जब विक्रम रुपी अरुण जेटली ने पूर्व के वित्त मंत्रियों की तरह ही कार्पोरेट रुपी वैताल के बजट को अपने काँधे पर टाँगकर संसद रुपी 'अभ्यारण्य 'की ओर कूच किया तो कुछ भी नया या अनहोना नहीं किया। वित्त मंत्री ने अपनी एनडीए सरकार का सालाना बजट [पूँजीवादी वैताल] पेश किया तो ये बताने की जरुरत नहीं कि सारे चैनलस पर चक्खलस सुनाई पड़ने लगी। अर्थशाष्त्री -अर्थविशेषज्ञ और विश्लेषक ही नहीं बल्कि अखवार भी चीख चीखकर बताने लगे कि बजट नामक 'प्रेत' आखिर है क्या चीज ?
कुछ पत्रकार और मीडिया वाले तो होली के ही मूड में ही हंसी -मजाक पर उत्तर आये। वे राह चलते हर उस -आम परेशान आदमी के मुँह में माइक घुसेड़कर सवाल करने लगे कि " हाँ जी आप बताईये कि बजट कैसा है "? इससे पहले की उत्तर देने वाला कुछ तैयार हो कि चैनल वाली लड़की या लड़का किसी और चेहरे पर माइक को सटा देता। जनता में भी कुछ पत्रकारों के भी बाप मिल ही जाते हैं। वे मुस्कराकर बताते हैं कि "नयी बोतल में पुरानी शराब है जी !" या " बजट तो उनका है जी जो बजट वाले हैं जी " या "बजट तो बहुत बड़ा है जी हम तो १०० रूपये की १० भिन्डी लाये हैं जी " या " अपन तो बहुत गरीब हैं , प्रधानमंत्री जी ने खाता खोलने को कहा था सो वो तो खुलवा लिया किन्तु बैंक में पैसा अभी तक नहीं पहुंचा,अब देखते हैं जेटली जी कितने रूपये भिजवाते हैं ? " या " सरकार ने किसानों की उपजाऊ जमीन किन्ही अडानी-अम्बानी को देने के लिए कोई 'पैकेज' दिया है जी ,हमें तो मुवावजा ही मिल जाए इसी में खैर है "या "समाज के हरामखोरों की बुरी नियत से जिसकी जेब कट गयी हो, जिसके बीबी बच्चे अस्पताल में इलाज के लिए इन्तजार कर रहे हों , जो अस्पताल में डॉ की फीस के इंतजाम लिए हलकान हो रहा हो , जो दरिद्रजन या निम्नमध्मयवर्गीय मरीज महँगी दवाईंयों और महँगे इलाज के लिए मारे-मारे फिर रहे हों , जो छात्र फीस के लिए - किताबों के लिए या रोजगार के लिए भटक रहे हों , जो किसान गाँव में- खेत में अपनी ओला -पाला से बची खुची फसल ढोरों से बचाने में जुटे हों! उन से भी तो पूंछो कि बजट कैसा है ? बजट किसका है ? अपने लोक लुभावन वादों में यूपीए सरकार ने दस साल तक जिस घटिया आर्थिक नीति से भारत की आवाम को मूर्ख बनाया ,उसी घटिया और लूटखोरों के पक्षधर बजट को यदि 'मोदी सरकार' के 'वजीरे खजाना ' भी देश के सामने परोसें तो अल्बर्ट पिन्टो का गुस्सा होना स्वाभाविक है !
