दक्षिणपंथी पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र की राजनीति में महाचालू और मजे हुए नेता और राजनैतिक दल जब बम्फर जीत हासिल करते हैं तो वे जीत का श्रेय अपने 'हीरो' को देते हैं। इसके साथ -साथ जीत की इस वेला में आम जनता याने मतदाता तब उन्हें बहुत समझदार लगती है। किन्तु जब वे बुरी तरह हार जाते हैं तो उस हार का मरा हुआ साँप किसी गई गुजरी गैर दुधारू गाय के गले में डालकर ,जनता को मुफ्तखोर और स्वार्थी बताने लगते हैं। हारे हुए नेताओं की दिव्यवाणी में 'जन लत मर्दन ' का इजहार खूब हुआ करता है।
दिल्ली राज्य चुनाव में 'आप' की ऐतिहासिक बम्फर जीत को नकरात्मक नजरिये से देखने वालों के तीन महत्वपूर्ण 'ओपिनियन' प्रस्तुत हैं। पहला -राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का। 'संघ ' का आकलन है कि ''दिल्ली राज्य चुनाव में भाजपा की करारी हार के लिए - किरण वेदी जिम्मेदार हैं। उनका यह भी आकलन है कि यह जनादेश 'मोदी सरकार' के खिलाफ नहीं है। जनता को मुफ्तखोरी पसंद है इसलिए वह केजरीवाल के नकली - लोकलुभावन नारों में उनके साथ हो ली। भाजपा की हार के लिए पार्टी के स्थापित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भी जिम्मेदार है। बाहरी नेताओं को दल बदल करवाने ,उन्हें तवज्जो देने का फैसला ही अहम है। उनका यह भी कहना है कि इस चुनाव में केजरीवाल के खिलाफ व्यक्तिगत आरोप और 'मामूली' चंदे की बात को जरा ज्यादा ही उछाला गया।'' इस विश्लेषण में भाजपा के सर्वोच्च नेता कहाँ हैं ? क्या संघ के इस निष्कर्ष से यह सावित नहीं होता है कि दिल्ली में भाजपा की इस दुर्गति के लिए केवल और केवल 'मोदी सरकार' ही जिम्मेेदार है ?
किरण वेदी को भाजपा में लाने और रथारूढ़ अकरने की जिम्मेदारी किसकी है ? पार्टी कार्यकर्ताओं या दिल्ली भाजपा -नेताओं की उपेक्षा किसने की ? 'आप' नेता केजरीवाल पर उल-जलूल आरोप किसने लगाए ? संघ का मोदी जी को क्लीन चिट देना और किरण वेदी के सर हार का ठीकरा फोड़ना क्या सिद्ध करता है ? क्या संघ का दिल्ली में भाजपा की शर्मनाक हार का चुनावी विश्लेषण विरोधाभासी नहीं है? क्या यह संघ की राजनैतिक परिपक्वता का सूचक है ? वेशक यह भी सम्भव है कि अपनी वैयक्तिक कमजोरियों के कारण शायद संघ के शीर्ष पदाधिकारी भी मोदी जी से डरते हों ! जो खुद अपराधबोध से ग्रस्त होते हैं वही सत्ता से भयातुर हुआ करते हैं। कुंठित और दासत्व वोध से पीड़ित लोगों का श्रीहीन होना स्वाभाविक है। वरना संघ जैसे भीमकाय 'महाबलशाली संगठन' के उच्चतर पदाधिकारियों का अपने ही एक साधारण से भूतपूर्व प्रचारक की गणेश परिक्रमा करने का तातपर्य क्या है ? क्या 'संघियों' के लिए अब सत्ता संगठन से भी महान हो गयी ? यदि नहीं तो उस से इतना भयभीत होने का क्या मतलब है ? कहीं ऐंसा तो नहीं कि ;-
इमि कुपंथ पग देत खगेशा। रहे न तेज तनु बुधि बल लेशा।। [रामचरितमानस]
अर्थ :- जब कोई व्यक्ति या संगठन गलत राह पर चलने को पहला कदम रखता है तो उसके पैर कांपते हैं , जुबान लडखडाती है , शरीर निश्तेज और बलहीन हो जाता है और बुद्धि नष्ट हो जाती है।
संघ के इस हालिया 'दिल्ली बौद्धिक विमर्श' और चुनावी विश्लेषण ने उसे विराट से 'वामन' नहीं अपितु बौना बना दिया है। संभव है कि संघ की इस बौद्धिक मशक्क़त से मोदी जी पुनः अपनी ऊंचाई पर पुनर्प्रतिष्ठित हो जाएँ किन्तु संघ' जैसे 'विश्व विख्यात' गैर राजनैतिक [?] संगठन ने केजरीवाल जैसे मामूली हैसियत के नेता को विराट 'संघ परिवार' के समक्ष खड़ा कर उसे बहुत 'बड़ा' नेता तो बना ही दिया है।
