भारतीय 'संत काव्य धारा' में कबीर का बहुमान सर्वत्र सर्वकालिक है। सचेत जन -मानस की नजर में और खास तौर से हिन्दी साहित्य मर्मज्ञों की नजर में तो 'संत कबीर ' किसी पीर,पैगम्बर,अवतार या किसी आदर्श चक्रवर्ती सम्राट से कमतर नहीं है। मेरी नजर में भी 'संत कबीर' के कृतित्व व रचना धर्मिता का बड़ा मान है। वैसे भी अपने समकालीनों के बरक्स तो कबीर कदाचित प्रगतिशील ही साबित हुए हैं । किन्तु कबीर के समग्र साहित्यिक अवदान में - जनता के सरोकारों ,राजनैतिक,सामाजिक व आर्थिक सवालों पर उन की चुप्पी ने उन्हें विश्व स्तरीय सम्मान से वंचित किया है । कबीर विषयक मेरी इस अवधारणा से मेरा युवा एवं अध्धयनशील पुत्र वाकिफ है।
इसलिए जब बेटे डॉ प्रवीण तिवारी ने मुझे एक अप्रत्याशित सलाह दी कि पिता श्री आप संत ' कबीर' पर भी कुछ लिखें। तो मैंने कहा - बेटा ये कबीरदास जी तो इतने बहुश्रुत ,बहुपठित व बहुचर्चित रहे हैं की उन पर अब नए सिरे से कुछ भी कहना - सुनना -लिखना केवल अपनी जग हँसाई कराने जैसा ही होगा। इसके अलावा आज के इस अल्ट्रा-डिजिटलाइज युग में यह एक अनुत्पादक और आलोच्य कर्म ही सिद्ध होगा ! वैसे भी जब संत कबीर के कृतित्व और व्यक्तित्व के बारे में अच्छे -अच्छे नामी -गिरामी लिख्खाड़ लिख गए हैं, तो अब मैं क्या खाक उन पर कुछ नया लिख सकूंगा ? किन्तु बेटा शायद पहले से ही इस तरह के चलताऊ और टरकाऊ जुमलों के लिए तैयार था। इसलिए उसने ततकाल कहा -आप कुछ इस तरह से लिखिए कि उस नजरिये से किसी और ने अभी तक लिखा ही ना हो ! उसके इस अमोघ अश्त्र की कोई काट ढूंढने के बजाय मैंने कबीर विमर्श की शल्यक्रिया का मन बना लिया। इसी बहाने बेटे का सुझाव मानकर तदनुसार भूले बिसरे वास्तविक कबीर को खोजकर ,समाज में विराजे परम्परागत कबीर की जगह प्रतिष्ठित करने का कार्य भी प्रारम्भ कर दिया । कुछ दिनों की मेहनत मशक्क़त के बाद - कबीर के व्यक्तित्व,कृतित्व पर मेरा यह नितांत नूतन 'कबीर विमर्श का विंहगावलोकन' प्रस्तुत है !
मैंने शुरुआत से ही अपनी चेतना के किसी अज्ञात कोने में सुरक्षित बैठे आध्यात्मिक संत 'कबीर' की महिमा का चारण बखान करने के बजाय मानवता के हितेषी और यथार्थ के धरातल पर खड़े उस कबीर को खोजना शुरू किया जो मानव जाति की उच्चतर मान्यताओं और मूल्यों के अनुरूप हो ! खुद कबीर की ख्याति के अनुरूप हो ! इस बाबत पुनः सम्पूर्ण कबीर वांग्मय का गहन अध्यन किया । इसके लिए न केवल कबीर बल्कि अन्य भक्तिकालीन हिंदी कवियों का भी वैज्ञानिक और यथार्थ के नजरिये से सांगोपांग अध्यन एवं अनुशीलन किया। कबीरपंथियों , अनुभवी बुजुर्ग विद्वानों एवं अध्येताओं का भी सानिध्य प्राप्तकिया । न केवल भारतीय हिंदी 'संत कवियों' ,सूफी संतों और दार्शनिकों के ही - बल्कि कबीर कालीन यूनानी ,यूरोपियन,चीनी अरेबियन कवि एवम दार्शनिकों के विचारों के साथ भी कबीर का तुलनात्मक अध्यन किया । इसी दौरान कबीर के कुछ कूढ़ -मगज , जड़मति प्रशंसकों - भक्तों से भी बहस मुसाहिबा करना पड़ा । इस 'कबीर -समुद्र मंथन ' से प्राप्त जानकारियों का कलेवर अर्थात पुलिंदा किसी एक मामूली आलेख में कदापि समाहित कर पाना असम्भव है । इसलिए मैंने आलेख की विषयवस्तु के मानकीकरण के निमित्त जरुरी सामग्री को ही इसमें शामिल किया है। साथ ही विषय वस्तु के प्रमाणीकरण हेतु केवल कबीर की वाणी को ही साक्षी माना है। आलेख को सीमित करने के निमित्त इस विमर्श के बहुत सारे तथ्यों और उपलब्ध प्रमाणों को मजबूरी में इस आलेख से हटाना पड़ा है।
मेरी इस मशक्क़त ने मुझे न केवल कबीर वाङ्गमय बल्कि अधिकांस भाववादी हिंदी 'संत-काव्य' में भी डुबकियाँ लगानी पड़ीं । इस दौरान कुछ पुरातन और सामन्तकालीन हिंदी कवियों के श्रेष्ठ मानवीय और क्रांतिकारी चेहरे को जानने-पहचानने का भी मौका मिला। साइंस का विद्यार्थी होने के नाते न केवल वैज्ञानिक दॄष्टि से अपितु सामाजिक क्रांतिकारी रूप में भी कबीर को खोजने की कोशिस की गयी। इसी दौरान मैंने यह पाया कि इस सूचना एवं सम्पर्क क्रान्ति के उत्तर आधुनिक युग में वैसे तो संत कबीर सहित कई सच्चे 'संत' और योगी अभी भी अपनी आध्यत्मिक प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए हैं। किन्तु उनकी कदर कुछ नहीं है। बल्कि कुछ बदमास ठग बाबाओं ने जरूर अंधश्रद्धा और पाखंड का बाजार खड़ा कर लिया है। इन आसाराम जैसे धूर्तों ने शिष्यों की जगह गुंडों,लुच्चों -लुच्चियों और लफंगों को अपना शागिर्द बना रखा है।वहीँ दूसरी ओर शिक्षित और तकनीकी दक्षताप्राप्त आधुनिक 'डिजिटलाइज' नई पीढ़ी को कबीर जैसे संत या किसी अन्य 'संत कवि' से कोई खास लगाव अथवा रूचि ही नहीं है। ये वर्तमान पीढ़ी घण्टों व्हाट्सऐप या फेसबुक पर चिपकी रहेगी ,पोर्न साइटस पर कीमती वक्त जाया करती रहेगी। किन्तु कबीर,सूर तुलसी केशवदास ,बिहारी रसखान ,मीरा या रहीम की रचना धर्मिता का विमर्श तो दूर की बात,वे इन संत - कवियों के नाम सुंनकर ही नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं।कालिदास ,वेद व्यास , शंकराचार्य , भास्कराचार्य,महीधराचार्य या रामानुजाचार्य जैसे उद्भट संस्कृत साहित्य के रचनाकारों को समझने -बूझने की क्षमता इनमे कैसे संभव है ?
