हिन्दू सन्यासियों -वैरागियों ने धर्मनिरपेक्षता को मजबूत किया।
धर्मांतरण विमर्श में हस्तक्षेप के लिए कई दिनों से मेरे मन में उथल-पुथल चल रही है । चूँकि मैं कोई मजहबी उलेमा नहीं हूँ। चूँकि मैं सर्वधर्म शास्त्री नहीं हूँ। उदभट -समाजविज्ञानी भी नहीं हूँ। कोई मुमुक्षु दार्शनिक भी नहीं हूँ। कोई नृतत्व- समाजशास्त्री भी मैं नहीं हूँ। मैं इस विषय का कोई स्कालर या शोधार्थी भी कभी नहीं रहा । अतएव धर्मांतरण या 'घर वापिसी ' जैसे प्रासंगिक एवं ज्वलंत प्रश्न पर तठस्थ रहना ही उचित लगा। हालाँकि सरसरी तौर पर यह सब नितांत समाज विरोधी और राष्ट्र विरोधी तो लग ही रहा था। मनगढ़ंत खबरों और अधकचरे ज्ञान की कूबत पर इस महा भयानक विमर्श पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अभी तक बचता रहा। लेकिन जब अयोध्या के साधु संतों ने ही मेरे मन की बात कह दी तो अपना अभिमत व्यक्त करने से अपने आप को नहीं रोक पाया।
मैं ' न्यूज वेब साइट' तथा अखिल भारतीय अखाडा परिषद का शुक्रगुजार हूँ कि इन हिन्दू सन्यासियों -वैरागियों ने धर्मनिरपेक्षता को मजबूत किया। यह सुविदित है कि आल इंडिया अखाडा परिषद में कुल तरह अखाड़े हैं। सात शैव,तीन वैष्णव और तीन सिखों के अखाडे हैं। अखाडा परिषद के वर्तमान अध्यक्ष महंत ज्ञानदास जी ,राम मंदिर के प्रमुख पुजारी आचार्य सत्येन्द्रदास जी तथा रामानंदी साधु सम्प्रदाय के प्रमुख रामदिनेशाचार्य जी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े सभी संगठनों को 'जबरन धर्मांतरण' या 'घर वापिसी 'कराने पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की है। इन सभी का कहना है कि 'हिन्दू धर्म ग्रंथों में जबरन धर्मांतरण का निषेध है '। उन्होंने ये भी कहा कि 'संघ परिवार जिन हरकतों को अंजाम दे रहा है उनसे न केवल हिन्दू समाज बल्कि समस्त भारतीय समाज बुरी तरह प्रभावित होगा '। साधु संतों के इस बयान के बाद, आइन्दा यह दृष्टव्य होगा कि हिंदुत्व का राजनैतिक झंडावरदार याने 'संघ परिवार' - हिंदुत्व के असली झंडावरदार याने विराट साधु समाज के फैसले का सम्मान करता है या नहीं !
श्रीराम तिवारी
भारत में दो प्रमुख परिवार हैं। जिन्हें भरम है कि देश उनके बिना नहीं चल सकता।
आजादी के बाद देश की राजनीति में गांधी नेहरू परिवार की भूमिका बड़ी अहम रही है। कुछ लोगों का मानना है की इस परिवार ने भारत की आजादी में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया है । बहुत कुरबानियाँ दीं हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यदि आजादी के बाद यह परिवार देश की राजनीति से जुदा जाता तो बड़ी मेहरवानी होती। तब शायद भारतीय लोकतंत्र ज्यादा मजबूत होता। लोग कहते हैं कि पंडित नेहरू की जगह सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो भारत आज चीन से आगे होता। मैं कहता हूँ कि यदि बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो शायद पाकिस्तान ही नहीं बन पाता। कश्मीर विवाद का तो प्रश्न ही नहीं उठता। भारत की बर्बादी के दो प्रमुख कारण हैं .एक -धर्मान्धता। दो-जातिवाद। बाबा साहिब शायद इन बीमारियों का खात्मा कर सकते थे।
