आजकल गुजरात के पाटीदार -पटेल समाज में "हार्दिक-हार्दिक'' की बड़ी धूम है। खबर है कि पांच-दस लाख लोग तो उसके एक इशारे पर ही सड़कों पर निकल पड़ते हैं। उसकी लोकप्रियता से न केवल कांग्रेस के नेता परेशान हैं बल्कि भाजपा भी परेशान है। खबर तो यह भी है कि गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी पटेल और खुद भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी जी भी 'हार्दिक' शब्द सुनकर असहज होने लगे हैं। दरसल गुजरात के पटेल समाज में आक्रोश तो पहले से ही सुलग रहा था। किन्तु उसे कोई ढंग से 'स्वर'नहीं दे पा रहा था। केसु भाई पटेल तो पहले ही मोदी जी के हाथों फ़ना हो चुके थे । इसलिए अब वाइस साल के हार्दिक पटेल को गुजरात के पाटीदारों-पटेलों ने अपना एकछत्र नेता बनाकर, पटेल समाज को आरक्षण देने की जंग छेड़ दी है ।
मेरा ख्याल है कि न केवल पटेल-पाटीदार, बल्कि प्रधान, पोद्दार ,मुखिया ,मौरूसी ,लम्बरदार,जमींदार, सेठ ,साव ,साहू और चौधरी ये सब जाति ,वर्ण या गोत्र नहीं हैं। बल्कि ये सब तो सामंकालीन सबल सक्षम समाज की पदवियाँ हैं। मध्युग में व्यवस्था संचालन के लिए राजे -रजवाड़े अपने हाकिम -कारकुन रखते थे। जाहिर है कि उन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। प्रस्तुत पदवीधारी समाज खाते -पीते खास लोगों का ही हुआ करता था। अब यदि ये सनातन से सम्पन्न समाज भी मौजूदा दौर में आरक्षण मांगने की दयनीय अवस्था में आ चूका है तो उनका क्या हाल होगा ? जिनके पूर्वज पहले सिर्फ आम आदमी करते थे !यदि एनआरआई युवाओं की टोली आरक्षण मांगने के लिए 'हार्दिक-हार्दिक' कर रही है तो शेष बचे निर्धन भारतीयों को क्या अल्ला मियां के हवाले छोड़ा जा रहा है ?
कभी भिक्षा पात्र लेकर 'भवति भिक्षाम देहि'का नारा लगाने वाले वामनों को बड़ा गुमान था कि वे धरती के 'भूदेव' हैं ! किन्तु जब बौद्धों ने दंड-कमंडल पकड़ा तोअधिकांस वामन वेरोजगार हो गए ! अब साध्वी निरंजना ज्योति , साध्वी ऋतम्भरा जी, उमा भारती जी ,राधे मा जी ,रामपाल जी एवं आसाराम जी [जेल वाले] ,स्वामी रामदेव जी -पतंजलि वाले और अन्य अधिकांस साधु सन्यासी इत्यादि सबके सब 'पिछड़े' वर्ग के होते हुए भी जब धर्मध्वज हो गए हैं , तो उनके समाज को पिछड़ा कैसे कहा जा सकता है ?
इसी तरह अधिकांस नक्सलवादी भाई आदिवासी ही हैं। जब तक वे नक्सली हैं तब तक तो वे वामनों- ठाकरों और कायस्थों पर ही नहीं बल्कि भारत सरकार पर भी भारी हैं। किन्तु यदि वे हथियार डालकर मुख्य धारा में शामिल हो जाएँ तो वहाँ आरक्षण का पैदायशी हक भी उनका इन्तजार कर रहा है। याने चिट भी मेरी -पट भी मेरी -क्योंकि अंटा मेरे बाप का ! जाति प्रथा महा ठगनी हम जानी ,आरक्षण की अकथ कहानी ,हम जानी या तुम जानी !
संविधान की मंशानुसार भारत के निर्धन -दलित -आदिवासियों को आरक्षण दिए जाने पर तो किसी को कोई एतराज नहीं है।यह तो नितांत जरूरी है कि शोषितों -पीड़ितों को आरक्षण मिले ! किन्तु जब देश के भूस्वामी - जमींदार ,पूँजीपति ,अफसर, मंत्री और अपराधी जब तथाकथित पिछड़ी जाति के आधार पर देश की सत्ता पर अनवरत काल तक अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहेंगे ,तो बड़ी मुश्किल होगी। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ की यदि द्वारकाधीश - भगवान श्रीकृष्ण के वंशज पिछड़े और दरिद्र हो सकते हैं, तो निर्धन सर्वहारा - सुदामा के वंशज अगड़े कब और कैसे हो गए ? सम्राट बिन्दुसार ,चन्द्रगुप्त , अशोक, के वंशज यदि दलित और पिछड़े हो सकते हैं, तो झोपड़ी में रहने वाले लँगोटीधारी चाणक्य के वंशज अगड़े कब और कैसे हो गए ? कहीं ऐंसा तो नहीं कि संसदीय लोकतंत्र में बहुमत की दादागिरी के वास्ते , वोट की राजनीती वालों ने निरीह -निर्दोष -निधन जनता की छाती पर यह आरक्षण की दुंदभी बजाई हो !
ज्यों -ज्यों देश की जनसंख्या बढ़ती जा रही है ,त्यों-त्यों सभी जातियों -सम्प्रदायों के आधुनिक युवाओं को -आजीविका के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा में जूझना पड़ रहा है। वेशक जो युवा प्रतिभाशाली हैं ,जिन्हे आधुनिक तकनीकी उच्च शिक्षा के अवसर उपलब्ध हैं, उनकी तो वर्तमान दौर के उदारीकरण,बाजारीकरण और भूमंडलीकरण के परिदृश्य में वेशक बल्ले -बल्ले है। उनमें से कोई एक सौभाग्यशाली तो गूगल का सीईओ भी बन गया है। कोई एमएनसी में प्रतिष्ठित हो चूका है। कोई यूएन सेक्रेट्रिएट में नौकरी पा गया है। कोई एक भारतीय युवा व्हाइट हाउस में ही काम पर लग गया है। कोई ऑस्ट्रलिया में ,कोई यूके में ,कोई सिंगापुर में और कोई कनाडा में भी अपनी योग्यता और हुनर का झंडा गाड़ रहा है। किन्तु यह खुशनसीबी सब को उपलब्ध नहीं है ! अधिकांस युवा जो कुदरती तौर पर वैश्विक स्तर के प्रतिभाशाली नहीं होते और जातीय तौर पर यदि वे सामान्य वर्ग से होते हैं, तो उन के लिए एमएनसी या विदेशी कम्पनियों में चांस नहीं के बराबर हैं। मजबूरी में उन्हें अपने देश में ही किसी सेठ -साहूकार की या कार्पोरेट कम्पनी के मालिक की गुलामी करनी पड़ रही है !
