टीवी चैनलों पर चल रही अहर्निशि राजनैतिक चखल्लस। संसद से लेकर सड़कों तक जारी लालू,मुलायम,तथा शरद यादव का 'यादवी' प्रदर्शन। पूँजीवादी अनगढ़ विपक्ष का निरर्थक प्रमाद , पूँजीवादी भृष्टतम सत्ता के खिलाफ वामपंथ का निष्प्रभावी शक्ति प्रदर्शन। मजदूर आंदोलन की बिखरी हुई प्रतिरोधक गतिविधियाँ। मीडिया के मार्फ़त धर्म-मजहब के धंधे में लिप्त सत्ता के दलालों की आग्नेय वयानबाजी। इस सबसे देश की जनता को कुछ खास लेना देना नहीं है। दरसल आवाम की नब्ज पर अभी तो केवल विकास और सुशासन का भूत सवार है। जनता के इस रुझान में 'नमो' का ही हाथ है। वेशक नरेंद्र मोदी की भी कुछ वैयक्तिक कमजोरियाँ हो सकती हैं।
वेशक वे एक ऐंसे गैर राजनैतिक संगठन के दवाव में हैं जो संवैधानिक उत्तरदायित्व से मुक्त है। अध्यात्म , दर्शन , साहित्य-कला -संगीत में भी मोदी जी कुछ खास निष्णांत नहीं हैं। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मुक्त भारत की आराधना और हिंदुत्व की वंदना शायद सत्ता प्राप्ति विषयक उनकी मजबूरी ही रही होगी । वरना वे न तो हिन्दुत्ववादी हैं और न सम्पर्दायिक. वे केवल घोर पूँजीवादी रास्ते से देश के विकाश की अवधारणा के अलम्बरदार हैं। हो सकता है हिंदुत्वादियों का अभी भी उन पर कुछ दवाव हो ! किन्तु सत्ता में आने के ९ माह बाद अब लगता है कि नरेंद्र मोदी किसी की परवाह नहीं करते। उन्हें विश्वाश हो चला है कि उन के न केवल 'नौ ग्रह' बलवान हैं अपितु भारतीय लोकतंत्र के भी कुछ तो 'अच्छे दिन ' अवश्य ही उन्हें आते दिख रहे हैं। जिन्हे उनकी बात पर यकीन न हो वे यूपीए -२ से व् उनकी तुलना कर सकते हैं।
न्यूटन का 'गति का तीसरा नियम' केवल भौतिक साइंस के लिए ही नहीं है। जड़ पदार्थों ,ब्रह्माण्डीय द्रव्यों के अलावा यह नियम चैतन्य प्राणियों ,देशों और उनकी आवाम पर भी लागू होता है। अतीत में जो-जो व्यक्ति ,समाज. क्षेत्र और राष्ट्र दमित रहे हैं अब उनके उत्थान का वक्त आ चला है। कांग्रेस का पराभव और मोदी का उद्भव इसी थ्योरी का नतीजा है। मैने भाजपा या संघ परिवार को तरजीह न देकर केवल 'मोदी' के उद्भव की धारणा को पेश किया यह कोई व्यक्तिनिष्ठ अवधरणा नहीं है। बल्कि यह अकाट्य सत्य है कि 'संघ' से और भाजपा से बड़े तो अब केवल मोदी ही हैं।
देश में आज जो शोषण कर रहे हैं , जो भृष्ट तरीके से देश को लूट रहे हैं , जो देश के साथ निरंतर विश्वाश्घात कर रहे हैं ,आने वाला कल उनके विनाश की करुण कथा का बखान करेगा। बहरहाल कश्मीर और झारखंड के विधान सभा चुनावों ने यह सावित कर दिया है कि न केवल इन राज्यों में बल्कि सम्पूर्ण भारत की जनता ने बहुमत से सावित कर दिया है कि वह 'बुलेट' से नफरत करती है। बल्कि वह 'बेलेट' की ताकत पर भरोसा करती है। अभी तो देश की आवाम का सबसे बड़ा हिस्सा हर किस्म की असामाजिक गतिविधियों से निजात पाना चाहता है। भले ही सभी विचारधाराओं की सापेक्षतः अपनी-अपनी प्रासंगिकता हो। सभी को कुछ कम कुछ जयादा जन समर्थन मिला हो किन्तु भारतीय लोकतंत्र तो निश्चय ही परवान चढ़ा है।झारखंड में वाही हारे जिन्हे हारना था। कश्मीर में वही जीते जिन्हे जनता ने जिताया। लेकिन इन चुनावों से भारत का बड़ा मान हुआ है।