यदि आंबेडकर जी भी कुछ नहीं कर पाते ,तो जो लोग सवर्णों या ब्राह्मणों को अपने दुखों का -शोषण का कारण बताकर राजनीति कर रहे हैं , जो जातिवाद के नाम पर आरक्षण की रोटी सेंक रहे हैं, वे तो कम से कम अपनी इस नकारात्मक ग्रंथि से मुक्त हो जाते। यदि 'ऐंसा होता तो वो होता ' का सही विश्लेषण अभी भी विलम्बित है। लेकिन भारत की राजनीति को उसकी नीतियों को प्रभावित करने वाला गांधी नेहरू परिवार अपनी 'राजशाही' छवि से बाहर अभी भी नहीं हो पा रहा है ।
भारत में एक और परिवार है जो अपनी संगठन क्षमता और वैचारिक प्रतिबध्दता में आकंठ डूबकर न केवल धर्मनिरपेक्षता बल्कि लोकतंत्र को भी पसंद नहीं करता। यह विचारधारा में तो एक ही है किन्तु 'बोलचाल' के लिए - भाजपा ,शिवसेना ,बजरंगदल,वीएचपी ,हिन्दू जागरण मंच ,भारत स्वभिमान ,बीएमएस, हिन्दू मुन्नानी,आदिवासी परिषद,विद्यार्थी परिषदं इत्यादि दस -आनन हैं। इसे 'संघ परिवार' भी कहते हैं। अधिकांस लोगों का मानना है कि भाजपा का निर्माण करने ,उसे ताकतवर बनाने , उसे प्रचंड बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी के नेतत्व में सत्ता में बिठाने का श्रेय इस 'संघ परिवार' को ही है। कुछ भले लोगों का मानना है कि 'संघ' को राजनीति नहीं करनी चाहिए।
क्योंकि कहने को तो दुनिया में हम बहुत नामवर लोकतंत्र हैं। किन्तु इन दो परिवारों के हस्तक्षेप के कारण भारतीय लोकतंत्र में कहीं न कहीं कुछ कसक तो अवश्य ही बाकी है। गांधी नेहरू परिवार की समस्या यह है कि आजादी के ६७ साल बाद भी कांग्रेस का नाभिनाल ही नहीं छूट रहा। संघ परिवार की समस्या यह है कि वे जो चाहते हैं वो हो नहीं सकता। यदि वे स्कंदगुप्त विक्रमादित्य को या साक्षात वीर शिवाजी महाराज को भी धरती पर उतार लायें तो भी इस अटॉमिक युग में ,इस उत्तरआधुनिक युग में वे भी बिना धर्मनिरपेक्षता के ,बिना लोकतंत्र के -भारत राष्ट्र की रक्षा नहीं कर सकेंगे। संघ की बेजा नजरबंदी से न सिर्फ अल्पसंख्यक ,न सिर्फ हिन्दू -साधु समाज बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी संभवतः असहजता महसूस कर रहे हैं। ईश्वर गांधी नेहरू परिवार को और 'संघ परिवार ' को सद्बुद्धि दे की वे भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का शील हरण न करें। परमात्मा इन दोनों ही 'परिवारों ' से देश की रक्षा करें।
श्रीराम तिवारी
बिना व्यवस्था परिवर्तन के शोषण से मुक्ति असंभव।
भारत में सभी जातियों-धर्मों-मजहबों के गरीब किसान [जमींदार नहीं ] मजदूर एकजुट होकर जब तक इस वर्तमान महाभृष्ट अधोगामी पतनशील व्यवस्था को बदलने की मुहिम नहीं छेड़ते ,जब तक इस व्यवस्था पर काबिज शोषण की ताकतों के खिलाफ एकजुट संघर्ष नहीं करते तब तक अतीत के उस अपावन नाभिनाल से मुक्ति पाना असंभव है,जिसे वे 'धर्म परिवर्तन' या 'घर वापिसी' समझ रहे हैं।
संघ परिवार ,हिन्दू जागरण मंच ,विश्व हिन्दू परिषद तथा शिवसेना को एक बहुत बड़ी गलतफहमी हो गई है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतत्व में उनकी राजनैतिक बढ़त से तथा केंद्र या राज्य में उनकी सरकारें बन जाने से अब धर्मनिरपेक्षता अप्रासंगिक हो चुकी है। धर्म के आधार पर व्यवस्था या राज्य संचालन की सामंतयुगीन रीति-नीति से शायद उनका मोह अभी भी भंग नहीं हुआ है। तत्कालीन हमलावरों या लुटेरे आक्रमणकारियों के जघन्य अपराधों या अत्याचारों को इस २१ वीं शताब्दी में याद करना नितांत विवेकहीनता है। वेशक