मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

किसान विरोधी और कार्पोरेट समर्थक छवि तो मोदी सरकार की बन ही चुकी है।


आर्थिक उदारीकरण और बाजारीकरण की नयी नीतियों के   प्रारम्भिक दौर में भी जब नरसिम्हाराव और मनमोहनसिंह की जुगलबंदी ने  देश और दुनिया के पूँजीपतियों  -कार्पोरेट घरानों के लिए ,मल्टिनेसनल कम्पनियों के लिए भूमि अधिग्रहण की शुरुआत की थी तब  भी देश  की संसद में और देश की सड़कों पर सिर्फ वामपंथी ही  इसके खिलाफ  संघर्ष किया  करते थे। अण्णा  और  अन्य सोशल एक्टिवस्ट तो  बहुत बाद में २० साल बाद  ही  रामलीला मैदान में प्रकट हुए।  वहां भी उन्होंने अब तक  केवल 'लोकपाल' की ही  ढपली ही बजायी है  ।  जिस लोकपाल के नाम पर उन्होंने डॉ मनमोहनसिंह को 'महाखलनायक' बना डाला,यूपीए को सत्ता से और कांग्रेस को भारत से मुक्त  कराने का नेक काम किया ,  उस 'लोकपाल' नामक ' बिजूके ' का तो अब  चीथडा  भी गायब हो चुका है ।  वेशक अन्ना के कर्मों का प्रति फल भाजपा और मोदी जी को भरपल्ले से मिला। अन्ना आंदोलन का कुछ फल  केजरीवाल और 'आप'  को भी मिल गया । किन्तु देश  की जनता  को क्या मिला ?  'ठन-ठन गोपाल ! देश के किसानों को क्या  मिला  ? 'भूमि अधिग्रहण बिल'।  मजदूरों को क्या  मिला ? 'श्रम  संशोधन बिल' ।  अण्णा  हजारे को मिला अपयश।  इसलिए अन्ना  हजारे अब की बार जंतर-मन्तर पर ' मोदी  विनाशक' मंत्र  पढ़ रहे हैं।  कुछ दिन बाद 'रामलीला' मैदान में वे कुछ और  भी 'लीला' करेंगे।

                               विगत यूपीए के राज में  भी  कई बार संसद में और संसद से बाहर  गैर कांग्रेस -गैर भाजपा  विपक्ष  ने भी  ' भूमि अधिग्रहण बिल' का विरोध किया  है। तब भाजपा  विपक्ष में हुआ करती  थी। उस ने भी  बड़े  वेमन से   कई मौकों पर संसद से   'वाक् आउट' में शेष  विपक्ष का साथ दिया  है। ततकालीन यूपीए की  नितांत  मनमोहनी -चिदंबरी  नकारात्मक  नीतियों से परेशान जनता ने उसे  विगत  मई २०१४ में केंद्र की  सत्ता से बेदखल कर दिया।  अब भाजपा सत्ता में है।  किन्तु वह यूपीए की उन्ही विनाशकारी नीतियों पर चलने पर आमादा है। खुद भाजपा   की  मातृ  संस्था 'संघ'  भी  इस बिल पर  दबी जबान  से असहमति जता रही है। इधर संसद में   नाम मात्र  के विपक्ष - कांग्रेस ,  वामपंथी , जदयू ,सपा  और  क्षेत्रीय दलों की सीमित ताकत  ने  भूमि  अधिग्रहण बिल को लेकर  सही स्टेण्ड लिया  है  । वेशक  मोदी सरकार  की  सभी  जगह  थू-थू   हो रही   है। उनकी  राह  संसद से लेकर सड़कों तक कहीं भी आसान नहीं है। इस किसान विरोधी बिल को लेकर उसकी स्थिति 'साँप -छछूंदर' की हो चुकी है।