शासक वर्ग की कतारों में तमाम लोग हैं कि 'मारते हैं और रोने भी नहीं देते '! खास तौर से निम्न मध्यमवर्गीय युवाओं को तो क्या प्रांतीय बजट क्या राष्ट्रीय बजट सब बराबर हैं। विगत दिनों ग्वालियर में एक भर्ती के दौरान ही बिना काम-धाम पाये ही कई युवा आपस में लड़- भिड़ मरे । कुछ घायल भी हुए। इस व्यवस्था में केंद्र या राज्य के किसी भी तथाकथित आकर्षक बजट से क्या यह सिलसिला रुक सकता है ? नहीं ! सब जानते हैं कि निर्धन -मजबूर -किसानों ,मजदूरों और वेरोजगार युवाओं को तो 'सदा दीवाली संत की बारह मॉस वसंत' ही है ! किसी खास विचारधारा की समझ -बूझ के अभाव में वेचारे अपनी दुर्दशा पर कोई सवाल करने या आंदोलित होने के बजाय किसी मंदिर में मत्था टेकने चले जायंगे। ज्यादा मजबूरी हुई तो चोरी चकारी की राह चल देंगे। वे रेल में हों , जेल मैं हों ,या राजनीती के गंदे खेल में हों किन्तु कटना उन्ही तरबूजों को ही है। इस उत्तरआधुनिक युग में भी वे लोक काल परिश्थितियों की बदौलत किसी भी वैज्ञानिक चेतना से महरूम हैं।
वे नहीं जानते कि मौजूदा वैश्विक परिदृश्य किन कारणों से भयावह है ? उन्हें नहीं मालूम कि मौजूदा दौर में दुनिया का साझा संकट क्या है ? केवल पुराने वित्त वर्ष के कागजी पुलन्दे को पुनर्संशोधित कर संसद में पेश करने मात्र से उनकी तकदीर कैसे बदलेगी वे यह भी नहीं समझ पा हैं। उन्हें देशज और वैश्विक झंझावतों का अतंरसंबंध भी नहीं मालूम। एक तरफ आईएस ,अलकायदा तालिवान और अन्य खतरनाक चरमपंथी साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा दुनिया भर में निरंतर निर्दोषों का रक्त बहाया जा रहा है। दूसरी ओर वैश्विक बाजारीकरण ,निजीकरण ,कारपोरेटीकरण,पूँजी निवेश और कृषि भूमि के जबरिया अधिग्रहण की अवैज्ञानिक सोच के परिणामस्वरूप अमीर और गरीब के बीच का फासला बढ़ता ही जा रहा है। इन दोनों खतरनाक राक्षसों से मुकाबला करने के लिए क्रांतिकारी तत्वों की वैश्विक व्यापक प्रतिरोध जरुरी है। न भारतीय युवाओं को बल्कि अन्य अविकसित देशों के युवाओं को अपने भविष्य पर मंडराते इन खतरे के बादलों को देखने -समझने की क्षमता विकसित करनी ही होगी ! प्रायः देखा जा रहा है कि सूचना -संचार संसाधनों से लेस अधिकांस युवा वर्ग को किसी 'बजट' या 'नीति आयोग' से कोई लेना देना ही नहीं होता। उन्हें बजट में , अखवारों में ,साहित्यिक गोष्ठियों में ,साहित्यिक सम्मेलनों में कोई दिलचस्पी नहीं। वे क्रिकेट पर भूंखे पेट घंटों बहस कर सकते हैं। वे फेसबुक ,ट्वीटर या वॉट्सऐप पर ठिलवई कर सकते हैं। वे होली की हुड़दंग के नंगे नाच पर ही खुश हैं। वे व्यवस्था की प्रायोजित प्रहसन -अनुक्रमणिका में खोये हुए हैं। विश्व पूंजीवाद मानों उनसे कह रहा हो - बेखबर युवाओं सुनों ! खुशियाँ मनाओ ! नाचो-गाओ ! धूम मचाओ ! अबकी बार भी भारत में वसंत छाया है। अच्छा बजट आया है। नव्य उपनिवेशवाद की ऐसी -तैसी ! वैश्विक संकट या राष्ट्रीय आपदा की ऐंसी -तेंसी ! सत्तासीन नेताओं की आलोचना करना महापाप है ! वे देवदूत हैं ! उनकी चरण वंदना करो - चाटुकारिता करो । बोलो जय-जय सियाराम !