क्योंकि सरकारी नौकरी पर तो आरक्षित श्रेणी का बोर्ड टंगा हुआ है ! आधुनकि शिक्षा संसाधनों की बढ़त ने इधर सभी वर्ग के युवाओं को प्रतिश्पर्धा की आग में झोंक दिया है।आरक्षण के अभाव में यदि सामान्य श्रेणी के कुछ युवा प्रतिश्पर्धा में है भी तो उनके सामने जातीय आरक्षण की लौह दीवार मौत की तरह मुँह बाए खड़ी है।सूचना संचार क्रांति ने भी इसमें नकरात्मक भूमिका ही अदा की है। व्यापम काण्ड ,डेमेट काण्ड और मुन्ना भाइयों के किस्से अब आम हो चले हैं !इनमें भी सत्ताधरी वर्ग के बगलगीर और निहितस्वार्थी लोग ही संलग्न पाये गए हैं। सभी वर्गों के कमजोर युवाओं और खास तौर से अनारक्षित वर्ग के युवाओं ने इस शार्ट - कट में फंसकर 'मरता क्या न करता 'कि तर्ज पर अपना बहुत कुछ गंवाया है।
जन्मना सामान्य जाति के जो युवा किसी किस्म के आरक्षण की सीमा में नहीं आते .जो गरीबी-अभाव के चलते उचित शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं , ऐंसे साधनहीन युवा मामूली सी पगार और कठोर सेवा शर्तों पर १२-१२ घंटे अपना श्रम बेचकर , हर किस्म के शोषण का शिकार हो रहे हैं ! इस व्यवस्था से असंतुष्ट कुछ युवा तो शहीद भगतसिंह और सफ़दर हाशमी के राह चल देते हैं।जिनका अंत केवल शहादत ही हो सकता है। और कुछ जो अक्ल के दुश्मन हैं वे ज़िंदा रहने के लिए ,चोरी-चकारी -डकैती जैसे अनैतिक रास्ते अपनाकर बेमौत मरने पर मजबूर हो जाते हैं । इसके अलावा कुछ ऐंसे भी हैं जो अपनी जातीय संख्या बल की ताकत से अपने आर्थिक-सामाजिक और राजनैतिक हितों को साधने के लिए आरक्षण की मांग उठाते हैं। वे उग्रतम आंदोलन करते हैं.रेल की पटरियाँ उखाड़ते हैं ,न्यायालय की अवमानना करते हैं ,और फिर वे राजनीति में एक 'जातीय गैंग ' बनकर चुनाव में अपनी अपनी ताकत दिखलाते हैं। इनका यह शौर्य केवल आरक्षण की खुरचन खाने के लायक ही होता है।
सीमाओं पर शौर्य दिखाने में लिए या नावेद जैसे आतंकी को जिन्दा पकड़ने के लिए तो कोई बिना आरक्षण वाले - विक्रमजीत शर्मा और राकेश शर्मा ही काम आते हैं ! लालू,मुलायम पप्पू यादव या कोई हार्दिक पटेल वहाँ सीमाओं पर पाकिस्तानी खुरेन्जिओं से सर कटाने क्यों जाएंगे ? वे तो स्वयंभू पिछड़े हैं सो लड़ाई में पीछे रहेंगे ! किन्तु आरक्षण का अधिकार मांगने में ही वे सबसे आगे रहँगे ! देश के लिए लड़ना -मरना तो उनका काम है,जो जाति -धर्म से परे होकर केवल अपनी मातृभूमि के लिए जन्में हैं !जिनकी किस्मत में सिर्फ शहादत ही लिखी है।
यूपी -बिहार के मण्डलवादियों और राजस्थान के मीणाओं की देखा-देखि पहले तो राजस्थान के जाटों ने और अब गुजरात के पटेलों ने भी आरक्षण की दुंदभी बजाई है। मलाईदार परत ने भी अब आरक्षण की गटरगंगा को ही तारणहार मान लिया है। गुजरात के पाटीदारों-पटेलों ने अब एक युवा पटेल 'हार्दिक' को हीरो बना लिया है। हालाँकि यह पटेल समाज पहले से ही ताकतवर है। लेकिन अब वोट की राजनीति में भी ताकतवर होता जा रहा है। जान पड़ता है कि मामला गरीबी -अमीरी का नहीं है ,बल्कि मोदी जी को टक्कर देने का है। क्योंकि मोदी जी ने अतीत में पटेलों को भी रुस्वा किया। अपने जातीय आरक्षण के आधार पर ही उन्होंने न केवल बाघेला ,न केवल मेहता न केवल पंड्या ,न केवल राणा बल्कि केशु भाई पटेल को भी सत्ता से बेदखल किया है। जिसकी बदौलत उन्हें पहले गुजरात की सत्ता मिली। उन्होंने गुजरात में जब साम्प्रदायिक जलबे दिखाए तो उसके प्रभाव से आडवाणी,सुषमा,मुरली मनोहर और अन्य सभी वरिष्ठ भाजपा नेता सत्ता के सरताज से महरूम होते चले गए। पिछड़ेपन की जो ढाल मोदी जी के काम आयी ,वो यूपी बिहार के यादवों को लगभग आधी शताब्दी से उपकृत किये जा रही है। अब न केवल नीतीश को बल्कि देश के सभी मण्डलवादियों को मोदी जी से खतरा है। क्योंकि मोदी जी भी 'पिछड़े' ही हैं। हालाँकि मोदी जी को भी अब 'हांर्दिक ' से खतरा है।
चूँकि गुजरात के ताकतवर पाटीदारों और उनके नेता केशु भाई पटेल को मोदी जी की यह 'बढ़तलीला' कभी रास नहीं आयी ? पटेलों या पाटीदारों का आधुनिक वाट्सएप वाला उभरता सितारा 'हार्दिक' अभी २२ साल का ही है। किन्तु उसकी आम सभाएं ५ लाख से कम श्रोताओं की नहीं होती ! स्वाभविक ही है कि वह राजस्थान के गूजर नेता कर्नल किरोड़ीसिंह वैस्ला से भी ज्यादा जातीयतावादी ताकतवर नेता बन चूका है। जो देश और समाज के काम तो भले ही ना आये किन्तु ठाकरे और दत्ता सामंत की तरह पूँजीवाद की दलाली के काम तो जरूर आएगा ! दस बीस पाटीदारों को कलक्टरी और दस-बीस पटेलों को मैनेजरी तो मिल ही जायेगी। बाबू, चपरासी तो पटेल लोग क्या बनेगे ? जो लोग आज अमेरिका ,कनाडा या दुबई में 'मोदी-मोदी' की जयकार कर रहे हैं , वे कल को 'हार्दिक-हार्दिक'करने लगें तो कोई बेजा बात नहीं !
