यह सवाल कुछ वर्ष पहले एक नौसीखिया ट्रेड यूनियन लीडर ने पूछा था!उनका कोई परिचित युवा जेएनयू में दाखिल हुआ था! उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये लेफ्ट राईट का मसला क्या है?इसी बीच JNU के छात्र संघों में किसी बात पर विवाद खड़ा हो गया! कुछ अहमक लोगों ने फेसबुक पर वामपंथ की बाट लगी दी। इसलिए लगा कि वाम के परिचय में कुछ सरल सहज सी बाँतें लिखना जरूरी है ।तत्संबंधी यह पुरानी पोस्ट पुन: मित्रों के विचारार्थ प्रस्तुत है!
-जो सुबह सूर्य की ओर मुंह करके उठते है और दिन के आगमन पर प्रफुल्लित होते हैं वे सहज ही वामपंथी होते हैं ।
-जो दिन रात गुज़री हुयी अमावस की बहाली के लिए विलाप करते रहते हैं और ऐसा करने के लिए दीप,बाती,चिंगारी और मशाल को बुझाने पर आमादा रहते हैं वे दक्षिणपंथी कहलाते हैं।
-वाम विचारधारा ज़िंदगी की सामाजिक उपयोगिता और मनुष्यत्व का पर्याय है ।
-कवि की शैली में कहें तो -
"ज़िंदगी न केवल जीने का बहाना है,
ज़िन्दगी न केवल साँसों का खजाना है,
ज़िंदगी सिन्दूर है और पूर्व दिशा का वामपंथी उदयगान है!"
● जो समाज को आगे की ओर ले जाना चाहते हैं, गुलामी और शोषण के हर रूप को खत्म कर मनुष्य को एकदम आज़ाद और वैज्ञानिक सोच समझ से लैस करना चाहते हैं वे वामपंथी हैं ।
● जो पुरातन समाज की असमानता और अंधविश्वास को महान मानते हैं । शोषण को जायज मानते हैं। जो सिर्फ मनुस्मृति,शरीयत के नाम पर समाज चलाना चाहते है, वे दक्षिणपंथी हैं ।
● आधुनिक वाम एक वैचारिक समग्र है , मनुष्यता की अब तक की सारी सकारात्मक उपलब्धियों का समुच्चय है । जिसे हम परम सत्य नहीं मानते !एक बार पुनः दोहरा दें, हम उसे परम सत्य नहीं मानते। और यह परम सत्य न मानने का आईडिया भी इसी विचार ने दिया है।
● इस विचार के मुताबिक़ कुछ भी शून्य से अवतरित नहीं होता, खुद शून्य का विचार भी नहीं । यह भौतिक परिस्थितियां होती हैं जो विचार को उत्पन्न, परिवर्धित और समृद्ध करती हैं।
*अंगरेजी में कहें तो सब कुछ evolve हो रहा है। सब कुछ घटित हो रहा है । जड़ या स्थिर नहीं है। ये evolution आगे की ओर, बेहतरी की ओर हो ऐसा मानने वाले और ऐसा हो इसके लिये प्रयत्न करने वाले वामपंथी होते हैं।
*वे इस evolution के खुदबखुद घटने के इंतज़ार की बजाय उन नियमों का इस्तेमाल कर इसे समय पर करने की कोशिश करते हैं, जिसे revolution भी कहते हैं ।
● ऐसा सोचना एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है जो हर सभ्यता में रही और उसे संस्कारित किया। जब से विचार पैदा हुआ तभी से वाम की उपस्थिति हुयी ।
*अनेक विचार तो सिर्फ इसलिए ही पैदा किये गए ताकि उनके माध्यम से वाम का खंडन विखंडन किया जा सके । और वे मिट गए,किंतु वाम नहीं मिटा,न मिटेगा!
● वाम आयातित नहीं है। हर सभ्यता की वैचारिक परम्पराओं की भांति भारत की दार्शनिक,सामाजिक,राजनीतिक परम्पराओं में वाम की गहरी जड़े हैं । वस्तुतः यह वाम है जो भारतीय विचार परम्परा की धुरी में है ।
● वाम सिर्फ मार्क्स से शुरू नही होता, प्राचीन भारतीय दर्शन में कणाद,कण्व ऋषि के किवलय, ऋग्वेद की आरंभिक ऋचाओं से लेकर षडदर्शन का आधे से अधिक हिस्सा घेरे हुए है।
*सुश्रुत, चरक और धन्वन्तरि के शोधों की आधारशिला है वाम, जीवन सत्य नहीं होता तो उसके लिए औषधियों और चिकित्सा के आविष्कार अनुसंधान नहीं होते ।
● आर्यभट्ट और वराहमिहिर का कुतुबनुमा है वाम । जगत सत्य नहीं होता तो न गणना की आवश्यकता होती न सौरमंडल की गति या त्रिज्या नापने की जरूरत ।
● आधुनिक और राजनीतिक वाम के दार्शनिक मार्क्स ने खुद स्वीकारा है कि उन्होंने एकदम से नया कुछ नहीं दिया। आविष्कार नहीं किया अनुसंधान, अन्वेषण किया है ।
*विचार की तीन धाराओं-जर्मन दर्शन के आध्यात्मिक द्वंदवाद, फ्रेंच दर्शन के यांत्रिक भौतिकवाद और ब्रिटिश पोलिटिकल इकॉनमी से प्रेरित काल्पनिक समाजवाद को सर के बल से सीधा कर पैरों पर खड़ा करने की प्रक्रिया का नाम है वाम!
*मार्क्स एंगेल्स ने विश्लेषण के औजार (Tools) दिए हैं।
● यह संयोग था कि मार्क्स अपनी पैदाइश की भूमि और भाषाई विवशताओं के चलते भारतीय दर्शन के संपर्क में नहीं आये थे। यदि आते तो शायद उनका काम और आसान होजाता - द्वंदवाद के लिए उन्हें शायद हीगेल तक नहीं जाना पड़ता, बुद्द से ही मिल जाता।
*चार्वाक, बृहस्पति और लोकायत उनके काम को बहुत हल्का बना देते । हाँ, लन्दन तो उन्हें जाना ही पड़ता क्योंकि जैसे रेगिस्तान में बैठकर समुद्र की लहरें गिनने की विधा नहीं सीखी जा सकती वैसे ही पोलिटिकल इकॉनोमी के लिए जरूर उन्हें ब्रिटेन से ही काम चलाना पड़ता । वह तब तक भारत के जीवन का अंग नहीं बनी थी!
● विचारों का द्वन्द स्वस्थ लोकतांत्रिक सभ्य समाज की जीवन शैली है। उसमे असहमत विचारों के मुण्ड-काटन -अभिषेक जैसी उक्ति के लिए कोई जगह नहीं है। उस मुण्ड में रखे ग्रे मैटर याने मस्तिष्क के इस्तेमाल की अत्यंत आवश्यकता होती है।
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