यद्द्पि समस्त 'हिन्दू जगत ' को यह जानकर बहुत दुःख हुआ होगा ,गुस्सा आया होगा ,क्षोभ उतपन्न हुआ होगा कि इस साल के महाशिवरात्रि पर्व पर अमेरिकी नस्लवादियों ने 'हिन्दुओं' को मुँह चिढ़ाया है। लेकिन इन अमेरिकी 'नस्लवादियों ' ने इस कृत्य के मार्फ़त दो अच्छे काम अनजाने में कर दिये हैं। वाशिंगटन के पवित्र 'शिवमंदिर' की दीवार पर "गेट आउट' लिखकर उन्होंने न केवल 'नमो' को चिढाया ,न केवल ओबामा को शर्मशार किया अपितु मेरे उस आलेख को सही सावित कर दिया जो मैंने पन्द्रह दिनों पहले ऍफ़ बी पर पोस्ट किया था। जिसे पढ़कर अमेरिका के दलालों ने , भारतीय सत्ता के दलालों ने, संघी दूषित मानसिकता के रोगियों ने 'नाक भौं- बक्र शूक ' किया था। प्रबुद्ध पाठकों और चिंतकों के विचारार्थ वह आलेख पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है। जो की निम्नानुसार है
"अमेरिका में नस्लीय हिंसा देख्रकर न केवल महात्मा गांधी बल्कि मार्टिन लूथर किंग भी आंसू बहां रहे हैं!"
वेशक भारत में मजहबी झगड़े हैं। जाति -पाँति की दीवारें हैं। राजनीति व्यवसाय और लोकाचार में इन का दुरूपयोग भी हो रहा है। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की स्थति इतनी बुरी भी नहीं कि "गांधी होते तो अफ़सोस करते "! जैसाकी यूएस प्रेजिडेंट बराक ओबामा ने अमेरिका में कहा ! उनके इस कथन पर जागरूक भारतीय पहले ही घोर आपत्ति जता चुके हैं । लेकिन भारत के 'असली देशभक्तों ' ने क्यों मुसीका लगा रखा है? यह समझना कठिन नहीं है। दरसल बराक ओबामा ने तो उन्ही पर चुटकी ली है। भारत का यह दुर्भाग्य ही है कि पहले तो उसे मनमोहनसिंह जैसे ' मौनी बाबा ' का मौन चुभता रहा , अब वर्तमान सरकार के 'बोलू दी ग्रेट' ने भी इस 'ओबामा उबाच' के बारे में अपनी जुबान पर दही जमा रखा है।
अमेरिका में अभी २ दिन पहले तीन निर्दोष मुसलमानों को उनके अमेरिकी पड़ोसियों ने गोलियों से भून दिया गया। वेशक मारने वाले श्वेत प्रभु थे। अमेरिकी मीडिया और सरकार चुप रहते हैं। इस वीभत्स नृसंस हिंसा पर पाकिस्तान चुप है। क्योंकि उसे तो केवल भारत की बर्बादी के ही सपने आते हैं। उधर बराक ओबामा उर्फ़ 'बराक भाई' उर्फ़' बरक्वा ' को तब न तो गांधी याद आते हैं और न 'मार्टिन लूथर किंग ' ! 'बराक ओबामा को 'नमो' ने बराक भाई कहा क्योंकि गुजराती संस्कृति में हर पुरुष 'भाई' और हर नारी 'बेन' है। किन्तु भिंड मुरैना या बुंदेलखंड में बराक ओबामा यदि कुछ दिन रहेंगे तो उन्हें इस तरह पुकारा जाएगा - अरे ओ बरक्वा कितने आदमी …?
बहरहाल अभी परसों की बात है एक हिंदुस्तानी [गुजराती ] बुजुर्ग अमेरिका में अपने बेटे के पास कुछ दिन गुजारने पहुँचते हैं। चूँकि वे अंग्रेजी नहीं जानते हैं ,चूँकि वे श्वेत नहीं हैं , इसलिए सड़क पर पैदल चलने पर ही अमेरिकी श्वेत पुलिस द्वारा उनकी बेरहमी से ठुकाई कर दी जाती है। ये बुजुर्ग अभी भी आईसीयू [अमेरिका] में भर्ती हैं। अब कई सवाल हैं जो अमेरिका की तरफ उठने चाहिए। यदि भारत सरकार डरती है तो मीडिया क्यों मौन है ? भाजपा ,कांग्रेस ,जदयू ,सपा और 'आप' केवल सत्ता के लिए ही हलकान हो रहे हैं।उनके मंच से ये सवाल क्यों नहीं उठते ?
बराक ओबामा के राज में अमेरिका की यह नस्लवादी दुर्दशा देखकर स्वर्गस्थ - 'मार्टिन लूथर किंग ' अफ़सोस करते या शाबाशी देते ? क्या अब भी अमेरिका को भारत पर किसी किस्म की नसीहत का अधिकार है ? क्या भारत के नेताओं में इतना भी नैतिक साहस नहीं की अमेरिकी राजदूत को बुलाकर कहें की आपके देश अमेरिका में नस्लीय हिंसा देख्रकर न केवल महात्मा गांधी बल्कि मार्टिन लूथर किंग भी आंसू बहां रहे हैं। वे आप के बराक भाई पर और आपके अमेरिका पर अफ़सोस कर रहे हैं !
क्या अमेरिका ,क्या भारत ,क्या एशिया क्या यूरोप सभी जगह ,सभी देशों में ,सभी सभ्यताओं में एक सार्वभौम सत्य विद्द्य्मान है कि '' जो सत्ता के लिए , व्यापार के लिए , मानवमात्र के शोषण के लिए ,अपने - छुद्रतम स्वार्थों के लिए धर्म-मजहब ,जाति -नस्ल का इस्तेमाल करते हैं वे ही इतिहास के असली खलनायक हुआ करते हैं"।
श्रीराम तिवारी [visit on www. janwadi.blogspot.com]
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