यह कटु सत्य है कि हिंदी साहित्य के 'संत -कवियों' और साहित्यिक पुरोधाओं की दुर्गति पर आंसू बहाने की फुर्सत इस तकनीकी दक्षताप्राप्त पीढ़ी को कदापि नहीं है। गूगल सर्च या अन्य साहित्यिक साइट्स की खोज खबर लेकर सूचनाएँ प्राप्त करने में और लायब्रेरी में जाकर हिंदी संत कवियों -लेखकों के साहित्यिक अवदान का अध्यन एवं उस पर चर्चा करने में बहुत फर्क है। यह फर्क समझना भी इन आधुनिक युवाओं को गवारा नहीं। यही वजह है कि भारतीय सनातन हिन्दू समाज संतों,गुरुओं,अवतारों और वीरों-शहीदों की फोटो तो घर में अब भी लगाता है। अगरबत्ती और धूपदान भी कभी - कभार जलाता है । किन्तु इन साहित्यकारों ,संत कवियों के सृजन और उनके सामाजिक ,राजनीतिक , साहित्यिक एवं क्रांतिकारी योगदान पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता। इसीलिये आज की वैज्ञानिक पीढ़ी भी अपने सामन्तकालीन और पौराणिक पूर्वजों द्वारा रचे गए 'मिथ' को ही मरी हुयी बंदरिया की तरह गले से चिपकाए भटक रही है।वह झूंठ ,मिथ ,पाखंड से निर्मित भावात्मक गटर साहित्य को ही इतिहास समझ रही है। संत कबीर का यथार्थ चरित्र, वास्तविक व्यक्तित्व एवं मौलिक कृतित्व भी इसी तरह की अन्द्धश्रद्धात्मक भाववादी चमत्कारिक चारण वंदना में खो गया है।
हालाँकि भारतीय प्रचंड संस्कृत वांग्मय उसकी वैज्ञानिकता और परिष्कृत व्याकरण के समक्ष 'अपढ़' निरक्षर कबीर तो क्या सन्सार के समस्त कवि,दार्शनिक व विचारक भी बौने ही हैं।विश्व की सम्पूर्ण 'गैर संस्कृत' विरादरी का साहित्य भी वैदिक सम्पदा के समक्ष बौना ही है। चूँकि कबीर यह सब नहीं जानते थे इसलिए उन्हें संस्कृत साहित्य 'काला अक्षर भैंस बराबर' लगता था। महाकवि बाणभट्ट , महान वैज्ञानिक और संस्कृत विद्वान - नीतिकार भर्तृहरि व भवभूति तथा कवि कुल गुरु कालिदास के नाम भी कबीर ने नहीं सुने होंगे। यदि सुने होते तो उनका एक आध बार कहीं तो उल्लेख होता। भले ही कबीर ने स्वामी रामानंद का शिष्यत्व स्वीकार किया हो ,उनके प्रति कृतग्यता ज्ञापित की हो किन्तु वे व्यवहार व सोच में रामानंद से बहुत दूर थे। जबकि 'हठयोगी -नाथपंथी ' उनके ज्यादा करीब थे। सूफियों का भी उन पर पर्याप्त असर था। चूँकि यह संस्कृत का विशद ज्ञानमय कोष क्लिष्टतम होने से आम आदमी की पहुँच से बाहर था ,इसलिए बेचारे आधे हिन्दू -आधे मुसलमान मजहब वाले कबीर की क्या हैसियत कि वह उपनिषद के उच्चतम सत्य को छू सके? इसलिए उन्होंने संस्कृत ग्रंथों और उसके अध्येताओं से अपनी खुन्नस निकालते हुए अनायास ही जड़ दिया :-
'पोथी पढ़ि -पढ़ि जग मुआ ,पंडित भया न कोय !' अर्थात पांडित्य का ठेका तो कबीर ने ले रखा था !
अपनी इस वैमनस्यता पूर्ण निंदक प्रवृत्ति को जस्टीफाइड करने के लिए कबीर ने एक अनूठा सिद्धांत भी गढ़ लिया :-
'निंदक नियरे राखिये ,आँगन कुटी छुवाय !'
कबीर ने यदि पाली प्राकृत बौद्ध जैन वांग्मय का रंचमात्र भी अध्यन किया होता ,'अनेकान्तवाद' दर्शन या स्याद्वाद का नाम भी सूना होता तो वे परनिंदा रस में इतने निमग्न नहीं होते। तब वे अपनी स्थापनाओं में
कोरे उपदेश जड़ने के , ततकालीन निर्मम हत्यारे ,लुटेरे शासकों की आलोचना भी करते। तब वे जनता का मार्ग दर्शन करने के बजाय केवल अपने पूर्वजों को गरियाते रहने वाले को 'संत' नहीं होते ! वेशक कबीर जन - कवि तो थे। किन्तु वे 'भाषा भनित भदेस 'से ज्यादा कुछ नहीं थे। तुलसी,रहीम और बिहारी के बराबर भी नहीं। आज भी जो लोग संस्कृत साहित्य से वंचित हैं वे भी कबीर की ही कूप मंडूक हैं। वे भी कबीर या उन लोगों की तरह सोचते हैं जिन्हे वैज्ञानिक भौतिकवाद के लिए अंग्रेजी,फ्रेंच ,इटालियन या फारसी का मुँह ताकना पड़ा होगा। जब कबीर जैसे संत कवि इस उत्कृष्ट परिष्कृत वैज्ञानिक संस्कृत साहित्य को हेय समझते हैं। तो उनकी समझ पर तरस आता है। भारतीय पुरातन संस्कृत वांग्मय को नहीं जानने वाले भी कबीर की तरह बीसवीं शताब्दी के चिंतक -कवि और इस इक्कीसवीं शताब्दी के उत्तर आधुनिकतावादी भी -अपनी अज्ञानता को प्रगतिशीलता बताते रहते हैं। इन दिनों जिंदगी के उत्तरार्ध में न केवल अपढ़ आस्तिक किस्म के वुजुर्ग बल्कि कुछ एनआरआई -अंग्रेजीदां - खास तौर से मध्यमवर्गीय पिछड़ी जातियों के वयोबृद्ध,अकादमिक स्टेक - होल्डर्स और रिसर्च स्कालर भी इन हिंदी भाषी संत कवियों के प्रति ही श्रद्धावनत देखे जा सकते हैं ।संस्कृत साहित्य उन्हें भी काटने को दौड़ता है। कुछ स्वयंभू जनवादियों-प्रगतिशीलों को उसमें 'दक्षिणपंथ' की बू आती रहती है। केवल कबीर की मजहबी आलोचनाओं वाले संदर्भ में वे चकरघिन्नी हो रहें हैं।संस्कृत साहित्य में मोजूद क्रांतिकारी तत्वों तक पहुँच पाना जिनके वश की बात नहीं वे अपनी वैचारिक प्रगतिशीलता के लिए केवल अंग्रेजी ,उर्दू और क्षेत्रीय भाषाओं पर निर्भर हैं। कबीर की तरह उन्हें भी संस्कृत साहित्य' के अंगूर खट्टे हैं।