सोशल मीडिया पर रोज-रोज अपने व्यक्तिगत ,स्टाइलिस या पारिवारिक फोटो पोस्ट करने वाले वर्तमान में कुछ चंद ट्रेडयूनियंस और वामपंथ की सीमित कतारों में ही उक्त हमलों का औपचारिक विरोध प्रतिध्वनित हो रहा है। कदाचित हमला जब बिकराल हो, द्विगुणित हो तो उसके प्रतिकार के साधन और तदनुसार मजबूत हाथों का बहुगुणित होना भी जरुरी हैं। इसके लिए आधुनिक सूचना संचार संसाधनों से सुसज्जित युवाओं को वैज्ञानिक और वर्ग चेतना से लेस होना आवश्यक है। देश के क्रांतिकारी छात्र संगठनों और प्रगतिशील युवाओं की व्यापक एकता के अलावा इस असंगठित और दिशाहीन युवा शक्ति को भी 'मेंन स्ट्रीम' में आना चाहिए। अधिसंख्य युवाओं की विराट प्रतिरोध क्षमता के निर्माण से ही कोई क्रांति कोई बदलाव सम्भव है। वरना पूंजीवादी बजट जितना ज्यादा आकर्षक होगा मेहनतकश जनता का शोषण उतना ही अधिक होगा ! कारपोरेट के पक्ष में जितना ज्यादा आकर्षक बजट संसद में पेश होगा आम आदमी को वह वजट उतना कर्कश होता चला जाएगा।
साम्प्रदायिक और जातीयता की राजनीति के कारण भारत की तरुणाई में बिखराव बहुत है। किसी सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत जुगाड़ने में , सम्पर्कों की तिकड़म भिड़ाने में ,भीड़ के रूप में अपनी पहचान खो देने में , या आजीविका प्राप्ति की जद्दोजहद में अपनी जान दे देने के लिए आज का युवा अभिशप्त है। वह सवाल भी ठीक से नहीं करता कि "कौन है इसका जिम्मेदार "? यदि सवाल सही होगा तो जबाब भी सही मिलेगा। केरियरिस्ट युवाओं को ही नहीं बल्कि हर किस्म के युवाओं को यह नहीं मालूम कि उनकी परेशानियों का जबाबदेह कौन है ? केंद्र और राज्य सरकारों के बजट उनके लिए किस तरह फलदायी हैं ? प्रतिस्पर्धी वातावरण में युवा शक्ति द्वारा जितना पसीना बहाया जा रहा है , समाज में जितना अलगाव और अनिश्चितता का बोलबाला है वह पूर्णतः व्यवस्था जन्य ही है।किसी बजट की सार्थकता का पैमाना यही हो सकता है कि काम के घंटे तो कम हों किन्तु युवाओं के श्रम का बाजिब मूल्य भी उचित सामाजिक संरक्षण के साथ मुहैया कराया जाये ! वैज्ञानिक अवदान और टेक्नॉलॉजी के कमाल का फायदा सिर्फ पूँजीपतियों तक ही सीमित क्यों होना चाहिए ? कम समय कम श्रम व्यव्य में संघर्षशील युवा शक्ति को भी वह सब हासिल क्यों नहीं होना चाहिए ? वर्तमान व्यवस्था के बजट में क्या यह प्रावधान संभव है ? जो न्यूनतम संसाधन जिन्दा रहने के लिए जरूरी है। जिसके वे हकदार हैं। क्या यह विचार गत या नीतिगत रूप से वर्तमान बजट में दुर्ष्टिगोचर हो रहा है ? कदापि नहीं ! यह तभी सम्भव है जब आधुनिक युवा वर्ग हीरोपंती वाली वर्तमान घटिया शासन व्यवस्था में पैबंद लगाना बंद कर दें। मेरा आशय यह कदापि नहीं कि सब नक्सलवादी हो जाएँ ! किन्तु वे हर-हर 'मोदी-मोदी ' या अण्णा -अण्णा का व्यक्तिवादी जाप छोड़कर 'आप' की तरह खुद का कोई क्रांतिकारी राजनैतिक विकल्प तो तैयार कर ही सकते हैं ! वे यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि आइन्दा जब कोई ऐरा-गैरा नत्थू खेरा जंतर-मंतर पर या रामलीला मैदान पर अपनी नौटंकी जमाये तो यह देखा जाए कि उसके पास विकल्प क्या है ? क्या उसका बजट 'अरुण जेटली ' के बजट जैसा ही है ? क्या वह बजट डॉ मनमोहनसिंह द्वारा विगत १० सालों तक जारी किया गया 'बजट' ही है ? या उसके विलग कोई क्रांतिकारी वित्तीय नीति आधारित वास्तविक जान-कल्याणकारी बजट है ? कहीं वह सिर्फ आवाम के वोट का तलबगार तो नहीं है। क्या उसके पास जमीनी सच्चाइयों पर आधारित कोई रोडमेप है ? क्या वह वेरोजगार युवाओं को ,उत्पीड़ित लड़कियों व् महिलाओं को वास्तव में विश्वसनीय संरक्षण देने का अलम्बरदार है ? क्या वह वयोब्रद्ध जनों के चीत्कार को सुनने की क्षमता रखता है ? ऐंसा कोई वित्तीय या राजनैतिक विकल्प तभी सम्भव है जबकि भारत की युवा शक्ति को साम्प्रदायिक संगठनों से दूर रखा जाए । उन्हें जातीय आरक्षण के मीठे जहर से निजात मिले। धर्मनिरपेक्ष ,लोकतान्त्रिक और समाजवादी विचार की चेतना से सुशिक्षित युवाओं की व्यापक एकता के लिए यह भी जरुरी है कि युवा वर्ग किसी साम्प्रदायिक या सामाजिक विभाजन का कोपभाजन नहीं बने। किसी तरह के आतंक या अलगाव की दिशा में पलायन न करे !
