरनाक टिप्पणी   सुब्रमण्यम स्वामी की है। उसका कथन  है की " दिल्ली में देश द्रोहियों की सरकार आ गयी है ''[नई  दुनिया - इंदौर संस्करण ,पेज नंबर -१२  कलम ७-८ , -दिनांक १२-० २- १५ ] आशा की जाती  है की  दिल्ली की प्रबुद्ध   जनता  ,देश की जनता ,  सभी राजनैतिक पार्टियां और दिल्ली के वे  वकील  जिन्होंने किरण वेदी को हरवाया  और 'आप' को जिताया है।  वे  सुब्रमण्यम स्वामी के इस वयान का संज्ञान अवश्य लेंंगे।
                                                     दिल्ली राज्य चुनाव विषयक  प्राप्त  सूचनाओं और अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप मेरा  व्यक्तिगत विश्लेषण  निम्नानुसार है। दिल्ली राज्य  विधान सभा की ७० में ६७ सींटें प्राप्त कर   'आप' ने जो बुलंदी हासिल की है  उस के कारकों को उजागर करने से पहले 'आप' को नेक  सलाह दी  जाती  है कि 'आप' इस गुमान में न रहे कि  दिल्ली की तरह शेष  भारत की  जनता भी  'आप ' पर लट्टू है। देश की जनता न तो मोदी पर लट्टू है न 'आप' पर।   वह तो वर्तमान व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन चाहती है।  चूँकि मोदी जी ९-१० माह में कुछ भी नहीं कर सके तो दिल्ली की जनता ने 'विकल्प'  उपलब्ध होंने  पर दिल्ली में   बहरहाल  'आप' को पसंद कर लिया है ।  यदि 'आप' ५ साल में कुछ नहीं कर सके तो  कांग्रेस और भाजपा की तरह 'आप' को भी ठिकाने लगा दिया जाएगा ।
      दिल्ली में मिली सफलता का  यह मतलब  भी नहीं  है कि  'आप' की नीतियाँ  और कार्यक्रम पूरे देश को पसंद हैं ! यदि 'आप' की सोच यह है की दिल्ली की जनता  और  शेष भारत की जनता  की मनः स्थति एक सी है तो 'आप' गलतफहमी में हैं ! 'आप' को स्मरण रखना होगा कि  भारत का हर प्रांत या   हर क्षेत्र अपनी   विशिष्ट   भौगोलिक,सांस्कृतिक, सामाजिक ,और राजनैतिक विविधता के   बरक्स  अपनी राजनैतिक चेतना और राजनैतिक  बुनावट को अभिव्यक्त करता है।याद रखें कि  'आप' आज लोकप्रियता की बुलंदियों पर होने के वावजूद मध्यप्रदेश में एक विधान सभा सदस्य तो क्या एक पार्षद भी नहीं  जिता पाये।   जबकि मध्यप्रदेश में ठीक  दिल्ली चुनाव से पूर्व स्थानीय निकायों में भाजपा की इकतरफा जीत हुई है।  जबकि भाजपा यहां आकंठ भृष्टाचार में डूबी हुई है।   यदि 'आप' इतने बलशाली हैं तो मध्यप्रदेश ,गुजरात ,राजस्थान या छग में कहीं तो उपस्थ्ति दर्ज कराइये। सबको मालूम है कि  इन दिनों  भाजपा शाषित राज्यों में भृष्टाचार चरम पर है।  'आप' के नेता दिल्ली की जीत को ''बिल्ली के भाग से छींका टूटा"ही माने ! इससे ज्यादा सोचने में कोई हर्ज नहीं है।  किन्तु सोच का दायरा तर्कपूर्ण और विज्ञानसम्मत होना चाहिए। बहरहाल दिल्ली  में 'आप' की बम्फर जीत एवं  जागरूक  जनता द्वारा  कांग्रेस और  'भाजपा ' की बेरहम पिटाई  पर  कुछ खास निष्कर्ष  इस प्रकार हैं !
  

[१]  दिल्ली के अधिकांस  मतदाताओं को  पीएम  मोदी जी का स्वर्ण खचित -जड़ाऊँ -नौलखिया शूट पसंद नहीं आया !  भले ही वह गिफ्ट में  ही क्यों न  मिला हो  !  देश  के गरीब  मजदूर जब ठंड में ठठुर रहे हों  और ओला  पीड़ित किसान आत्महत्या  कर  रहे हों, तब प्रधानमंत्री का इस तरह  बार-बार  कीमती वस्त्र बदल -  बदलकर  , हवाई  मार्ग से हवाई  बातें करना  दिल्ली के मतदाताओं को पसंद नहीं आया।

[२]    संसद  सत्र  के  फौरन वाद कुटिल अध्यादेश जारी करना -भारतीय संविधान पर  परोक्ष हमला करना या   धर्मनिरपेक्षता पर हमला करना  , समर्थक  'भगवा मण्डली' द्वारा चार -चार-बच्चे पैदा करने का फतवा  जारी करना  ,घर वापिसी  का आक्रामक अभियान चलाना  यह सब   भी  शायद दिल्ली की जनता को  पसंद नहीं आया।

