आम आदमी पार्टी पर यह आरोप है कि उसमें आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अभाव है। 'आप' के स्वयंभू नेता अरविन्द केजरीवाल कभी आला अफसर हुआ करते थे। वे नौकरी में असफल रहे। बाद में नौकरी छोड़ अण्णा की नौटंकी में शामिल हुए। चूँकि अण्णा का भृष्टाचार उन्मूलन या लोकपाल आंदोलन असफल रहा। इसलिए केजरीवाल भी वहाँ असफल रहे। चूँकि वे अस्थिर चित्त के भावुक -अधकचरे -अराजक प्राणी हैं। इसीलिये जब कांग्रेस ने उन्हें चिडाया की दम है तो खुद राजनीति में आकर 'भृष्टाचार' खत्म करो न ! तो केजरीवाल राजनीति में कूंद गए। विगत चुनाव में दिल्ली की जनता ने बेहतर समर्थन भी दिया था ,किन्तु वे ४९ दिन में ही 'रणछोड़दास' हो गए। मुख्य मंत्री तो क्या वे राजनीति के भी काबिल नहीं हैं। अण्णा हजारे खुद दिग्भर्मित और अपरिपक्व किस्म का 'एनजीओ' संचालक रहा है। उसके अखाड़े में किरण वेदी ने भी खूब 'माटी गोड़ी ' है। अण्णा के अखाड़े से निकले नाकारा चेहरे ही दिल्ली चुनाव में इतने अहम हो गए, लोकतंत्र के लिए यह बहुत शर्मिंदगी की बात है। बक्त की आंधी ने क्या गुल खिलाये कि दिल्ली विधान सभा चुनाव में स्थापित राजनीती से परे , दो महाबिकट नकारत्मकताओं को प्रतिदव्न्दी बनाकर पेश कर दिया गया है।
दिल्ली विधान सभा चुनाव में इस दफा भी 'आप' का मुकाबला फिर से मुख्यतः भाजपा से ही है। यह मुकाबला सांड और बछड़े जैसा है। जिसे डेरा सच्चा सौदा -गुरमीत राम रहीम जैसा ऐयास बाबा समर्थन दे रहा है वह सांड जैसा है। जिसे इमाम बुखारी बिन माँगे समर्थन देने का फ़तवा जारी कर रहे हैं , वो अप्रशिक्षित, अर्धविकसित-बछडे जैसा है। इनमें से कोई भी जीते किन्तु हारना तो लोकतंत्र को ही है। क्योंकि जनता के समक्ष 'देश -काल- परिस्थिति ' ने एक तरफ 'कुआँ दूसरी तफ खाई ' पैदा कर दी है। इसलिए राष्ट्र' रुपी कृषक की स्थति दयनीय हो रही है । देश को या दिल्ली को लोकतंत्र की गाड़ी खींचने वाला बैल चाहिए साँड़ या बछड़ा नहीं। उसे पक्ष -विपक्ष के मजबूत बैल चाहिए। वेशक -बैल के कुछ तो गुण कांग्रेस में हैं। चूँकि कांग्रेस या यूपीए ने अपने कार्यकाल में भृष्टाचार ,महँगाई और बेरोजगारी पर कोई नियंत्रण नहीं किया इसलिए उसे 'काँजीहौस ' में डाल दिया गया है। आज जो देश की दुर्दशा हो रही है उसके लिए कांग्रेस ही सबसे अधिक जिम्मेदार है। किन्तु पैर गंदे हो जाएँ तो काट कर फेंके नहीं जाते। कांग्रेस भी कोई काठ की हांडी नहीं है कि दोबारा चूल्हे पर न चढ़ सके ! पहले भी आपातकाल लगाने के बावजूद ,जयप्रकाश नारायण और जनता सरकार के प्रभाव के वाबजूद ढाई साल में कांग्रेस फिर से सत्ता में वापिस आ गई थी। कांग्रेस तो उस केंचुए की तरह ही जिसे मसल भी दो तो अषाढ़ में फिर से कई पैदा हो जाते हैं।अभी कांग्रेसियों का पेट वैसे भी खूब भरा है। कुछ दिनों बाद जब उनकी राजनितिक जठराग्नि तेज होगी तो वे फिर से दिल्ली की और देश की सत्ता में होंगे। उससे फासिस्ज्म और साम्प्रदायिकता का कोई खतरा भी नहीं। उसका उदारीकरण भी सिर्फ दुनिया को दिखाने भर का है। जबकि भाजपा और 'आप' का उफान केवल मौसमी है।