जिस तरह भारत की पवित्र नदियाँ - गंगा ,यमुना ,गोदावरी इत्यादि कब की मैली हो चुकी हैं - पापियों के पाप धोते -धोते ! उसी तरह यह भारत की सुजलाम -सुफलाम भूमि भी अब सामाजिक विग्रह की समर भूमि बन गयी है- जातीय आरक्षण का भार ढोते-ढोते ! जातीय आरक्षण का आर्थिक और राजनैतिक लाभ उठाने वाले सभी जन यह याद रखें कि उन्हें 'ऊपर ' उठाने में लगभग आधी शताब्दी तो अवश्य ही बीत चुकी है!वे यह सोचें कि इतना अरसा गुजर जाने के बाद भी उनका उद्धार क्यों नहीं हुआ ? अरबों-खरबों की राष्ट्रीय सम्पदा इस मद में स्वाहा हो जाने के बाद ,किसी एक खास पिछड़े नेता का प्रधान-मंत्री बन जाने के बाद ,किसी एक ख़ास परिवार का पीढ़ियों तक मुख्यमंत्री बने रहने के बाद ,किसी खास दलित नेता का आधी शताब्दी तक केंद्रीय मंत्री बने रहने के बाद ,पीढ़ी-दर पीढ़ी आईएएस -आईपीएस बने रहने के बाद , किसी दलित महिला का लोक सभा अध्यक्ष बन जाने के बाद ,किसी भूतपूर्व मुख्यमंत्री का राज्यपाल बनकर व्यापम काण्ड में संलग्न रहने के बाद ,किसी कूटनीतिक देवयानी का अमेरिका में अपनी ही नौकरानी का शोषण करने के बाद ,किसी का राजदूत हो जाने के बाद , किसी बदमाश [गजभिये] का सागर विश्वविद्द्यालय का वाइस चांसलर बनाये जाने के बाद ,उसके द्वारा हजार करोड़ के घोटाले किये जाने के बाद, यदि किसी का मानसिक पिछड़ापन नहीं गया ,तो इसमें देश की शोषित-पीड़ित जनता का क्या कसूर है ?
बंगारू ,जोगी ,जूदेव ,कोंडा ,लालू यादव ,पप्पू यादव ,रामनरेश यादव जैसे लोगों को भृष्टाचार में पकडे जाने के बाद भी आरक्षण का पात्र क्यों होना चाहिए ? दो तरफ़ा लूट के वावजूद भी इनके कटुम्ब खानदान का पिछड़ापन यथावत बरक़रार क्यों है ? आधी शताब्दी तक जो परिवार सत्ता के पावर और नौकरशाही के इर्द-गिर्द रहा हो उसका मानसिक और सामाजिक रूप से पिछड़े रहने का वास्तविक कारण क्या है ? यह सावित हो चूका है कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री मधु कौंडा या बाइस चांसलर गजभिये ने हजारों करोड़ की हेराफेरी की है ,लेकिन वो अभी भी आदिवासी या दलित ही बने बैठे हैं ! यदि ये लोग आज भी केवल आरक्षण की वैशाखी के ही तलबगार हैं ,तो उन युवाओं की क्या हालत होगी ? जिनके पास न नौकरी है ,न जिनके पास बिजनेस है,न जिन के पास आरक्षण का कोई भी अवसर है ? जिनके पास अपना श्रम बेचने के सिवा और कुछ नहीं ऐंसे 'बदनसीब' सर्वहारा यदि दुर्भाग्य से जन्मना ब्राह्मण,ठाकुर ,बनिया या कायस्थ हैं , तो इसके लिए क्या वे सनातन दंड के पात्र बने रहेंगे ? क्या वे अपनी तथाकथित उच्च कुलीन जाति या सामाजिकता का आचार डालें ?
कुछ लोग कह सकते हैं कि खाते-पीते समाज के लोगों के लिए आरक्षण की प्रासंगिकता क्या है ? चूँकि बिहार में शीघ्र ही चुनाव होने जा रहे हैं ,सभी जानते हैं कि वहाँ 'वोट' के लिए न केवल ' आर्थिक खैरातों 'का बल्कि जातीयता का नग्न नृत्य किया जाने वाला है !जहाँ केवल जातीयता ही खाई जाती हो ,जहाँ जातीयता ही ओढ़ी जाती हो , जहाँ जातीयता ही पहनी जाती हो ,जहाँ जाति पहले और राष्ट्र बाद में संज्ञेय हो - वहाँ यदि पासवान जैसे दलित नेता -विवेकशील नेता यदि इस जातीय आरक्षण की व्यवस्था पर अब सवालिया निशाँन लगाएं तो इस आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार क्यों नहीं किया जाना चाहिए ?
आसन्न चुनाव की बेला में बिहार के जाति बनाम विकास के इस विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए जब श्री राम विलास पासवान , श्री उपेन्द्र कुशवाहा और श्री जीतनराम माझी ही सवाल उठायें कि लालू-नीतीश और अन्य मण्डलवादियों ने आरक्षण की वैशाखी से बिहार को कमजोर किया है। तो देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और अन्य आरक्षण समर्थकों को उनके सवालों का कुछ तो जबाब देना चाहिए ! जब पासवान -उपेन्द्र कह रहे हैं कि लालू ,नीतीश ने विगत ३५ सालों के शाशनकाल में बिहार के दलित -पिछड़े गरीबों का कोई विकास नहीं किया। तो देश की आवाम को इस पर गौर क्यों नहीं करना चाहिए ? जब आरक्षित समाज के नेता अपने ही समाजों का भला नहीं कर सके तो वे 'तथाकथित अगड़ी जाति के गरीबों या सवर्णों मजदूरों का क्या खाक भला करेंगे ? भले ही पासवान ,उपेन्द्र जीतनराम आज दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों के हाथों में खेल रहे हों ,उनके प्रवक्ता बने हों किन्तु उनके ये तर्कसंगत आरोप खंडित नहीं किये जा सकते। न केवल बिहार बल्कि पूरे भारतीय परिदृश्य पर भी इस बात की चर्चा होनी ही चाहिए कि आरक्षण से यदि किसी शोषित-पीड़ित -पिछड़े-दलित समाज का उद्धार नहीं हुआ है ,तो उसे जारी रखने का ओचित्य क्या है ?