अंग्रेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाये जाने से पूर्व यहाँ कोई शक्तिशाली सत्ता केंद्र नहीं था। इसीलिए यायावर हिंसक आक्रान्ताओं के निंदनीय और अमानवीय आक्रमण भारत की तत्कालीन जनता को झेलने पड़े। इस्लामिक आक्रमणों से पूर्व यूनानियों ,शकों,हूणों,कुषाणों और यवनों ने निरंतर भारत पर आक्रमण किये किन्तु उन्होंने भारत के तत्कालीन धार्मिक ,सांस्कृतिक या सामाजिक स्वरूप को ध्वस्त करने की कोई चेष्टा नहीं की। अरबों ,तुर्कों ,अफगानों ,उजवेगों और मंगोलों ने अपनी लूट खसोट को जस्टिफाई करने के लिए मजहब को ढाल बनाया। ये आक्रमणकारी आक्रांता न केवल इस्लाम के बहाने अपने खजाने भरते थे। बल्कि लूट का कुछ हिस्सा खलीफा को भी दिया करते थे। भारत में उन्होंने उन जातियों या समाजों को इस्लाम के आगोश में समेटने की कोशिशें की जो यहाँ तत्कालीन सबल समाजों द्वारा शोषित किये जा रहे थे। बर्बर आक्रमण कारियों ने - निर्धन, दमित,शोषित भारतीय [ जिस अब कुछ लोग दलित-पिछड़े हिन्दू कहते हैं ] समाजों को अपने साथ मिलाने की हर संभव कोशिश की। जहाँ तलवार से काम नहीं चला ,वहां सूफियों को काम पर लगाया। जहाँ सूफी असफल रहे वहाँ लालच और लोभ का सहारा लिया गया। किन्तु स्पेन की तरह यह भारतीय समाज भी तस से मस नहीं हुआ। न केवल ब्राह्मण बल्कि दुजेतर वर्ग भी रंचमात्र अपने पथ से नहीं डिगा। जबकि उसके अपने पैतृक समाज में भी उसे घृणा का पात्र ही समझा जा रहा था।
सैकड़ों साल बाद इसी समाज को जब बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर ने भी अपने साथ बौद्धः धर्म में दीक्षित करने की कोशिश की तो ४० करोड़ दलित -आदिवासियों में से ४० लाख भी उनके साथ नहीं गए। यह विराट हिन्दू समाज तब भी टस से मास नहीं हुआ । इस समाज का कुछ हिसा इस्लाम में अवश्य चला गया किन्तु वहाँ जाकर वे शेख ,सैयद ,मुग़ल पठान तो निश्चय ही नहीं बन सके। इसी तरह जो चंद लोग बौद्ध बन गए वे भी आरक्षण की वैशाखी के वावजूद आज भी सामाजिक रूप से दलित और हेय ही बने हए हैं। वे आज भी कई जगहों पर सवर्ण या शक्तिशाली 'पिछड़ों' की दवंगई के शिकार हैं। वे आज भी सम्मान के मोहताज हैं। मंतव्य ये है कि कोई किसी भी अन्य धर्म में चला गया तो भी उसका उद्धार तो अवश्य ही नहीं हुआ। वास्तविक उद्धार तो तभी संभव है जब धर्म ,जाती के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक -सामाजिक - सांस्कृतिक -समानता की प्राप्ति के लिए न्याय संगत व्यवस्था के लिए एकजुट संघर्ष किया जाए।
विश्व हिन्दू परिषद या संघ परिवार जिन विधर्मियों' की घर वापिसी करवा रहे हैं वे उन्हें कहाँ बिठाएँगे ? कई स्कूलों में जो हरिजन ,दलित बच्चे पढ़ते हैं वे आज भी सवर्ण हिन्दुओं के मटके का पानी नहीं पी सकते। शादी ,व्याह या रोटी-बेटी व्यवहार तो बहुत बड़ी बात है मंदिरों में प्रवेश निषेध या 'मड स्नान ' जैसी दकियानूसी परम्पराएँ इस युग में भी बरकरार हैं जब की आदमी मंगल पर वसने की तैयारी कर चूका है। न केवल मजहब -धर्म बल्कि विज्ञान और टेक्नॉलॉजी भी इस प्रदूषित सिस्टम के संचालन में भागीदार बन चुके हैं। पूंजीवादी सामंती समाज का ताना बाना तब तक अक्षुण है जब तक यह व्यवस्था बरकरार है। इस व्यवस्था को बदलने के लिए जातीयता या मजहब की राजनीती की नहीं बल्कि 'वर्ग संघर्ष' की राजनीति की दरकार है।
श्रीराम तिवारी
