गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

क्या आदर्श न्याय और दंड विधान का अभिप्राय केवल पुरुष अपराधीकरण की विवेचना ही है ?


 पूजा और आरती नामक  [बड़े पवित्र नाम हैं  जी !] रोहतक  की  दो बहनों  ने  चलती बस में  अपनी अशालीन  दवंगई क्या दिखाई -सारा मीडिया उनकी 'वीरता' के तराने गाने में जुट गया। इस सामूहिक पूजा और आरती में सोशल मीडिया और सरकार भी शामिल होती चली गई। वो तो गनीमत थी कि  कुछ जागरूक लोगों ने न्याय को बेमौत मरने नहीं दिया और इन 'शीलवन्त ललनाओं' को पद्मश्री ,पद्मविभूषण से वंचित होना पड़ा। यह केवल   सीट की तकरार  को लेकर दो  बेकसूर लड़कों  को  पीट देने का मामला भर नहीं है। यह केवल  इसलिए  भी काबिलेगौर नहीं है कि 'जुतयाए ' गए युवा  किसी जरूरतमंद या  बीमार बृद्ध  को सीट दिलाने की पैरवी   कर रहे थे । यह उन 'दवंग' फूलन देवियों  का अपने 'अबला' होने का बेजा फायदा उठाकर  सार्वजनिक रूप से  आदतन  शौर्यप्रदर्शन'  किये जाने का मामला भी  नहीं है ।  यह इस देश के मीडिया और पढ़े -लिखे लोगों की उजड्ड - अपरिपक्वता और भेड़चाल  से जीने-मरने का सवाल है।  
                    खबर  यह है कि  ये युवतियाँ   पहले भी  इसी तरह  कई और  लोकप्रिय कारनामे कर चुकीं हैं। वे  पहले भी  निर्दोषों को पीट कर अपनी 'मर्दानगी' दिखा चुकीं  हैं ।  अफवाहों और अनुशासनहीन नायकत्व पर फ़िदा रहने वाले -अदधकचरे -संकीर्ण मानसिकता के  भारतीय युवा ज़रा जल्दी  ही बहक जाते हैं।  सुना है कि उन दोषी युवतियों  की नकारात्मक हरकतों  पर  फ़िदा होकर न केवल  'हिन्दू महा सभा '  ने , न केवल  हरियाणा की खट्टर सरकार ने ,न केवल  ढ़पोरशंखी मीडिया ने बल्कि  प्रगतिशीलता का परचम थामने वाली   'जनवादी महिला समिति' ने  भी बड़े ही आदर और सम्मान से नवाज डाला  है।  मीडिया  का एक हिस्सा तो अभी भी  किन्तु-परन्तु के बहाने मामले को उलझा ने की कोशिश में अपनी भद  पिटवा रहा है।
                                 कार्य कारण के सिद्धांत की अनदेखी कर किसी भी घटना का निरपेक्ष निरूपण कदापि संभव नहीं।   निसंदेह  इन युवतियों के विषयांतर्गत किया गया मूल्यांकन  न्याय संगत और क्रान्तिकारी  नहीं  कहा जा सकता।  अब जबकि पूरा गाँव -थाना खुर्द और बस में मौजूद महिलायें भी 'कसम'  'सौगंध' खा रहीं कि  पीटे  गए   लड़के  'निर्दोष' हैं।   पूर्व में किये गए इन युवतियों के आपरधिक कृत्यों की सीडी भी मौजूद है तब  भी   पूरे गाँव को  झूंठा  और उन  गुनहगार लड़कियों को बेक़सूर सिद्ध करने की कोशिशें जारी हैं। इतना ही नहीं  बल्कि उन्हें  'निर्भया'-दामिनी और झांसी की रानी   जैसा  रुतवा दिया जा रहा है। क्या  बदमाशी  का  सारा ठेका कुदरत  ने पुरुष को ही दे रखा है ?  क्या आँख मींचकर इस तरह किसी  भी निर्दोष  [स्त्री हो या पुरुष] को लतियाया  जाना उचित और न्याय संगत  है ?  यह सिद्धांत किस मूर्ख ने गढ़ दिया कि -  नारिमात्र  तो वास्तव में सर्वकालिक सदा सर्वदा  नितांत निर्दोष  ही है ?  रोहतक काण्ड   की ही  तर्ज पर   अनगिनत घटनाएँ  हैं जो देश  और समाज में घटित हो रहीं हैं। जिन पर लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ याने -मीडिया  केवल तभी आवाज उठाता  है जब  उस घटना में स्त्री पात्र के  'नायकत्व' को पेश करने की  संभावनाएं  हों ।  उसे टीआरपी से आगे कुछ सूझता ही नहीं।  डिजिटल और दृश्य मीडिया -स्त्री -पुरुष के  विमर्श में ज्यादातर   स्त्री पात्र के पक्ष में   ही अपनी आवाज बुलंद  किया करता है। बाज मर्तवा जब असलियत  उजागर होती है तो  वह सबसे पहले मैदान छोड़कर भाग   खड़ा होता है ।  यह क्या खाक लोकतंत्र का  चौथा स्थम्भ है ?
                    वेशक  लोकतंत्र का सर्वाधिक बलिष्ठ और विश्वशनीय स्थम्भ  तो भारतीय 'न्याय  पालिका ' ही है।  निचली अदालतों के कतिपय कदाचरण के सापेक्ष उच्चतम न्यायलय ने  आम तौर पर  अपना नजरिया केवल 'न्याय' पर  ही केंद्रित  रखा है। खास तौर  पर यह बहुत सुखद और आशाजनक  है कि न्याय व्यवस्था  में तमाम किस्म  की खामियों और विद्रूपताओं के वावजूद उसमे न्याय की पक्षधरता का 'सत्व'  ढृढ़  और  शाश्वत  है। घोर पूँजीवादी  सामंती व्यवस्था में भी उसे  इससे कोई फर्क  नहीं पड़ता कि  मुद्दई -मुद्दालेह या गुनहगार का रुतवा क्या है?   उसके फैसलों में इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि  वादी-प्रतिवादी स्त्री   है या पुरुष है। लेकिन समाज के सहयोग के बिना यह सिलसिला सर्वकालिक और सर्वसुलभ नहीं हो पा रहा है।
                  विगत कुछ दिनों पहले इंदौर में एक  युवती ने  अपने किसी  निकट के रिस्तेदार -सभ्रांत गृहस्थ से   कुछ रुपया उधार लिया ।  जब पुरुष ने पैसा लौटाने को कहा तो युवती ने उस सभ्रांत पुरुष को पहले तो रेप का आरोप लगाकर जेल भेजने की धमकी दी और बाद में  ऐंसा कर भी दिखाया।   कोर्ट में मामला विचाराधीन ही था कि इस मामले ने नया मोड़  आ गया । चूँकि  मीडिया ने इस मामले को इतना उछाला   था कि वेचारे निर्दोष  सभ्रांत पुरुष को उसकी पत्नी  ,सपरिजन,रिस्तेदार  और बच्चे भी  कसूरवार मान बैठे। आखिरकार  जिल्लत और बदनामी से आजिज आकर  निर्दोष पुरुष ने अपनी बेगुनाही की चिठ्ठी लिखकर आत्महत्या  कर ली।  कुछ दिनों बाद उस  बदमाश युवती ने  किसी  अन्य शख्स  क साथ भी यही खेल खेला।  उसी तरह रुपए ऐंठे और  वापिस  माँगने पर वही धमकी  दुहराई।   इस दुसरे वाले मुर्गे को भी हलाल करने कि  मंसा  से बक दिया ' तूँ  मुझे  जानता नहीं  है,मैंने तो अमुक -अमुक  के भी पैसे खा लिए और उन को भी आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया।  