बचपन में कभी गांव वालों की भजन मण्डली के मुँह से कबीर के भजन या साखियाँ सुनी होंगीं। वे आज भी याद हैं। अनायास ही याद हो जाने वाली यह कबीर वाणी तब अंतराक्षरी के बहुत काम आया करती थीं। हिंदी भाषा ज्ञान प्रबोधन में न केवल कबीर बल्कि तुलसी ,मीरा सूरदास , रहीम , रसखान , पद्माकर , भूषण जगनिक इत्यादि के लोक साहित्य का भी विशेष महत्व रहा है । राजनैतिक -सामाजिक विचार -सिद्धांत के रूप में ये सभी संत कवि और खुद कबीर साहब भी चाणक्य या वाल्मीकि के घुटनों तक भी नहीं आते।महर्षि - वाल्मीकि ,अष्टावक्र ,वेदव्यास ,भृगु या वशिष्ठ जैसे संस्कृत साहित्य रचयिता तो अपने -अपने दौर के क्रूर शासकों की बारह बजा कर, साहित्य सृजन कर गए।तुलसी ,रहीम ,भूषण और बिहारी ने भी ऐयास सामंतों-सुल्तानों को उधेड़ा है। किन्तु कबीर ने क्या किया ? वे तो आजीवन केवल अपने गुरु रामानंद की महिमा का ही बखान करते रहे !उन्हें इल्तुतमिश,या तुगलकशाह के अत्याचारों पर कुछ भी कहना गवारा नहीं हुआ। केवल गुरु की खुशामद करो :-
गुरु गोविन्द दोनों खड़े ,काके लागूं पायँ।
बलिहारी गुरु आपकी ,गोविंद दियो मिलाय।।
गुरु बड़े गोविन्द ते ,मन में देख विचार।
हरी सुमरे सो है , गुरु सुमरे सो पार।।
सब धरती कागज करूँ ,लेखनि सब वन राय।
वैसे भी इस गुरु भक्ति में कोई बुराई नहीं। यह गुरुभक्ति तो दुनिया में सभी विचारधाराओं और मजहबों में समान रूप से को पसंद की गयी है। संस्कृत वांग्मय में तो 'गुरु; ब्रह्मा ,गुरु : विष्णु :' का ही बोलवाला है वैष्णव हिन्दुओं के तो सोलह संस्कार ही गुरु भक्ति से लबालब हैं । लेकिन फर्क ये हैं कि संस्कृत वांग्मय या दर्शन जहाँ गुरु वंदना करता है वहीँ उसमें यह उदारता भी है कि -
"एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति "
अर्थात जो वैष्णव या सनातन सिद्धांतों को माने उसकी जय हो ! उसके गुरु की जय हो ! और जो इन्हे कोसता फिरे या गाली दे या संस्कृत वांग्मय को बकवाश कहे ,उसकी भी जय हो ! क्योंकि उसका 'सत' भी किसी और के सत से कमतर नहीं है। कबीर की गुरु भक्ति किसी नए -नए मुसलमान जैसी है जो घनी-घनी नमाज पढ़कर सावित करता है कि वह सच्चा मुसलमान है ! जबकि असल मुसलमान को केवल अपने अल्लाह या खुदा से वास्ता रहता है ,उसे रोजा - नमाज के सांसारिक दिखावे की चाहत नहीं बल्कि अपने ईमान की फ़िक्र रहती है।
अपने वैष्णवी गुरु रामानंद को भगवान से बड़ा बताकर कबीर जिंदगी भर अपने गुरु के वैष्णवी -सनातन मतवाद का ही खंडन करते रहे। जिस गुरु के लिए खुद कबीर ने ही लिखा है :-
सात समुद्र की मसि करूँ ,गुरु गुन लिखा न जाय।
संत कबीर मानवमात्र का शोषण करने वालों की आलोचना या निंदा से तो दूर हैं. लेकिन उन्हें किसी तरह की राजनीति,आर्थिक नीति ,लोकरीति या आदर्शवाद का कोई इल्म नहीं था। उन्हें बाणभट्ट ,अश्वघोष या नागार्जुन तो क्या भर्तृहरि भी सुनने में नहीं आये होंगे। भर्तृहरि के अकेले वैराग्य शतक में इतना कुछ है जो कबीर ने साखी -सबद -रमैनी में पिरोया है। भर्तृहरि का श्रंगार शतक और नीतिशतक तो कबीर क्या जानते होंगे ? चूँकि संस्कृत भाषा ज्ञान और उसके व्याकरण में तो कबीर खुद ही वेचारे पूरे बछिया के ताऊ थे , जरा उन्ही के शब्दों पर गौर फरमाएं :-
''मसि कागद छुओ नहीं ,कलम गहो नहीं हाथ ''
फिर किस हैसियत से उन्होंने तमाम वेद,पुराण और संस्कृत साहित्य की खिल्ली उड़ाई है ? वेशक इस आलेख का लेखक भी संस्कृत व्याकरण या संस्कृत वांगमय का धुरंधर विद्वान नहीं है। किन्तु यथासम्भव उपलब्ध अनुवादों और टीकाओं से - राधाकृष्णन,जे कृष्ण मूर्ती व् महर्षि अरविन्द के हिंदी अनुवादों के अध्यन -पठन से भारतीय ज्ञानकोष और संस्कृत वांग्मय की गहराई का कुछ तो अनुभव किए ही जा सकता है। जिसके समक्ष न केबल कबीर बल्कि सन्सार के अधिकांस भाववादी लेखक कवि सभी बौने नजर आते हैं ! फिर सवाल यही उठता है कि कबीर जैसे लोग बार-बार इस सनातन साहित्य को ही निशाना क्यों बनाते रहे ?
वेशक कबीर की अनगढ़ उलटवाँसियां भी हिंदी भाषा ज्ञान में हमें निष्णांत बनातीं हैं । इस किस्म की भाषायी समझ और व्यवहारिक ज्ञान के लिए हिंदी क्षेत्र के अधिकांस संत कवियों की वाणी की तरह ही संत कबीर के अवदान को भी सार्थक माना जा सकता है। शायद इसीलिये भारतीय 'संत काव्य धारा' में कबीर का बहुमान सर्वत्र सर्वकालिक है। सचेत जन -मानस की नजर में और खास तौर से हिन्दी साहित्य मर्मज्ञों की नजर में भी 'संत कबीर ' का स्थान किसी चक्रवर्ती सम्राट से भी ऊँचा है। मेरी नजर में 'संत कबीर' का कृतित्व व रचना धर्मिता उनके समकालीनों के बरक्स कदाचित प्रगतिशील ही रहा है। किन्तु कबीर के समग्र अवदान में उनके राजनैतिक,सामाजिक व आर्थिक सवालों पर विमर्श की अज्ञानता या चुप्पी निहायत ही अखरने वाली प्रतीत होती है। कबीर यदि केवल ईश्वर भक्ति तक सीमित रहते तो भी कोई आपत्ति नहीं थी किन्तु वे तो 'बड़े' बनने चले थे और समाज को पाखंड से उबारने ,धर्मों को सुधारने चले थे तब सवाल उठता है कि वे खुद ही एक ठौ नया मजहबी पंथ या ठिया क्यों बना गए ? जो हिन्दू-मुस्लिम मजहबों की सिर्फ बुराईयाँ ही गिनाया करता है।