"वो अफ़साना जिसे अंजाम तक ले जाना न हो मुमकिन ,उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर ,छोड़ना ही बेहतर है " हो सकता है कि कोई छुद्र संकीर्ण मानसिकता का खुदगर्ज व्यक्ति मेरी इस तरह की नव स्थापना से मुझे घोर प्रतिक्रिवादियों से नथ्थी कर दे। किन्तु मुझे रंचमात्र परवाह नहीं ! क्योंकि "सत्य हमेशा परेशान हुआ करता है किन्तु पराजित नहीं "!मध्य युग में जब लोकतंत्र नहीं हुआ करता था तब सर्वत्र निरंकुश -बर्बर राजशाही ही हुआ करती थी। राजाओं का अधिकांस समय युद्ध व षड्यंत्रों में ही गुजर जाता था। जब कभी किसी राजा -रानी ,सेनापति ,युवराज , सिकंदर ,नेपोलियन, अकबर ,विक्टोरिया ,जार्ज ,सुलतान या बेगम को कोई फतह हासिल होती या पुत्ररत्न [पुत्री नहीं ] की प्राप्ति होती या जनता के बगावत करने की कोई आशंका होती ,तो वह राजा या रानी अपने दरबारियों को ख़िरातें बाँटकर -स्थाई रूप से सत्ता का बफादार' बनाने का उपक्रम किया करते थे । इसके अलावा कभी -कभी हाथी पर स्वर्णिम होदे में सवार होकर वह 'राजपथ' पर भी कुछ सिक्के उछालते हुए निकल पड़ते । अपनी 'प्रजा' के समक्ष ख़ुशी का इजहार करते । और उन चंद सिक्कों के लिए जनता को राजपथ पर सिरफुटौव्वल करते देख 'शासक' को जो अवर्णीय आनंद की अनुभूति होती वही अनुभूति अब स्वतंत्र भारत के जातीय नेताओं को आरक्षण की महामारी से हो रही है।
सामंती युग में शोषित -पीड़ित जनता भी अपने आततायी शासकों की जय-जैकार करती हुई पागल हो जाया करती थी । अब पूंजीवादी लोकतंत्र में भी नेताओं की जय-जय कर करते हुए उसी जनता की रीढ़ दोहरी हुई जा रही है। तब भी ये शोषण के शिकार हुआ करते थे और अब भी ये शोषण के शिंकार हो रहे हैं। इनकी मानसिक गुलामी ही आरक्षण की भांग पीते रहने को आमादा है। सामंतयुग और पूंजीवादी लूट तंत्र में फर्क सिर्फ इतना है कि आधुनिक लोकतंत्र में राजाओं का स्थान निर्वाचित जन -प्रतिनिधियों ने ले रखा है। पूँजीवाद,जातिवाद - साम्प्रदायिकता के प्रभाव में जनता के वोट ही महत्वपूर्ण हैं। पूंजीपतियों के नोट और बाहूबलिओं की ओट जिसे प्राप्त है वही बहुमत से चुनाव जीत सकता है । चुनाव के बक्त थोक में जनता के वोट पाने के लिए, पूँजीवादी -जातिवादी साम्प्रदायिक पार्टियाँ - अपने निहित स्वार्थ के लिए,आरक्षण रुपी रेवडियाँ उछालकर मेहनतकश जनता को आपस में लड़ाती रहतीं हैं। उनकी इस कुचाल से न केवल देश की तरक्की रूकती है ,बल्कि समाज में गैरबराबरी भी बढ़ती जाती है।
दरसल पतनशील अधोगामी वर्तमान व्यवस्था चौतरफा भृष्टाचार अमानवीयता व अराजकता से तार-तार हो चुकी है। जन विद्रोह को दवाने के लिए जिस आरक्षण की बैशाखी का सहारा लिया जाता है वो अब इस 'बनाना लोकतंत्र' के गले की हड्डी बनता जा रहा है। जब ताकतबर लोग आरक्षित होंगे और कमजोर लोग हासिये पर होंगे तो यह लोकतंत्र के लिए और सम्पूर्ण राष्ट्र की सेहत के लिए ठीक कैसे हो सकता है ? वैसे तो जनवादी और प्रगतिशील परम्परा में जातीय विमर्श को कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती। लेकिन इस दौर की बदचलन और प्रचलित राजनीतिक में 'जातीय आरक्षण ' के झंडे बुलंदियों पर हैं। राजस्थान में जाटों के और गुजरात में पटेलों-पाटीदारों के जातिवादी -आरक्षण आंदोलन ने समाज के उन वर्गों / जातियों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है ,जो जन्मना तो सवर्ण -अगड़े या कुलीन कहे जाते हैं. किन्तु जिनका जीवन अत्यन्त दयनीय है। मेहनतकश -शोषित -पीड़ित वर्ग के लिए लड़ने वालों पर भी अब बेजा दबाव है. कि वे मौजूदा प्रचलित सामंती - जातीयता के फोबिया से बाहर निकलें ! जाति -धर्म से परे सब लोग सभी के हितों वाली विचारधारा का एकल संधान करें। बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय की अवधारण को केवल साम्यवादी विचारधारा में ही संभावनाएं निहित हैं। जाति विहीन ,वर्गविहीन और सम्प्रदाय से परे सोचने वाले ही देश और दुनिया को न्याय दिल सकते हैं।अगड़ा -पिछड़ा करने वाले कभी भी सभी वर्गों के साथ न्याय नहीं कर सकेंगे।
जो लोग जन्मना 'उच्चवर्ण' के हैं उनमें से वेशक कुछ अम्बानी,अडानी,टाटा,बिड़ला,बांगर, मोदी और मित्तल होंगे। किन्तु बाकी अधिकांस 'सवर्ण गाँवों में भूमिहीन हैं।आम तौर पर खेती की जमीने उनके पास हैं जो पिछड़े कहे जाते हैं। सरकारी क्षेत्र की नौकरीयाँ भी आरक्षण के चलते उन्ही के पास हैं। सर्व विदित है कि यूपी में तो अधिकांस थानेदार से लेकर डीजीपी तक यादव ही हैं। देश का प्रधानमंत्री भी पिछड़े वर्ग से ही आता है। बिहार में तो हालत ये है कि कोई भी जीते किन्तु मुख्यमंत्री पिछड़ा ही होगा। इसमें कोई शक किसी को नहीं होना चाहिए ! कांग्रेस के जातीयतावादी नेताओं ने, मुलायम -अखिलेश ने ,मायावती -कासीराम ने ,लालू -नीतीश ने , जीतनराम - पासवान ने ,पप्पू-शरद यादव ने , देवगौड़ा ने ,शिंदे ने ,झारखंड के महाभृष्ट गुरु घंटालों और तमाम नेताओं ने आरक्षण के बलबूते केवल अपना ही उल्लू सीधा किया है। जिन लोगों ने अपने ही समाज के लोगों का विगत ६७ साल में उद्धार नहीं किया। वे आइन्दा देश का और क्या उद्धार करेंगे ?
सवर्ण गरीब मजदूर तो प्रायवेट सेक्टर में ,कार्पोरेट सेक्टर में ,अस्पतालों में,कारखानों में चौकीदारी के लिए सौ रुपया रोज की मजूरी के लिए भटक रहे हैं । वे केवल कहने भर को अगड़े हैं। सभी सवर्ण जाति के बच्चे चांदी की चम्मच अपने मुँह में लेकर पैदा नहीं होते । भारत के सकल शोषित समाज में से अधिकांस तथाकथित 'कुलीनों' के बच्चे भी दर -दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। किन्तु जब वे आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करते हैं ,तो देश को लूटने वाले मक्कार , कायर और आकंठ रिश्वतखोरी में डूबे तथाकथित 'पिछड़े' वर्ग के अधिकारी ,नेता और कारोबारी सब के सब शोर मचाने लगते हैं। जिनके गले में वही सदियों पुराना'कमंडल और कमर में लँगोटी ही शेष है उन्हें 'सवर्ण' या मनुवादी कहना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। सबल समाज और दुर्बल समाज को जातीयतावादी नेताओं के चश्मे से देखना और उसके अन्दर मौजूद वास्तविक दमित-शोषित समाज की उपेक्षा करना नितांत निंदनीय और अधोगामी दुष्कर्म है।
बार-बार बखान किया गया कि मोदी जी के नेतत्व में गुजरात शेष भारत से आगे निकल गया है। बधाई ! किन्तु जिस प्रदेश को गांधी मिले ,सरदार मिले ,लौह पुरुष मिले ,मोदी मिले ,विकास पुरुष मिले। जिस गुजरात के सर्वाधिक एनआरआई दुनिआ में न केवल गुजरात का बल्कि भारत का भी डंका पीट रहे हैं। उसी गुजरात के करोड़पति पटेल-पाटीदार जब लाखों की तादाद में सड़कों पर आरक्षण की मांग करेंगे तो देश के अन्य गरीब - वामन,ठाकुर, और गरीब वैश्य क्या केवल इन जातीवादी नेताओां को वोट देनें के लिए लाइन में ही लगे रहेंगे?