यह जग जाहिर है कि 'आप' की इस जीत से यह तो सावित हुआ ही है कि बिना साम्प्रदायिक उन्माद के और बिना जातीय ध्रुवीकरण के भी लोकतंत्र में चुनाव जीता जा सकता है। वशर्ते ईमानदारी से लड़ने का साहस हो। स्थानीय तात्कालिक समस्याओं पर फोकस हो। वेशक 'आप' की इस जीत में किसी भी जातीय और साम्प्रदायिक संगठन का कोई 'हाथ' नहीं है। किसी जातिवादी साम्प्रदायिक नेता का भी कोई रोल नहीं है। किसी अम्बानी-अडानी या कार्पोरेट हाउस का भी कोई हाथ नहीं है । अण्णा हजारे से भी 'आप' को इस चुनाव में किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली। 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' का तो भाजपा के अलावा किसी और को 'आशीर्वाद' देने का सवाल ही नहीं। फिर भी कुछ नेता और नेत्रियाँ अपने राजनैतिक विश्लेषण में 'आप' की जीत में 'संघ' को जबरन घुसेड़ रहे हैं। यह अतार्किक और असम्भव आरोप कोई नासमझ लगाए तो कोई बात नहीं। किन्तु यदि कोई स्थापित धर्मनिरपेक्ष और फासिस्ज्म से लड़ने वाला नेता लगाए तो यह सोचनीय बात है। यह ऐंसा आरोप है कि जैसे किसी ब्रहिंल्ला पर शीलभंग का आरोप लगाया जाए।
कांग्रेस के महासचिव और मध्यप्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्वजयसिह ने 'आप ' के नेता अरविन्द केजरीवाल और 'संघ' के बीच साठगांठ का आरोप लगाया है। 'आप' की जीत को उन्होंने 'कांग्रेस मुक्त भारत' की संघी योजना का हिस्सा और तदनुसार अमल करार दिया है। विगत रविवार को उन्होंने ट्वीट किया है कि "केजरीवाल संघ की कांग्रेस मुक्त भारत योजना का हिस्सा हैं.'' काश दिग्विजयसिंह जी सही होते ! वावजूद इसके कि वे भारत के सर्वश्रेष्ठ विद्वान नेताओं में से एक हैं। वावजूद इसके की वे लोकतंत्र ,ध्रर्मनिरपेक्षता के अलमबरदार है। वावजूद इसके कि वे फासिस्ज्म और क्रोनी पूंजीवाद के आलोचक हैं , इन सब सद्गुणों के वावजूद मेरा अनुमान है कि 'दिग्गी राजा' की 'आप' पर उपरोक्त नकारात्मक टिप्पणी तार्किकता से परे है ।
आदरणीय दिग्विजयसिंह जी को यह याद रखना होगा कि इन चुनावों में 'आप' बीच में नहीं पड़ती तो दिल्ली पर भी भाजपा का ही परचम लहराया होता !गनीमत समझो कि केवल कांग्रेस मुक्त दिल्ली या भारत की गूँज ही नहीं बल्कि इस के साथ साथ ही दिल्ली में भाजपा मुक्ति की अनुगूंज भी आपने सुनी है !यह भी याद रखें कि मध्यप्रदेश ,छग राजस्थान ,हरियाणा , महाराष्ट्र और कश्मीर में 'आप' के कारण आपकी [कांग्रेस] हार नहीं हुई है। कांग्रेस को संघ या भाजपा ने भी नहीं हराया। दरसल कांग्रेस यदि चाहे तो उसे कोई हरा भी नहीं सकता। दुनिया जानती है कि कांग्रेस को खुद कांग्रेस ही हरवाती है। दिल्ली में कांग्रेस की मर्मान्तक हार के लिए आप 'आप' को संघ से नथ्थी मत कीजिये ! हो सकता है आपके ट्वीट का कंटेंट मेरी समझ से पर हो या सम्भवतः आप कुछ और सावित करना चाहते हों किन्तु मुझे तब भी यकीन है की आपकी यह अभिव्यंजना अतिरंजित है। अतिश्योक्तिपूर्ण है !
'सूप बोले सो बोले किन्तु अब तो छलनी भी बोले ' वसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती बहिन जी ने भी अपनी दलित राजनीत के पराभव का ' महाबोधत्व' प्राप्त कर लिया है । उन्होंने पता लगा लिया है कि दिल्ली में उनकी जमानत जब्त होने का यूरेका ! यूरेका ! क्या है ? इसीलिये वे कहती हैं :- "अरविन्द केजरीवाल आर एस एस का आदमी है। उसके पिता श्री अभी भी 'संघ' की शाखाओं में जाते हैं। केजरीवाल के कारण 'आप' को दिल्ली में मेरे [ मायावती के जरखरीद] दलितों के वोट ट्रांसफर हो गये हैं। केजरीवाल तो दलितों[जिन पर मायावती जी का जन्म सिद्ध अधिकार है ] आरक्षण खत्म करना चाहता है " वाह ! क्या अदा है बहिनजी की ? क्या बाकई आपके वोट बैंक पर 'आप' ने डाका डाला है ? मायावती जी आपका डर तो बाजिब है। क्योंकि लोग साम्प्रदायिकता और जातीयतावाद से मुक्त होकर यदि 'शुद्ध' चुनाव करेंगे तो साम्प्रदायिक और जातीयता के 'दलदल' के दिन लदे ही समझिए। वेशक तब 'आप' जैसों का ही भविष्य उज्ज्वल है।
श्रीराम तिवारी
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