धर्मांतरण विमर्श में हस्तक्षेप के लिए कई दिनों से मेरे मन में उथल-पुथल चल रही है । चूँकि मैं कोई मजहबी उलेमा नहीं हूँ। चूँकि मैं सर्वधर्म शास्त्री नहीं हूँ। उदभट -समाजविज्ञानी भी नहीं हूँ। कोई मुमुक्षु दार्शनिक भी नहीं हूँ। कोई नृतत्व- समाजशास्त्री भी मैं नहीं हूँ। मैं इस विषय का कोई स्कालर या शोधार्थी भी कभी नहीं रहा । अतएव धर्मांतरण या 'घर वापिसी ' जैसे प्रासंगिक एवं ज्वलंत प्रश्न पर तठस्थ रहना ही उचित लगा। हालाँकि सरसरी तौर पर यह सब नितांत समाज विरोधी और राष्ट्र विरोधी तो लग ही रहा था। मनगढ़ंत खबरों और अधकचरे ज्ञान की कूबत पर इस महा भयानक विमर्श पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अभी तक बचता रहा। लेकिन जब अयोध्या के साधु संतों ने ही मेरे मन की बात कह दी तो अपना अभिमत व्यक्त करने से अपने आप को नहीं रोक पाया।
मैं ' न्यूज वेब साइट' तथा अखिल भारतीय अखाडा परिषद का शुक्रगुजार हूँ कि इन हिन्दू सन्यासियों -वैरागियों ने धर्मनिरपेक्षता को मजबूत किया। यह सुविदित है कि आल इंडिया अखाडा परिषद में कुल तरह अखाड़े हैं। सात शैव,तीन वैष्णव और तीन सिखों के अखाडे हैं। अखाडा परिषद के वर्तमान अध्यक्ष महंत ज्ञानदास जी ,राम मंदिर के प्रमुख पुजारी आचार्य सत्येन्द्रदास जी तथा रामानंदी साधु सम्प्रदाय के प्रमुख रामदिनेशाचार्य जी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े सभी संगठनों को 'जबरन धर्मांतरण' या 'घर वापिसी 'कराने पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की है। इन सभी का कहना है कि 'हिन्दू धर्म ग्रंथों में जबरन धर्मांतरण का निषेध है '। उन्होंने ये भी कहा कि 'संघ परिवार जिन हरकतों को अंजाम दे रहा है उनसे न केवल हिन्दू समाज बल्कि समस्त भारतीय समाज बुरी तरह प्रभावित होगा '। साधु संतों के इस बयान के बाद, आइन्दा यह दृष्टव्य होगा कि हिंदुत्व का राजनैतिक झंडावरदार याने 'संघ परिवार' - हिंदुत्व के असली झंडावरदार याने विराट साधु समाज के फैसले का सम्मान करता है या नहीं !
श्रीराम तिवारी
भारत में दो प्रमुख परिवार हैं। जिन्हें भरम है कि देश उनके बिना नहीं चल सकता।
आजादी के बाद देश की राजनीति में गांधी नेहरू परिवार की भूमिका बड़ी अहम रही है। कुछ लोगों का मानना है की इस परिवार ने भारत की आजादी में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया है । बहुत कुरबानियाँ दीं हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यदि आजादी के बाद यह परिवार देश की राजनीति से जुदा जाता तो बड़ी मेहरवानी होती। तब शायद भारतीय लोकतंत्र ज्यादा मजबूत होता। लोग कहते हैं कि पंडित नेहरू की जगह सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो भारत आज चीन से आगे होता। मैं कहता हूँ कि यदि बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो शायद पाकिस्तान ही नहीं बन पाता। कश्मीर विवाद का तो प्रश्न ही नहीं उठता। भारत की बर्बादी के दो प्रमुख कारण हैं .एक -धर्मान्धता। दो-जातिवाद। बाबा साहिब शायद इन बीमारियों का खात्मा कर सकते थे।