                                मोदी सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत किये जा रहे मौजूदा  'भूमि अधिग्रहण बिल' के खिलाफ सत्र  के प्रथम कामकाजी दिवस पर ही  संसद से 'सम्पूर्ण विपक्ष ' ने वाक् ऑउट ' किया। यह बहुत शानदार एकता है। यह  एकता अस्थायी ही  सही किन्तु उस सोच को प्रतिध्वनित करती है कि  भारत में एकमात्र कृषि सेक्टर ही है जो १२५ करोड़ लोगों को भूँखों नहीं मरने देता। कृषि योग्य सिचित  और  दो-फसली , तीन फसली जमीन को किसी 'यूनियन कार्बाईड'  जैसे मानवहंता  के सुपुर्द करने का तात्पर्य 'सबका विकाश ,सबका साथ कैसे हो सकता है ?  इसीलिये सम्पूर्ण  विपक्ष ने  संसद से बहिर्गमन कर  बहुत अच्छा किया। देश की सड़कों पर और देश की संसद में जो भी इस बिल का विरोध कर रहे हैं  वे  सभी  धन्यवाद के पात्र हैं। उन सभी का यह देशभक्तिपूर्ण कार्य काबिले तारीफ़ है।
                                         पहले  ततसंबंधी अध्यादेश और अब   इस 'भूमि अधिग्रहण  बिल'  की  आज चारों ओर  मुखालफत हो रही है। देश के १६० संगठनों सहित वामपंथ ने  भी प्रमुखतः के साथ धरना दिया।   प्रदर्शन  भी किया।  सभी संगर्षरत साथियों को  लाल सलाम ! हालाँकि  मीडिया को यह सब नहीं दिखा।  सम्भव है कि  लोक सभा में अपने प्रचंड बहुमत के मद चूर होकर सरकार इस 'भूमि अधिग्रहण  बिल ' को वापिस ही  न ले या आंशिक संशोधन ही करे , किन्तु इस आत्मघाती कदम से  किसान विरोधी और कार्पोरेट समर्थक  छवि तो  मोदी सरकार की बन ही चुकी है।  हो सकता है कि भारतीय मध्य  मार्गी  मीडिया को  केवल अण्णा की नौटंकी  और केजरीवाल का नाटक  ही दिखाई दिया हो ! उसे  यूनियन गवर्मेंट या भाजपा  के प्रवक्ता ही  दिखाई दे रहे हैं।  जो  किसान आत्महत्या कर रहे हैं   वे इस अपरिपक्व   मीडिया को नहीं दिख रहे। जो किसान संगठन और वामपंथी  ट्रेडयूनियन्स तथा  कार्यकर्त्ता  लगातार 'जल -जंगल-जमीन ' बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं,  जेल  जा रहे हैं , हिंसा   शिकार हो रहे हैं  वे इस  वर्तमान मीडिया को कम ही दिख रहे हैं। सीपीआई  नेता  कामरेड पानसरे जैसे सैकड़ों  क्यों मारे जा रहे हैं  ?  मीडिया को नहीं मालूम।  वे  तो अन्ना हजारे को भी नहीं  देखते।  यदि अण्णा  दिल्ली कुछ नहीं करते।
                                          मीडिया की ही कृपा से जनता  के एक खास हिस्से को लगने  लगता है कि   मोदी जी देश के 'कर्णधार' हैं।  कभी मीडिया की ही कृपा से 'आप' को लगता है कि  केवल  अण्णा  हजारे  ही देश का  तारणहार है। जबकि  मोदी जी  एक साधारण राजनैतिक प्राणी मात्र हैं।  अण्णा  हजारे तो उनसे भी गए  गुजरे हैं।  वे  घोर व्यक्तिवादी और यशेषणा का  मनो रोगी है।   अण्णा को जब भी लगने लगता है कि  वह  मीडिया से  ओझल हो  रह हैं  या जनचर्चा से दूर हो   रहे हैं  ,  तो   उनका  दिल   " हूम्म -हुम्म ' करने लगता है। बेकाबू  होने लगता है। उनका दिल   फौरन से पेस्तर  दिल्ली कूच करने को मचलने लगता है। अण्णा  को  अपने पठ्ठों की कीर्ति भी रास नहीं आती।  वे केजरीवाल से भी  ईर्षा  करते हैं । क्योंकि केजरवाल  को अण्णा  का इस्तेमाल करना आता है।  अन्ना हजारे तो मन ही मन  किरण वेदी  की जीत  चाहते थे।   किन्तु जब किरण वेदी हार  गयी  तो अण्णा  को क्रोध आ गया।  अण्णा  हजारे को  अपने गुप्त सहयोगी  'आरएसएस' की  भी  अब उतनी जरुरत नहीं।   इसीलिये 'संघ'  के  विगत अवदान को भूलकर  वह दिल्ली में मोदी  विरुद्ध अनुष्ठान का आह्वान कर  रहे हैं। अन्ना को  अपना  नालायक चेला  केजरीवाल  अब काबिल  पठ्ठा नजर आने लगा है। इसीलिये  ही तो अपना वादा तोड़कर  अन्ना ने जंतर-मन्तर  पर  'आप' नेता  केजरीवाल से मंच साझा करने  की  छूट दी। अब यदि वामपंथी नेता  नाराज हों तो होते रहें। अण्णा  सफाई देते रहें किन्तु  केजरी का लड़कपन तो जाहिर हो ही गया।
                                             अखिल भारतीय किसान सभा के  जुझारू कामरेड हन्नान मौलाह  [सीपीएम] और कामरेड  अतुल अनजान [सीपीआई] भीअपने   हजारों वामपंथी कार्यकर्ताओं के  साथ अन्ना के इस धरने में शामिल हुए थे ।   चूँकि देश के  किसानों के  खिलाफ और  इजारेदार पूंजीपतियों  के पक्ष में  मोदी सरकार द्वारा आहूत  इस 'भूमि अधिग्रहण बिल'  के खिलाफ  राष्ट्रव्यापी एक जुट आंदोलन  बहुत जरुरी  है। इसलिए  न केवल वामपंथ बल्कि  हर  देशभक्त भारतीय  इस आंदोलन का  आज समर्थन कर रहा  है। इस आलेख के लेखक ने  अपने पूर्व  के  कई आलेखों में - विगत बर्षों  में मैंने  अण्णा  के व्यक्तित्व को और उनके आंदोलन को "अनाड़ी की दोस्ती जी का जंजाल माना है''।  हमेशा आशंका व्यक्त की  है  कि  अन्ना का  विचारविहीन  अस्थिर  मन और  अनियंत्रित  आंदोलन  शायद ही  किसी  क्रांतिकारी बदलाव  के लिए  मुफीद हो ! अन्ना के 'मन में भावे मूड़   डुगावे ' से कौन परिचित नहीं है ? वे अपने आपको गांधीवादी कहते हैं किन्तु गांधीवाद का 'ककहरा' भी नहीं जानते। अण्णा   व्यक्तिशः  किसी राजनैतिक बन्दूक के खाली  कारतूस से ज्यादा कुछ नहीं  हैं। मैं  आज  भी अपने उस पूर्ववर्ती स्टेण्ड पर अडिग हूँ। जिसे आज  २४ फ़रवरी -२०१५   के धरने पर अरविन्द केजरीवाल ने सही साबित कर  दिखाया। अरविन्द केजरीवाल को  मंच साझा करने की इजाजत देकर अण्णा  ने  अपनी राजनैतिक  अपरिपक्वता  ही   प्रदर्शित  की है।