इसीलिये भाजपा और 'आप' से तो घिसी-पिटी बदनाम कांग्रेस ही ठीक ठाक है। कम से कम उससे 'बैल' का काम तो लिया ही जा सकता है। किसान को साँड या बछड़ा नहीं बैल की जरुरत है। केजरीवाल को भी अब भाजपाइयों की तरह भगवान याद आ रहे हैं। हालांकि केजरीवाल ने इमाम बुखारी के समर्थन को या ममता के समर्थन को ठुकराकर जो जीवटता दिखाई उससे उनके वैचारिक परिष्करण की आशा बलवती हुई है। किन्तु उनके पास कोई नीति ही नहीं है इसलिए उनका राजनैतिक भविष्य उज्जवल नहीं है। वे अभी इस दौर में भले ही दिल्ली में सरकार बना लें । किन्तु देश के युवाओं और मध्यम वर्गीय बुर्जुआ राजनीति में वे कांग्रेस या भाजपा का विकल्प होकर उभरेंगे, इसमें संदेह है।दरसल कांग्रेस और भाजपा का असली विकल्प केवल वामपंथ ही दे सकता है। वेशक अभी तो केजरीवाल और 'आप' ही नामी-गिरामी 'कद्दावर ' साम्प्रदायिक पूंजीवादी -'भगवा 'नेतत्व की चुनौती दे रहे है। अभी तो साम्प्रदायिकता और कट्टर पूंजीवादी विचाधारा के अच्छे दिन आये हैं। लेकिन दिल्ली में 'आप' जीत भी गए तो कुछ नहीं कर पाएंगे। क्योंकि विपरीत ध्रुब वाली केंद्र सरकार 'आप' को कुछ करने ही नहीं देगी। 'आप' की झाड़ू के तिनके -तिनके उड़ जाएंगे।
वैसे भी केंद्र में सत्तासीन वर्तमान सर्वोच्च नेतत्व तो 'भाग्यवान' [नसीब वाला ] है। मुसीबत की मारी कांग्रेस या विचारधारा के धनी वामपंथ को किनारे लगा कर देश की जनता ने अभी तो भाग्यवानों को या 'आप' को चुनने का तय किया है। खुद भेड चाल ही ने इस भयानक अराजकता और अस्थिरता के दौर को न्यौता दिया है।जनता को और 'आप' को शिकायत करने या निराश होने का तब कोई हक नहीं जब की उसे मालूम है कि फिजाओं में साम्प्रदायिकता और पूँजीवाद का ' धीमाजहर ' घोला जा रहा है। एकमात्र आशाजनक तथ्य यही है कि अंततोगत्वा जीत सत्य की होती है। यह सार्वभौम सूत्र ही आवाम को पुनः सत्य के पक्ष में पुनः खड़ा करेगा। 'आप ' के या उसके नेता अरविन्द केजरीवाल की व्र्तमान जीत हार से देश को कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। भाजपा तो केंद्र सत्तारूढ़ है ही। उसके काम को भी सभी दख रहे हैं।
केजरीवाल ,किरण जैसे उथले नेता -कम अफसर ज्यादा , मुख्य मंत्री तो क्या राजनीति में प्रवेश के भी काबिल नहीं हैं। अण्णा हजारे खुद दिग्भर्मित और अपरिपक्व किस का 'एनजीओ' संचालक रहा है। उसके अखाड़े में किरण वेदी ने भी खूब 'माटी गोड़ी ' है। बक्त की आंधी ने दिल्ली विधान सभा चुनाव में भाजपा और 'आप' को प्रतिदव्न्दी बनाकर पेश किया है। जिसमें अन्ना के पूर्व चेला - चेली मुँह चला रहे हैं।
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें