गुरुवार, 23 जुलाई 2015

दम्भ -पाखंड की जद में क्यों आ गए हम ?



  निकले  थे  घर से जिसकी  बारात  लेकर ,  उसी के जनाजे में  क्यों आ गए हम ?

  चढ़े  थे  शिखर पर  जो  विश्वास् लेकर ,   निराशा  की खाई में क्यों आ गिरे हम ?


  गाज  जो गिराते हैं नाजुक  दरख्तों पै , उन्ही  की  पनाहों  में   क्यों   आ गए हम ?

   फर्क ही नहीं जहाँ नीति -अनीति का , उस संगदिल  महफ़िल  में क्यों आ गए हम ?


    खींचते है  चीर गंगा जमुनी तहजीव का , ऐंसे कौरवों के शासन में क्यों आ गए हम ?

    लगती  रहती  जिधर  दावँ  पर पांचाली ,शकुनियों के जुआ घर में क्यों आ गए हम  ?


     कर सकते नहीं कद्र अपने ही बुजुर्गों की , दम्भ -पाखंड की जद में  क्यों आ  गए  हम ?

     जो  है बर्बर अमानवीय भयानक अँधेरी ,   उस  विषधर की वामी में क्यों आ गए हम ?


                                                      श्रीराम तिवारी


  
 

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