श्रीराम तिवारी
कुछ पत्रकार और मीडिया वाले तो होली के ही मूड में ही हंसी -मजाक पर उत्तर आये। वे राह चलते हर उस -आम परेशान आदमी के मुँह में माइक घुसेड़कर सवाल करने लगे कि " हाँ जी आप बताईये कि बजट कैसा है "? इससे पहले की उत्तर देने वाला कुछ तैयार हो कि चैनल वाली लड़की या लड़का किसी और चेहरे पर माइक को सटा देता। जनता में भी कुछ पत्रकारों के भी बाप मिल ही जाते हैं। वे मुस्कराकर बताते हैं कि "नयी बोतल में पुरानी शराब है जी !" या " बजट तो उनका है जी जो बजट वाले हैं जी " या "बजट तो बहुत बड़ा है जी हम तो १०० रूपये की १० भिन्डी लाये हैं जी " या " अपन तो बहुत गरीब हैं , प्रधानमंत्री जी ने खाता खोलने को कहा था सो वो तो खुलवा लिया किन्तु बैंक में पैसा अभी तक नहीं पहुंचा,अब देखते हैं जेटली जी कितने रूपये भिजवाते हैं ? " या " सरकार ने किसानों की उपजाऊ जमीन किन्ही अडानी-अम्बानी को देने के लिए कोई 'पैकेज' दिया है जी ,हमें तो मुवावजा ही मिल जाए इसी में खैर है "या "समाज के हरामखोरों की बुरी नियत से जिसकी जेब कट गयी हो, जिसके बीबी बच्चे अस्पताल में इलाज के लिए इन्तजार कर रहे हों , जो अस्पताल में डॉ की फीस के इंतजाम लिए हलकान हो रहा हो , जो दरिद्रजन या निम्नमध्मयवर्गीय मरीज महँगी दवाईंयों और महँगे इलाज के लिए मारे-मारे फिर रहे हों , जो छात्र फीस के लिए - किताबों के लिए या रोजगार के लिए भटक रहे हों , जो किसान गाँव में- खेत में अपनी ओला -पाला से बची खुची फसल ढोरों से बचाने में जुटे हों! उन से भी तो पूंछो कि बजट कैसा है ? बजट किसका है ? अपने लोक लुभावन वादों में यूपीए सरकार ने दस साल तक जिस घटिया आर्थिक नीति से भारत की आवाम को मूर्ख बनाया ,उसी घटिया और लूटखोरों के पक्षधर बजट को यदि 'मोदी सरकार' के 'वजीरे खजाना ' भी देश के सामने परोसें तो अल्बर्ट पिन्टो का गुस्सा होना स्वाभाविक है !
शासक वर्ग की कतारों में तमाम लोग हैं कि 'मारते हैं और रोने भी नहीं देते '! खास तौर से निम्न मध्यमवर्गीय युवाओं को तो क्या प्रांतीय बजट क्या राष्ट्रीय बजट सब बराबर हैं। विगत दिनों ग्वालियर में एक भर्ती के दौरान ही बिना काम-धाम पाये ही कई युवा आपस में लड़- भिड़ मरे । कुछ घायल भी हुए। इस व्यवस्था में केंद्र या राज्य के किसी भी तथाकथित आकर्षक बजट से क्या यह सिलसिला रुक सकता है ? नहीं ! सब जानते हैं कि निर्धन -मजबूर -किसानों ,मजदूरों और वेरोजगार युवाओं को तो 'सदा दीवाली संत की बारह मॉस वसंत' ही है ! किसी खास विचारधारा की समझ -बूझ के अभाव में वेचारे अपनी दुर्दशा पर कोई सवाल करने या आंदोलित होने के बजाय किसी मंदिर में मत्था टेकने चले जायंगे। ज्यादा मजबूरी हुई तो चोरी चकारी की राह चल देंगे। वे रेल में हों , जेल मैं हों ,या राजनीती के गंदे खेल में हों किन्तु कटना उन्ही तरबूजों को ही है। इस उत्तरआधुनिक युग में भी वे लोक काल परिश्थितियों की बदौलत किसी भी वैज्ञानिक चेतना से महरूम हैं।