श्रीराम तिवारी
मेरा ख्याल है कि न केवल पटेल-पाटीदार, बल्कि प्रधान, पोद्दार ,मुखिया ,मौरूसी ,लम्बरदार,जमींदार, सेठ ,साव ,साहू और चौधरी ये सब जाति ,वर्ण या गोत्र नहीं हैं। बल्कि ये सब तो सामंकालीन सबल सक्षम समाज की पदवियाँ हैं। मध्युग में व्यवस्था संचालन के लिए राजे -रजवाड़े अपने हाकिम -कारकुन रखते थे। जाहिर है कि उन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। प्रस्तुत पदवीधारी समाज खाते -पीते खास लोगों का ही हुआ करता था। अब यदि ये सनातन से सम्पन्न समाज भी मौजूदा दौर में आरक्षण मांगने की दयनीय अवस्था में आ चूका है तो उनका क्या हाल होगा ? जिनके पूर्वज पहले सिर्फ आम आदमी करते थे !यदि एनआरआई युवाओं की टोली आरक्षण मांगने के लिए 'हार्दिक-हार्दिक' कर रही है तो शेष बचे निर्धन भारतीयों को क्या अल्ला मियां के हवाले छोड़ा जा रहा है ?
कभी भिक्षा पात्र लेकर 'भवति भिक्षाम देहि'का नारा लगाने वाले वामनों को बड़ा गुमान था कि वे धरती के 'भूदेव' हैं ! किन्तु जब बौद्धों ने दंड-कमंडल पकड़ा तोअधिकांस वामन वेरोजगार हो गए ! अब साध्वी निरंजना ज्योति , साध्वी ऋतम्भरा जी, उमा भारती जी ,राधे मा जी ,रामपाल जी एवं आसाराम जी [जेल वाले] ,स्वामी रामदेव जी -पतंजलि वाले और अन्य अधिकांस साधु सन्यासी इत्यादि सबके सब 'पिछड़े' वर्ग के होते हुए भी जब धर्मध्वज हो गए हैं , तो उनके समाज को पिछड़ा कैसे कहा जा सकता है ?
इसी तरह अधिकांस नक्सलवादी भाई आदिवासी ही हैं। जब तक वे नक्सली हैं तब तक तो वे वामनों- ठाकरों और कायस्थों पर ही नहीं बल्कि भारत सरकार पर भी भारी हैं। किन्तु यदि वे हथियार डालकर मुख्य धारा में शामिल हो जाएँ तो वहाँ आरक्षण का पैदायशी हक भी उनका इन्तजार कर रहा है। याने चिट भी मेरी -पट भी मेरी -क्योंकि अंटा मेरे बाप का ! जाति प्रथा महा ठगनी हम जानी ,आरक्षण की अकथ कहानी ,हम जानी या तुम जानी !
संविधान की मंशानुसार भारत के निर्धन -दलित -आदिवासियों को आरक्षण दिए जाने पर तो किसी को कोई एतराज नहीं है।यह तो नितांत जरूरी है कि शोषितों -पीड़ितों को आरक्षण मिले ! किन्तु जब देश के भूस्वामी - जमींदार ,पूँजीपति ,अफसर, मंत्री और अपराधी जब तथाकथित पिछड़ी जाति के आधार पर देश की सत्ता पर अनवरत काल तक अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहेंगे ,तो बड़ी मुश्किल होगी। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ की यदि द्वारकाधीश - भगवान श्रीकृष्ण के वंशज पिछड़े और दरिद्र हो सकते हैं, तो निर्धन सर्वहारा - सुदामा के वंशज अगड़े कब और कैसे हो गए ? सम्राट बिन्दुसार ,चन्द्रगुप्त , अशोक, के वंशज यदि दलित और पिछड़े हो सकते हैं, तो झोपड़ी में रहने वाले लँगोटीधारी चाणक्य के वंशज अगड़े कब और कैसे हो गए ? कहीं ऐंसा तो नहीं कि संसदीय लोकतंत्र में बहुमत की दादागिरी के वास्ते , वोट की राजनीती वालों ने निरीह -निर्दोष -निधन जनता की छाती पर यह आरक्षण की दुंदभी बजाई हो !
ज्यों -ज्यों देश की जनसंख्या बढ़ती जा रही है ,त्यों-त्यों सभी जातियों -सम्प्रदायों के आधुनिक युवाओं को -आजीविका के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा में जूझना पड़ रहा है। वेशक जो युवा प्रतिभाशाली हैं ,जिन्हे आधुनिक तकनीकी उच्च शिक्षा के अवसर उपलब्ध हैं, उनकी तो वर्तमान दौर के उदारीकरण,बाजारीकरण और भूमंडलीकरण के परिदृश्य में वेशक बल्ले -बल्ले है। उनमें से कोई एक सौभाग्यशाली तो गूगल का सीईओ भी बन गया है। कोई एमएनसी में प्रतिष्ठित हो चूका है। कोई यूएन सेक्रेट्रिएट में नौकरी पा गया है। कोई एक भारतीय युवा व्हाइट हाउस में ही काम पर लग गया है। कोई ऑस्ट्रलिया में ,कोई यूके में ,कोई सिंगापुर में और कोई कनाडा में भी अपनी योग्यता और हुनर का झंडा गाड़ रहा है। किन्तु यह खुशनसीबी सब को उपलब्ध नहीं है ! अधिकांस युवा जो कुदरती तौर पर वैश्विक स्तर के प्रतिभाशाली नहीं होते और जातीय तौर पर यदि वे सामान्य वर्ग से होते हैं, तो उन के लिए एमएनसी या विदेशी कम्पनियों में चांस नहीं के बराबर हैं। मजबूरी में उन्हें अपने देश में ही किसी सेठ -साहूकार की या कार्पोरेट कम्पनी के मालिक की गुलामी करनी पड़ रही है !