वैसे तो मुख्यधारा के तमाम भारतीय चिंतकों ,दार्शनिकों व बौद्धिकों ,भाववादी -आस्तिक संतों-कवियों ने ईश्वरीय शक्ति को महिमामंडित करने के फेर में एक निर्मम असत्य का जमकर इस्तेमाल किया है। वे इस 'मानव जीवन' को तथा इस संसार को ,माया,प्रपंच ,स्वप्न बताते रहे हैं। जबकि इसी मनुष्य जीवन को पाकर उन्होंने वह सब लिखा जो आलोच्य है। बार-बार अनेक बार सदियों से ईश्वर भक्तों ने वही झूंठ दुहराया। जो अब सत्य ही मान लिया गया है। दुर्भाग्य से संत कबीर ने भी इस संसार को माया ,प्रपंच और निर्मोही दुखद स्वप्न मात्र मान लिया। वे ओरों से कुछ हटकर अपनी सोच के आधार पर उसी 'मनुवादी' -सनातनवादी परम्परा को ही पोषित करते रहे। हालाँकि उनकी सोच में गुरु ब्रह्म से बड़ा हो गया। इसी प्रकार सबको हेय बताकर -गरयाकर कबीर साहब खुद ही हासिये पर चले गये।
जबकि उनके ही समकालीन यूनानी दार्शनिक तब लिख रहे थे की "शासक को दार्शनिक होना चाहिए अथवा दार्शनिक को ही शासक बनाया जाना चाहिए "। जब फ़्रांस और यूरोप में गैरीबाल्डी ,सेक्सपियर ,रूसो ,वाल्तेयर मानवता समानता ,प्रजातंत्र और आजादी जैसे शब्दों को आकार दे रहे थे ,तब गुलाम और खंड-खंड बिखरे हुए भारत के तमाम दार्शनिक और कवि कवियत्रियाँ इकतारा लेकर अपनी भक्ति रचनाएं गाते हुए गली-गली भीख मांग रहे थे। कोई 'हरे रामा ,हरे कृष्ण ,रामा -रामा हरे -हरे ' गाते हुए सड़कों पर नाच रहा था। कोई गाये जा रही थी-'मेरो तो गिरधर गोपाल ,दूसरो न कोई '! इन हालात में यदि कोई उम्मीद की किरण थे तो वे कबीर ही थे। किन्तु उन्होंने भी निराश ही किया है। हालाँकि एक काम कबीर ने बेहतर किया कि जो कुछ देखा -सुना -जाना उसे लोक भाषा अर्थात तत्कालीन 'हिंदवी' खड़ी बोली में अभिव्यक्त कर दिया। जहाँ तक विषय वस्तु अथवा कंटेंट का प्रश्न है तो कबीर ने कुछ भी नया नहीं कहा।
माया ,जीव ,ब्रह्म ,गुरु ,पांच तत्व,तीन गुण ,योग ,ध्यान ,नाड़ी तंत्र ,अष्टकमल और राम इत्यादि जितने भी शब्दों से कबीर ने अपने रचना संसार -पद ,सबद ,साखियों ,भजनों और उलटवाँसियों का जो भी सृजन किया है ,उनमें नया कुछ नहीं है। जो कुछ भी कबीर ने कहा है ,वह भारतीय सनातन वांग्मय का लोकभाषयीकरण मात्र है। इसमें नया तब होता जब कबीर ततकालीन हमलावरों ,निरंकुश शासकों की धज्जियां उड़ाते। मानवीय मूल्यों का संधान करते। जैसा कि ईसा मसीह ने किया ! इमाम हुसेन ने किया ! गैलीलियो ने किया ! गैरी बाल्दी या नीत्से ने किया। अलबरूनी,सुकरात अरस्तु को उद्धृत करने की जरुरत नहीं ,बल्कि कबीर के पूर्ववर्ती तमाम भारतीय मनीषी - चाणक्य ,भर्तृहरि ,कालिदास ,भोज और पातंजलि जैसे हजारों हैं प्रमाण हैं जो ईश्वरवादी होते हुए भी इस संसार को सुंदर बनाने लायक लिखते रहे हैं। जब भारत की दुर्दशा पर ,गरीबों की दुर्दशा पर कबीर ने एक भी शब्द नहीं लिखा तो उनका रचना संसार अद्व्तीय किस मायने में हुआ ?
टीवी पर इन दिनों एक विज्ञापन दिखाया जाता है। कि ''टेड़ा है पर मेरा है'',इसी तरह ये धर्मभीरु - पुरातन पंथी परंपरावादि- अंधश्रद्धालु भी निपट अवैज्ञानिकता से ओतप्रोत होते हुए भी अपने ही हैं । इस दौर में अधिकांस वरिष्ठजनों को अपने जीवन की सांध्य वेला में भगवद गीता ,रामायण जैसे धर्मग्रंथों में ही श्रद्धा संचरित हो रही है। उन्हें भाववादी संत कवि -सूर,तुलसी ,मीरा तथा कबीर जैसे भक्त कवि व धर्मोपदेशक अभी भी तारणहार लगते हैं।इनमें से किसी को भी अपनी निजी जीवन से ,परिवार से ,समाज से , देश से और दुनिया से ढेरों शिकायतें हो सकती हैं। कोई भी इस मौजूदा दौर की अध:पतित व्यवस्था से खिन्न हो सकता है। किन्तु ये सभी अपनी इस नाराजी को प्रकट नहीं करेंगे। किसी किस्म के जन -आंदोलन से दूर ही रहेंगे। ये आधुनिक बुजुर्ग कबीर की इस सीख के हवनकुंड में स्वाहा करते पाय जाएंगे :-
कबिरा नौबत अपनी ,दिन दस लेउ बजाय।
ये पुर पाटन ये गली ,बहुरि न देखब आय।।
या
''आये हैं सो जायेंगे , राजा रैंक फ़कीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले ,एक बंधे जंजीर।।"
इस तरह की कपोल कल्पित ,अवैज्ञानिक सैद्धांतकी से न केवल भारतीय -हिन्दू धर्मावलम्बियों को ,न केवल कबीर जैसे संतों के अनुयायियों को ,बल्कि दुनिया के तमाम मजहबी लोगों को बहुत शकुन व क्षणिक शांति मिलती है। तमाम निठ्ठल्ले , दकियानूसी एवं अकर्मण्य परजीवी भी अपने शेष जीवन की नैया को इसी तरह की भाववादी -कोरी काल्पनिक आनंद सागर की लहरों के हवाले करते हुए मिल जायंगे।अधिकांस अबोध भाववादी ,आस्तिक जन तथाकथित सद्गति,शांति,मुक्ति व परमधाम या वैकुण्ठधाम की अंतिम यात्रा के प्रबंधन में जुटे हुए देखे गए । कहने -सुनने के लिए तो कबीरमत अनुयायी बड़े 'साफगोई' वाले होंगे, किन्तु कुछ कबीरपंथियों को , उनके अंधश्रद्धालुओं को और समर्थकों को धन दौलत जमा करने की अंधश्रद्धा के महागर्त में गोते लगाते हुए देखा गया । जिस तरह बलातकारी कथावाचक आसाराम व उसका पुत्र नारायण साईं धर्म का बाजारीकरण और कलंकीकरण करने के लिए कुख्यात हो रहे हैं भक्तों को राह दिखाते-दिखाते खुद जेल में सड रहे हैं ,उसी तरह हरियाणा,पंजाब ,मथुरा ,बनारस इत्यादि जगहों पर 'जयगुरुदेव' की तर्ज पर कबीर के आधुनिक शिष्यों के भी कई 'डेरे' नेकनामियों से बजबजा रहे हैं। कबीर भले ही कहते रहें :-
"साधु संगत परिहरे ,करे विषय को संग।
कूप खनी जल बावरे ,त्याग दिया जल गॅंग।।
जब व्यक्ति ,समाज या वस्तु के गुण -अवगुण चरित्र -चित्रण में कबीर ही उलझे रहेंगे तो बेचारे कबीर पंथी या कबीर प्रशसंक कैसे उबरेंगे ?और यदि बोल-बचन में वैज्ञानिक सैंद्धांतकी का अभाव है तो कबीर के यह कहने का क्या तातपर्य है कि ? ;-
"हस्ती चढ़िए ज्ञान की , सहज दुलीचा डार।
श्वान रूप सन्सार है ,भूँकन दे झकमार। ।"
वेशक भाववादी संत कवियों के पठन-पाठन और श्रवण से एक क्षणिक काल्पनिक आनंद की अनुभूति तो अवश्य हुआ करती है। लेकिन इन भाववादी -पारलौकिक आस्था में निमग्न गुरु-घण्टालों की कोरी पर-उपदेश वाली 'ज्ञानबाँटु'छद्म प्रवृत्ति केवल शोषण करने वाले शासकवर्ग का एक आध्यात्मिक हथकंडा ही सिद्ध होती रही है। चूँकि भौतिकतावादी -विज्ञानवादी नजरिया सम्पूर्ण मानवतावादी हुआ करता है। इसीलिये कोई भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति कबीर जैसे छिद्रान्वेषियों और आत्मनिंदकों की तरह यह कदापि पसंद नहीं करेगा कि केवल अपने 'कल्याण'की सोच रखने में ही कल्याण है। कबीर या अन्य संत कवि वेशक अपने दौर के 'कुशल चितेरे' रहे होंगे। किन्तु इस तरह के दर्शन और विचार से न तो व्यक्ति का ,न समाज का और न देश का कल्याण संभव है और न ही किसी तरह की कोई जनक्रांति संभव है। क्या यह दुखद बिडंबना नहीं है कि जिस देश में गीता ,रामायण ,कुरआन ,बाइबिल ,गुरुग्रंथ साहिब और जेनदअवेस्ता जैसे परम पवित्र ग्रन्थ विद्यमान होने के वावजूद -राम,कृष्ण ,गौतम ,महावीर ,नानक ,हजरत निजामुद्दीन ,कबीर जैसे 'अवतारी 'महात्माओं का आशीर्वाद और पुनीत ज्ञान प्राप्त होने के वावजूद - स्वाधीनता - आजादी के मायने तो भारत को 'विलायती संविधान' या विलायती भौतिकवादी शिक्षण-प्रशिक्षण से ही ज्ञात हुए हैं। पूरी की पूरी भारतीय ज्ञान परम्परा ,धार्मिक साहित्य ,भक्ति काव्य , अवतारवाद और आध्यात्मिक साहित्य तो गुलामी और शर्मिंदगी का पोषक ही रहा है। कबीर भी इस राष्ट्रीय विमर्श में कोरे ही रहे। जबकि वे अपने आपको पाखंडी पंडितों से बेहतर मानते थे।
"पोथी पढ़ि -पढ़ि जग मुआ ,पंडित हुआ न कोय।"
कबीर के ढाई आखर [ढाई अक्षर] से देश ,समाज ,या शोषण -उत्पीड़न में क्या बदलाव आया ? केवल व्याज- अलंकार में अपनी आत्म प्रसंशा करने या उस दौर के समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के बखान करने से कोई संत -कबीर तो बन सकता है किन्तु वाल्तेयर,गैरी वाल्डे ,प्लेटो,अरस्तु ,चाणक्य ,अष्टावक्र या रूसो नहीं बन सकता !
केवल साहित्यिक विमर्श के नजरिये से या विशुद्ध भाववादी नजरिये से कबीर को समझने के बहाने मुझे जो अनुभव हुआ वह यह है कि कबीरवाणी तब भी न केवल कबीर के लिए,न केवल तमाम मध्ययुगीन 'संत समाज' के लिए बल्कि उनके अंधश्रद्धालुओं की सेहत के लिए ही अनुकूल नहीं रही है। लेकिन जिनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक और यथार्थवादी है, जो हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि वैश्विक साहित्य के भी अध्येता होंगे ,जिन्हे 'भारत राष्ट्र ' के निर्माण का इतिहास मालूम होगा ,उन्हें कबीर जैसे निर्गुणी - प्रेमाश्रयी ज्ञानाश्रयी -मध्ययुगीन भक्त कवियों से घोर निराशा ही मिलेगी। कबीर पर प्रगतिशीलता का ठप्पा सिर्फ इसलिए नहीं लगा देना चाहिए कि उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम सभी के पाखंड - अंध आस्थाओं पर समान रूप से चोट की थी । कबीर की नजर में यदि हिन्दू -मुस्लिम का भेद उनके समकालीन दौर के शोषक-शासक के द्वैत में ही देखा जाए, तो उनके समय का हिन्दू व अन्य गैर मुस्लिम समाज भी आर्थिक,राजनैतिक और धार्मिक गुलामी की निर्मम गिरफ्त में था। तब हिन्दुओं याने - काफिरों की स्थिति दयनीय हुआ करती थी। तब देशज कौमें मारी-मारी फिर रहीं थीं। चिस्तियों,शेखों,ओलियाओं व सूफियों की पौबारह थी। वे दिल्ली सुलतान भी जय-जैकार किया करते थे। तब मजहबी इस्लामिक धर्मगुरुओं का बिकट बोलवाला था।
यदि किसी सुलतान से कोई 'फ़कीर ' नाराज हो गया तो वह षड्यंत्रों से सुलतान को भी मरवाने की क्षमता रखता था। तभी तो शेख सलीम चिस्ती ने वो कर दिखाया जो उन्होंने जलालुद्दीन ख़िलजी से कहा था :- हनोज दिल्ली दूरस्थ ' वेचारा सुलतान वाकई जीवित दिल्ली नहीं पहुँच पाया। धोखेबाज भतीजे अलाउद्दीन और उसके धूर्त साथियों ने इसे सूफी संतों का चमत्कार बताकर अपने मजहब का जमकर प्रचार -प्रसार किया गया। पिछड़े -दलित उपेक्षित हिन्दुओं याने [ 'काफिरों' ]को साम-दाम-दंड -भेद आजमाकर मुसलमान बनाया गया। इन्ही हालातों का शिकार मालिक काफूर था। इसी वजह से तत्कालीन अन्त्यज,द्विजेतर और शिल्पी समाज भी धर्मांतरण के लिए मजबूर हुआ। ततकालीन सवर्ण हिन्दू समाज और खास तौर से विधवाओं की हालात और बुरी थी । मजदूर ,शिल्पकार ,रनगरेज ,बुनकर ,दुनिया ,तेली -तम्बोली -जुलाहे इत्यादि पिछड़े और कमजोर वर्ग के लोगों को जब सूफियों के फंदे में नहीं आये ,जब वे इस्लाम के दीनी लालच में नहीं आये तो उन्हें जबरन 'अहिन्दू' बना दिया गया। इस प्रकार का यह सनातन से शोषित-पीड़ित 'त्रिशंकु' समाज न तो हिन्दू ही रह सका और न ही ठीक से मुसलमान ही बन सका । जो हिन्दू मुसलमानों के साथ उठ-बैठ गए तो हिंदुत्व चला गया। उधर शेख सैयद मुगल पठान को भी आसमानी हुक्म नहीं आया कि इन पिछड़े -दलित-दमित धर्मान्तरित 'नव मुसलमानों ' से रोटी -बेटी का व्यवहार करें !
चूँकि कबीर के पालनहार अभिभावक -नीरू जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा भी उस दौर की इसी मजहबी बिडंबना के शिकार हुए थे। इनके पूर्वज भी पिछड़े -दलित हिन्दू हुआ करते थे । उस दौर में तुर्की , उजवेग और अरब के मुसलमान सरदारों में ततकालीन 'खलीफा' के प्रति वरीयता की होड़ मची हुई थी। इसके लिए यह वेरोमीटर था कि जितना अधिक काफिरों को धर्मान्तरित कराये या उन्हें मारे वो उतना ही बड़ा 'खलीफा' समर्थक माँना जाता था। प्रकारानतर से हिदुस्तान का दिल्ली सुलतान भी खलीफा ही नियुक्त करता था। वह भारत का अत्यंत शर्मनाक और जहालत का दौर था। वह हिन्दू मूर्ती भंजन और बलात धर्म परिवर्तन का निर्मम दौर था। इसी दौर की पैदायश संत कबीर थे। कबीर ने यह सब देखा -भोगा -जाना होगा । इस दुरावस्था के प्रति कबीर ने कुछ नहीं कहा। यदि वे इस उत्पीड़न और व्यभिचारी राज्य सत्ता के प्रति विद्रोह करते तो चाणक्य बन सकते थे। उस दौर में इस्लाम के सभी देशी-विदेशी अनुयाइयों को हर किस्म की सदाशयता और राज्याश्रय प्राप्त था। उन्हें किसी भी तरह का कोई जजिया कर नहीं देना होता था। लकिन कबीर ने तत्तकालीन बर्बर इस्लामिक शासकों के खिलाफ एक 'साखी' तो क्या एक शब्द भी नहीं कहा। यह तथ्यगत है कि गुलाम भारत में न तो कबीर , बल्कि अन्य तमाम समकालीन या अर्वाचीन - बाबा ,गुरु , योगी,संत ,पंडित ,पुजारी , भक्त-कवि या धर्मोपदेशक निरे निर्माल्य ही साबित हुए हैं ।
मानव सभ्यता के जिस दौर में यूरोप के संत ,कवि 'स्वाधीनता' और समानता के गीत गए रच रहे, सच्चाई और न्याय के लिए सुकरात जहर पी रहे थे , विज्ञान की सच्चाई के लिए गैलीलियो तब गुलाम भारत के ये संत महात्मा या तो शोषित -पीड़ित वर्ग को गुमराह करते रहे थे या फिर किसी किस्म के क्रांतिकारी बदलाव के खिलाफ रहे हैं। यह भाववादी सोच का ही नतीजा है कि कबीर जैसे जन कवि और 'निर्भीक' संत ने भी तत्कालीन निरंकुश शासकों के अत्याचारों की अनदेखी की है। जबकि दूसरी ओर कबीर के ही दौर में इस्लामिक धर्मगुरुओं -सूफी संतों के दरवार में सुलतान भी नंगे पैरों जाकर घटने टेकते थे।
वेशक रेनेशाकालीन यूरोपीय समाजसुधारक ,क्रूर सामंती शासकों की प्रभुता के संहारक -जन-गण उद्धारक कवि -साहित्य कार अवश्य ही स्तुत्य रहे हैं। किन्तु मुझे पक्का यकीन है कि न केवल कबीर बल्कि मध्ययुगीन अन्य तमाम भारतीय साधु-संत -महात्मा -भक्त कवि उस दौर के सामंती शासकों के अत्याचारों की अनदेखी करते रहे। दास प्रथा और अमानवीय शोषण को 'निजकृत -कर्म -भोग सब भ्राता ' बताते रहे। वे सांसारिक मायामोह छोड़कर भीख मांगते रहे और ईश्वर भक्ति की महिमा बखानते रहे। कबीर की नीतिपरक उपदेशात्मक काव्य रचना के केंद्र में तो केवल ब्रह्म,गुरु और 'मुक्ति' शांति तथा 'निर्वाण का ही बोलवाला है । ऐंसे स्वान्तः सुखाय वाले आस्तिक व अंधश्रद्धालु भक्त कवि इस उत्तरआधुनिक और आजाद भारत में कन्फ्यूज्ड क्यों नहीं माने जा सकते ? आज के इस वैश्वीकरण -उदारीकरण और बाजारीकरण के दौर में जिस तरह साम्प्रदायिक और मजहबी धर्मगुरु कन्फ्यूज्ड हैं। किंचित उसी तरह कबीर जैसे लोग भी अंध गुरु भक्ति के आफसेसिव -कम्पलसेसिव -डिसऑडर से भी पीड़ित रहे हैं। इस तरह के कृतित्व या व्यक्तित्व से देश ,समाज या मानवता का कोई भी हित नहीं सधने वाला। बल्कि जहाँ-जहाँ इनका डेरा है ,वहाँ -वहाँ पाखंड , छल-मृगमरीचिका और अकर्मण्यता का शैतानी परम्परा व्याप्त है। चूँकि कबीर का रचना सन्सार बहुत ज्यादा मिलावटी और विरोधा भाषी है इसलिए कबीर की प्रामाणिक समालोचना के लिए मैंने किसी और साहित्यकार या इतिहासकार को प्रमाण न मानकर खुद कबीर के ही कुछ चुनिंदा 'शब्दबंध' प्रस्तुत किये हैं। वैसे भी पूरी की पूरी हाँडी टटोलने की जरूरत भी नहीं रही। कुछ चुनिंदा चावल के दाने ही पर्याप्त हैं पूरी हाँडी को परखने के लिए ।
कबीर ने अपने आपको बहुत महिमावान बताया है। जबकि उन्होंने किसी गंजेड़ी-भंगेड़ी की तरह बाकी सभी की घोर निंदा की है। जब वे कहते हैं :- "सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी ,ओढ़ कें मेली कीन्ही चदरिया ''दास कबीर जतन से ओढ़ी , ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया" तो मेरी नजर में बहुत बौने नजर आते हैं ! सावधानी से या जतन से अपना ' भव् ' संवारना या निष्पाप रहना क्या सिर्फ कबीर को ही आता है ? इसके बरक्स गोस्वामी तुलसीदास का यह दोहा पढ़िए :-
जड़ चेतन गुणदोषमय ,विश्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं सब ,परिहरि वारि विकार।।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि "विधाता ने सम्पूर्ण सृष्टि को अच्छाई और बुराई के योग से मिलकर रचा है। जिस प्रकार एक हंस पानी मिले हुए दूध में से केवल दूधरूपी अच्छाई ग्रहण करता है और पानी रुपी विकार को छोड़ देता है ,उसी प्रकार संत [बेहतरीन इंसान] को चाहिए कि इस बुराइओं और अच्छाइयों की मिलावट भरे संसार में से केवल अच्छाइयों का ही सेवन करे।
कितनी उदारता और वैज्ञानिकता है तुलसी की इस सोच में ? लेकिन कबीर क्या कहते हैं ?
'संतो देखो जग बौराना ' अर्थात कबीर की नजर में तो पूरा संसार ही बौराया हुआ है। अकेले कबीर ही हैं जो
-अपनी चादर सफ़ेद रखकर स्वर्ग सिधारे। हथकरघे पर कपड़ा बुनने की जगह कबीर ने ईसा मसीह को भेड़ें चराते हुए या क्रॉस पर चढ़ते हुए नहीं सुना होगा। वर्ना वे कहते हाँ एक और था जिसने अपनी चादर मैली नहीं होने दी ! उन्होंने जौहरवती ललनाओं के बारे में नहीं सूना होगा ,जिन्होंने उन्ही के दौर में अलाउद्दीन ख़िलजी जैसे कामुक सुलतान की अय्यासी का साधन बनने के बजाय आग में कूंदकर अपनी चादर मैली नहीं होने दी।
कबीर ने अपने दौर के या अपने से पहले के किसी भी साहित्यकार या बहकत कवि को श्रेय नहीं दिया। जबकि उनके पास जो भी अटपट -अनगढ़ ज्ञान था वो सब का सब 'नाथ पंथी ' साधु-संतो और काशी के ततकालीन बौद्धिक समाज का ही अवदान था। जिसके लिए कबीर ने अपने गुरु को 'गोविन्द' से भी बड़ा बताया है वही ज्ञान कबीर के 'अपह्रत' गुरु स्वामी रामानंद को उसी तत्कालीन 'विप्र समाज' व अर्वाचीन 'संत साहित्य' से ही प्राप्य हुआ था ,जिसे कबीर आजीवन गरियाते रहे।
झीनी -झीनी बीनी चदरिया … आठ कमल दस चरखा … पांच तत्व ....... गुन तीन ....... चदरिया !