यदि आंबेडकर जी भी कुछ नहीं कर पाते ,तो जो लोग सवर्णों या ब्राह्मणों को अपने दुखों का -शोषण का कारण बताकर राजनीति कर रहे हैं , जो जातिवाद के नाम पर आरक्षण की रोटी सेंक रहे हैं, वे तो कम से कम अपनी इस नकारात्मक ग्रंथि से मुक्त हो जाते। यदि 'ऐंसा होता तो वो होता ' का सही विश्लेषण अभी भी विलम्बित है। लेकिन भारत की राजनीति को उसकी नीतियों को प्रभावित करने वाला गांधी नेहरू परिवार अपनी 'राजशाही' छवि से बाहर अभी भी नहीं हो पा रहा है ।
भारत में एक और परिवार है जो अपनी संगठन क्षमता और वैचारिक प्रतिबध्दता में आकंठ डूबकर न केवल धर्मनिरपेक्षता बल्कि लोकतंत्र को भी पसंद नहीं करता। यह विचारधारा में तो एक ही है किन्तु 'बोलचाल' के लिए - भाजपा ,शिवसेना ,बजरंगदल,वीएचपी ,हिन्दू जागरण मंच ,भारत स्वभिमान ,बीएमएस, हिन्दू मुन्नानी,आदिवासी परिषद,विद्यार्थी परिषदं इत्यादि दस -आनन हैं। इसे 'संघ परिवार' भी कहते हैं। अधिकांस लोगों का मानना है कि भाजपा का निर्माण करने ,उसे ताकतवर बनाने , उसे प्रचंड बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी के नेतत्व में सत्ता में बिठाने का श्रेय इस 'संघ परिवार' को ही है। कुछ भले लोगों का मानना है कि 'संघ' को राजनीति नहीं करनी चाहिए।
क्योंकि कहने को तो दुनिया में हम बहुत नामवर लोकतंत्र हैं। किन्तु इन दो परिवारों के हस्तक्षेप के कारण भारतीय लोकतंत्र में कहीं न कहीं कुछ कसक तो अवश्य ही बाकी है। गांधी नेहरू परिवार की समस्या यह है कि आजादी के ६७ साल बाद भी कांग्रेस का नाभिनाल ही नहीं छूट रहा। संघ परिवार की समस्या यह है कि वे जो चाहते हैं वो हो नहीं सकता। यदि वे स्कंदगुप्त विक्रमादित्य को या साक्षात वीर शिवाजी महाराज को भी धरती पर उतार लायें तो भी इस अटॉमिक युग में ,इस उत्तरआधुनिक युग में वे भी बिना धर्मनिरपेक्षता के ,बिना लोकतंत्र के -भारत राष्ट्र की रक्षा नहीं कर सकेंगे। संघ की बेजा नजरबंदी से न सिर्फ अल्पसंख्यक ,न सिर्फ हिन्दू -साधु समाज बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी संभवतः असहजता महसूस कर रहे हैं। ईश्वर गांधी नेहरू परिवार को और 'संघ परिवार ' को सद्बुद्धि दे की वे भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का शील हरण न करें। परमात्मा इन दोनों ही 'परिवारों ' से देश की रक्षा करें।
श्रीराम तिवारी
बिना व्यवस्था परिवर्तन के शोषण से मुक्ति असंभव।
भारत में सभी जातियों-धर्मों-मजहबों के गरीब किसान [जमींदार नहीं ] मजदूर एकजुट होकर जब तक इस वर्तमान महाभृष्ट अधोगामी पतनशील व्यवस्था को बदलने की मुहिम नहीं छेड़ते ,जब तक इस व्यवस्था पर काबिज शोषण की ताकतों के खिलाफ एकजुट संघर्ष नहीं करते तब तक अतीत के उस अपावन नाभिनाल से मुक्ति पाना असंभव है,जिसे वे 'धर्म परिवर्तन' या 'घर वापिसी' समझ रहे हैं।
संघ परिवार ,हिन्दू जागरण मंच ,विश्व हिन्दू परिषद तथा शिवसेना को एक बहुत बड़ी गलतफहमी हो गई है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतत्व में उनकी राजनैतिक बढ़त से तथा केंद्र या राज्य में उनकी सरकारें बन जाने से अब धर्मनिरपेक्षता अप्रासंगिक हो चुकी है। धर्म के आधार पर व्यवस्था या राज्य संचालन की सामंतयुगीन रीति-नीति से शायद उनका मोह अभी भी भंग नहीं हुआ है। तत्कालीन हमलावरों या लुटेरे आक्रमणकारियों के जघन्य अपराधों या अत्याचारों को इस २१ वीं शताब्दी में याद करना नितांत विवेकहीनता है। वेशक अंग्रेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाये जाने से पूर्व यहाँ कोई