क्योंकि सरकारी नौकरी पर तो आरक्षित श्रेणी का बोर्ड टंगा हुआ है ! आधुनकि शिक्षा संसाधनों की बढ़त ने इधर सभी वर्ग के युवाओं को प्रतिश्पर्धा की आग में झोंक दिया है।आरक्षण के अभाव में यदि सामान्य श्रेणी के कुछ युवा प्रतिश्पर्धा में है भी तो उनके सामने जातीय आरक्षण की लौह दीवार मौत की तरह मुँह बाए खड़ी है।सूचना संचार क्रांति ने भी इसमें नकरात्मक भूमिका ही अदा की है। व्यापम काण्ड ,डेमेट काण्ड और मुन्ना भाइयों के किस्से अब आम हो चले हैं !इनमें भी सत्ताधरी वर्ग के बगलगीर और निहितस्वार्थी लोग ही संलग्न पाये गए हैं। सभी वर्गों के कमजोर युवाओं और खास तौर से अनारक्षित वर्ग के युवाओं ने इस शार्ट - कट में फंसकर 'मरता क्या न करता 'कि तर्ज पर अपना बहुत कुछ गंवाया है।
जन्मना सामान्य जाति के जो युवा किसी किस्म के आरक्षण की सीमा में नहीं आते .जो गरीबी-अभाव के चलते उचित शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं , ऐंसे साधनहीन युवा मामूली सी पगार और कठोर सेवा शर्तों पर १२-१२ घंटे अपना श्रम बेचकर , हर किस्म के शोषण का शिकार हो रहे हैं ! इस व्यवस्था से असंतुष्ट कुछ युवा तो शहीद भगतसिंह और सफ़दर हाशमी के राह चल देते हैं।जिनका अंत केवल शहादत ही हो सकता है। और कुछ जो अक्ल के दुश्मन हैं वे ज़िंदा रहने के लिए ,चोरी-चकारी -डकैती जैसे अनैतिक रास्ते अपनाकर बेमौत मरने पर मजबूर हो जाते हैं । इसके अलावा कुछ ऐंसे भी हैं जो अपनी जातीय संख्या बल की ताकत से अपने आर्थिक-सामाजिक और राजनैतिक हितों को साधने के लिए आरक्षण की मांग उठाते हैं। वे उग्रतम आंदोलन करते हैं.रेल की पटरियाँ उखाड़ते हैं ,न्यायालय की अवमानना करते हैं ,और फिर वे राजनीति में एक 'जातीय गैंग ' बनकर चुनाव में अपनी अपनी ताकत दिखलाते हैं। इनका यह शौर्य केवल आरक्षण की खुरचन खाने के लायक ही होता है।
सीमाओं पर शौर्य दिखाने में लिए या नावेद जैसे आतंकी को जिन्दा पकड़ने के लिए तो कोई बिना आरक्षण वाले - विक्रमजीत शर्मा और राकेश शर्मा ही काम आते हैं ! लालू,मुलायम पप्पू यादव या कोई हार्दिक पटेल वहाँ सीमाओं पर पाकिस्तानी खुरेन्जिओं से सर कटाने क्यों जाएंगे ? वे तो स्वयंभू पिछड़े हैं सो लड़ाई में पीछे रहेंगे ! किन्तु आरक्षण का अधिकार मांगने में ही वे सबसे आगे रहँगे ! देश के लिए लड़ना -मरना तो उनका काम है,जो जाति -धर्म से परे होकर केवल अपनी मातृभूमि के लिए जन्में हैं !जिनकी किस्मत में सिर्फ शहादत ही लिखी है।
यूपी -बिहार के मण्डलवादियों और राजस्थान के मीणाओं की देखा-देखि पहले तो राजस्थान के जाटों ने और अब गुजरात के पटेलों ने भी आरक्षण की दुंदभी बजाई है। मलाईदार परत ने भी अब आरक्षण की गटरगंगा को ही तारणहार मान लिया है। गुजरात के पाटीदारों-पटेलों ने अब एक युवा पटेल 'हार्दिक' को हीरो बना लिया है। हालाँकि यह पटेल समाज पहले से ही ताकतवर है। लेकिन अब वोट की राजनीति में भी ताकतवर होता जा रहा है। जान पड़ता है कि मामला गरीबी -अमीरी का नहीं है ,बल्कि मोदी जी को टक्कर देने का है। क्योंकि मोदी जी ने अतीत में पटेलों को भी रुस्वा किया। अपने जातीय आरक्षण के आधार पर ही उन्होंने न केवल बाघेला ,न केवल मेहता न केवल पंड्या ,न केवल राणा बल्कि केशु भाई पटेल को भी सत्ता से बेदखल किया है। जिसकी बदौलत उन्हें पहले गुजरात की सत्ता मिली। उन्होंने गुजरात में जब साम्प्रदायिक जलबे दिखाए तो उसके प्रभाव से आडवाणी,सुषमा,मुरली मनोहर और अन्य सभी वरिष्ठ भाजपा नेता सत्ता के सरताज से महरूम होते चले गए। पिछड़ेपन की जो ढाल मोदी जी के काम आयी ,वो यूपी बिहार के यादवों को लगभग आधी शताब्दी से उपकृत किये जा रही है। अब न केवल नीतीश को बल्कि देश के सभी मण्डलवादियों को मोदी जी से खतरा है। क्योंकि मोदी जी भी 'पिछड़े' ही हैं। हालाँकि मोदी जी को भी अब 'हांर्दिक ' से खतरा है।
चूँकि गुजरात के ताकतवर पाटीदारों और उनके नेता केशु भाई पटेल को मोदी जी की यह 'बढ़तलीला' कभी रास नहीं आयी ? पटेलों या पाटीदारों का आधुनिक वाट्सएप वाला उभरता सितारा 'हार्दिक' अभी २२ साल का ही है। किन्तु उसकी आम सभाएं ५ लाख से कम श्रोताओं की नहीं होती ! स्वाभविक ही है कि वह राजस्थान के गूजर नेता कर्नल किरोड़ीसिंह वैस्ला से भी ज्यादा जातीयतावादी ताकतवर नेता बन चूका है। जो देश और समाज के काम तो भले ही ना आये किन्तु ठाकरे और दत्ता सामंत की तरह पूँजीवाद की दलाली के काम तो जरूर आएगा ! दस बीस पाटीदारों को कलक्टरी और दस-बीस पटेलों को मैनेजरी तो मिल ही जायेगी। बाबू, चपरासी तो पटेल लोग क्या बनेगे ? जो लोग आज अमेरिका ,कनाडा या दुबई में 'मोदी-मोदी' की जयकार कर रहे हैं , वे कल को 'हार्दिक-हार्दिक'करने लगें तो कोई बेजा बात नहीं !
जिस तरह भारत की पवित्र नदियाँ - गंगा ,यमुना ,गोदावरी इत्यादि कब की मैली हो चुकी हैं - पापियों के पाप धोते -धोते ! उसी तरह यह भारत की सुजलाम -सुफलाम भूमि भी अब सामाजिक विग्रह की समर भूमि बन गयी है- जातीय आरक्षण का भार ढोते-ढोते ! जातीय आरक्षण का आर्थिक और राजनैतिक लाभ उठाने वाले सभी जन यह याद रखें कि उन्हें 'ऊपर ' उठाने में लगभग आधी शताब्दी तो अवश्य ही बीत चुकी है!वे यह सोचें कि इतना अरसा गुजर जाने के बाद भी उनका उद्धार क्यों नहीं हुआ ? अरबों-खरबों की राष्ट्रीय सम्पदा इस मद में स्वाहा हो जाने के बाद ,किसी एक खास पिछड़े नेता का प्रधान-मंत्री बन जाने के बाद ,किसी एक ख़ास परिवार का पीढ़ियों तक मुख्यमंत्री बने रहने के बाद ,किसी खास दलित नेता का आधी शताब्दी तक केंद्रीय मंत्री बने रहने के बाद ,पीढ़ी-दर पीढ़ी आईएएस -आईपीएस बने रहने के बाद , किसी दलित महिला का लोक सभा अध्यक्ष बन जाने के बाद ,किसी भूतपूर्व मुख्यमंत्री का राज्यपाल बनकर व्यापम काण्ड में संलग्न रहने के बाद ,किसी कूटनीतिक देवयानी का अमेरिका में अपनी ही नौकरानी का शोषण करने के बाद ,किसी का राजदूत हो जाने के बाद , किसी बदमाश [गजभिये] का सागर विश्वविद्द्यालय का वाइस चांसलर बनाये जाने के बाद ,उसके द्वारा हजार करोड़ के घोटाले किये जाने के बाद, यदि किसी का मानसिक पिछड़ापन नहीं गया ,तो इसमें देश की शोषित-पीड़ित जनता का क्या कसूर है ?
बंगारू ,जोगी ,जूदेव ,कोंडा ,लालू यादव ,पप्पू यादव ,रामनरेश यादव जैसे लोगों को भृष्टाचार में पकडे जाने के बाद भी आरक्षण का पात्र क्यों होना चाहिए ? दो तरफ़ा लूट के वावजूद भी इनके कटुम्ब खानदान का पिछड़ापन यथावत बरक़रार क्यों है ? आधी शताब्दी तक जो परिवार सत्ता के पावर और नौकरशाही के इर्द-गिर्द रहा हो उसका मानसिक और सामाजिक रूप से पिछड़े रहने का वास्तविक कारण क्या है ? यह सावित हो चूका है कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री मधु कौंडा या बाइस चांसलर गजभिये ने हजारों करोड़ की हेराफेरी की है ,लेकिन वो अभी भी आदिवासी या दलित ही बने बैठे हैं ! यदि ये लोग आज भी केवल आरक्षण की वैशाखी के ही तलबगार हैं ,तो उन युवाओं की क्या हालत होगी ? जिनके पास न नौकरी है ,न जिनके पास बिजनेस है,न जिन के पास आरक्षण का कोई भी अवसर है ? जिनके पास अपना श्रम बेचने के सिवा और कुछ नहीं ऐंसे 'बदनसीब' सर्वहारा यदि दुर्भाग्य से जन्मना ब्राह्मण,ठाकुर ,बनिया या कायस्थ हैं , तो इसके लिए क्या वे सनातन दंड के पात्र बने रहेंगे ? क्या वे अपनी तथाकथित उच्च कुलीन जाति या सामाजिकता का आचार डालें ?
कुछ लोग कह सकते हैं कि खाते-पीते समाज के लोगों के लिए आरक्षण की प्रासंगिकता क्या है ? चूँकि बिहार में शीघ्र ही चुनाव होने जा रहे हैं ,सभी जानते हैं कि वहाँ 'वोट' के लिए न केवल ' आर्थिक खैरातों 'का बल्कि जातीयता का नग्न नृत्य किया जाने वाला है !जहाँ केवल जातीयता ही खाई जाती हो ,जहाँ जातीयता ही ओढ़ी जाती हो , जहाँ जातीयता ही पहनी जाती हो ,जहाँ जाति पहले और राष्ट्र बाद में संज्ञेय हो - वहाँ यदि पासवान जैसे दलित नेता -विवेकशील नेता यदि इस जातीय आरक्षण की व्यवस्था पर अब सवालिया निशाँन लगाएं तो इस आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार क्यों नहीं किया जाना चाहिए ?
आसन्न चुनाव की बेला में बिहार के जाति बनाम विकास के इस विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए जब श्री राम विलास पासवान , श्री उपेन्द्र कुशवाहा और श्री जीतनराम माझी ही सवाल उठायें कि लालू-नीतीश और अन्य मण्डलवादियों ने आरक्षण की वैशाखी से बिहार को कमजोर किया है। तो देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और अन्य आरक्षण समर्थकों को उनके सवालों का कुछ तो जबाब देना चाहिए ! जब पासवान -उपेन्द्र कह रहे हैं कि लालू ,नीतीश ने विगत ३५ सालों के शाशनकाल में बिहार के दलित -पिछड़े गरीबों का कोई विकास नहीं किया। तो देश की आवाम को इस पर गौर क्यों नहीं करना चाहिए ? जब आरक्षित समाज के नेता अपने ही समाजों का भला नहीं कर सके तो वे 'तथाकथित अगड़ी जाति के गरीबों या सवर्णों मजदूरों का क्या खाक भला करेंगे ? भले ही पासवान ,उपेन्द्र जीतनराम आज दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों के हाथों में खेल रहे हों ,उनके प्रवक्ता बने हों किन्तु उनके ये तर्कसंगत आरोप खंडित नहीं किये जा सकते। न केवल बिहार बल्कि पूरे भारतीय परिदृश्य पर भी इस बात की चर्चा होनी ही चाहिए कि आरक्षण से यदि किसी शोषित-पीड़ित -पिछड़े-दलित समाज का उद्धार नहीं हुआ है ,तो उसे जारी रखने का ओचित्य क्या है ?