वे नहीं जानते कि मौजूदा वैश्विक परिदृश्य किन कारणों से भयावह है ? उन्हें नहीं मालूम कि मौजूदा दौर में दुनिया का साझा संकट क्या है ? केवल पुराने वित्त वर्ष के कागजी पुलन्दे को पुनर्संशोधित कर संसद में पेश करने मात्र से उनकी तकदीर कैसे बदलेगी वे यह भी नहीं समझ पा हैं। उन्हें देशज और वैश्विक झंझावतों का अतंरसंबंध भी नहीं मालूम। एक तरफ आईएस ,अलकायदा तालिवान और अन्य खतरनाक चरमपंथी साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा दुनिया भर में निरंतर निर्दोषों का रक्त बहाया जा रहा है। दूसरी ओर वैश्विक बाजारीकरण ,निजीकरण ,कारपोरेटीकरण,पूँजी निवेश और कृषि भूमि के जबरिया अधिग्रहण की अवैज्ञानिक सोच के परिणामस्वरूप अमीर और गरीब के बीच का फासला बढ़ता ही जा रहा है। इन दोनों खतरनाक राक्षसों से मुकाबला करने के लिए क्रांतिकारी तत्वों की वैश्विक व्यापक प्रतिरोध जरुरी है। न भारतीय युवाओं को बल्कि अन्य अविकसित देशों के युवाओं को अपने भविष्य पर मंडराते इन खतरे के बादलों को देखने -समझने की क्षमता विकसित करनी ही होगी ! प्रायः देखा जा रहा है कि सूचना -संचार संसाधनों से लेस अधिकांस युवा वर्ग को किसी 'बजट' या 'नीति आयोग' से कोई लेना देना ही नहीं होता। उन्हें बजट में , अखवारों में ,साहित्यिक गोष्ठियों में ,साहित्यिक सम्मेलनों में कोई दिलचस्पी नहीं। वे क्रिकेट पर भूंखे पेट घंटों बहस कर सकते हैं। वे फेसबुक ,ट्वीटर या वॉट्सऐप पर ठिलवई कर सकते हैं। वे होली की हुड़दंग के नंगे नाच पर ही खुश हैं। वे व्यवस्था की प्रायोजित प्रहसन -अनुक्रमणिका में खोये हुए हैं। विश्व पूंजीवाद मानों उनसे कह रहा हो - बेखबर युवाओं सुनों ! खुशियाँ मनाओ ! नाचो-गाओ ! धूम मचाओ ! अबकी बार भी भारत में वसंत छाया है। अच्छा बजट आया है। नव्य उपनिवेशवाद की ऐसी -तैसी ! वैश्विक संकट या राष्ट्रीय आपदा की ऐंसी -तेंसी ! सत्तासीन नेताओं की आलोचना करना महापाप है ! वे देवदूत हैं ! उनकी चरण वंदना करो - चाटुकारिता करो । बोलो जय-जय सियाराम !
सोशल मीडिया पर रोज-रोज अपने व्यक्तिगत ,स्टाइलिस या पारिवारिक फोटो पोस्ट करने वाले वर्तमान में कुछ चंद ट्रेडयूनियंस और वामपंथ की सीमित कतारों में ही उक्त हमलों का औपचारिक विरोध प्रतिध्वनित हो रहा है। कदाचित हमला जब बिकराल हो, द्विगुणित हो तो उसके प्रतिकार के साधन और तदनुसार मजबूत हाथों का बहुगुणित होना भी जरुरी हैं। इसके लिए आधुनिक सूचना संचार संसाधनों से सुसज्जित युवाओं को वैज्ञानिक और वर्ग चेतना से लेस होना आवश्यक है। देश के क्रांतिकारी छात्र संगठनों और प्रगतिशील युवाओं की व्यापक एकता के अलावा इस असंगठित और दिशाहीन युवा शक्ति को भी 'मेंन स्ट्रीम' में आना चाहिए। अधिसंख्य युवाओं की विराट प्रतिरोध क्षमता के निर्माण से ही कोई क्रांति कोई बदलाव सम्भव है। वरना पूंजीवादी बजट जितना ज्यादा आकर्षक होगा मेहनतकश जनता का शोषण उतना ही अधिक होगा ! कारपोरेट के पक्ष में जितना ज्यादा आकर्षक बजट संसद में पेश होगा आम आदमी को वह वजट उतना कर्कश होता चला जाएगा।
