गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

इस दौर में तो 'बाजार ही समाज का दर्पण है ' !



   ज्ञात विश्व  के सभ्य समाजों और उदार राष्ट्रों के विकास क्रम में एक अद्भुत समानता रही है। कुछ कटटरपंथी 'बंद' समाजों और 'सुल्तानी -आसमानी राष्ट्रों' को  यदि अपवाद मान  भी लिया जाए तो भी विश्व के अधिकांस  समाजों और राष्ट्रों  की सतत विकास यात्रा  में सार्वभौम सत्य की साख सूक्तिबद्द  होने के वाबजूद भी नित्य परिवर्तनीय  रही है। प्रत्येक दौर में  नए -पुराने की द्वन्दात्मक्ता के फलस्वरूप मानवीय मूल्यों  का सतत  अविराम प्रवाह एवं  एकसार [यूनिफॉर्म ] परिष्करण एवं भूमंडलीकरण होता रहां  है।जीवंत और विकाश् मान समाजों और राष्ट्रों ने इन्हीं अवदानों से दुनिया में बढ़त हासिल की है।
                         मध्ययुग के  बर्बर सामंतयुगीन समाज  और उससे पूर्व के प्रचलित कबीलाई -समाजों -राष्र्टों में , न केवल भारतीय उपमहाद्वीप  के तत्कालीन जनपदों में  बल्कि  ततकालीन ज्ञात विश्व*   के  प्रायः सभी देशों और समाजों में प्रकारांतर से  मान्यता प्रचलित  थी कि  'यथा राजा तथा प्रजा'। आम आदमी का तब कोई स्वतंत्र  वजूद  या इतिहास नहीं होता था।  केवल राजाओं ,रानियों ,सम्भ्राटो ,साम्राज्ञीओं ,सामंतों ,क्षत्रपों ,सेनापतियों ,योद्धाओं और अप्रतिक  सुंदरी ललनाओं का इतिहास ही जनश्रुत हुआ करता था। धर्मगुरु ,पुरोहित वर्ग या कोई  शिक्षक भी कभी कभार किसी आख्यान का हिस्सा हो जाया करता था। अभिप्राय यह है कि यही वर्ग तब 'समाज का दर्पण' हुआ करता था।
                      सामंतवाद के साम्राज्यवादी रुझानों और  कतिपय प्रगतिशील प्रयोजनों से  उपनिवेशवाद का सिलसिला चल पड़ा। यूरोपियन समाजों और राष्ट्रों को अज्ञात  'नयी दुनिया' की खोज  की उद्दाम बढ़त हासिल हुई। १७ वीं -१८ वीं सदी  के मध्य  तक इंग्लैंड -फ़्रांस -जर्मनी सहित सम्पूर्ण  यूरोप  में वैज्ञानिक अनुसन्धान एवं मानव बुद्धि की  चमत्कारी शक्ति  का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन  होने लगा। सामंतों के प्रसाद पर्यन्त -अधिकांस  लेखक ,कवि ,नाटककार और कलाकार अपने आप को 'नाइट ' या कुलीन समझने लगे। सामंतों और कुलीनों के आपसी संघर्ष ने 'उदारवादी सामंतवाद' को पैदा किया।  आगे चलकर  इसी  की कोख से ततकालीन  'नरम पूंजीवाद' का जन्म हुआ  जिसने - भद्र और कुलीन  यूरोपियन समाज  को भी शासक वर्ग की क़तार में शामिलकर लिया।पूंजीपति ,साहूकार और जमींदार  भी तब  उस तत्कालीन शासन व्यवस्था में अपना अहम हिस्सा हासिल करने में सफल रहे।  सामंतवाद पर पूंजीवाद के इस वर्चस्व ने  चूँकि  'रेनेशा' या पुनर्जागरण  की  भी  पूर्व पीठिका लिख  डाली थी ।  इसीलिये  सामंतों पर दवाव बनाया गया कि धनाढ्य और कुलीन वर्ग को भी अब शासन तंत्र में मुक्मबिल जगह दी जाए।  उन्हें 'मैग्नाकार्टा' से भी आगे विशेषाधिकार प्रदत्त किये जाएँ। इस परिघटना को लोकतंत्र और  समाजवाद के जन्म की पूर्व पीठिका कह सकते  हैं । पूंजीवादी उदयकाल के   दौर में   शिक्षा साहित्य ,कला और विज्ञान में  पारंगत कुलीन समाज ने  तत्कालीन शासक वर्ग  से लोहा लोया। अपना सम्मान और स्वाभिमान हासिल किया। जिस  दौर  में  साहित्य  ने पोप  की  प्रभुसत्ता को ललकारा ।  दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ,समानता,बंधुत्व और लोकतंत्र के झंडे बुलंद किये हैं।दरसल  उसी दौर का 'साहित्य ही  समाज का दर्पण' है।
