मालवा ,बुंदेलखंड और उत्तर भारत के अधिकांस हिस्सों में लगातार दो-तीन दिनों तक रुक-रुक कर बारिस याने 'मावठा ' गिरने उपरान्त अब कड़ाके की ठण्ड ने दस्तक दे दी है। उम्मीद है की मार्च -२०१५ तक यह सिलसिला जारी रहेगा। मौसम विज्ञानी और पर्यावरणविद कितना ही आलतू-फ़ालतू लिखते रहें कि 'ग्लोबल वार्मिंग' से दुनिया खत्म हो जाने वाली है। पहले शीतयुद्ध फिर स्टार वार अब सभ्यताओं के संघर्ष के नाम पर या एटामिक जखीरे के नाम पर खूब धमकाया जा रहा है। इसी तरह ठंड के बारे में भी उनके अनुमान गलत निकल रहे हैं कि यह अब तो इतिहास की चीज रह गई है। लेकिन मुझे तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा ही नजर आ रहा है।
जिस तरह परिवार नियोजन ,नसबंदी जैसे कार्यक्रमों के बावजूद आतंकियों ,जेहादियों ,शैतानों ,जमाखोरों , मिलाबटियों और शोषणकारी ताकतों के साथ -शैतान की साठगांठ के बावजूद- दुनिया की आबादी कम नहीं हो रही बल्कि तेजी से बढ़ती जा रही है। उसी तरह ग्लोबल वार्मिंग या पर्यावरण संकट के बावजूद ठंड भी पहले से ज़रा ज्यादा ही बढ़ रही है। न केवल ठंड , न केवल गर्मी , न केवल वर्षा बल्कि हर चीज बढ़ रही है। वह महँगाई भी मुझे न जाने क्यों बढ़ती दिख रही है जो ओरों को कम होती नजर नहीं आ रही है. जो सरकार के आंकड़ों और मीडिया के प्रस्तुतिकरण में आज १६-१२-२०१४ को शून्य पर आ चुकी है।
किसानों की आत्महत्या ,साम्प्रदायिक दंगे और महँगे स्वास्थ्य के बावजूद - गरीबी ,भुखमरी ,प्रतिष्पर्धा ,जहालत और वेरोजगारी खूब परवान चढ़ रही है। इसके अलावा मानवीय जिजीविषा में भी मुझे तो कोई कमी नजर नहीं आ रही है। वेशक केवल इंसानियत घट रही ही याने मानवता में कमी आ रही है । बाकी सब कुछ केवल बढ़ ही रहा है। भृष्टाचार,रिश्वतखोरी , स्वार्थ ,हिंसा ,लालच, मुनाफा ,ब्याज, लूट, रेप, एफडीआई ,सूचना -संचार सोशल मीडिया और अपराधीकरण न जाने क्या-क्या ,सभी कुछ तो बढ़ रहा है। न केवल बढ़ रहा है बल्कि आदमी से बढ़ा भी हो रहा है।
अब ठण्ड बढ़ रही है। सम्पन्न वर्ग को तो वैसे भी हर मौसम में आनंद ही आनद है। सभ्रांत वर्ग यदि अपने लोभ लालच इत्यादि अपनी उन आत्मघाती परेशानियो को स्वयं मोल न ले जिनका जिक्र मजहबी और धार्मिक पुस्तकों में शिद्द्त से किया गया है। तो उसे ' जीवित शरदः शतम ' नहीं बल्कि 'जीवेत शिशर शतम' या जीवेत हेमंत शतम' का नैसर्गिक लाभ मिल सकता है। साथ ही यदि यह वर्ग ड्रग खोरी ,नशाखोरी तथा अपने वैभवपूर्ण जीवन पर स्वानुशासन रखे ,याने कुछ लगाम लगाए रखे तो वह इस तरह की ठंड के मौसम का सौ साल तक आनंद ले सकता है । बशर्ते इस वर्ग को अपने हमवतन असंख्य उन लोगों के बारे में भी कुछ जिम्मेदारी का एहसास हो ,जो इस कड़ाके की ठण्ड में झुग्गी -झोपड़ियों में रहते हैं। एलीट क्लास के महानुभावों से निवेदन है कि ग्रामीण अंचलों में रहने वालों , खेतों-खलिहानों -मचानों या 'ढबुओं ' में रहने वालों की वेदनापूर्ण जीवन शैली का आंशिक एहसास करने के लिए कम से कम मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'पूस की रात ' ही पढ़ ले। गऱीबों के लिए ठण्ड क्या ,बर्षा क्या और गर्मी क्या मायने रखती है यह जानने के लिए गरीब होना जरुरी नहीं है। यदि आप खाते -पीते सम्पन्न वर्ग से हैं और यदि आप में मानवीय संवेदनाएं जीवित हैं और सर्वहारा वर्ग के संघर्षपूर्ण जीवन से परिचित होना चाहते हैं ,उनको सम्मान देना चाहते हैं कुछ करने से पहले मेकिस्म गोर्की और निकोलाई आश्त्रोव्स्की को अवश्य पढ़ें।
श्रीराम तिवारी
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