साम्प्रदायिक और जातीयता की राजनीति के कारण भारत की तरुणाई में बिखराव बहुत है। किसी सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत जुगाड़ने में , सम्पर्कों की तिकड़म भिड़ाने में ,भीड़ के रूप में अपनी पहचान खो देने में , या आजीविका प्राप्ति की जद्दोजहद में अपनी जान दे देने के लिए आज का युवा अभिशप्त है। वह सवाल भी ठीक से नहीं करता कि "कौन है इसका जिम्मेदार "? यदि सवाल सही होगा तो जबाब भी सही मिलेगा। केरियरिस्ट युवाओं को ही नहीं बल्कि हर किस्म के युवाओं को यह नहीं मालूम कि उनकी परेशानियों का जबाबदेह कौन है ? केंद्र और राज्य सरकारों के बजट उनके लिए किस तरह फलदायी हैं ? प्रतिस्पर्धी वातावरण में युवा शक्ति द्वारा जितना पसीना बहाया जा रहा है , समाज में जितना अलगाव और अनिश्चितता का बोलबाला है वह पूर्णतः व्यवस्था जन्य ही है।किसी बजट की सार्थकता का पैमाना यही हो सकता है कि काम के घंटे तो कम हों किन्तु युवाओं के श्रम का बाजिब मूल्य भी उचित सामाजिक संरक्षण के साथ मुहैया कराया जाये ! वैज्ञानिक अवदान और टेक्नॉलॉजी के कमाल का फायदा सिर्फ पूँजीपतियों तक ही सीमित क्यों होना चाहिए ? कम समय कम श्रम व्यव्य में संघर्षशील युवा शक्ति को भी वह सब हासिल क्यों नहीं होना चाहिए ? वर्तमान व्यवस्था के बजट में क्या यह प्रावधान संभव है ? जो न्यूनतम संसाधन जिन्दा रहने के लिए जरूरी है। जिसके वे हकदार हैं। क्या यह विचार गत या नीतिगत रूप से वर्तमान बजट में दुर्ष्टिगोचर हो रहा है ? कदापि नहीं ! यह तभी सम्भव है जब आधुनिक युवा वर्ग हीरोपंती वाली वर्तमान घटिया शासन व्यवस्था में पैबंद लगाना बंद कर दें। मेरा आशय यह कदापि नहीं कि सब नक्सलवादी हो जाएँ ! किन्तु वे हर-हर 'मोदी-मोदी ' या अण्णा -अण्णा का व्यक्तिवादी जाप छोड़कर 'आप' की तरह खुद का कोई क्रांतिकारी राजनैतिक विकल्प तो तैयार कर ही सकते हैं ! वे यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि आइन्दा जब कोई ऐरा-गैरा नत्थू खेरा जंतर-मंतर पर या रामलीला मैदान पर अपनी नौटंकी जमाये तो यह देखा जाए कि उसके पास विकल्प क्या है ? क्या उसका बजट 'अरुण जेटली ' के बजट जैसा ही है ? क्या वह बजट डॉ मनमोहनसिंह द्वारा विगत १० सालों तक जारी किया गया 'बजट' ही है ? या उसके विलग कोई क्रांतिकारी वित्तीय नीति आधारित वास्तविक जान-कल्याणकारी बजट है ? कहीं वह सिर्फ आवाम के वोट का तलबगार तो नहीं है। क्या उसके पास जमीनी सच्चाइयों पर आधारित कोई रोडमेप है ? क्या वह वेरोजगार युवाओं को ,उत्पीड़ित लड़कियों व् महिलाओं को वास्तव में विश्वसनीय संरक्षण देने का अलम्बरदार है ? क्या वह वयोब्रद्ध जनों के चीत्कार को सुनने की क्षमता रखता है ? ऐंसा कोई वित्तीय या राजनैतिक विकल्प तभी सम्भव है जबकि भारत की युवा शक्ति को साम्प्रदायिक संगठनों से दूर रखा जाए । उन्हें जातीय आरक्षण के मीठे जहर से निजात मिले। धर्मनिरपेक्ष ,लोकतान्त्रिक और समाजवादी विचार की चेतना से सुशिक्षित युवाओं की व्यापक एकता के लिए यह भी जरुरी है कि युवा वर्ग किसी साम्प्रदायिक या सामाजिक विभाजन का कोपभाजन नहीं बने। किसी तरह के आतंक या अलगाव की दिशा में पलायन न करे !
श्रीराम तिवारी
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