तूँ  है किस खेत की मूली ? मेरा रेप-मेप  कभी नहीं हुआ है ,तूँ  ध्यान से सुन ले अगर आइन्दा रूपये वापिस मागें तो तेरा भी वही हश्र होगा। ''उस आदमी ने यह बात 'टेप' कर ली।  डीआईजी और  उन  जज साहेब   को  सुनाई जो उस केश की सुनवाई  कर रहे थे । उस परिवार को भी  यह क्रूर कृत्य सुनाया जिन के निर्दोष 'पुरुष पात्र'  ने बदनाम हो कर  आत्महत्या  कर ली  थी   उस   धूर्त और चालाक हत्यारी महिला के  इस आपराधिक कुकृत्य के बारे में मीडिया ने या नारीवादी संगठनों ने कभी एक शब्द भी नहीं  कहा । हालांकि न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेकर दूध का दूध और पानी का पानी कर  दिखाया । मुकदमा चला और  महिला  को कारावास की सजा  हुई ।
                  इस तरह की जिन  महिलाओं या धूर्त  युवा लड़कियों पर   बेंडिट क्वीन की   सवारी आती है वे बिना सोचे समझे ही सार्वजनिक स्थलों पर किसी भी कमजोर से  हुज्जतबाजी  करने लगतीं हैं। पर्वों  और होटलों के बाहर आये दिन अमीर - बिगड़ैल बदनाम  युवतियाँ  शराब पीकर बीच सड़क पर उत्पात मचातीं हैं किन्तु उनकी हरकत इस लिए उजागर नहीं होती कि  उनके बाप का काला 'पैसा  बोलता है ' उलटे इनकी ओछी हरकत को चटखारे लेकर महिमा मंडित किया जाता है। कुछ संस्थाएं तो इन्हे आनन-फानन सम्मानित करने में  अपने आपको गौरवान्वित समझने लगतीं हैं। नारी वादी बड़े अभिभूत होने लगते  हैं ,वे यह क्यों नहीं समझते कि  जिस तरह पुरषों में गुंडे,लफंगे लुच्चे और ठग होते हैं उसी तरह  महिलाओं में भी अपराधी मानसिकता का बोलबाला संभव है। न केवल अपराध जगत में बल्कि राजनीति  और धर्म -मजहब में भी महिलाओं का अपराधीकरण हमेशा नजर अंदाज किया जाता रहा है।  यदि साम्प्रदायिक उन्माद के लिए अशोक सिंघल  बदनाम  हैं ,तोगड़िया जी की आलोचना होती है।  आजम खां  जी  बदनाम हैं , ओवेसी जी  संदेह के घेरे में हैं , तो महिलाओं में  भी ममता बनर्जी  ,निरंजना ज्योति ,उमा भारती   ,ऋतम्भराजी और उनके जैसी वारंगनाओं  के सौ खून माफ़ क्यों हैं ?  समाज में सिर्फ चंद्रा स्वामी ,जयेंद्र सरस्वती , रामपाल ,आसाराम ,नित्यानंद  ,भीमानदं ही  गुनहगार नहीं  हैं बल्कि इन सभी के अपराधों में कुछ  खास  स्त्री पात्र  भीं  शामिल पाये जाते हैं ।  किन्तु बहुभाषी,बहु सांस्कृतिक, बहु धर्मावलम्बी समाज, स्वछंद मीडिया और पूँजीवादी  प्रजातंत्र  का यह यक्ष प्रश्न अनुत्तरित है ।  कि  क्या  आदर्श  न्याय और दंड विधान  का अभिप्राय  केवल पुरुष  अपराधीकरण की विवेचना ही  है  ?
                     लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि -

                      जड़ चेतन  गुन  दोषमय , विश्व कीन्ह करतार।

                      संत हंस गुन  गहहिं पय, परिहरि वारि विकार।।  [रामचरित  मानस  से साभार]
                               

                    श्रीराम तिवारी   

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