                        वेशक कभी यूनान और भारत  भी आध्यत्म ,गणित  या दर्शनशात्र में  निष्णांत रहे हैं । किन्तु आधुनिक  भौतिकी , रसायन ,मेडिकल साइंस,जीव विज्ञान ,अंतरिक्ष विज्ञान ,आणविक भौतिकी -रेल ,मोटर, पावरलूम से लेकर कम्प्यूटर  या मोबाईल तक - जितनी भी खोजें और उसके अवदान आज हम प्रयोग  कर रहे हैं वे सभी उसी यूरोप ,अमेरिका और पश्चिम की देंन  हैं।  जिसने दुनिया को लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांत सूत्र दिए हैं।  इन्ही पश्चिमी  समाजों और राष्ट्रों की  वैज्ञानिक खोजों तथा अनुसंधानों से आज धरती पर 'भूमंडलीकरण' दमक रहा है।  उन्ही के  आधुनिक आविष्कार  अब सर चढ़कर बोल रहे हैं। यह शोध का विषय है कि  जो कभी  संसार में 'जगद्गुरु'  हुआ करता था। वही महान देश - भारत -गाय,गंगा ,गौमूत्र ,तुलसी , पीपल और 'अहिंसा परमोधर्मः' से  आगे नहीं बढ़  पाया। सदियों की गुलामी  के कारक  भी इन्हीं तत्वों  में विद्यमान हैं।
                                 पश्चिमी  साम्राज्य्वादी  और उपनिवेशवादी  राष्ट्रों में  साइंस की  उन्नत तकनीकी  का  धमाल  ,एटम  बम, ,पेट्रोलियम उत्पाद  तथा सूचना संचार क्रांति के आविष्कारों  के चक्रवात  अब आक्रामक पूंजीवाद प्रचंड  को हवा दे  रहा है। यह  न केवल वस्तुओं के ,न केवल जमीनों के ,न केवल मानवीय या नैसर्गिक  उत्पादनों  के , न केवल  वैश्विक बाजारीकरण के  अपितु इस युग के  मनुष्य मात्र की आत्मा के वैचैनीकरण का दौर  है।  इसलिए  इस दौर में तो 'बाजार ही समाज का दर्पण है '।
                     इस दौर में  किस देश की सत्ता में कौन रहेगा यह बाजार ही तय करेगा। तहरीर  चौक पर कौन कितना हंगामा  खड़ा करेगा  यह 'विश्व बाजार के नियंता  ही तय करेंगे। इराक ,अफगानिस्तान ,सीरिया ,फलिस्तीन और नाइजीरिया में कौन आग लगाएगा यह 'हथियारों के सौदागर याने बाजार की शक्तियां निर्धारित करेंगी।  किस देश में लोकतंत्र का  खात्मा करना है ,किस्में तानाशाही लाना है ,किस में गृह युद्ध भड़काना है यह सब ' अंतर्राष्ट्रीय बाजार  की शक्तियाँ ' तय कर रहीं  हैं।  भारत के  राम लीला मैदान में या जंतर-मंतर पर कब  किसके खिलाफ  कितनी नौटंकी  करना है  यह भी  लोकल नेतत्व  ही नहीं  -मीडिया ,कार्पोरेट घराने  ही नहीं , नवधनाढ्य  फुर्सतिये  ही नहीं बल्कि  'विश्व  बाजार की आर्थिक शक्तियाँ ' तय करेंगी । बाजार में उपलब्ध उत्पादनों , मांग और आपूर्ति के अनुसार यह पुनीत कार्य  सम्पन्न  होता है।

         अब तो   होली , दीवाली ,ईद ,क्रिसमश  ही नहीं बल्कि  बेलेन्टाइन डे  की भव्यता  भी बाजार ही तय करता है।  विश्व  बाजार ही तय करेगा  कि किस देश की किससे  दोस्ती और किससे  दुश्मनी रहेगी? भारत का  विदेशों   में जमा कालाधन  वापस मिलेगा कि  नहीं ? यह  भी 'विश्व बाजार की शक्तियाँ ' ही  तय करेंगी। देश में  विकास  -सुशासन -कब कितना आएगा ? लोकतंत्र रहेगा या तानशाही आएगी ? कौन सत्ता में रहेगा और कौन नहीं रहेगा ?  'बाजार की ताकतें ' ही  यह तय करने में जुटीं  हैं। इसीलिये मैं  भुजा  उठाकर घोषणा करता हूँ कि  'इस दौर में तो बाजार ही समाज का दर्पण है '

                                  श्रीराम तिवारी - Email-shriramtiwaribsnl@gamil.com
                                                           web site  -www.janwadi.blospot.in

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