यह सब भारत के हिन्दू हजारों साल से मानते आ रहे हैं। अष्टाबक्र ने जनक के दरबार में यही सब कहा ! नाचिकेताोपाख्यान में भी ब्रह्म ज्ञान नाम से यही सब भरा पड़ा है ! वेद व्यास ने या उनके बेटे शुकदेव ने कृष्ण के मुँह से यही सब कहलवाकर उन्हें 'माखनचोर' या रणछोड़दास से 'महायोगी श्रीकृष्ण' बना दिया। यही ज्ञान कबीर कालीन सूफी संतों में भी समाया हुआ था। इसी ज्ञान व दरशन को उन्नत वैज्ञानिक- प्रगतिशील बनाकर यूरोप के दार्शनिकों और कवियों -साहित्यकारों ने 'रेनेशा' का आह्वान किया । कबीर तो केवल अपनी चादर को ही पवित्र बताते रहे ,जबकि उपनिषद और वेद चीख-चीखकर कह रहे हैं;-
अयं निज : परोवेति ,गणना लघु चेतसाम्।
उदार चरितानं तू, वसुधैव कुटुंबकम।
ये मेरी साफ़ सुथरी चादर है ,ये उसकी मैली चादर है ,ये देवता है वो राक्षस है ,ये अपना है ,वो पराया है ,इस मानसिकता को वैदिक वांग्मय ने तुच्छ कहा है। चूँकि कबीर ने वेदों को पढ़ना तो दूर देखा भी नहीं था इसलिए वे अपनी तुनुक में ये कह बैठे ;-संतो देखो जग बौराना !
यह बहुत सुवोध और सुगम सिद्धांत है कि 'जो खुद कन्फ्यूज्ड या भर्मित है -वह ओरों को क्या राह दिखा सकता है ? कबीर ने किसी को कोई नयी राह या युक्ति नहीं सुझाई है । दरसल तत्तकालीन समाज के मूल्यों,कुरीतियों,उलटवांशियों,मुहावरों और 'श्रुत' संवाद के माध्यम से प्राप्त धर्मसूत्रों के 'ओघड़' ज्ञान को ज्यों-का त्यों कबीर ने अपने-ताने-बाने के साथ ताल- मेल -मिलाकर उनका अपना रचना संसार प्रस्तुत किया है। इसमें कोई शक नहीं कि कबीर खुद ही अंत तक 'उरझे 'रहे।दरसल कबीर खुद कह गए हैं कि वे शुरू से अंत तक 'उरझे' ही रहे। उरझे रहे याने उलझे रहे। उरझा याने जो मानसिक रूप से उलझा हुआ हो ! आज की भाषा में कहने तो - जिसका कांसेप्ट क्लियर न हो ! ऐंसे थे 'संत कबीर !' उन्ही के शब्दों में-उन्ही की तथाकथित पावन वाणी पर गौर करें :-
कहत सुनत सब दिन गए ,उरझि न सुरझा मन्न।
कहें कबीर चेता नहीं , अजहुँ पहला दिन्न।।
अर्थात अपने अंतिम प्रयाण तक भी कबीर 'उरझे' ही रहे। तातपर्य स्पष्ट है कि जो खुद ही उलझा हो वो ओरों को क्या ख़ाक सुलझाएगा ? दूसरों को क्या राह दिखायेगा ? कबीर ने चूँकि उर्दू या फारसी का अध्यन नहीं किया था, इसलिए वे इस्लाम के सिद्धांतों और उसके तमाम लिखित मजहबी साहित्य के गूढ़ार्थ से वंचित रहे, इसलिए बहुत ही कम या सीमित मात्रा में उन्होंने इस्लामिक कल्चर या सिद्धांतों की दबी जुबान से आलोचना की है। शायद ही कबीर ने कहीं भी कुरआन की किसी एक भी आयत का 'उल्था' या उदाहरण प्रस्तुत किया हो ! जबकि दूसरी ओर कबीर के दोहे -साखियाँ और भजनों में गीता,रामायण और 'नाथ साहित्य' के पूरे -पूरे भावों को यथावत पेश किया गया है। वेशक कबीर ने उनका केवल 'लोक भाषानुकरण अवश्य किया है।
वेशक इन भक्त कवियों की कृतियों -रचनाओं में -गुरु महिमा ,ईश्वर भक्ति , साधु चरित्र -परउपदेश तो कूट-कूट कर भरे हैं। हालाँकि कबीर जैसे निर्भीक और समदृष्टि वाले संत कवियों ने ततकालीन सामंती समाज में व्याप्त कुरीतियों और नीतिगत अवमूल्य्न की खूब धुनाई की है, किन्तु उनकी तमाम कृतियों और उपलब्ध साहित्य में मध्ययुगीन यूरोपियन कवियों या पश्चिम के विचारकों-लेखकों की तरह मानवता , स्वाधीनता ,समानता ,बंधुता का घोर अभाव है। कबीर निश्चय ही तत्तकालीन भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय -जनकवि हो सकते थे वशर्ते वे बर्बर विदेशी आक्रमणकारियों -खिल्जियों ,तुगलकों या सुलतानों के आकमणों का प्रतिवाद करते। इसके विपरीत कबीर ने राज्य सत्ता प्रतिष्ठान को मुक्ति के मार्ग का बाधक तो बताया है किन्तु उसके साथ ही आम जनता को उन्होंने केवल 'दास -प्रवृत्ति' का ही उपदेश दिया है ।
कबीर कहते हैं :-
यह मन ताको दीजिये , साँचा सेवक होय।
सिर ऊपर आरा सहे , तउ न दूजा होय।।
ठीक इसी तरह गोस्वामी तुलसीदास भी मनुष्य मात्र को केवल 'दास' ही बना डालना चाहते थे :-
' सेवक वो जो करे सेवकाई '
ततकालीन दलित-शोषित -पीड़ित समाज को अन्यायी शासकों से संघर्ष करने के बजाय ईश्वर की शरण में जाना ही अंतिम विकल्प बताया है। कालांतर में इस तरह के साहित्य सृजन ने या 'भक्तिकाव्य' से भारतीय स्वाधीनता संग्राम में शायद ही कोई मदद मिली हो ! वेशक शिवाजी के गुरु 'समर्थ रामदास' और उनसे भी एक हजार वर्ष पूर्व के आदि शंकराचार्य ने ना केवल उनके अपने दौर में धार्मिक ,सांस्कृतिक क्रान्ति की धारा को दिशा दी बल्कि उनके ही कुछ मूल्य बाद में भारतीय समाज को सामंती और विदेशी दासता से मुक्ति के लिए प्रेरित भी किया । किन्तु जब विदेशी आक्रान्ताओं के सबसे भयानक हमले भारत पर हो रहे थे,जब देशी - विदेशी सामंतों और लुटेरों ने भारत की निरीह जनता को बुर्री तरह रौंदा ,जब पद्मनियाँ जौहर में जल रही थीं तब कबीर को हर नारी
"माया महा ठगनी हम जानी,केशव के कमला है सोहे ,शिव के भवन भवानी ,राजा के घर रानी "
जब खंडित -दण्डित और कूपमण्डित भारत की आवाम को विदेशियों से लड़ना चाहिए था ,तब कबीर केवल गहन गुफा में आनंदित हो रहे थे.वे अपने सिद्धांतो को बाकी सभी के विचारों और सिद्धांतों को गरिया रहे थे।