[३]  भूमिअधिग्रहण  अध्यादेश ,बीमा बिल अध्यादेश ,  एफडीआई -पूंजीपतियों के पक्ष में श्रम  कानूनों का शिथली  करण, सरकारी और सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण तथा   गणतंत्र दिवस पर ओबामाजी को अपने हाथ से चाय  पिलाना -दिल्ली के मतदातों को   संभवतः पसंद नहीं आया।

[४]    डेरा सच्चा सौदा -गुरमित  राम रहीम का  भाजपा के पक्ष में फतवा जारी हुआ  तो उसे भाजपा नेताओं  ने  सर-माथे लिया।  जबकि  इमाम बुखारी द्वारा जारी किया गया  'आप' के पक्ष में फतवा -  केजरीवाल द्वारा तत्काल रिजेक्ट कर दिया गया। दिल्ली के मतदाताओं को 'आप' की  यह अदा  खूब पसंद आयी  ! जबकि  भाजपा के नेता अपने हिन्दुत्ववादी ध्रवीकरण के  घमंड में चूर   होकर  इस  जन-मानसिकता को समझने में  नितांत  असमर्थ रहे कि बहुमत हिन्दू समाज को  किसी भी तरह की  साम्प्रदायिक कट्टरता कतई  पसंद नहीं।

[५] किरण वेदी , कृष्णा तीरथ ,इल्मी ,बिन्नी ,अमुक- धिमुक  जैसे दल बदलू -दलबदलिनियों  में उमड़े अचानक  भाजपाई  - सत्ता प्रेम को  बड़े भाजपाई नेता गफलत में  'मोदी प्रेम ' समझ बैठे।  इस रौ में वे अपने हर्षवर्धनों ,उपाध्यायों, जगदीश मुखियों  जैसे खाँटी  - खानदानियों की उपेक्षा  कर बैठे !  और चुके हुए कारतूसों को लेकर 'लाम' पर चल दिए।  दिल्ली के मतदाताअों ने इस  आयातित तलछट के कारण भाजपा  को  ही  नकार दिया !

 [६]  विगत २०१३  की विधान सभा  के त्रिशंकु होने  और  कांग्रेस की बैशाखी से  परेशान केजरीवाल ने  जो ४९ दिनों में त्याग पत्र दिया था। वेशक वो न केवल नाटक  नौटंकी था बल्कि केजरीवाल का उथलापन  भी था। किन्तु जब केजरीवाल  ने इस कृत्य के लिए  माफ़ी मांगी तो दिल्ली के मतदाताओं ने खुले दिल से माफ़ कर दिया ।  न केवल माफ़ किया अपितु वम्फर जीत देकर  दुनिया में मशहूर कर दिया।

[७]  वेशक 'आप' के कुछ कार्यकर्ता लगातार जुटे रहे। 'आप'  रुपी हिरण ने  भाजपा रुपी बाघ के सामने हिम्मत  नहीं हारी।  'आप' का हौसला भी इस जीत में बहुत महत्वपूर्ण है।

 [८]    'आप'    ने  जाति  -मजहब ,और खोखले वादों की राजनीति  नहीं की।   कांग्रेस और  भाजपा को नागनाथ -सांपनाथ समझा।  दिल्ली के मतदाताओं को 'आप'  का यह आचरण पसंद आया।


                    'आप' दिल्ली की जनता से   किये गए  वादे पूरें कर पाएंगे इसमें मुझे संदेह है।  दिल्ली राज्य का पुलिस पर कोई कंट्रोल नहीं।  वित्तीय स्थति  किसी नगर निगम से भी बदतर  है। 'आप' के कुछ नए -नए चेहरे उत्साहीलाल  भी हो सकते हैं।  किरण वेदी ,शाजिया इल्मी आपके दुश्मन बन चुके हैं। चूँकि 'आप' का जन्म  अन्ना  के आंदोलन से हुआ है इसलिए  अन्ना भी 'आप' को  ऐंसे ही छोड़ने वाला नहीं। केंद्र में मोदी  जी की  सरकार है। 'आप' के पास केवल नैतिक ताकत ही  है।  किन्तु यह नैतिकता इसलिए नहीं है कि 'आप' के नेता ' बड़े आदर्शवादी और संयमी' हैं।  बल्कि इसलिए हैं कि  मौका ही नहीं मिला। अब मौका मिला  है तो देश की और   दिल्ली की जनता  देखेगी की 'आप' अपने कौल के कितने पक्के हैं ?'आप' की आर्थिक नीतियाँ  क्या हैं ? 'आप' आसमान से कितने तारे कब तक तोड़ कर लाते हैं ?'आप'  का एजेंडा कैसे पूरा होगा  ? 'आप'  कांग्रेस ,भाजपा ,कम्युनिस्ट और  अन्य विपक्षी पार्टियों से  कैसा व्यवहार  करेंगे  ? ये सवाल 'आप' की आयु तय करेंगे।
बहरहाल अभी तो 'आप'  नसीबबालों  के साथ चाय पीजिये। जिन्होंने आपको  नक्सली-उपद्रवी  की पदवी से विभूषित किया  !

                               श्रीराम तिवारी