  अण्णा  और केजरीवाल की इस  अप्रत्याशित  हरकत  का  विरोध करते हुए जंतर- मंतर  से कामरेड अतुल अनजान और कामरेड हन्नान मौलाह  ने सही निर्णय लिया। इस अवसर पर  जिन  वाम पंथी  किसान संगठनों , सिविल सोसायटी के साथ अण्णा  हजारे ने धरना दिया  उनकी अनदेखी की गयी।  यह निंदनीय कृत्य   है। न केवल  अरविन्द केजरीवाल को मंच से तक़रीर का अवसर देकर  सामूहिक उत्तरदायित्व की उपेक्षा की गई।  बल्कि उनके इस कृत्य में फासिस्ज्म की बू आती है। अण्णा  हजारे और उनके  चेले   भूमि अधिग्रहण  बिल  का  विरोध  करें  यह  सभी को  स्वीकार्य है।  किन्तु वे इसकी आड़ में  किये जा रहे  आंदोलन का  राजनैतिक   समर्थन केवल अपने लिए  जुटाएँ यह  कदापि उचित नहीं है ।

केजरीवाल  और अन्ना हजारे भले ही साहित्यकार न हों ,  भले ही उनके पास कोई क्रांतिकारी दर्शन नहीं है किन्तु कम से कम वे शब्दों का चयन  तो ढंग से  करें ! इस संदर्भ मेंआज का  ही एक उदाहरण काबिलेगौर है।  मीडिया को बाइट देते हुए   केजरीवाल   ने  और मंच से अन्ना हजारे ने  कई  बार 'खिलाफत' शब्द का प्रयोग किया।  उनके अधिकांस  वाक्य इस प्रकार हैं।  " हम केंद्र सरकार के इस किसान विरोधी बिल  की खिलाफत करते हैं" या 'हम भृष्टाचार की खिलाफत करते हैं "  आम आदमी इस खिलाफत शब्द का सत्यानाश करे तो माफ़ किया जा सकता है।  किन्तु 'आम आदमी पार्टी ' का नेता  केजरीवाल और अपने आप को गांधीवादी कहने वाले  बड़े समाज सेवी   अन्ना हजारे  द्वारा इस 'खिलाफत' शब्द की दुर्गति   नाकाबिले - बर्दास्त है।  केजरीवाल को , अन्ना हजारे को और उन सभी को  जो  सार्वजनिक जीवन में काम करते हैं - मेरा यह   सुझाव है कि  वे 'खिलाफत' शब्द का इस्तेमाल  ही न  करें तो बेहतर है।  दरअसल खिलाफत का मतलब है  'इस्लामिक बादशाहत '।या  "धर्मगुरु की सर्वोच्च सत्ता" । दरशल   इस खिलाफत शब्द पर तो बहुत बड़ा ग्रन्थ भी  लिखा जा सकता है।  कुछ लोग हिंदी के  'विरोध'  शब्द  की जगह  अरबी-फारसी का या उर्दू का यह  'खिलाफत'  शब्द जबरन  घुसेड़ देते हैं। यदि  किसी को  उर्दू या फ़ारसी  का इतना ही शौक  चर्राये  ,तो  उसे  चाहिए कि  उस  जगह ' मुखालफत'  शब्द का प्रयोग करे , जहाँ वह 'विरोध' शब्द कहने सुनने या लिखने से  कतराता है।
                                                   
                                         श्रीराम तिवारी    

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