"साधो गहन गुफा में अजिर झरे " "गुरु मेरो बिजूका ,आखर दोई रखवारे '' 'राम' भरोसे जे रहे पर्वत पै हरयाय '
जब राजपाट ,धन दौलत ,देश -समाज सब माया ही है तो फिर इससे क्या फर्क पड़ता कबीर को कि अलाउद्दीन ख़िलजी कितने निहत्ते लोगों को मार रहा है। कितने काफ़िर मारे जा रहे थे कबीर ने कहीं क्यों नहीं लिखा। एक दोहा या साखी तो ऐंसी होती जो 'मैग्नाकार्टा' के मूल्यों से मेल खाती।
जहाँ तक कबीर के रचना संसार की महत्ता का विमर्श है तो -साखी ,शबद ,रमैनी के रचना कौशल में कबीर का इंतना योगदान तो अवश्य है कि उन्होंने तमाम उस गूढ़ ज्ञान को ,जो केवल संस्कृत के विद्वानों-पंडित या शाश्त्री -पुरोहित वर्ग तक ही सीमिते था ,उसे 'संत समाज' के सत्संग और गुरु शिष्य परम्परा के अवदान से कबीर ने लोकभाषा में अपने रचना कौशल से घर-घर मे पहुंचा दिया। चूँकि हिन्दू सनातन परम्परा
मुझे मेरे दिवंगत पिता से जो एक अद्भुत हुनर उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ इस प्रकार के विमर्श में पर्याप्त मदद मिली। वह हुनर यह है की जब मेरा दाखिला भी स्कूल में नहीं हुआ था,उससे पहले ही मुझे न केवल कबीर बल्कि सूरदास ,मीरा बाई ,तुलसीदास और रहीम 'डाबर जनम घुट्टी' की तरह पिला दिए गये थे। शहरों से दूर अपने पैतृक 'वनग्राम' में पिताजी रोज सुबह भोर का तारा उदित होने से पूर्व ही तानपुरे का संधान करने लग जाते थे। वे अपने मधुर कंठ से शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियों से वातावरण को काव्यमय बना देते थे। कबीर पर उनकी विशेष श्रद्धा थी। कबीर के भजन और कुछ साखियाँ वे रोज दुहराया करते थे। वे निरगुन भजन ,साखियाँ मुझे भी स्कूल जाने की उम्र से पहले ही याद हो गयीं थीं। ये विरासत सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि ढोर चराने वाले निरक्षर वरेदी -चरवाहे से लेकर बैलगाड़ियों पर जंगल से लकड़ियाँ ढोने वाले और अधिकांस गाँव वाले भी इस विधा में मालामाल थे। इसके अलावा लोकगीतों की तरह ही जब -तब मुहावरों की शक्ल में कबीर की उलट वाँसियां भी पिताजी की बाणी से सुनने का भदेस आनंद ही कुछ जुदा था। बचपन मैं भी कबीर के भजन या साखियों को मुखाग्र पेश करने में अपने पिता की तरह माहिर हो चला था।वैसे भी उस दौर के गाँव में न बिजली थी ,न रेल ,न फिल्म ,न क्रिकेट जैसे खेल । उस समय के गाँव में तो किसी सभ्य व्यक्ति के लिए कबीर , तुलसी ,रहीम सूरदास जैसे संतों का ही सहारा था। वेशक कभी-कभार ढोला -मारूं ,आल्हा व विभिन्न उत्सवों पर लोक गीत -सैरे भी गाये जाते थे। हालाँकि गाई जाने वाली हर 'लोकरचना' तब उतनी सहज सुबोध नहीं थी। किन्तु फिर भी यह तमाम सामग्री उस अन्त्राक्षरी के काम तो आ ही जाया करती थी,जिसमें कि उस समय मुझे महारत हासिल थी। कबीर विमर्श से यह बालसुलभ लगाव - मुझे हिंदी काव्यधारा की ओर सदैव आकर्षित करता रहा है। हिंदी साहित्य में जनवाद -धर्मनिपेक्षता के मूल्यों और भारतीय संस्कृति की गंगा - जमुनी तहजीव की ओर ले जाने में भी कबीर बाणी की विशेष भूमिका रही है।
अब यह सर्वमान्य है कि कबीर ईस्वीं संन -१३९८ को बनारस में जन्मे थे। उनकी मृत्यु १५१८ ईस्वीं को मगहर में हुई थी। इस प्रकार कबीर सन्सार के उन चंद अनोखे लोगों में से हैं जिन्होंने तीन-तीन शताब्दियों के वसंत देखे होंगे। जनश्रुति है कि वे किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे। लोकलाज भय से उन्हें जन्मते ही एक सरोवर के किनारे रोता हुआ छोड़ दिया गया। कालांतर में अपने जन्म की इस बिडम्ब्नापूर्ण दारुण व्यथा को कबीर ने खुद ही निम्नांकित मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है -:
कबीरा जब हम जन्मिए ,जग हँसिया हम रोय।
ऐसी करनी कर चले ,आप हँसे जग रोय।।
भावार्थ ;- कबीर कहते हैं जब मेरा जन्म हुआ तो अवैध -नाजायज मानकर सभी ने मेरी पैदायश पर खूब हँसी उड़ाई। अब मैं साखी -सबद -रमैनी सहित अपना सम्पूर्ण कृतित्व और समाज कल्याणकारी व्यक्तित्व उस बुलंदी पर छोड़ कर- हँसते हुए जा रहा हूँ, जहाँ मेरे जाने [मरणोपरांत] के बाद दुनिया मेरे लिए आँसू बहाएगी।
कबीर के 'दर्शन' और चिंतन को समझने के लिए कबीर कालीन देश ,समाज व राज्य व्यवस्था का विहंगावलोकन भी जरुरी है। कबीर के जन्म -मृत्यु के सौ सालाना समयांतराल में जो कुछ घटित हुआ और जो कुछ भी अतीत की मानव श्रृंखला से उन्हें प्राप्त हुआ वह कबीर ने इनपुट के रूप में आत्मसात किया। कबीर ने जो कहा जो बुना -गढ़ा और जो उन्होंने अभिव्यक्त किया वो उनका 'आउट पुट ' कहा जा सकता है।
सम्पूर्ण कबीर वांग्मय के सांगोपांग अध्यन का सार यह है कि वे प्रचलित सभी ततकालीन मजहबों/धर्मों के पाखंड से परे किसी आदर्शवादी 'परम सत्य के उपासक थे। उनके 'राम' भी ओरों से सर्वथा भिन्न थे। नास्तिक और विज्ञानवादी भी मानते हैं कि कबीर के सिद्धांत और चिंतन में लोक-परलोक ,ईश्वर ,गुरु तथा साधु -संत की महिमा बखान के वावजूद एक परम सत्य यह भी था कि कबीर ने जल में रहकर मगर को चिढाया।
श्रीराम तिवारी
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