निसंदेह भारतीय संविधान की लोकतान्त्रिक आकांक्षा ,चुनाव आयोग की मुस्तैदी ,युवाओं की जागरूकता से यह चुनाव रिकार्ड मतदान के लिए जाने जाएंगे। किन्तु नरेंद्र मोदी की भूमिका को नजरअंदाज करना नितांत छुद्रतापूर्ण बेईमानी होगी। वेशक भारत में सभी विचारों ,संगठनों और संस्थानों की अपनी -अपनी प्रासंगिकता है किन्तु सर्वाधिक लोकप्रिय तो अभी 'विकास और सुशासन ' का नारा ही है। किसी को यह झुठलाने की जुर्रत नहीं करना चाहिए कि इस दौर में तो मोदी ही इसका सर्वाधिक इस्तेमाल करते हुए देखे गए हैं। वेशक उनकी ही मेहनत का नतीजा है कि झारखंड में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और जम्मू कश्मीर में रिकार्ड ६० % मतदान संभव हुआ। भले ही वहां भाजपा सत्ता में नहीं आ सकी किन्तु यह कटु सत्य है कि 'मोदी लहर' से डरकर ही उग्रवादियों ने लोकतंत्र के आड़े आना कम कर दिया है।आतंकवाद और अलगाववाद से भयभीत बहुसंख्यक कश्मीरियों ने न केवल जमकर मतदान बल्कि न चाहते हुए भी उमर अब्दुल्ला को सत्ता से बेदखल कर दिया। पीडीपी को कुछ भाव दे दिया। भाजपा भी अपने परम्परागत जनधार को एकजुट करने में सफल रही। भले ही कश्मीर में कोई भी बहुमत में न आया हो किन्तु कश्मीरियत तो अवश्य ही जीत गई। भारतीय लोकतंत्र जीत गया। भारत जीत गया।
इस चुनाव की आदर्श स्थति से सारे संसार को , खास तौर से भारत के हिन्दुत्ववादियों को और पाकिस्तान के आकाओं को समझ लेना चाहिए कि झूंठ के पाँव नहीं होते। कश्मीर की आवाम ने भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया है। वे भारत में ही रहना चाहते हैं। किन्तु उनकी छोटी सी खुवाइश है कि नेतत्व उनका ही हो। भले ही नेशनल कांफ्रेंस , पीडीपी , कांग्रेस ,भाजपा या मोदी जी को अपेक्षित बहुमत न मिला हो किन्तु भारतीय लोकतंत्र की आवाज कश्मीर में अभी भी गूँज रही है।
झारखंड विधान सभा चुनाव में हिंदुत्व की जीत नहीं हुई। अशोक सिंघल ,तोगड़िया या मोहन भागवत की भी ये जीत नहीं है। वेशक वहाँ 'विकास सुशासन और बाप -बेटे के चंगुल से मुक्ति' की जीत हुई है। इस सिद्धांत के शिल्पकार निसंदेह नरेंद्र मोदी रहे हैं इसलिए झारखंड में कमल की जीत याने 'नमो ' की जीत है। इन चुनावों में सरसरी तौर पर तो लगता है कि 'मोदी लहर ' का असर है किन्तु सटीक टिप्पणी यही है कि इन चुनावों में भारतीय लोकतंत्र और ज्यादा मजबूत हुआ है।
श्रीराम तिवारी
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