"वो अफ़साना जिसे अंजाम तक ले जाना न हो मुमकिन ,उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर ,छोड़ना ही बेहतर है " हो सकता है कि कोई छुद्र संकीर्ण मानसिकता का खुदगर्ज व्यक्ति मेरी इस तरह की नव स्थापना से मुझे घोर प्रतिक्रिवादियों से नथ्थी कर दे। किन्तु मुझे रंचमात्र परवाह नहीं ! क्योंकि "सत्य हमेशा परेशान हुआ करता है किन्तु पराजित नहीं "!मध्य युग में जब लोकतंत्र नहीं हुआ करता था तब सर्वत्र निरंकुश -बर्बर राजशाही ही हुआ करती थी। राजाओं का अधिकांस समय युद्ध व षड्यंत्रों में ही गुजर जाता था। जब कभी किसी राजा -रानी ,सेनापति ,युवराज , सिकंदर ,नेपोलियन, अकबर ,विक्टोरिया ,जार्ज ,सुलतान या बेगम को कोई फतह हासिल होती या पुत्ररत्न [पुत्री नहीं ] की प्राप्ति होती या जनता के बगावत करने की कोई आशंका होती ,तो वह राजा या रानी अपने दरबारियों को ख़िरातें बाँटकर -स्थाई रूप से सत्ता का बफादार' बनाने का उपक्रम किया करते थे । इसके अलावा कभी -कभी हाथी पर स्वर्णिम होदे में सवार होकर वह 'राजपथ' पर भी कुछ सिक्के उछालते हुए निकल पड़ते । अपनी 'प्रजा' के समक्ष ख़ुशी का इजहार करते । और उन चंद सिक्कों के लिए जनता को राजपथ पर सिरफुटौव्वल करते देख 'शासक' को जो अवर्णीय आनंद की अनुभूति होती वही अनुभूति अब स्वतंत्र भारत के जातीय नेताओं को आरक्षण की महामारी से हो रही है।
सामंती युग में शोषित -पीड़ित जनता भी अपने आततायी शासकों की जय-जैकार करती हुई पागल हो जाया करती थी । अब पूंजीवादी लोकतंत्र में भी नेताओं की जय-जय कर करते हुए उसी जनता की रीढ़ दोहरी हुई जा रही है। तब भी ये शोषण के शिकार हुआ करते थे और अब भी ये शोषण के शिंकार हो रहे हैं। इनकी मानसिक गुलामी ही आरक्षण की भांग पीते रहने को आमादा है। सामंतयुग और पूंजीवादी लूट तंत्र में फर्क सिर्फ इतना है कि आधुनिक लोकतंत्र में राजाओं का स्थान निर्वाचित जन -प्रतिनिधियों ने ले रखा है। पूँजीवाद,जातिवाद - साम्प्रदायिकता के प्रभाव में जनता के वोट ही महत्वपूर्ण हैं। पूंजीपतियों के नोट और बाहूबलिओं की ओट जिसे प्राप्त है वही बहुमत से चुनाव जीत सकता है । चुनाव के बक्त थोक में जनता के वोट पाने के लिए, पूँजीवादी -जातिवादी साम्प्रदायिक पार्टियाँ - अपने निहित स्वार्थ के लिए,आरक्षण रुपी रेवडियाँ उछालकर मेहनतकश जनता को आपस में लड़ाती रहतीं हैं। उनकी इस कुचाल से न केवल देश की तरक्की रूकती है ,बल्कि समाज में गैरबराबरी भी बढ़ती जाती है।
दरसल पतनशील अधोगामी वर्तमान व्यवस्था चौतरफा भृष्टाचार अमानवीयता व अराजकता से तार-तार हो चुकी है। जन विद्रोह को दवाने के लिए जिस आरक्षण की बैशाखी का सहारा लिया जाता है वो अब इस 'बनाना लोकतंत्र' के गले की हड्डी बनता जा रहा है। जब ताकतबर लोग आरक्षित होंगे और कमजोर लोग हासिये पर होंगे तो यह लोकतंत्र के लिए और सम्पूर्ण राष्ट्र की सेहत के लिए ठीक कैसे हो सकता है ? वैसे तो जनवादी और प्रगतिशील परम्परा में जातीय विमर्श को कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती। लेकिन इस दौर की बदचलन और प्रचलित राजनीतिक में 'जातीय आरक्षण ' के झंडे बुलंदियों पर हैं। राजस्थान में जाटों के और गुजरात में पटेलों-पाटीदारों के जातिवादी -आरक्षण आंदोलन ने समाज के उन वर्गों / जातियों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है ,जो जन्मना तो सवर्ण -अगड़े या कुलीन कहे जाते हैं. किन्तु जिनका जीवन अत्यन्त दयनीय है। मेहनतकश -शोषित -पीड़ित वर्ग के लिए लड़ने वालों पर भी अब बेजा दबाव है. कि वे मौजूदा प्रचलित सामंती - जातीयता के फोबिया से बाहर निकलें ! जाति -धर्म से परे सब लोग सभी के हितों वाली विचारधारा का एकल संधान करें। बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय की अवधारण को केवल साम्यवादी विचारधारा में ही संभावनाएं निहित हैं। जाति विहीन ,वर्गविहीन और सम्प्रदाय से परे सोचने वाले ही देश और दुनिया को न्याय दिल सकते हैं।अगड़ा -पिछड़ा करने वाले कभी भी सभी वर्गों के साथ न्याय नहीं कर सकेंगे।
जो लोग जन्मना 'उच्चवर्ण' के हैं उनमें से वेशक कुछ अम्बानी,अडानी,टाटा,बिड़ला,बांगर, मोदी और मित्तल होंगे। किन्तु बाकी अधिकांस 'सवर्ण गाँवों में भूमिहीन हैं।आम तौर पर खेती की जमीने उनके पास हैं जो पिछड़े कहे जाते हैं। सरकारी क्षेत्र की नौकरीयाँ भी आरक्षण के चलते उन्ही के पास हैं। सर्व विदित है कि यूपी में तो अधिकांस थानेदार से लेकर डीजीपी तक यादव ही हैं। देश का प्रधानमंत्री भी पिछड़े वर्ग से ही आता है। बिहार में तो हालत ये है कि कोई भी जीते किन्तु मुख्यमंत्री पिछड़ा ही होगा। इसमें कोई शक किसी को नहीं होना चाहिए ! कांग्रेस के जातीयतावादी नेताओं ने, मुलायम -अखिलेश ने ,मायावती -कासीराम ने ,लालू -नीतीश ने , जीतनराम - पासवान ने ,पप्पू-शरद यादव ने , देवगौड़ा ने ,शिंदे ने ,झारखंड के महाभृष्ट गुरु घंटालों और तमाम नेताओं ने आरक्षण के बलबूते केवल अपना ही उल्लू सीधा किया है। जिन लोगों ने अपने ही समाज के लोगों का विगत ६७ साल में उद्धार नहीं किया। वे आइन्दा देश का और क्या उद्धार करेंगे ?
सवर्ण गरीब मजदूर तो प्रायवेट सेक्टर में ,कार्पोरेट सेक्टर में ,अस्पतालों में,कारखानों में चौकीदारी के लिए सौ रुपया रोज की मजूरी के लिए भटक रहे हैं । वे केवल कहने भर को अगड़े हैं। सभी सवर्ण जाति के बच्चे चांदी की चम्मच अपने मुँह में लेकर पैदा नहीं होते । भारत के सकल शोषित समाज में से अधिकांस तथाकथित 'कुलीनों' के बच्चे भी दर -दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। किन्तु जब वे आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करते हैं ,तो देश को लूटने वाले मक्कार , कायर और आकंठ रिश्वतखोरी में डूबे तथाकथित 'पिछड़े' वर्ग के अधिकारी ,नेता और कारोबारी सब के सब शोर मचाने लगते हैं। जिनके गले में वही सदियों पुराना'कमंडल और कमर में लँगोटी ही शेष है उन्हें 'सवर्ण' या मनुवादी कहना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। सबल समाज और दुर्बल समाज को जातीयतावादी नेताओं के चश्मे से देखना और उसके अन्दर मौजूद वास्तविक दमित-शोषित समाज की उपेक्षा करना नितांत निंदनीय और अधोगामी दुष्कर्म है।
बार-बार बखान किया गया कि मोदी जी के नेतत्व में गुजरात शेष भारत से आगे निकल गया है। बधाई ! किन्तु जिस प्रदेश को गांधी मिले ,सरदार मिले ,लौह पुरुष मिले ,मोदी मिले ,विकास पुरुष मिले। जिस गुजरात के सर्वाधिक एनआरआई दुनिआ में न केवल गुजरात का बल्कि भारत का भी डंका पीट रहे हैं। उसी गुजरात के करोड़पति पटेल-पाटीदार जब लाखों की तादाद में सड़कों पर आरक्षण की मांग करेंगे तो देश के अन्य गरीब - वामन,ठाकुर, और गरीब वैश्य क्या केवल इन जातीवादी नेताओां को वोट देनें के लिए लाइन में ही लगे रहेंगे?
श्रीराम तिवारी
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