शक्तिशाली सत्ता केंद्र नहीं था। इसीलिए यायावर हिंसक आक्रान्ताओं के निंदनीय और अमानवीय आक्रमण भारत की तत्कालीन जनता को झेलने पड़े। इस्लामिक आक्रमणों से पूर्व यूनानियों ,शकों,हूणों,कुषाणों और यवनों ने निरंतर भारत पर आक्रमण किये किन्तु उन्होंने भारत के तत्कालीन धार्मिक ,सांस्कृतिक या सामाजिक स्वरूप को ध्वस्त करने की कोई चेष्टा नहीं की। अरबों ,तुर्कों ,अफगानों ,उजवेगों और मंगोलों ने अपनी लूट खसोट को जस्टिफाई करने के लिए मजहब को ढाल बनाया। ये आक्रमणकारी आक्रांता न केवल इस्लाम के बहाने अपने खजाने भरते थे। बल्कि लूट का कुछ हिस्सा खलीफा को भी दिया करते थे। भारत में उन्होंने उन जातियों या समाजों को इस्लाम के आगोश में समेटने की कोशिशें की जो यहाँ तत्कालीन सबल समाजों द्वारा शोषित किये जा रहे थे। बर्बर आक्रमण कारियों ने - निर्धन, दमित,शोषित भारतीय [ जिस अब कुछ लोग दलित-पिछड़े हिन्दू कहते हैं ] समाजों को अपने साथ मिलाने की हर संभव कोशिश की। जहाँ तलवार से काम नहीं चला ,वहां सूफियों को काम पर लगाया। जहाँ सूफी असफल रहे वहाँ लालच और लोभ का सहारा लिया गया। किन्तु स्पेन की तरह यह भारतीय समाज भी तस से मस नहीं हुआ। न केवल ब्राह्मण बल्कि दुजेतर वर्ग भी रंचमात्र अपने पथ से नहीं डिगा। जबकि उसके अपने पैतृक समाज में भी उसे घृणा का पात्र ही समझा जा रहा था।
सैकड़ों साल बाद इसी समाज को जब बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर ने भी अपने साथ बौद्धः धर्म में दीक्षित करने की कोशिश की तो ४० करोड़ दलित -आदिवासियों में से ४० लाख भी उनके साथ नहीं गए। यह विराट हिन्दू समाज तब भी टस से मास नहीं हुआ । इस समाज का कुछ हिसा इस्लाम में अवश्य चला गया किन्तु वहाँ जाकर वे शेख ,सैयद ,मुग़ल पठान तो निश्चय ही नहीं बन सके। इसी तरह जो चंद लोग बौद्ध बन गए वे भी आरक्षण की वैशाखी के वावजूद आज भी सामाजिक रूप से दलित और हेय ही बने हए हैं। वे आज भी कई जगहों पर सवर्ण या शक्तिशाली 'पिछड़ों' की दवंगई के शिकार हैं। वे आज भी सम्मान के मोहताज हैं। मंतव्य ये है कि कोई किसी भी अन्य धर्म में चला गया तो भी उसका उद्धार तो अवश्य ही नहीं हुआ। वास्तविक उद्धार तो तभी संभव है जब धर्म ,जाती के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक -सामाजिक - सांस्कृतिक -समानता की प्राप्ति के लिए न्याय संगत व्यवस्था के लिए एकजुट संघर्ष किया जाए।
विश्व हिन्दू परिषद या संघ परिवार जिन विधर्मियों' की घर वापिसी करवा रहे हैं वे उन्हें कहाँ बिठाएँगे ? कई स्कूलों में जो हरिजन ,दलित बच्चे पढ़ते हैं वे आज भी सवर्ण हिन्दुओं के मटके का पानी नहीं पी सकते। शादी ,व्याह या रोटी-बेटी व्यवहार तो बहुत बड़ी बात है मंदिरों में प्रवेश निषेध या 'मड स्नान ' जैसी दकियानूसी परम्पराएँ इस युग में भी बरकरार हैं जब की आदमी मंगल पर वसने की तैयारी कर चूका है। न केवल मजहब -धर्म बल्कि विज्ञान और टेक्नॉलॉजी भी इस प्रदूषित सिस्टम के संचालन में भागीदार बन चुके हैं। पूंजीवादी सामंती समाज का ताना बाना तब तक अक्षुण है जब तक यह व्यवस्था बरकरार है। इस व्यवस्था को बदलने के लिए जातीयता या मजहब की राजनीती की नहीं बल्कि 'वर्ग संघर्ष' की राजनीति की दरकार है।
श्रीराम तिवारी
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